कहानी 'वो जो भी है, मुझे पसंद है' - स्वाति तिवारी | Hindi Kahani by Swati Tiwari


कहानी

वो जो भी है, मुझे पसंद है - 

स्वाति तिवारी

कहानी 'वो जो भी है, मुझे पसंद है' - स्वाति तिवारी | Hindi Kahani by Swati Tiwari

"कब आ रही हैं आप?"

"परसों रात की फ्लाइट है... अच्छा मैं तुम्हें अपना टिकट मेल करती हूँ। तुम समय देख लेना।"

"जी, आप बेफिक्र होकर आइए मैं आपको लेने पहुंच जाऊंगी।"

वही आवाज किसी खनकती हुई चूड़ियों सी, चहकती चिड़िया सी। जाने कौन-सा सम्मोहन था इस आवाज में क्लास में पढ़ाते हुए किसी ना किसी प्रश्न को पूछकर मैं उस आवाज को सुनती थी। कई साल हो गए, अब तो पता भी नहीं कौन छात्रा कहाँ है। इस बीच पाँच-छह नई बेच छात्राओं की आई और चली गई और हेड आफ द  डिपार्टमेंट बनते-बनते अब यूं भी पोस्ट ग्रेजुएट या एम.फील पीएचडी के ही छात्र सम्पर्क में आते हैं। उनमें वो खनक और चहक दम तोड़ चूकी होती है। कितनी यादें ताजा होने लगी उस फोन से। उन दिनों कालेज में फर्स्ट इयर में आने वाले बच्चे खूब अच्छे लगा करते थे। एकदम ताजे गुलदस्ते की तरह महकते हुए और मेरी भी एक दम नयी-नयी पोस्टिंग थी। जीवन का एक सपना पूरा हुआ था कालेज में मनोविज्ञान की प्राध्यापक बनने का। बाबूजी का भी यही सपना था "तुम्हें मनोविज्ञान की प्रोफेसर बनना है बस।" माँ चिढ़चिड़ती थी पागल हो जाएगी लड़की तुम्हारे इस मनोविज्ञान के चक्कर में। हमारे बाबूजी तो कहते थे मनोविज्ञान पढ़ना पागलखाने जाने जैसा है। अरे लोग अपनी मनस्थिति नहीं समझ पाते तुम इसे जमानेभर के दिमाग समझाते फिरोगे क्या? होम साइंस क्या बुरा है लड़की के काम का विषय है। जीवन में भी आय और डिग्री की डिग्री मिल जाए। "गया जमाना टेबल क्लॉथ पर फूलपत्ती काढ़ने का और आने वाले समय में तुम्हारी ये देशी रसोईशास्त्र की जरूरत धटती जाने वाली है।" बाबूजी अपना तर्क देते।

क्यों आने वाले समय में पागलखाने बढ़ने वाले हैं क्या? कोई भविष्यवाणी हुई है क्या? दरअसल माँ दुनियादारी खूब जानती थीं नहीं चाहती थीं कि मैं उलटे सीधे विषय पढ़कर सिरफिरी हो जाऊं। पर माँ के उलाहने समय के साथ कमजोर पढ़ते गए और पिताजी और मेरा मनोविज्ञान का रूझान फलता गया। उस साल यह लड़की "अमिता" पास के किसी कस्बे से होस्टल में आयी थी उसे अपने विषय बदलना थे। एक दिन मुझे स्टाफ रूम के सामने रोककर पूछ बैठी -"मेम! आपकी हेल्प चाहिए।"

"बताओ।"

"मेम मैंने फार्म में गलत विषय भर दिए बदलना है। नोटिस बोर्ड पर नोटिस लगा है पन्द्रह तारिख तक विषय बदलने वाले आवेदन जमा करने के लिए।"

"हाँ तो क्यों बदलना है?" मैंने चलते-चलते पूछा था।

"मेम फार्म भरते वक्त विषयों की वेल्यूव पता नहीं थी ना बाद में लगा समाजशास्त्र की जगह कोई और विषय लेना चाहती हूँ?"

"क्या सोचा तुमने?" मैं उसी से हल निकलवाना चाहती थी।

मेम मैं आपकी क्लास में बैठना चाहती हूँ?

"क्यों?" मैं रूक गई थी चलते चलते।

मेरी जो रूममेट है ना वो आपकी प्रशंसक है मेम वो कहती है क्या पढ़ाती हैं। मेम मनोविज्ञान अरे, इतना इन्ट्रेस्टिंग विषय है कि बस.... तो मेम गलत विषय ठीक हो सकता है ना? वो चहक उठी थी।

मैंने अपनी लम्बी चोटी को झटकने के साथ पीछे फेंकते हुए उसे ध्यान से देखा लड़की मासूम लगी "विषय गलत नहीं होते कभी समझी।"

"सॉरी मेम मेरा मतलब था पसंद...." वो थोड़ा सहमी।

तो समाजशास्त्र की जगह मनोविज्ञान भर दो एक सीट खाली हो रही है मैं तुम्हें रिकमेंड कर दूंगी।

"यस....ऽ.....मेम" फिर उसने उस बेच में सबसे ज्यादा अंक लिए और टॉपर बनी... हमारे कालेज से मास्टर्स नहीं किया सुना था। वह लंदन के किसी बड़े कालेज से मास्टर्स कर रही थी। उसी अमिता से अभी-अभी बात हुई। वह आजकल यूएसए की एक बड़ी यूनिर्वसिटी में मनोविज्ञान की प्रोफेसर है। और एक इन्टरनेशलन सेमीनार में उसी ने मुझे भी स्पेशल गेस्ट स्पीकर के रूप में इन्वाइट किया है।

वही अमिता मुझे भूली नहीं, उसी ने नेट पर मेरे शोधपत्र देखकर सेमीनार में मुझे बुलाया था। गर्व से मेरा मन-मस्तिष्क भर उठा था। कभी-कभी हमारे छात्र हमें गुरू दक्षिणा में ऐसे ही सरप्राइस देते रहते हैं। कुछ दिनों पहले एक सेमीनार में एक और छात्रा ने मुझे सिंगापुर की यात्रा करवा दी थी और अब दूसरी बाद अमेरिका का निमंत्रण। मैं खुश थी, बाबूजी से ज्यादा माँ खुश थी। मैं दो माह से लगभग रोज ही अमिता को याद करती मन ही मन शाबाशी देती वाह। अमिता तुमने मेरा नाम रोशन कर दिया। जाने की तमाम तैयारी वीजा, पेपर, बुक्स, पावरपाइंट प्रेजेन्टेशन सारा काम निपटाते दो महिने कहां गए पता ही नहीं चला। हालांकि अमेरिका की सुरक्षा व्यवस्था के किस्से सुन मन ही मन एक भरा भी बना रहा पर आश्वस्त भी थी कि अमिता है वहाँ रहने, रुकने, खाने के शाकाहारी होने की समस्या का समाधान तो है। लेपटाप पुराना हो गया था। नया खरीदा लाइटवेट वाला, नई जीन्स, कुर्ते, सूट खरीदे, प्रेसेन्टेशन के लिए बार्डरवाली साड़ी सब तैयारी जैसे उत्साह से भरी हुई थी।

थोड़ी देर में अमिता का फिर फोन था "मेम आपको जेएफके इंटरनेशलन एयरपोर्ट पर उतरना है। इमिग्रेशन का फार्म में भरकर मेल कर रही हूँ आपको आइडिया रहेगा।"

"ठीक है अमिता थैंक्यू।"

"हाँ मेम याद आया आप कोई भी सीड्स वाले आयटम मत रखना, लिक्विड, अचार, स्प्रे सब लगेज में डालना, स्वेटर शॉल साथ में रखना। कोई भी परेशानी हो तो इन नम्बरों पर सम्पर्क कर लिजिएगा - ये सभी आपकी हेल्प करेंगे।"

"ओ. के."

क्या ले जाऊँ, उसके लिए साड़ी, शॉल, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। सोचा इंडियन है फिर कस्बे से निकलकर आगे बड़ी है साड़ी का मोह नहीं छोड़ सकती कभी ना कभी तो साड़ी पहनती ही होगी। व्रत-त्यौहार, दिवाली में तो साड़ी विदेशों में भी पसंद की जाती है। बाजार से कुछ अच्छी सिल्क की साड़ियाँ खरीद बूटिक वाली से मेचिंग में कुछ रेडिमेट ब्लाउज इस शर्त पर लिए की साइज में नहीं आए तो वापस ले ले। फोटो देखी थी उसकी नेट पर अभी भी वैसी ही है दुबली-पतली।

साडी मेचिंग स्टोन ज्वेलरी, पर्स, कुछ कुशन वाल हेंगिंग खरीदे, नमकीन और मिठाई भी। उम्र में बड़ी हूँ फिर उसकी शिक्षक खाली हाथ कैसे जा सकती हूँ। यही सोचकर।

निकलने से पहले एक बार फिर उसका फोन था "मेम लगेज का वेट ध्यान में रखीएगा वरना सामान एयरपोर्ट पर फेंकना पड़ता है।"

"हाँ अमिता वेट करवा लिया है।"

मन बेहद खुश था। टीचर हूँ अपने स्टूडेंट के साथ माँ जैसा रिश्ता हो जाता है। अच्छा लग रहा था कि वह मेरी इतनी चिन्ता कर रही है। मैं बेटों की माँ हूँ लग रहा था बेटी की कमी पूरी हो रही है‍ अमिता से मिलकर। और इन सब के बीच फ्लाईट अपने 16 घण्टे पूरे कर संयुक्त राज्य अमेरिका के सबसे बड़े हवाई अड्डे पर खड़ी थी। एक घण्टा लगा कस्टम और अन्य फारमेलिटीस को पूरा करने में, लगेज के लिए ट्राली याद आयी तो याद आया अमिता ने बताया था फाइव डालर डालने पर ट्राली  का लॉक खुलेगा आप डालर की चेंज जरूर रखिएगा। ट्राली ली बाहर आयी तो अमिता बेहद खूबसूरत फूलों का गुलदस्ता लिए खड़ी थी मेरे वेलकम के लिए। लाइए उसने ट्राली ले ली। हम पार्किंग की तरफ बढ़ रहे थे।

"अमिता, तुम बिल्कुल वैसी ही हो।"

"थेक्यूं मेम, आप भी तो वेसी ही लग रही है। बस थोड़ा सा वेट पुटआन किया है आपने। और आपके वो लम्बे बलखाते बाल? क्या हुआ उनको?"

"सब झड़ गए तो कटवा लिए।" मैंने उदास होते हुए कहा था।

"ओह! आपको पता है मेम मैंने विषय आपके सुन्दर बालों को देखकर बदला था, आपकी वो लम्बी चोटी। मेम हमारा ग्रुप आपको देखने के लिए लॉबी में खड़ा रहता था।"

सच!

जी! हम आपकी नकल भी करते थे। चोटी लहरा-लहरा कर आप गजगामिनी सी चलती थी।

"हट पगली। गजगामिनी तो अब हूँ। एकदम मोटी।"

"नहीं मेम अच्छी लग रही हैं।"

"कितना चलना है अमिता?"

"मेम....ऽ.... ये जॉन एफ कैनेडी अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डा है। एकतरह से अमेरिका प्रवेश द्वार है। हब है एयर लाइन्स का। सबसे बड़ा हवाई अड्डा जहाँ से सीधी उड़ाने हैं दुनियाभर के महाद्वीपों के लिए।"

"आप दूसरी फ्लाईट लेती तो नेवार्क या लागार्डिया भी उतर सकती थी वे छोटे ऐयरपोर्ट है। पर मैने सोचा इस बहाने आप जेएफके को देख भी लेंगी। आपको पता है  यह 1948 में इंटरनेशनल हुआ ओर 1963 में जान एफ केनेडी को समर्पित किया गया।''

''यू नो मेम जान कैनेडी संयुक्त राज्य अमेरिका के 35 वें राष्ट्रपति थे।''

"आय नो''

हम उसकी शानदार गाड़ी में अपना लगेज डाल रहे थे - उसने सामान रखने के बाद एक जर्म फ्री से हाथ धो लिए फिर अपनी गाड़ी में रखा मफेन ओर चाय लाटे मेरे सामने कर दिया आपको चाय पसंद है ना इसलिए यहाँ भी आजकल जिंजर चाय लाटे मिलती है मैं लेती आयी।

''ये बगैर अंडे का है ना मफैन?"

''जी-- वेजिटेरियन है पर बटरवाला है अब इतना तो चलता है ना मेम।"

अच्छा था स्वादिष्ट मफेन। फिर मैं थक भी गई थी और भूख भी लगी थी। चाय ने सारी थकान उतार दी। ग्लास भर चाय थी रास्ता सुन्दर और साफ सुतरा। गाड़ी अमिता ड्राइव कर रही थी बड़ी गाड़ी थी। मैने देखा वहाँ सारी गाडियाँ ही शानदार होती है। छोटा सा टू बडे़ रूप अपार्टमेंट था उसका सामने ही यूनिवर्सिटी का गेस्ट हाऊस उसने पूछा'' मेम आप कहाँ रूकना पसंद करेंगी?

"ऐसा करते है अभी तो गेस्ट हाऊस में पाँच दिन रूकती हूँ फिर तुम्हारे साथ रहूंगी। अभी तुम्हें भी सेमीनार की व्यस्तता रहेगी फिर आज तो मेने सोना ही है। मैने सोचा उसके परिवार को डिस्टर्ब ना हो इसलिए।"

पाँच दिन में मैं तीन दिन सेमीनार में गयी दो दिन तो उद्घाटन और समापन वाले थे। समापन के बाद वह गेस्ट हाऊस आ गयी थी मेरा लगेज लेने चलिए मेम धर चलते हैं।

घर एकदम व्यवस्थित, आधुनिक सुविधाओं से सजा, फ्रिज खाद्य सामग्री से सम्पन्न था। दूध, ज्यूस, फल, अंड, फलेवर्ड दही, चपाती, पराठा, अंकूरित अनाज, सब कुछ रखा था। अचानक चाय का दूध निकालते हुए फ्रिज देख कर बाबूजी की याद आ गई वे माँ से कहते थे देखना एक दिन ये तुम्हारे रसाई शास्त्र का सब बाजार में रेडिमेड मिलेगा और पाककला डिब्बों में बंद हो जायगी। सोचते हुए मैं मुस्करा उठी।

अमिता अपने लिए आमलेट बना रही थी पूछने लगी ''क्या हुआ मेम?''

''कुछ नहीं बाबूजी का मनोविज्ञान और माँ के होम साईन्स की बहस याद आ गई पर माँ भी गलत नहीं थी देखों आमलेट के लिए अंडा तो फेंटना ही पडे़गा।''

"नहीं मेम कहाँ देखिए अंडे का यलो पार्ट (याक) हटाकर आजकल डिब्बों में तैयार मिलता है बस तवे पर डालना होता है उसके हाथ में पकड़ा अंडे का डिब्बा दिखाया।''

मैं चाय और आलू का पराठा ले कर औरे अमिता आमलेट और ज्यूस लेकर सौफे पर आ बैठे ।

"अमिता तुम इतनी सुन्‍दर हो, कान्फ्रीडेंट हो, सेल्फ डिपेंट हो। तुमने शादी क्यों नहीं की?" मेरे सवाल पर वह उठी उसने किचन में जाकर फ्राइगें पेन में पढ़ा एक और आमलेट ब्रेड में दबाया फिर खाते-खाते ही जवाब दिया बस कभी जरूरत ही नहीं पड़ी।

''क्यो...''

''बस ऐसे ही।''

"कोई पंसद ही नहीं आया कभी।''

''क्या तुम्हारे पेरेंट्स ने तुम्हें शादी के लिए बाध्य नहीं किया?''

"किया था ना मेम, पर कब तक करते। एक दिन मैंने उन्हें बता दिया था...।"

उसकी बात सुनकर मुझे लगा तो मानसिक रूप से बीमार है, अपनी प्रिय छात्रा की किसी स्वीकारोक्ति से मैं स्तब्ध थी' तुम तुम पागल हो गई हो क्या? मुझे लगा वो शर्मिदा होगी पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, उसके अपने तर्क थे पर मेरे पास अब विरोध के शब्द नहीं मिल रहे थे।

मेम इसमें बीमार होने या पागल होने जैसी बात आप कैसे कह सकती है?

और नहीं तो क्या कहूँ, यह विकृति है अमिता।

"आप इसे विकृति कह रही है मेम?"

"तो क्या कहूँ?" मेरे अंदर शब्द लिसलिसे से हो आए थे, कुछ सूझ ही नहीं रहा था उसके तर्क को नकारने के लिए ऊपर से गुस्सा आ रहा था मन कर रहा था एक जोरदार थप्पड़ जड़ दूँ उसके गाल पर।

"मेम आप तो सिंगमंड फ्रायड को पढ़ती रही है न, आपने ही एक बार फ्रायड को पढाते हुए समझाया था ना? आप तो मनोविज्ञान की टीचर हैं। मेम मुझे लगता है फ्रायड ठीक ही कहते रहे हैं यह विकृति (परवरसन) नहीं यह उलटाव (इनवरसन) है वे इसे बीमारी विमारी नहीं मानते?"

"फ्रायड सिर्फ पढने ने और समझने के मनोवैज्ञानिक है पगली, जीवन में उतारने के नहीं। तुम समझ क्यों नहीं रही मेरा मतलब?"

"अच्छा बताइये इसको कौन तय करेगा?"

"अमिता, मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है उसका कौन-सा व्यवहार बीमारी कौन-सा नहीं यह हमारी सामाजिक परम्पराएं तय करती हैं।"

नहीं नई रिसर्च करती है। आप जानती हैं कि मानव व्यवहार की कुछ चीजें गुणसूत्रों से तय होती हैं। मेरा मानना है मनुष्य का जन्म उसकी निर्धारित मानसिकता के साथ ही होता है। यह तो एक तरह की यौन अभीरूचि है ना अभी रूचि बीमारी कैसे हुई? मेम आप माने या न माने, पर मेरा मानना है सब केमिकल लोचा ही है, हमारे हामोंस पर निर्भर।

मैं विचलित हो रही थी तय नहीं कर पा रही थी फ्रायड को कोसूं या इस पगली को जो फ्रायड इस हद तक ......... ? पहली बार मुझे लगा मनोविज्ञान को सबजेक्ट की तरह पढ़ाया जान शायद खतरनाक और घातक भी हो सकता है अगर समझ कच्ची या जरूरत से ज्यादा पक्की हो तो।

मनोविज्ञान आज पहली बार मुझे माँ की शब्दावली से मिलता जुलता लगा ऐसा विषय ज्यादा पढ़ लो तो पागलखाने जाना पड़े। माँ को इस विषय में यह जानकारी उस जमाने में थी इसका मतलब है माँ के पास एक तीक्ष्ण पाठकीय विलक्षणता थी। वे अपनी चिन्दी जैसी छोटी-छोटी फुर्सतों में भी किताबें पढ़ती रहती थी। खूब लेखक पढ़े हैं उन्होंने। शायद सात्र और सिमाने भी। पहली बार माँ की वैचारिक प्रज्ञा पर गर्व-सा हुआ।

"अमिताऽऽऽ.... मैं विश्वास नहीं कर पा रही हूँ तुम्हारी बात का? यह नैतिक नहीं है और ना ही प्राकृतिक! तुम इसमें कहाँ फंस गईं?"

"इसमें नैतिकता और प्राकृतिकता जैसा नहीं है मेम। ये सब हमारे भारतीय समाज के ढकोसले हैं। परम्पराएं खुद बनाते हैं पर वे सब के लिए प्राकृतिक नहीं होती मेम। अनिच्छा के रिश्ते भी तो नैतिक या प्राकृतिक नहीं होते ना!"

"हाँ सो तो है, नहीं! मैं तुम्हारे तर्कों का समर्थन कैसे करूँ। मैं इसे हमेशा गलत और विकृत संरचना मानती हूँ?"

मेम बुरा मत मानिएगा पर किसी के मानने ना मानने से व्यक्ति की प्रवृति को नहीं बदला जा सकता। आप तो विशेषज्ञ हैं मनोविज्ञान की, आपको मानना चाहिए कि प्रत्येक सेक्स क्रोमोसोम में, चाहे वह एक्स-एक्स हो या एक्स-वाई, उस आवेग का शारीरिक आधार निहित रहता है जो विकासमान व्यक्ति का मेल या फीमेल होना निश्चित करता है। ऐसे में जब दो अलग-अलग वंश जातियों के दो व्यक्तियों का संयोग होता है तो उसमें अक्सर संतान (बच्चे) स्वाभाविक नहीं होती। कई बार लड़का है पर उसमें लड़कियों के गुण ज्यादा होते हैं यानि नर संतान में भी मादा के स्वभाव की प्रवृत्ति हो सकती है। आपने उस रिसर्च के बारे में पढ़ा ही होगा पंखियों पर की गई है। इस प्रकार की प्रवृति के दो तरह के भाव पैदा हो सकते हैं, एक प्रबल और एक दुर्बल होता है।

हमारी बात को अमिता ने वहीं विश्राम देते हुए पूछा "क्या आपने मुझसे पहले ऐसा कोई केस देखा?"

"नहीं! मैं प्रोफेसर हूँ डाक्टर नहीं?"

एक्सेक्टली यही कारण है आप प्रोफेसर यानि शिक्षक जो अपने विद्यार्थी का चरित्र गढ़ रहा होता है - वह अपने प्रिय विद्यार्थी को आदर्श देखना और बनाना चाहता, आप को इसीलिए इतना अजीब लग रहा है।

"क्या अजीब अमिता?"

"मेम आपको पता होगा ही कि यह व्याभिचार नहीं है? यह प्रवृति बचपन में, अक्सर यंग एज या टिनएजर्स में ही प्रकट हो जाती है दूसरी महत्वपूर्ण बात और सुन लिजिए "मैंने खूब पढ़ा है इस पर.... मेरी रिसर्च भी चल रही है जानती हैं आप रिजल्ट क्या आ रहा है?"

"क्या?"

"यही कि यह ऐसे व्यक्तियों में पाई जाती है जो बुद्धि और चरित्र की दृष्टि से औसत से ऊँचे दरजे के होते हैं।"

मैं हँसने लगी उठ खड़ी हुई... मुझे लगा नैतिक रूप से यौन विपरिततायुक्त व्यक्ति अक्सर अपने ऊपर सामान्य आचार शास्त्र को लागू करते हैं और अपनी स्थिति को औचित्यपूर्ण साबित करने का प्रयास करते हैं।

"पर मेरी हंसी विद्रुप थी - अमिता के दिल पर कोई आघात कर गई थी मैं उठकर अपने रूम में आ गई आँखें बंद कर लेट गई.... मैं थक गई थी इस मुश्किल चर्चा से, उसे हर्ट करना नहीं चाहती थी पर कर बैठी थी। शाम तक हम अलग-अलग रहे कोई किसी से बोला नहीं।

मुझे लगा मैं गलत हूँ, क्या पड़ी है मुझे दुसरे के फटे में टाँग अड़ाने की? यह मनुष्य का नितान्त व्यक्तिगत मामला है, बेकार ही उसको अपनी मास्टरी की हेकड़ी में नाराज कर दिया मैंने। मैं दुखी हो रही थी उठी दोनों के लिए बढिया काफी बनायी और उसके रूम में ले गई "क्या अमिता नाराज हो गई क्या?"

वह उठकर बैठ गई, "अरे नहीं मेडम, मुझे लग रहा है मैंने आपको हर्ट किया बताकर।"

"अरे नहीं, कोई अपना होता है वही तो बताता है।" मैंने उसे कॉफी पकड़ाते हुए कहा।

थोड़ी देर में हम वॉक पर निकल आए थे.... रास्ते में अमिता ने मेरे वैवाहिक जीवन पर ही सवाल पूछ डाला "मेम क्या आपको लगता है कि आप अपने विवाह से खुश हैं?"

अमिता.... विवाह ऊपर वाला तय करता है और जोड़े तो स्वर्ग से बन कर आते हैं उसमें खुश होने ना होने की गुंजाइश कहाँ होती है?

"तो शायद असामाजिक या असामान्य कहे जाने वाले सम्बन्ध भी तो ऊपर से ही या भले ही किसी तरह से ही तय होते होंगे वे स्वर्ग ना भी बनते हों पर उनकी दुनिया में जो है वह सिर्फ आनंद है... यानि स्वर्ग। पर जो स्त्री-पुरुष के जोड़े स्वर्ग से आते हैं ना मेम वे धरती पर कितने नरक पैदा कर देते हैं? लड़ते हैं, झगडे होते हैं। बच्चे पैदा करते हैं। विवाहेत्तर सम्बन्ध होते हैं, फिर मर्डर होते हैं, बलात्कार होते हैं..... क्या ये स्वर्ग है?" अमिता अब भी अपने तर्क अपनी प्रज्ञा से दे रही थी... और मैं अपनी ही धुन में उसके बताएं नरक में स्वर्ग खोजती सोच रही ..... हाँ अमिता शायद तुम ठीक हो... एक बार में फ्रायड ने कहा था कि "अधिकांश विवाहों के भाग्य में आत्मिक निराशा और शारीरिक वंचना ही लिखी होती हैं। सुनो अमिता हम भारत में अपने विश्वविद्यालय में एक सेमीनार करवाते हैं उसे तुम कंडक्ट करोगी मैं आर्गनाइज्ड करती हूँ।"

"विषय क्या होगा मेम?"

"सोचते हैं?

मेम विषय होगा "मनोवैज्ञानिक विवाह यानि रचनात्मक वैयक्तिक संबंध के रूप में विवाह साथियों के बीच एक सिद्धि है?"

उसके इस प्रश्न पर एक पल में मेरी नजरों में अपना सम्पूर्ण वैवाहिक जीवन गुजर गया.... मैंने उसका समर्थन करते हुए उसका हाथ थाम लिया "हाँ अमिता बहुत ही धीमी गति से मिलने वाली सिद्धि। तभी तो विवाह को सात जन्मों का कहा गया है... लोग कहते हैं किसी-किसी को सात जन्मों के बाद भी नहीं मिलती.... ऐसी सिद्धि हैं यह.....।" उसने मेरे हाथ पर अपना दूसरा हाथ रख दिया "मेम जानती हैं आप मुझे बेहद अच्छी लगती हैं?"

मैंने आँखें तरेरी - "क्या इरादा है तुम्हारा?"

दोनों ठहाका लगाते हुए पास के मैक्सिकन रेस्त्रां में घुस गए - शाकाहारी भोजन के लिए इस एरिया में एक मात्र स्थान।

अमिता ने पूछा "क्या खाएंगी मेम"

चिपोतले वेज राइस बाउल और क्या मिलेगा मेरे लिए घासफूस का?

अरे मेम चिपोतले अकेले नहीं बरितो और क्लेफोती भी खाते हैं ना।

स्वाद बदल कर तो देखिए - दाल-रोटी का आनंद व्यंजन की रेसीपी बदलने से कैसे बदल जाता है?

"बारितो - क्या है?"
कहानी 'वो जो भी है, मुझे पसंद है' - स्वाति तिवारी | Hindi Kahani by Swati Tiwari

"रोटी, राजमा, कच्ची सब्जी विथ चीज। केवल एक रोल में बंद।"

"हाँ चलो ट्राय करते हैं।"

अमिता से मिलने के बाद समलैंगिकों के प्रति मेरी धारणा कि वे व्याभिचारी होते हैं। बदलने लगी। वे भी उतने ही भले, मिलनसार, ऊर्जावान और स्नेही होते हैं। मुझे लगा एक रूझान के कारण किसी को खारिज नहीं करना चाहिए।

अमिता भी तो रोज हमारी तरह ही उठकर स्नान, पूजा ध्यान, व्रत, आस्था सबमें विश्वास करती है। वही खाती है जो सब खाते हैं। वही जीवन है, वही प्रखरता ।

इंडिया वापस लौटकर मैंने एक प्रस्ताव अपनी प्राचार्या की टेबल पर रखा - अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार करवाने का।

प्राचार्य ने मुझे बुलवाया "ये क्या बेहूदा विषय उठा लाई आप वहाँ से?"

बेहूदा नहीं मैडम - आप समाजशास्त्री हैं मैं मनोवैज्ञानिक? अब तक मैं भी इस विषय को बेहूदा ही मानती थी - पर अब जब मैं ऐसे किसी व्यक्ति को जानती हूँ, तब से मुझे लगता है एक निश्चित उम्र के बाद यौन मनोविज्ञान उपेक्षा का नहीं बल्कि समझाए जाने का विषय है। इस विषय पर चर्चाएं, संवाद और खोज होनी चाहिए। सेमिनार में यह होगा क्योंकि वहाँ अन्तर्राष्ट्रीय मनोविज्ञानी आएंगे। भाषा की अश्लिलता नहीं होगी बल्कि एक दृष्टि पैदा होगी एक समझ हमारे विमाग में क्लीनिकल मनोविज्ञान के छात्रों को एक शोध का विषय मिलेगा?

मेडम ने सिर पकड़ लिया "यह विषय नहीं?"

"क्यों नहीं? हमारे पूर्वज बन्दरों, लंगूरों, चिम्पेन्जी, में समलैंगिकता पर शोध हुए हैं। बहुत सी बर्बर जातियों में यह आज भी है। मिस्र देश के लोग अपने देवता होरस और सेत को समलैंगिंक रिलेशनशीप वाला बताते हैं।"

मेडम का गुस्सा सातवें आसमान पर था यह भारत है-- मिस्र नहीं? यहाँ सांस्कृतिक सभ्यता है।

मेडम हमारी संस्कृति में ऐसे कई उदाहरण मिल सकते हैं।

मेडम ने सर ऊपर किया प्रश्नवाचक निगाहों से जैसे कह रही हो क्या बकवास करती हो?

हाँ।

मैंने शांति से मेडम को समझाया, "मैडम जीवन इतना विपुल, निष्कलुष और सहज है कि इसके लिए कोई मान्यता अंतिम नहीं हो सकती।" मेडम ने सर ऊपर उठाया चाय मंगवाई तो मुझे लगा शायद वे मेरी बात सुनना चाहती हैं। चाय का कप उठाते हुए मैंने बात आगे बढ़ाई "न जाने हम कहाँ जाना चाहते हैं और कहाँ पहुँच जाते हैं। न जाने किन-किन पगडण्डियों से चलते हुए यहाँ तक आए हैं।"

सृष्टि सिद्धांत की सीमाओं में धिरी रहती तो दुनिया में ऊर्जा हताशा और अवसार के अलावा कुछ ना होती? रास्ते संवाद से ही निकलते हैं एक बात और समझने की है कि अश्लिलता कुछ और नहीं केवल शब्द और आचरण का ना समझ तरीका है।

हमारी चाय खत्म हो गई थी और प्रिंसिपल मेडम ने कप रखा और कलम उठा ली वे कुछ कहे बगैर नोटशीट पर हस्ताक्षर कर रही थीं। मैं समझ नहीं पायी कि यह हस्ताक्षर मेरे समझाने के हैं या पिण्ड छुड़ाने के?

पर हस्ताक्षरित नोटशीट, मुझे पकड़ाते हुए वे मुस्कुराई। बढ़िया और शानदार सेमिनार होना चाहिए, यह ज्वलन्त सामाजिक विषय है।

मैं खड़ी होने लगी तो वे बोली बैठो। मैं बैठ गई वे कुछ कहना चाहती थी - पर बात चेहरे के भावों में उतरने की, शायद वे शब्द खोज रही थी फिर "थैंक्स, आज तुमने मेरी समझ मेरी दृष्टिकोण को इतनी सहजता से बदल दिया - मेरा बेटा भी.....। पर मैं उसे हमेशा तिरस्कृत.....क्यों?"

मैं उठ खड़ी हुई वहीं से अमिता को फोन मिलाने।

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'निकट' जनवरी-2015 में प्रकाशित कहानी

स्वाति तिवारी

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2 टिप्पणियाँ

  1. हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शुक्रवार (03-04-2015) को "रह गई मन की मन मे" { चर्चा - 1937 } पर भी होगी!
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    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. अभी बहुत कुछ बाकि है इस दिशा में ..इतनी आसानी से किसी सोच को बदलना मुमकिन नही होता .. पर विषय बढ़िया है .. :)

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