इन्शाँ वही इन्शाँ है कि इस दौर में जिसने
देखा है हकीक़त को हकीक़त की नज़र से
~ 'चाँद' कलवी
ऐसा कुछ पूर्वनियोजित नहीं था कि अल्पना मिश्र की इस कहानी पर कोई टिप्पणी करनी है. लेकिन कुछ ऐसा हो ही गया कि करनी पड़ रही है. दरअसल कहानी को मैंने रात मोबाईल पर पढ़ा, "कहानी इतनी छोटी कैसे हो सकती है?" दिमाग यह सोच कर ज़रा पशोपेश में था, ज्यादा से ज्यादा 1500 शब्दों की कहानी लग रही थी, अब चूंकि मोबाईल में शब्दों की संख्या नहीं पता चल रही थी तो ऐसा ही कुछ अंदाज़ा लगाया. अगली सुबह जब कंप्यूटर पर कहानी को देखने के लिए खोला, तो हतप्रभ रह गया... 'माइक्रोसॉफ्ट वर्ड' में नीचे शब्दों की संख्या 4800 से अधिक दिख रही थी, लगा कि कुछ तकनीकी दिक्कत होगी, वर्ना कहाँ 1500 और कहाँ 4800, तीन गुने से भी अधिक... ... ... ऐसा प्रवाह है 'नीड़' का, सैलाब की तरह दिल को छूती हुई बहती है यह कहानी. उस सच, उस किरदार की कहानी जो सबके जीवन में होता है, पुरुषवादी समाज का एक वह दुखद-सच जो हमारे इतने-करीब बस गया है कि अब हम यह सोचते ही नहीं कि 'ऐसा नहीं होना चाहिए' 'वी हैव बिकम सो यूस्ड टु इट'... कहानी में लिखे गए दुखद-सच को लेकर, हम अगर इतने असंवेदनशील न हुए होते, तो यह कहानी चर्चा में ज़रूर होती. बहरहाल देर आये दुरुस्त आये ... ... अब पढ़िए और बताइयेगा की कितने किरदार है आपकी ज़िन्दगी में जो इस कहानी की "बॉबी" है? बॉबी - एक शादीशुदा स्त्री जो पति से कहती है "मैंने भी बच्चे को तुम्हारे (पति)मुकाबले तैयार न किया तो.....".
भरत तिवारी
नीड़
- अल्पना मिश्र
यह इत्तिफ़ाक ही था कि उस शहर में वे हमें इस तरह दिख गईं। सिटी बस में बैठी हुई, एकदम खिड़की के पास। उनके पीले रंग की साड़ी कुछ खिड़की की हवा के साथ थिरक उठी तो बस उसे ही ठीक करने के लिए वे खिड़की पर लटक सी आयी थीं। ठीक उसी एक क्षण में उन्होंने हमें सड़क पर चलते हुए देख लिया था और कई पल इस इत्तिफ़ाक से भौंचक्की रह गई थीं। बस के स्टार्ट होने की तेज गड़गड़ाहट के कारण हमने भी ऐसे ही बस की तरफ देख लिया था। किसी अपने को देख लिए जाने की उम्मीद के बिना ही। आवाज की प्रतिक्रिया जैसा यह देखना था। पहले मैंने देखा फिर हिमेश ने देखा। मैंने जो देखा तो बस का रूट पढ़ने की कोशिश भी उसमें शामिल कर ली लेकिन हिमेश ने पहली ही नजर में पीली साड़ी को देख लिया और उस दिशा में कुछ कदम आगे बढ़ गये। बिना मुझसे कुछ कहे। हिमेश के पहचानने की शक्ति बड़ी तीव्र है। कभी एक बार हल्का सा देखे व्यक्ति को भी वर्षों बाद देखने पर पहचान लेते हैं। फिर वे तो उनकी बचपन की साथ पढ़ी साथ खेली कूदी सखी थीं। मैंने उन्हें पहले नहीं देखा था। मेरी शादी के समय भी वे लोग नहीं आ पाये थे। कहते हैं कि बहुत पहले वे लोग कहीं और चले गए थे। बहुत पहले से मतलब, मेरे अंदाज में कोई आठ दस साल पहले से है। उनके पिता का ट्रांसफर हुआ था, फिर बाद में उनकी शादी हो गई थी। लड़कियों की शादी जल्दी करने का एक पुराना रिवाज बना ही हुआ है। इसीलिए तो वे शादी करके एक बच्चे की माँ भी बन चुकी थीं और यहाँ हिमेश की शादी अब हुई थी।
मैं उन्हें अगर पहले देख भी लेती तो क्या होता! पहचान न पाती। अगर पहले एक बार देखा भी होता तो भी पहचान पाना मेरे लिए आसान न होता। मुझमें ऐसी कुशाग्र बुद्धि का सर्वथा अभाव रहा है। इसलिए मेरा उन्हें देखना ‘देखने जैसा ’ ही था। ‘देखने जैसा’ से मतलब है कि जैसे हम चलते हुए तमाम दुनियाबी चीजों को देखते हैं- सड़क को, पेड़ को, डाकखाने के साइनबोर्ड को, ढाबे पर उबलती चाय को, तमाम गाड़ियों, तमाम लोगों को...... यहाँ तक कि तमाम होर्डिंग भी पढ़ते चले जाते हैं। लेकिन यह सब देखना होता है। इसके पीछे निर्वेद जैसा लगने वाला कोई भाव होता है या शायद वह भी नहीं होता- न जाना, न पहचाना, न अजनबीपन से भरा। न जाने कैसे बस देखते चले जाते हैं- हजारों हजार घंटे इसकी भेंट चढ़ जाते हैं, दिमाग को इसका इतना अभ्यास हो चुका होता है कि न वह बेचैन होता है न कुछ बोलता है, बस, देखता है तब तक, जब तक कि इस देखने में कुछ अलग, कुछ असंभावित न आ टपके।
तो वे असंभावित आ टपकी थीं। बस रुकी हुई थी और अब स्टार्ट की घड़घडाहट से भर उठी थी। हिमेश दौड़ कर बस तक पहुंचे।
‘‘ओ बॉबी, बॉबी! अरे, यहाँ हो!’’ उनकी चहकती आवाज पता नहीं बॉबी तक पहुँची या नहीं पर बॉबी ने उनके चेहरे पर पहचान के आत्मीय चिन्ह पढ़ लिए। तब जल्दी से हाथ के इशारे से फोन करना जैसा कहा और अपनी हथेली पर फोन नंबर लिख कर हथेली खिड़की से बाहर लटका दिया। सड़क का एक अलग ही शोर था जो बस के स्टार्ट वाले शोर के साथ मिल कर अपना वर्चस्व बढ़ाये जा रहा था। कोई यात्री सामान चढ़ा ले जाने में समय खींचे जा रहा था, इसलिए बस चलती-चलती सी रुकी थी। इस मौके का फायदा उठा कर हिमेश ने हथेली पर लिखे नम्बर याद कर लिए। फिर मेरी तरफ संकेत कर बता दिया कि यही है मेरी पत्नी। बॉबी ने प्यार से कुछ कहा।
‘‘तुम से बात करूंगी। घर आओ। हो न अभी यहाँ।......’’ ऐसा कुछ वे बोले जा रही थीं। खिड़की से मुँह निकाल कर, हाथ हिला-हिला कर चेहरे पर प्रसन्नता की लहक से भर-भर कर कितना कुछ कहती, न कहती चली जा रही थीं। आखिरकार बस हमारी नजरों से ओझल हो गई।
बॉबी के पिता के ट्रांसफर हो कर चले जाने के बाद से हिमेश भी उनसे नहीं मिले थे। इतने वर्षों बाद बॉबी को अचानक यहाँ देख कर उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। अपने बचपन के दिन याद करने लगे। मुझे तमाम सारी कहानियाँ सुनाईं, जिन्हें मैं इससे पहले इतने विस्तार से नहीं जानती थी। कहानियाँ वैसी ही थीं जैसी कि बचपन की हुआ करती हैं, पर हिमेश बराबर बल देते रहे कि इन्हें मैं खास मानूं। आत्मीय मित्रताएं ऐसे ही गमकती हैं, यह सोच कर मैंने मान लिया। तब हिमेश को लगा कि कहीं मैं इसे प्यार मोहब्बत के किस्से की तरह न देख लूं, इसलिए तत्काल कहा कि कुछ ऐसा वैसा न समझ लेना। बस, दोस्ती थी उससे भी और उसके भाई से भी।
‘‘ठीक है बाबा, मैं कहाँ कुछ और समझ रही हूँ।’’ मैंने मुस्कराकर कहा था। इस पर वह मुस्करा दिये। फिर जैसे खुद को तसल्ली देते हुए बोले -’‘अब जो मर्जी समझो।’’ मानो उन्हें मेरी बात पर भरोसा नहीं हुआ था।
‘‘जो भी हो।’’ मैंने और गहरा मुस्करा कर जताया कि मुझे क्या तुम कुछ भी करो लेकिन भई, मुझे है तो सारा सरोकार तुम्हीं से ओर तुम्हारी इसी बात से। इस पर हिमेश ने मेरी बाँह पकड़ कर बड़ा प्यारा हल्का धक्का दिया। मैंने गिरने को होने नाटक ज्यादा किया तो उन्हें एकदम अफसोस होने लगा। तब मैंने बता ही दिया कि नहीं बाबा, ऐसा गिरने को नहीं हुई थी। तब उन्होंने नाराजगी दिखाते हुए दुबारा हल्का धक्का दिया। इस पर मुझे हँसी आ गई।
बॉबी की शादी के बारे में थोड़ा सा मैं भी जानती थी, बस, उतना ,जितना कि परिवार से छन कर आ गया था। सबका ख्याल था कि अच्छी शादी हुई है। बॉबी को सभी ने सुंदर कहा था। आज देखने में ठीक ही लगी थीं। बॉबी को सभी ने उज्ज्वलवर्णा कहा था- गोरी, धवल। आज वैसी गोरी नहीं लगी थीं। कुछ-कुछ सांवला सा या धूप से जला-जला सा रंग लगा था। प्रसन्नता से चीखती हुई वे वैसी शालीन भी नहीं लगी थीं जैसा कि उन्हें देखने वालों ने बताया था। बल्कि बस की खिड़की से झांकते हुए उन्होंने जैसी जल्दबाजी में अपनी हथेली पर नम्बर लिख कर खिड़की से नीचे लटकाया था, उससे पता चलता था कि वे इस क्षण अपने को भूल चुकी हैं। यहाँ तक कि जो पल्ला कुछ देर पहले तक खिड़की की तरफ उड़ा था और जिसे उन्होंने समेटने की कोशिश में मुँह निकाला था, वही अब उनके ध्यान में नहीं था। शायद घर पहुँचने की बहुत मजबूरी न होती तो वे बस से उतर पड़तीं या शायद खिड़की तोड़ कर निकल आतीं और पहले हिमेश के गले लग जातीं या शायद पहले मेरे गले लिपट जातीं, ठीक-ठीक नहीं कह सकती क्योंकि वे जिस तरह मुझे छू लेने को विकल हो उठी थीं और मैं कोशिश-भर उनके हाथ के सहलाते स्पर्श में अपने को समेटने में लगी थी, उससे तो यही लगता था।
आत्मीयता के इस एक छोटे अह्लादपूर्ण क्षण में सब कुछ खनक उठा था। हिमेश एकदम से उनसे ढेर सारी बातें कर लेने को बेचैन हो उठे थे। मैं भी अब तटस्थ नहीं रह गयी थी।
‘‘देखो बरखा! मुझे ठीक एक घंटे बाद याद दिला देना कि इस नम्बर पर बात करना है।’’ फिर एक मिनट बाद ही दुबारा कहते हैं कि ‘‘देखो बरखा, मुझे कहीं ये नम्बर भूल न जाए, ऐसा करो अपने पर्स से डायरी- पेन निकालो, वही, जिसमें तुम फोन नम्बर्स नोट करती हो, उसी में लिख लो।’’
‘‘अरे बरखा! तुम्हें तो सबसे पहले ये नम्बर लिखना चाहिए था। कहीं भूल न जाए। अच्छा चलो अभी नोट कर लो।’’
‘‘देखो बरखा, आज ही चार बजे तक चले चलते हैं, ठीक रहेगा न! ये तुम्हारा यहाँ का बाजार देखना टाला भी तो जा सकता है। ’’ मेरे कुछ कहने के पहले ही हिमेश ने घड़ी देखी।
‘‘ये लो, ढाई तो बज ही रहा है। चलो वापस होटल में चलते हैं या तुम बताओ यहीं से कुछ खा के चलें? लंच का टाइम है।’’
‘‘अरे बरखा! तुम्हें क्या पता होगा, मैंने सुना है कि बॉबी की शादी खूब बड़े घर हुई है। इसके ससुर ने बाराबंकी में क्या शानदार कोठी बनवाई है। पिता जी कभी गए थे तो देख आए थे। पता नहीं ये बॉबी का पति यहाँ कब आ गया? था तो ये कहीं विदेश में, ऐसा सुना था। खैर हैं तो सब पैसे वाले। महलों में बैठी हैं महारानी। हमारी तरह चप्पलघिसाई की जिंदगी थोड़े न है।....’’ हिमेश ने फिर घड़ी देखी।
‘‘इस वक्त कहाँ जा रही थी, वह भी सिटी बस से?’’ थोड़ी देर बाद कुछ रूक कर सोचते हुए हिमेश ने कहा।
‘‘खा लें कुछ?’’ मैंने उनकी उतावली पर मजाक करते हुए कहा। वे कुछ झेंपे।
‘‘हाँ, हाँ, चलो, चलो।’’
फिर हम एक ठीक ठाक से दिखने वाले रेस्टोरेंट में खाना खाने आ गए। कुछ खास मन के बिना ही हिमेश ने खाना आर्डर कर दिया। उनका मूड देख कर मेरा भी मन कुछ ऐसा खाने का नहीं रह गया।
‘‘हो सकता है किसी स्कूल में पढ़ा रही हों। कुछ टीचर जैसा लुक लग रहा था।’’ मैंने बस ऐसे ही सूझ आई एक बात कह दी। लेकिन हिमेश ने मेरी बात पकड़ ली।
‘‘हाँ, स्कूल से लौटने का समय भी है यह। ठीक कह रही हो। एकदम हो सकता है। पर यार ये गर्मी धूप में सिटी बस से क्यों जाना, ये बात कुछ जम नहीं रही। ’’
‘‘अब चलो खाओ भी। वहीं चल कर सब पूछ लेंगे।’’ फिर हमने खाना खाया।
मैंने कभी सोचा नहीं था कि ऐसी परिस्थितियों में पत्नियों को क्या करना होता है? कुछ समझ में न आए। मैं बॉबी के बारे में बहुत जानती भी नहीं थी। घर में जब पुरानी कॉलोनी के बच्चों की चर्चा होती तो उनलोगों की भी होती थी। बॉबी के पिता और भाई कभी-कभार कहीं किसी जगह मेरे ससुराल के सदस्यों से भेंटा जाते थे तो कुछ समाचार ताजा हो जाता था। पर यह इतना अनिश्चित और दूर का सा था कि इसे एक मुकम्मल सूचना की तरह नहीं पढ़ा जा सकता था। इसलिए बॉबी को जान लेने का कोई दावा पेश करना मेरे लिए संभव नहीं था। मेरी और हिमेश की शादी को अभी एक साल ही हुए थे और हम सबकी सलाह पर अपनी पहली सालगिरह इस तीर्थ नगरी में मनाने आए थे। इस तीर्थ नगरी में ही सालगिरह मनाने आने के पीछे भी कई कारण थे जो मुझसे न कहते हुए भी कह दिए गए थे। एक कारण तो औलाद की कामना से जुड़ा था। घर से निकलते-निकलते भी मेरी सासु जी मेरे कान में तमाम मनौतियों को मानने की तमाम इच्छाएं जता चुकी थीं। दूसरा कारण सासुजी की किसी पुरानी मनौती के हिसाब से देवता को प्रसाद चढ़ाना भी था। तीसरे यह शहर नजदीक था और कम खर्च में हमारी कहीं घूमने जाने की इच्छा को पूरा कर देता था, कहीं और जाने की बजाय दो दिन में घूम कर ओर प्रसाद चढ़ा कर भी लौटा जा सकता था। ससुराल में दो दिन किसी तरह मेरी अनुपस्थिति से उत्पन्न परेशानियों को स्थगित रखे रहा जा सकता था। खैर सब मिला कर असल कारण औलाद की कामना थी और जिसे हमने आते ही सबसे पहले देवता के द्वार पर शीश नवा कर पूरा कर लिया था। असल घूमना तो आज ही था। सुबह निकलते-निकलते ही देर हो गई थी और अब यहाँ के प्रसिद्ध बाजार जा पाने का आसार भी धुंधलाने लगा था।
पर जो भी हो, यह तो तय था कि घरवालों की बातचीत के आधार पर मैं बॉबी को होनहार मान सकती थी, समझदार भी, शालीन, सभ्य, वगैरह भी..... मुझे दिक्कत ही क्या थी! पड़ोस में ऐसे परिवार अक्सर मिल जाया करते हैं जो बहुत घुल मिल कर अपनों जैसे हो जाते हैं। वे जब चले जाते हैं तो बहुत दिन तक उनकी कमी सालती भी है फिर धीरे-धीरे सब सामान्य हो जाता है। पर अगर चले गए परिवार के बारे में यदा कदा खोज खबर मिलती रहे तो अपनेपन के एक सिरे को पकड़े रहने जैसा इत्मीनान भी बना रहता है।
अल्पना मिश्र
मुख्य कृतियाँ
कहानी संग्रह : भीतर का वक्त, छावनी में बेघर, कब्र भी कैद औ' जंजीरें भी
उपन्यास : अन्हियारे तलछट में चमका
संपादन : सहोदर (संबंधों की श्रृंखला : कहानियाँ)
सम्मान :
शैलेश मटियानी स्मृति सम्मान (2006), परिवेश सम्मान (2006), रचनाकार सम्मान (भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता 2008), शक्ति सम्मान (2008), प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान (2014)
संपर्क :
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-7
मोबाईल: 09911378341
ईमेल: alpana.mishra@yahoo.co.in
मुख्य कृतियाँ
कहानी संग्रह : भीतर का वक्त, छावनी में बेघर, कब्र भी कैद औ' जंजीरें भी
उपन्यास : अन्हियारे तलछट में चमका
संपादन : सहोदर (संबंधों की श्रृंखला : कहानियाँ)
सम्मान :
शैलेश मटियानी स्मृति सम्मान (2006), परिवेश सम्मान (2006), रचनाकार सम्मान (भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता 2008), शक्ति सम्मान (2008), प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान (2014)
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आखिरकार हिमेश ने बॉबी के कहे अनुसार ठीक एक घंटे बाद फोन किया था। फोन बॉबी के पति ने उठाया-’‘कौन है?’’
‘‘बॉबी से बात हो सकती है?’’
‘‘आप कौन? बॉबी को कैसे जानते हैं?’’ पति ने बिना किसी लाग लपेट के साफ़-साफ़ और बुलंद आवाज में पूछा।
‘‘मैं बॉबी के बचपन का दोस्त..... मतलब बचपन में हमलोग एक ही कॉलोनी में रहते थे, पड़ोसी मतलब तभी से जानते हैं मतलब पूरा परिवार ही ......’’ हिमेश ने कोशिश-भर कहने जैसा कहा।
‘‘ऐ बॉबी!’’ पति ने आगे कुछ नहीं कहा और फोन बॉबी को दे दिया।
‘‘कब तक हो तुम लोग?’’ बॉबी ने बहुत संतुलित आवाज में कहा। हिमेश को यह अच्छा नहीं लगा। फिर भी वह अपनी चहक नहीं रोक सका।
‘‘अरे बॉबी, कहो तो हमलोग अभी आ जाएं। घर पर ही हो न?’’
‘‘एक मिनट रुको।’’ कह कर बॉबी ने अपने पति से कुछ पूछा। आवाज बहुत स्पष्ट नहीं थी पर लगा कि वह इसी बारे में उनसे पूछ रही हैं।
‘‘हाँ आ जाओ। साढ़े चार तक आओ।’’ बॉबी ने बहुत निरपेक्ष तरीके से कहा, फिर अपना पता कहा और फोन रख दिया। उस समय खुशी के साथ हिमेश कह रहे थे कि तुम्हारे पति से भी मिलना हो जायेगा। पर बॉबी ने यह सब नहीं सुना।
हिमेश ने बॉबी के स्वर की निरपेक्षता भाँप ली थी। थोड़ा मायूस हो कर उन्होंने मुझसे कहा भी कि ठीक से नहीं बोल रही थी। लेकिन अब कह चुके थे तो जाना ही था। फिर हिमेश जाने की इच्छा से अपने को रोक भी नहीं पा रहे थे।
इसी के बाद शाम की पाँच का वह घंटा बजा था, जब हम बॉबी के दरवाजे पर पहुंचे थे। दरवाजा दस्तक के कुछ देर बाद खुला। खुद बॉबी ने खोला था और भरसक चेहरे को प्रसन्न बनाते हुए हमें ड्राइंगरूम में बैठाया। इतने औपचारिक मिलन की उम्मीद हमें नहीं थी। दोपहर बस में खिड़की से दिखती, खुशी से छलछलाती ‘बॉबी’ से यह ‘बॉबी’ अलग थी। हिमेश को संतुलन बनाने में कुछ वक्त लगा। हम चुपचाप ड्राइंगरूम में बैठ गए। तब हमारा ध्यान गया कि वहाँ पहले से ही एक आदमी बैठा है। अजीब उनींदा सा, कुर्सी पर पाँव फैलाए। उसके आस पास अखबार और एक दो पत्रिकाएं बिखरी हैं। एक खाली तश्तरी और चाय का एक कप भी पास ही पड़ा है। एक चम्मच उसकी कुर्सी के पास नीचे रखा है या कि गिर गया है और उठाने में आलस्य या बेध्यानी के कारण या जिस भी और कारण से पड़ा है। एक तौलिया, जिसका रंग कभी सफेद रहा होगा, उसी कुर्सी के सिरहाने लटका है, जिस पर वह आदमी उनींदा सा बैठा है। ऐसा लगता है कि बैठा नहीं है बल्कि तमाम बेतरतीब सामानों के साथ वह भी पड़ा हुआ है या बेध्यानी में कुर्सी पर छूट गया है।
‘ये मेरे पति हैं।’ बॉबी ने निर्विकार भाव से कहा।
तब हमदोनों ने उन्हें नमस्ते किया।
हम दोनों बॉबी के इस तटस्थ परिचय देने के ढंग से हिल गए। हिमेश ने मेरी ओर देखा। जिसका अर्थ था कि क्या यार, यह सब तो सोचा ही नहीं था। हमदोनों को ही उस आदमी को बॉबी के पति के रूप में देखना बड़ा कठिन लग रहा था। अजीब मिचमिची आँखें लिए वह हमें देखे जा रहा था। हम थे कि उस तरफ नहीं देखना चाहते थे, पर देख ले रहे थे। देखना न चाहते हुए भी देखना एक अजीब उलझन में डालनेवाला था।
‘‘और कैसा चल रहा है?’’ हिमेश ने ही अपने को पहले स्थिर किया।
‘‘हूँ, ठीक।’’ ऐसा बॉबी ने बिना बोले सिर हिला कर कहा।
तब पति महाशय अपनी जगह से उठ कर हमारी तरफ आ कर बैठ गए।
‘‘मेरा परिचय तो ये करा नहीं पाती हैं। कौन कहेगा कि पढ़ी लिखी हैं! पढ़ा लिखा कर मैंने नौकरी लगवाई लेकिन अकल तो नहीं पैदा कर सकता हूँ। क्यों ?’’ पति महोदय ने अजीब ढंग से हँसते हुए कहा।
‘‘चलिए मैं ही अपना परिचय देता हूँ। मैं डॉक्टर हूँ। ऊपर ही अपना दवाखाना मतलब क्लिनिक बना रखी है। घर का घर देखना हो जाता है, काम का काम। यह कम बड़ी सुविधा है क्या? आप ही बतावें? आयुर्वेद का हूँ। आयुर्वेद समझते हैं न?’’
‘‘जी, थोड़ा बहुत जानते हैं।’’ हिमेश ने बड़ी शालीनता से कहा।
‘‘लेकिन यह नहीं जानते होंगे कि आयुर्वेद बड़ी चीज है। यूनानी वगैरह से भी आगे है। यूनानी जानते हैं? नहीं जानते होंगे। आजकल लोग अंग्रेजीदा बने घूमते हैं, अपने देश की बड़ी चीजें, विश्वप्रसिद्ध चीजें नहीं जानते। एक से एक डॉक्टर, रिसर्चर हुए हैं हमारे यहाँ। धन्वंतरि क्या हैं? आप बताइए? चरक के बारे में जानते हैं? नहीं न? च्यवन कौन थे? बताइए?’’ पति महाशय ने हिमेश की तरफ चुनौती उछाली।
हम किसी डिबेट के लिए तैयार हो कर नहीं आए थे। एकदम ही दूसरे मूड से आए थे। फिर भी पति महाशय के मूड को देखते हुए हमें इस डिबेट में भाग लेने के लिए कुछ कुछ मजबूर सा होना पड़ा।
‘‘हम ज्यादा नहीं जानते।’’ बचने की गरज से हिमेश ने जोड़ा।
‘‘कैसे जानेंगे? अपने देश की संस्कृति का नुकसान इसीलिए तो हो रहा है। आप जैसे पढ़े लिखे लोग अपने ही देश की इतनी बड़ी उपलब्धियों के बारे में कुछ नहीं जानते। मैं तो देखिए साफ बात कहने वाला आदमी हूँ। इनके मायके का लिहाज कर के आदमी सही बात तो कहना नहीं छोड़ सकता। क्यों? मैं तो ऐसे लोगों को पढ़े लिखे की श्रेणी में भी शामिल किए जाने के खिलाफ हूँ। क्यों? बुरा लगा आपको?’’ फिर वे हलका सा हँसे। वही अजीब सी हँसी।
‘‘देखिए बुरा मानने की बात नहीं है। तथ्य को समझने की बात है।’’ उन्होंने जोर दे कर कहा।
मैं चुप थी। बॉबी भी चुप बैठी थीं। घर कुछ खास साफ सुथरा नहीं दिख रहा था। एक बूढ़ी स्त्री बीच-बीच में जरा सा झांक जाती थी। समझ में नहीं आता था कि वह कौन है? मैली-कुचैली इतनी थी कि उसे घर का काम करने वाली भी माना जा सकता था, पर उसका झांकना उसके अधिकार भाव को दिखा रहा था।
‘‘आप कहाँ पढ़ा रही हैं? ’’ मैंने पति महाशय के महान वचनों के बीच में टोकती सी ध्वनि निकाली। यह ध्वनि महान भाषण में खलल की तरह गिरी। बॉबी कुछ कहतीं इससे पहले पति ने कहना शुरू किया।
‘‘अच्छा जानना चाहती हैं इनकी नौकरी के बारे में। मैं बताता हूँ। इ क्या बता पावेंगी? कुछ जानती हों तब न। क्या थीं शादी के बखत और अब देखिए, कैसे ट्रेनिंग दे कर चमका दिया है मैंने। बी. ए. में पढ़ रही थीं। आजकल बी. ए. पास गली-गली मिल जायेंगे। मैला ढोने वाले से पूछिए, बी. ए. पास निकलेगा। मैंने पढ़ाया, कितनी मेहनत की इनके पीछे। तब आज नगरपालिका के प्राइमरी स्कूल में पढ़ा रही हैं। पूछिए कै दिन स्कूल जाती हैं। मैंने ऐसा जबरदस्त बंदोबस्त कराया है कि महीने में एकाध रोज के अलावा जाने की जरूरत नहीं है। ऐसी बढ़िया नौकरी मिलेगी कहीं? पूछिए, सच है कि नहीं? पूछिए! बताओ बॉबी!’’ उन्होंने बॉबी की तरफ मुड़ कर कहा।
‘‘जी, जी।’’ बॉबी ने बहुत मद्धिम आवाज में, कुछ परेशान सी होते हुए कहा।
‘‘अब मिमिया क्या रही हो। ठीक से बताओ। मायके के लोगों को देख कर तो बिल्ली भी शेर हो जाती है।’’ वे फिर हँसे।
इस कमरे में हँसने पर अधिकार सिर्फ उन्हीं का था।
‘‘अच्छा जाओ, चाय बनाओ।’’ उन्होंने बॉबी को निर्देश दिया।
‘‘आप ने हमारी कोठी देखी? इतनी आलीशान कोठी कम ही लोग बनवा पाते हैं। हमारे बाप दादे तो जंमींदारी की ठसक से रहे लेकिन अब वह सब नहीं रह गया है। यही है थोड़ा बहुत जो हमारे हिस्से में है।’’ इतना कहते-कहते वे दुबारा अपनी विशाल कोठी के गर्व से चमकने लगे।
तभी एक चार पाँच साल का बच्चा उस बूढ़ी स्त्री की पकड़ को एकदम मात देता हमारे सामने आ कर खड़ा हो गया। जिस फुर्ती से वह आया था, वह हमारे सामने पड़ते ही जाती रही। अचानक से वह सकुचा उठा। शर्माते हुए मुँह में अंगुली डालने लगा।
‘‘यही हैं हमारे सुपुत्र जी। थोड़ा नटखट हैं लेकिन शार्प ब्रेन है। मैं तो कहता हूँ कि लड़के को स्वतंत्र रूप से बढ़ने देना चाहिए। कोई लड़की तो है नहीं कि छुई-मुई रहे।’’
‘‘लड़कियों को भी छुई-मुई क्यों बनाना?’’ मुझसे रहा नहीं गया। वे चिढ़ उठे।
‘‘आप नारीवाद से प्रभावित हैं क्या? हिंदुस्तान में ये नारीवाद-फारीवाद कुछ नहीं चलेगा। जितने ये आदमी लोग नारीवादी उपदेश झाड़ते फिरते हैं, जरा देखिए अपने घरों में क्या करते हैं? अरे भाई, घर के भीतर स्त्री की शोभा है। चलो, पढ़ा लिखा दिया। जमाने को देखते हुए नौकरी भी करा लिया। नौकरी से घर का फायदा ही है। लेकिन मर्यादा भी तो कोई चीज है। यहाँ नहीं चल सकता कि औरतों को बरगलाते जाएं। मैं इसके सख्त खिलाफ हूँ। विदेशी मामला है भाई, हमारे उपर नहीं चलेगा। जाएं यूरोप में, नारी क्रांति कराएं। क्यों भाई, आप तो समझते ही होंगे।’’ उन्होंने हिमेश को लक्ष्य किया।
हिमेश की अब शामत थी, न ‘हाँ’ कहते बनता था न ‘न’। एक बार मेरी तरफ देखा फिर उनकी तरफ।
‘‘हमलोगों को भी थोड़ा जल्दी निकलना है। आज ही का दिन है हमारे पास। फिर कभी बात होगी।’’ हिमेश ने बीच का रास्ता तलाशते हुए कहा।
‘‘अरे आप तो भगोड़ा निकले। बहस में मैदान छोड़ भाग रहे हैं। हा, हा, हा।’’ वे हँसे। वही अपनी अजीब सी हँसी।
‘‘सब इनके मायके वालों का यही हाल है। मेरे सामने टिक ही नहीं पाते हैं।’’ फिर वे किचन की दिशा में मुड़े।
‘‘क्या भाई, बीरबल की खिचड़ी पकी कि नहीं?’’ फिर वे हँसे।
उनकी हँसी पूरे वातावरण में कॉर्बनडाई ऑक्साइड घोल रही थी। मुझे लग रहा था कि मेरा दम घुट रहा है। हिमेश की तरफ देखा तो उनका भी मुँह उतरा हुआ था।
कब ये वक्त बीतेगा?
तभी पीछे के दरवाजे से रह-रह कर झांकती बूढ़ी स्त्री एकदम प्रकट हो गई। उसने सोफे पर कूदते सुपुत्र को पकड़ लिया।
‘‘चला, भीतर चला। मेहमानन के आगे नंगई जिन करा। ’’ उसने भेाजपुरी में कहा।
लेकिन यह इतना आसान नहीं था। बच्चा अपनी पूरी ताकत से छटपट करता हुआ उसकी पकड़ से छूट गया। छूट कर वह अपने पिता की तरफ भागा। पहले वह पिता की गोदी में चढ़ा फिर उनके सोफे की एक मूठ पर लटका, फिर तेजी से उस कुर्सी की तरफ गया जिस पर पूर्व में पति महाशय बैठे हुए थे। कुर्सी के कपड़े उसने उठा कर फेंक दिये, तश्तरी और कप पलट कर दूर फेंका। इससे कप टूट गया और बहुत विचित्र ध्वनि के साथ पूरे कमरे में छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखर गया।
‘‘दिखा दा आपन कुल गुन चरित्तर।’’ बूढ़ी स्त्री भी हार मानने को तैयार नहीं थी।
बच्चा उसकी पकड़ में आते-आते रह जाता था। बूढ़ी स्त्री को बच्चा पकड़ने की सब तरकीबें याद थीं। वह बच्चे को कभी साधु बाबा से डराती थी, कभी पुलिस से पकड़वा देने की बात करती थी, कभी झूठ मूठ में हाथ के संकेत से बताती थी कि उसके पास खाने की कोई ऐसी नायाब चीज है जिस पर रीझ कर बच्चा अवश्य ही उसके पास चला आएगा, तब देखना। यह पकड़म-पकड़ाई का खेल बड़ी तेजी से चल रहा था कि अचानक बच्चे ने कुर्सी के पाँव के पास पड़ी चम्मच को उठा कर निशाना साध कर मारा। निशाना अचूक बैठा और चम्मच टन्न से बूढ़ी स्त्री के माथे पर लगा।
‘‘ऐ ऐ एक दुश्मन युद्ध में मरा। हम जीत गए।’’ बच्चे ने खुशी से हिलक कर कहा।
‘‘अरे दादी के मार दिहलस। हमार कपार फूट गइल।’’ बूढ़ी स्त्री चिल्लाई। इस चिल्लाने की प्रतिक्रिया स्वरूप पति महाशय एकदम अपने सोफे से उठे और ताबड़तोड़ बच्चे को मारने लगे। बच्चे के रोने चिल्लाने और दादी की गालियों और पति महाशय के गुस्से से अजीब सा माहौल तैयार हो गया। इस सब में बॉबी भी भागते हुए आई और निःशब्द बच्चे को बचाने का उपक्रम करने लगीं। इस उपक्रम में उन्हें कभी-कभी कुर्सी, सोफे, टेबल और कभी पति महोदय के थप्पड़ों से चोट लगती। वे चोट पर चीखतीं नहीं बल्कि दर्द जब्त करती जातीं।
जब बच्चा कुछ पिट गया तब बूढ़ी स्त्री ने कहना शुरू किया-’‘अरे जाये दा। बच्चा है बच्चा है, रहे दा। जिन पीटा। जिन मारा।’’
इसके बाद यह मार पीट थम गई। बॉबी बच्चे को अंदर ले जाने की कोशिश करने लगीं। लेकिन बच्चा जिद में ऐंठ गया। तब रोते-रोते बच्चे ने अचानक कहा-’‘दुश्मन पाकिस्तान, तुझे छोड़ूंगा नहीं।’’
उसकी इस बात पर उसके पिता हँसने लगे। हमलोग भी हल्का सा हँसे। लेकिन एक अजीब सी चुप्पी भी छितरा गई। उनकी हँसी और हमारी हल्की हँसी से मिल कर एक खिसियाहट फिजा में तैर गई थी। कहीं भीतर कोई चीज थी जो अचानक उछल कर बाहर आ गई थी। मैंने सिर झुका लिया एकदम कुर्सी के पाये पर निगाह गड़ा ली। यह क्या था, जिसने हमें गहरे तक हिला दिया था? हम उपर से यह एकदम नहीं चाहते थे कि बच्चे ऐसा बोलें फिर, फिर !!!!!
ऐसे बड़े हो रहे थे बच्चे! ऐसी कोई हवा थी जिस पर किसी का वश नहीं था!
फिर सबसे पहले दादी उठीं, अपनी चोट को लगातार रगड़ते हुए अंदर चली गईं। फिर बच्चा धीरे से बॉबी की गोद से उतरा और अपने पिता पर झपटा।
‘‘अरे, अरे, बस, बस।’’ कहते हुए पति महाशय उसके मुक्कों से अपने को बचाने लगे। उनके बचाने के तरीके से बच्चे को अपनी ताकत बढ़ती हुई लगी और अचानक ही वह गालियाँ बकने लगा। इस पर बच्चे को कुछ कहने की बजाय पति महोदय बॉबी पर चिल्ला उठे -’‘देख रहे हैं आप लोग, क्या करती हैं ये! यही करती हैं ये! गाली सिखाती हैं! बरबाद करने पर तुली हैं मेरे घर को! जितना मैं बच्चे में अच्छे चरित्र का निर्माण करना चाहता हूँ उतना ये बरबाद कर रही हैं! बोलो, बताओ, कौन सिखाता है ऐसी गंदी बातें।’’
‘‘मम्मी।’’ बच्चे ने अचानक रूक कर कहा और फिर सिसकने लगा।
‘‘देख लिया आपलोगों ने!’’ पति महोदय ने ललकार कर कहा।
बॉबी सिर झुकाए बैठी थीं। बॉबी और गाली! नहीं, नहीं, हम मान ही नहीं सकते थे। पति महोदय ने यह अब अति कर दिया है। हिमेश ने उठ कर उन्हें समझाने की कोशिश किया। कहने लगे -’‘बच्चे हैं, हजार जगह से सीख लेते हैं। इतनी समझ कहाँ होती है।’’ लेकिन पति महोदय अपनी बात पर अड़े थे और बार बार बॉबी से असलियत कह देने पर जोर डाले जा रहे थे।
‘‘मैं क्यों सिखाउंगी?’’ अचानक बॉबी ने दूसरी तरफ मुँह कर के कुछ तेज आवाज में कहा और उठ कर भीतर जाने लगीं। जाते-जाते धीमे गुस्से से भरे स्वर में बड़बड़ाईं -’‘मैंने भी बच्चे को तुम्हारे मुकाबले तैयार न किया तो.....’’
यह कहना था कि लगा उसी क्षण पति महोदय हार गए हैं। हार से विदीर्ण हुए चेहरे पर क्रोध की आग लहक-लहक कर जलने लगी, जिसे भरसक दबाने के प्रयत्न में वे तरह-तरह के हाव भाव करते हुए हँसने लगे। फिर हँसते हुए बच्चे को मनाने लगे। बच्चा रो रहा था। रोते-रोते रूक गया था। हम भी उसे मनाने लगे। इसी बीच बॉबी चाय ले आईं। चाय के साथ तमाम पापड़, बिस्किट, नमकीन वगैरह रखे थे। पर मन कैसा-कैसा सा हो उठा था। बॉबी के कहने पर भी कुछ खाने को हाथ नहीं उठ रहे थे। हम दोनों ने ही सिर्फ चाय ली। इधर बच्चे को मनाते-मनाते उसके पिता ने कहना शुरू किया।
‘‘अंकल को पता नहीं है तुम को पोयम आती है। सुनाओ तो। देखो अंकल आंटी तुम्हारी तरफ देख रहे हैं। सोच रहे हैं कितना बुद्धू बच्चा है। बुद्धू बने रहोगे क्या? चलो, अपना नाम बताओ।’’
‘‘हाँ बेटे, इधर आइए। क्या नाम है आपका।’’ मैंने और हिमेश ने लगभग एक साथ ही पूछा। फिर रूक कर दोनों ने अलग-अलग पूछा। बच्चा इससे थोड़ा परेशान हो गया। लेकिन वह डरा नहीं। हमारी तरफ मुँह करके उसने रोने के कारण भरे हुए गले से कहा-’‘हिमेश, हिमेश।’’
मैं एकदम हैरान रह गई। हिमेश का मुँह खुला रह गया। बॉबी कुछ सकुचा उठी।
‘‘अरे फिर तो हम दोस्त हुए। पता है मेरा भी नाम हिमेश है।’’ हिमेश ने माहौल को सामान्य करने की कोशिश किया।
‘‘एक आप का ही नाम थोड़े न हिमेश है। एक फिल्मी हीरो भी है, गायक भी है इस नाम का। दुनिया में हजारों लोगों का नाम होगा। मैंने रखा है। मैं रखना चहता हूँ। मेरा पुत्र है जो मर्जी रखूंगा।’’ पति महाशय ने मानो हम सबके चेहरे पढ़ लिये हों, इतने रूखे अवमानना से भरे तरीके से उन्होंने कहा।
इस बीच बच्चे ने पहले हल्का सा हाथ उठाया फिर पता नहीं क्या उसे याद आया कि अपने पिता की गोदी में चढ़ कर फिर से रोने लगा।
हम चलने के लिए उठ खड़े हुए।
‘‘रोना भूल गया था।’’ अजीब हँसी हँसते हुए गोद में मचलते रोते बच्चे को बहलाते पति महाशय कमरे के भीतरी दरवाजे से जाते हुए ओझल हो गए।
‘‘अब अपने दवाखाने में ले जा कर विटामिन की कोई चूसने वाली गोली देंगे।’’ बॉबी ने निर्विकार ढंग से कहा।
नया ज्ञानोदय, फरवरी 2015 में प्रकाशित
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