बाक़र गंज के सैयद - १ : असग़र वजाहत | Baqar ganj ke Syed - 1 : Asghar Wajahat


बाक़र गंज के सैयद - १ : असग़र वजाहत | Baqar ganj ke Syed - 1 : Asghar Wajahat

बाक़र गंज के सैयद  १

~ असग़र वजाहत

जुस्तुजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने 
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने 
                  - 'शहरयार' 

फतेहपुर (युनाइटेड प्राविंस) डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, सम्पादक एच. आर. नेविल इलाहाबाद, सन् 1906 

बाक़र गंज के सैयद 

जि़ले में एक दूसरा पदवी प्राप्त परिवार फतेहपुर के नबाब अली हुसैन ख़ाँ का है। वे सैयद इकरामुद्दीन अहमद को अपना पूर्वज मानते हैं, जो ईरान से सम्राट हुमायूँ के दल (सेना) में हिन्दुस्तान आये थे। उन्हें दरबार में कोई पद मिला था, यद्यपि उनका नाम मनसबदारों की सूची में नहीं है। उनके बेटे और पोते उनके उत्तराधिकारी थे। उनके पोते के बेटे मुहम्मद तक़ी औरंगजेब के शासन में उच्च प्रशासनिक पदों पर थे और इसके अतिरिक्त उन्हें कश्मीर, लाहौर और दूसरी जगहों पर बड़ी जागीरें मिली थीं। यह सब उनके पुत्र शाह क़ुली ख़ाँ को उत्तराधिकार में मिला था। इनके बेटे जि़याउद्दीन अपने पद और जागीरों से इस्तीफ़ा देकर एकाकी जीवन गुज़ारने लगे थे। वे नवाब ज़ैनुलआब्दीन के पिता थे, जो अवध आये थे और उन्हें नवाब की पदवी और कोड़ तथा कड़ा की 'सरकारें' मिली थीं। उनकी जागीर टप्पाज़ार परगने के बिन्दौर ताल्लुके में थी। उनके नौ बेटे थे, जिनमें दो सबसे बड़े नवाब बाक़र अली ख़ाँ और नवाब जाफ़र अली ख़ाँ थे, जिन्होंने अपने नाम से जाफ़रगंज बसाया था। दूसरे की हुकूमत कड़ा से पाण्डु नदी तक थी, जिसका क्षेत्रफल वर्तमान जि़ले के बराबर है और वे अपना मुख्यालय कोड़ा जहानाबाद से फतेहपुर ले आये थे। पाण्डु नदी से भोगनीपुर तक, जि़ले का दूसरा भाग जाफ़र अली ख़ाँ के पास था। 1801 में जि़ले का विलय (ईस्ट इण्डिया कम्पनी राज्य) होने के बाद बाक़र अली ख़ाँ को ही कम्पनी ने नौ साल के लिए जि़ले का प्रभारी नियुक्त किया था। इस दौरान कमो-बेश ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से तथा दूसरे जमींदारों की क़ीमत पर बाक़र अली ख़ाँ बहुत सी दूसरी जागीरों के मालिक बन गये थे। उनके मरने के बाद उनकी निजी जागीर उनके छोटे भाई नवाब सैयद मुहम्मद ख़ाँ को देने के बाद दूसरी सम्पत्तियाँ पुराने मालिकों को लौटा दी गयी थीं, जिसके लगान का आंकलन 1840 में किया गया था। मुहम्मद ख़ाँ के वारिस उनके बेटे अहमद हुसैन ख़ाँ थे जो वर्तमान नवाब के पिता थे जिनका जन्म 1855 में हुआ था। दस गाँव जो मूल रूप से परिवार के पास थे, उनमें से चार गाँव निकल चुके हैं और वर्तमान में सम्पत्ति बिन्दौर, मंसूरपुर, भीकमपुर, दरौता, लालपुर, मंडरांव गाँव या उनके हिस्से खजुहा और फतेहपुर तहसीलों में हैं। सम्पत्ति की लगान देनदारी रु. 13,560/- है। 




गोल्डेन बुक आफ इण्डिया, सम्पादक सर रोपरे लेथब्रिज, मैक्मिलन एण्ड कम्पनी, लंदन 1893 


अहमद हुसैन ख़ाँ फतेहपुर के नवाब। जन्म 1826। पदवी वंशागत है। परिवार मूलत: तेहरान से। इनके पूर्वज सैयद इकरामुद्दीन अहमद सम्राट हुमायूँ के साथ आये थे जब वह ईरान से लौटा था। उन्हें मुग़ल सम्राट अकबर ने मनसबदार नियुक्त किया था। उनके पोते मुहम्मद तक़ी औरंगजेब के समय उसके दरबार में थे। उनके बेटे शाह क़ुली ख़ाँ ने अपने पिता का स्थान लिया। उनके पोते नवाब ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ अवध आये थे और अवध की सरकार ने उनको कोड़ा और कड़ा का चकलेदार नियुक्त किया था। उन्हें नवाब आसिफ़ुद्दौला ने फतेहपुर जि़ले में जागीर भी दी थी। उनके पुत्र नवाब बाक़र अली ख़ाँ थे जो अपना मुख्यालय कोड़ा जहानाबाद से फतेहपुर ले आये थे। ४ उनके उत्तराधिकारी उनके भाई नवाब सैयद मुहम्मद ख़ाँ थे जो वर्तमान नवाब के पिता थे। नवाब के दो बेटे अली हुसैन ख़ाँ और बाक़र हुसैन ख़ाँ हैं। निवास—बाक़रगंज, फतेहपुर, उत्तर पश्चिम प्रदेश। 




मिफ्ताहुत-तवारीख़, टॉम्स विल्यम बेल, मुंशी नवल किशोर प्रेस, लखनऊ 


मीर ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ पिसर मीर शुजाउद्दीन इब्ने मीर शाह क़ुली ख़ाँ वल्द मीर मुहम्मद तक़ी, जो शहज़ादा मुहम्मद अकबर इब्ने आलमगीर के वज़ीर थे। शहज़ादा अपने बाप से बग़ावत करके ईरान चला गया था और वहीं उसकी मौत हुई। जब मुख़्तारुद्दौला, जो नवाब आसिफ़ुद्दौला के ज़माने 1190 हिजरी में मारे गये तो उनकी जगह पर सरफ़राजुद्दौला हसन रज़ा ख़ाँ को रखा गया। लेकिन ख़ाँ साहब को मुक़द्दमात और सरकारी हिसाब की जानकारी न थी, इसलिए एक दूसरे आदमी को उनकी मदद के लिए रखने की ज़रूरत महसूस हुई। लिहाज़ा इस काम के लिए मुनीरुद्दौला हैदर बेग ख़ाँ को मुकर्रर किया गया। और इस न्याबत के जमाने में हैदर बेग ख़ाँ ने मुल्क के ज़रूरी कामों को अंजाम देते हुए एक करोड़ चंद लाख रुपये जमा करके अल्मास अली ख़ाँ ख़्वाजासरा को दिए। अल्मास अली ख़ाँ मुरव्वत और सख़ावत में बेमिसाल थे। लिहाज़ा ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ को उनकी तरफ से दोआबा की मिल्कियत में चंद परगने दिए गये। उनकी वफ़ात के बाद 1207 हिजरी, रजब के महीने में उनकी बीवी ने, जिनका नाम मिसरी बेगम था, एक दरख़ास्त रुकनुद्दौला अल्मास अली बेग को लिखी कि सत्तर लाख रुपया इस कनीज़ के पास है, जिसे मेरे शौहर सरकारी पैसा समझ कर सरकार में पहुँचाना चाहते थे। अब जैसा भी हुक्म हो, उसके हिसाब से काम किया जाये। रुकनुद्दौला अल्मास अली बेग इस ख़त को पढ़ते ही गुस्से में आ गये और उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए और कहा कि मिसरी बेगम मुझे इस क़दर बुरा समझती हैं! उनके शौहर ने जो पैसा जमा किया है, उससे मुझे क्या मतलब? पैसा वे अपने बच्चों में क्यों नहीं तक़सीम कर देतीं? चुनांचे इस सख़ावत की बिना पर इनके (ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ ) बेटे मालामाल हो गये। बाकर अली ख़ाँ और जाफ़र अली ख़ाँ फतेहपुर और बिन्दौर चले गये। 




तारीख़े अवध-हिस्सा सोम (तीसरा), जनाब मौलाना मौलवी हकीम नज्मुलग़नी ख़ाँ साहब रामपुरी, मुंशी नवल किशोर प्रेस, 1919 


इस दौरे हुकूमत (शासन) में म्यान-व-दोआब का तमाम मुल्क रुकनुद्दौला अल्मास अली ख़ाँ ख़्वाजासरा को एक करोड़ और कई लाख रुपये पर ठेके में मिला। मीर ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ मारूफ ब (उर्फ) कौड़ीवाला उसकी तरफ से म्यान व दोआब में कई परगानों पर हुकूमत रखता था और इल्मास अली ख़ाँ की रफ़ाक़त (दोस्ती) में बड़े एजाज़ (प्रतिष्ठïा) से रहता था और इस तरह लाखों रुपये का सरमाया (धन) बहम (प्राप्त) पहुँचा कर बिठूर (कानपुर) में एक इमामबाड़ा और मस्जिद लबे दरिया (नदी के किनारे) 1203 हिजरी में तामीर (बनवाई) कराई और 1207 हिजरी में जाफर गंज में एक मस्जिद तैयार कराई। माह शाबान 1207 हिजरी (1792 ई.) में मीर ज़ैनुलआब्दीन ने इंतिक़ाल किया। बाज़ (कुछ) तो ये कहते हैं इल्लते मुहासिबा (हिसाब-किताब की इल्लत) में गिरफ़्तार होकर क़ैदे हस्ती (जीवन का बंदीगृह) से रिहाई पाई। मौलवी फ़ायक़ ने उसकी वफ़ात (मृत्यु) की तारीख़ इस तरह लिखी है... ज़ैनुलआब्दीन की वफ़ात (मृत्यु) के बाद उसकी ज़ौजा (पत्नी) मिसरी बेगम के हाथ कई लाख रुपये का तरका (मृत व्यक्ति की सम्पत्ति) नक़द-ओ-जिन्स (रुपया और सामान) आया। यहां तक कि बाज़ (कुछ) ने सत्तर लाख रुपये का तरका बताया है। मिसरी बेगम ने अल्मास अली ख़ाँ से कहा कि इस क़दर (मात्रा) नक़द-ओ-जिन्स (रुपया और सामान) शौहर (पति) के तरके के मेरे पास हाजि़र हैं। उस ख़्वाजासरा-ए-सेरचश्म (पूरी तरह संतुष्टï) आली हिम्मत (बड़ी हिम्मत वाले) ने जवाब दिया मुर्दे का माल मुर्दे के पीछे जाना चाहिए। इसलिए मुनासिब (उचित) ये है कि लड़कों को तक़सीम (बांट) कर दो। मैं मोहताज (किसी पर आश्रित) और कोताह हिम्मत (कम हिम्मतवाला) नहीं कि उसको लूँ। मिसरी बेगम ने वह तमाम तरका अपने बेटों को तक़सीम (बाँट) कर दिया। सैयद ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ कसीरुल औलाद (अधिक संतान वाला) था। उसके बाज़ (कुछ) बेटों ने वह ज़रे-नक़द (पैसा) आलमे शबाब (जवानी) में उड़ा दिया और बाज़ औलाद निहाय (बहुत) रशीद (सीधे सही ढंग) नामवर (विख्यात) हुईं। उनको नवाब वज़ीर की सरकार से निज़ामतें (इलाक़े, जागीरें) मिलीं। उनमें से सैयद काजि़म अली और मीर हादी अली ख़ाँ और मीर बाक़र अली ख़ाँ थे।'' 




समझदार लोग कहते हैं, रात गयी बात गयी। जो हो गया वह अतीत के गहरे समन्दर में डूब गया। 'तुम नाहक़ टुकड़े चुन-चुन कर दामन में छिपाये बैठे हो'। भूल जाओ वह सब जो गुज़र गया है। आज को देखो, आज को। लेकिन मेरा मानना है कि वर्तमान तो बहुत घटिया चीज़ है। कौन है जो उससे खुश है? सबको शिकायत ही नहीं बड़े-बड़े शिकवे हैं। लोगों का बस नहीं चलता कि वर्तमान का गला घूंट दें। जो है वह उस पर थूकता है। उससे चिढ़ता है। दु:खी रहता है। और भविष्य? उसके बारे में कोई नहीं, यहां तक कि भगवान भी नहीं जानता। जब हम किसी के बारे में कुछ जानते ही नहीं तो उसमें हमारी क्या दिलचस्पी हो सकती है! उसका होना या न होना हमारे लिए बराबर है। उसकी चिंता करने का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता। अब बचता है अतीत। कुछ लोग अतीत का मज़ाक उड़ाते हैं और कहते हैं, यह तो गड़े मुर्दे उखाडऩे वाला काम है। लेकिन सच्चाई कुछ और है। जो हो चुका है वही सत्य है न? मतलब हमें विश्वास है जो हो चुका है वह हो चुका है। उसे कोई बदल नहीं सकता। सच्चाई की तरफ झुकना तो आदमी की फ़ितरत है। इसलिए हम उसे गले लगाते हैं। ट्रेन स्टेशन से गुज़र चुकी है ज़्यादा पक्की बात है बनिस्बत इसके कि ट्रेन स्टेशन से गुज़रने वाली है। इसलिए हमें वर्तमान का नहीं, भविष्य का नहीं, बल्कि अतीत का गुणगान करना चाहिए। गुज़रे हुए जमाने के गीत गाना चाहिए। वर्तमान के दु:ख हमें झेलने पड़ते हैं। भविष्य की आशंकाएं हमें परेशान करती हैं। लेकिन अतीत हमें कभी तंग नहीं करता। बल्कि अतीत के दु:ख हमें सुन्दर लगत हैं क्योंकि न तो वे हमें झेलने पड़ते हैं और न झेलने की आशंका होती है। कहते हैं सुन्दर अतीत का जितना बड़ा भंडार जिसके पास है वह उतना ही सौभाग्यशाली है। बड़ी दुनिया होने के सुख से तो सभी वाक़िफ़ होते हैं। बड़ी दुनिया तक जाने के कई रास्ते हैं। एक रास्ता चौड़ी सड़क है तो दूसरा रास्ता गलियों और पगडण्डियों का रास्ता है। शाहराह पर सभी चलते हैं और उसे जानते हैं, लेकिन पतली गलियों और खेतों की मेड़ों के रास्ते ज्यादा मजेदार होते हैं। अतीत की दुनिया को बड़ा बनाने के लिए इस रास्ते से गुज़रना अच्छा है। 

मैं यह तो नहीं कह सकता कि बाक़र गंज के सैयद अतीत-जीवी थे, लेकिन उनके वर्तमान में अतीत इस तरह झलकता था जैसे साफ पानी की तह में पड़े पत्थर झलकते हैं। बाक़र गंज के कुछ बुजुर्ग गुज़रे ज़माने को बड़े शौक से याद किया करते थे। उनकी याददाश्तें अच्छी थीं। जहां कुछ भूलते थे वहां अपने आप कुछ जोड़ लिया करते थे। अगर कोई इसकी शिकायत करता था तो बिगड़ जाते थे। उन्हें इस बात पर बड़ा फ़ख्र था कि वे एक बहुत बड़े घराने में पैदा हुए हैं जिसका बड़ा शानदार अतीत है। अक्सर मौक़ा मिलते ही वे ख़ानदान के पुराने क़िस्से सुनाने लगते थे। इन पुराने क़िस्सों में कुछ तो ऐसे थे जिन पर यक़ीन नहीं आता था, लेकिन यह बात कोई उनके सामने ज़बान से निकाल नहीं सकता था। वे बताते थे कि परदादा जिनों के बच्चों को क़ुरान-शरीफ पढ़ाया करते थे। पूरा मक़तब लग जाता था। बहुत सी आवाजें आती थीं, लेकिन कोई दिखाई न देता था। एक दिन जिनों के बच्चे दादा को जब वे बच्चे थे, तो उठा ले गये थे। कुछ देर बाद वे वापस अपने बिस्तर पर पाये गये थे और बराबर में मिठाई का एक टोकरा रखा था जो जिनों ने भेजा था। वे ये भी बताते थे कि उन्होंने एक बार जिन को देखा था जिसका सिर आसमान में और टांगे ज़मीन में धंसी हुई थीं। भूतनियों को देखने के किस्से तो आम थे और कोई नौक़र ऐसा न था जिसने भूतनियों को न देखा हो। लेकिन बात हो रही थी पुराने ज़माने के क़िस्सों की। तो बुज़ुर्ग बताते थे कि ख़ानदान के पुरखे जिनका नाम सैयद इकरामुद्दीन अहमद था, ईरान से आये थे। वे सूफ़ी और सिपाही थे। उन्हें ईरान के बादषाह ने मुग़ल बादशाह हुमायूँ के साथ हिन्दुस्तान भेजा था। वे जब मैदाने-जंग में तलवार चलाते थे तो लगता था सैकड़ों तलवारें चल रही हैं। सैयद इकरामुद्दीन अहमद ईरान के ख़ुरासान सूबे के ख़ाफ़ नामक गाँव से आये थे। मैं कुछ साल पहले इस गाँव गया था और लोगों से बातचीत की थी। यह पता लगाने की कोशिश की थी कि क्या हक़ीक़त में सैयद इकरामुद्दीन अहमद नाम के कोई आदमी यहां से हुमायूँ के साथ हिन्दुस्तान गये थे। मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ था जब खुरासान के इतिहासकारों ने यह बताया था कि ऐसा सच है। उन्होंने ''तारीख़े दिज़ाले शारख़े ख़ुरासान'' खण्ड-2 किताब के पेज नम्बर 174-76 पर सैयद इकरामुद्दीन अहमद का उल्लेख होने की बात बताई थी। 

बाक़रगंज के सैयदों के सिलसिले में फतेहपुर डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर इस परिवार के पूर्वज का नाम सैयद इकरामुद्दीन अहमद ही बताता है। इसलिए खोज का पहला पड़ाव यही नाम होना चाहिए। नाम के साथ गज़ेटियर एक सूत्र और देता है। ये मुग़ल सम्राट हुमायूँ के साथ ईरान से हिन्दुस्तान आये थे। ज़ाहिर है कि हुमायूँ के साथ हज़ारों लोग आये होंगे और उनमें सैयद इकरामुद्दीन की तलाश एक मुश्किल काम है, लेकिन जुस्तुजू कहां-कहां नहीं ले जाती। 

कन्नौज की लड़ाई में शेरशाह सूरी से हार जाने के तीन साल बाद 11 जुलाई, 1543 ई. को हुमायूँ हिन्दुस्तान से अपनी सारी आशाएं समेट कर कंधार की तरफ रवाना हुआ, जो उसके भाई कामरान के अधिकार में था। पाँच महीने की लम्बी और थका देने वाली यात्रा में हारे हुए सम्राट का कारवाँ जंगलों, रेगिस्तानों और नदियों को पार करता क्योटा पहुँचा तो एक रात अचानक वहां जयबहादुर उज़्बेक, जिसे चुली बेग भी कहा जाता था, आ गया। चुली बेग हुमायूँ की सरकार में काम कर चुका था। अब हुमायूँ के भाई कामरान के साथ था। चुली बेग को कामरान ने यह सूचना लेने के लिए भेजा था कि हुमायूँ का दल अब कहाँ है और हुमायूँ को धोखा देकर कैसे गिरफ्तार किया जा सकता है। चुली बेग ने हुमायूँ का नमक खाया था। कैम्प में आते ही उसने बैरम बेग को यह खबर दे दी कि कामरान के मन में हुमायूँ को गिरफ्तार करने की इच्छा है। इसलिए हुमायूँ को कंधार न जाकर फौरन सिस्तान की तरफ निकल जाना चाहिए। 

बैरम बेग जल्दी-जल्दी कूच की तैयारियाँ कराने लगे। हमीदा बानो बेगम को तो घोड़े पर बैठा दिया गया, लेकिन बालक अकबर को ले जाना मुश्किल था इसलिए वह अपने चाचा कामरान की दया पर छोड़ दिया गया। जल्दी की वजह से कुछ लोग, ख़ज़ाना और कुछ सामान भी छोड़ दिया गया। लुटे-पिटे सम्राट के साथियों में से बहुतेरे उसका साथ छोड़ कर पहले ही जा चुके थे। चालीस मर्दों और दो औरतों का यह कारवाँ रातों-रात निकल गया। पराजय का बोझ उठाये, महीनों की तोड़ देने वाली दौड़-भाग, ज़रूरी चीज़ों का अभाव और अब मौत के डर से भयभीत यह कारवाँ आगे बढऩे लगा। इस कारवाँ में कौन सम्राट था और कौन दरबारी, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि अपने घोड़े के सुस्त पड़ जाने की वजह से जब हुमायूँ ने अपने एक दरबारी तर्दी बेग से उसका घोड़ा मांगा तो तर्दी बेग ने इंकार कर दिया। 

दिसम्बर की बर्फ़ीली रात में चारों तरफ अंधेरा था। बर्फ़ीले तूफान की आवाज़ों के अलावा और कुछ न सुनाई देता था। बर्फ में घोड़ों के पैर इस तरह धंस जाते थे कि उन्हें निकालने में काफी वक़्त लग जाता था। आसमान भी स्याह था और कभी-कभी कुछ दिखाई देता था तो तेज़ी से गिरते बर्फ़ के फूल ही फूल। कपड़ों, घोड़ों और सामान गाडिय़ों को इन फूलों ने पूरी तरह ढंक लिया था। जब तक जिसकी साँसें चल रही थीं, वह अपने को जि़न्दा समझ रहा था। जि़न्दा था तो उम्मीदें थीं। आशा थी कि जल्द से जल्द सिस्तान पहुँच जायेंगे। लेकिन कामरान ने यह इंतिज़ाम पहले ही कर रखा था कि हुमायूँ सिस्तान न पहुँचने पाये। 

अगले दिन यह कारवाँ बिलोचिस्तान की हदों में दाख़िल हो गया। गुलबदन बेगम ने 'हुमायूँनामा' में इस यात्रा का वर्णन करते हुए लिखा है —''पूरी रात बर्फ़बारी होती रही और जलाने के लिए न तो लकड़ी थी और न खाना था। जब भूख बर्दाश्त से बाहर हो गयी तो सम्राट ने एक घोड़ा जि़ब्ह करने का हुक्म दिया। खाना पकाने के बर्तन भी नहीं थे इसलिए ख़ोद (लोहे की टोपी जो सिपाही पहनते हैं) में कुछ मांस उबाला गया और कुछ भूना गया। सम्राट कहा करते थे—''खुद मेरे हाथ सर्दी की वजह से जम गये थे।'' अगली रात कुछ बिल्लोचियों ने कारवाँ को घेर लिया। पूरे कारवाँ में बिल्लोची ज़बान हसन अली इश्क़ आग़ा की बीवी के अलावा कोई न जानता था। उन्होंने बातचीत करके बिल्लोचियों को समझाया और तय पाया कि जब तक बिल्लोचियों का सरदार मलिक हाती नहीं आ जाता तब तक कारवाँ आगे नहीं बढ़ेगा। 

अगले दिन मलिक हाती आया और उसने बताया कि तीन दिन पहले ही कामरान का आदेश आया था कि हुमायूँ को किसी भी कीमत पर आगे न बढऩे दिया जाये। कामरान ने बिल्लोची सरदार को यह लालच भी दिया था कि वह अगर हुमायूँ को गिरफ्तार करके कंधार ले आयेगा तो उसे सम्राट का पूरा ख़ज़ाना दे दिया जायेगा। लेकिन हुमायूँ की क़िस्मत के सितारे बुलंद थे। बिल्लोची सरदार मलिक हाती ने सम्राट और उसके कारवाँ की जो हालत देखी वह इतनी दयनीय थी कि उसे तरस आ गया। सम्राट के ख़ज़ाने का लालच भी उसके दया भाव को न दबा सका। मलिक हाती ने न सिर्फ हुमायूँ को आगे जाने दिया बल्कि उसकी सहायता भी की। हुमायूँ के कारवाँ को मलिक हाती अपने इलाक़े की सीमा तक छोडऩे भी गया। अब हुमायूँ का कारवाँ गर्मसीर में दाखिल हो गया था जो कंधार और ख़ुरासान के बीच है। यहां से और आगे बढ़ कर कारवाँ हाजी बाबा के क़िले पहुँचा। यह इलाका भी उसके भाई कामरान के अधीन था और यहां कामरान की तरफ से ख़्वाजा जलालुद्दीन महमूद लगान वसूल करने आया था। वह हुमायूँ के साथ हो गया और उसने वह सब सामान उपलब्ध कराया जो लम्बे सफ़र के लिए दरकार था। हुमायूँ बहुत ख़ुश हो गया। इस वक़्त उसके पास न तो एक इंच जमीन थी और न कोई अधिकार थे, लेकिन उसने ख़ुश होकर ख़्वाजा जलालुद्दीन को 'ख़्वाजासरा' का खिताब दे दिया। 

बैरम ख़ाँ ने हुमायूँ को सलाह दी कि ईरान में दाख़िल होने से पहले ईरान के शाह तहमास्प सफ़वी को एक पत्र भेजना चाहिए ताकि आगे की भूमिका बन सके। हुमायूँ ने शाहे ईरान को लिखा— 

''दोपहर के सूरज जैसे प्रतापी, शाही तेज के स्वामी, अल्लाह की प्रतिछाया, सबके जानकार, अल्लाह के गुणों से सम्पन्न मैं आपके सामने एक ज़र्रे (कण) की तरह हूं। आप जैसे बविक़ार (प्रतिष्ठित) बादशाह के ख़ादिमों (सेवकों) में मुझे जगह नहीं मिली लेकिन मैं आपके इख्लासो-मुहब्बत (अनुकम्पा और प्रेम) से बंधा हुआ हूँ और मेरे जिस्म में जो ख़ून दौड़ रहा है उसमें आपकी मोहब्बत है। आपकी ज़ात (व्यक्तित्व) की करामातें (करिश्मे) और सआदतें (शुभकारिता) हासिल (प्राप्त) भी हैं और महसूल (लाभप्रद) भी। और हर वक़्त आपके ख़ूबसूरत चेहरे की तवज्जो (ध्यान) से और आपकी गुफ्तगू (बातचीत) से लोग शहद जैसी लताफ़त (मज़ा) चखते हैं। इस बुरी दुनिया में, आसमान की गर्दिश (घूमना) जो लोगों को बर्बाद करने पर तुली रहती है वह हिन्दुस्तान के खित्ते सिन्ध (हिन्द) की तरफ चली गयी है। क्या पहाड़ों, क्या जंगलों, क्या रेगिस्तानों में मुझ पर जो गुजरी है, सो गुजरी है। अब तो मैं, सूरज की तरह चमकती हुई अज़मत (महानता) आपके पुरइक़बाल (प्रतिष्ठापूर्ण) जलाल (प्रताप) की कशिश (आकर्षण) और अल्लाह से पुरउम्मीद (आशावान) हूँ...'' 

हिन्दुस्तान का बादशाह ईरान के शाह के संरक्षण में आया है। मदद माँग रहा है। साम्राज्य में आने की विनती कर रहा है। ईरान का शाह तहमास्प सफ़वी इतना खुश हो गया कि उसने तीन दिन तक नक़्क़ारख़ाने को लगातार नगाड़े और बाजे-ताशे बजाने का आदेश दे दिया। उसने हुक्म दिया कि हुमायूँ का हर स्थान पर राजकीय सम्मान किया जाये। वही आदर-सम्मान दिया जाये जो ईरान के शाह को दिया जाता है। ईरान की जनता हुमायूँ के आदेशों का उसी तरह पालन करे जैसे ईरान के शाह के आदेशों का किया जाता है। यही नहीं, ईरान के शाह ने अपने सूबेदारों को बहुत विस्तार से यह लिखा कि हुमायूँ का आदर-सत्कार कैसे किया जाये। उसने हिरात के सूबेदार को लिखा कि हुमायूँ को शाही आवभगत के दौरान जो राजकीय भोज दिया उसमें अलग-अलग तरह के तीन हजार खाने, मीठा मांस, शरबत, मेवे और फल हों। हिरात के सूबेदार को ईरान के शाह ने हुमायूँ की खातिरदारी के संबंध में जो फ़रमान भेजा था वह ब्रिटिश म्यूजियम में सुरक्षित है। 

हिरात में हुमायूँ ने ईरान के राष्ट्रीय त्योहार नौरोज़ में भी हिस्सा लिया था। अनगिन उपहारों के अलावा उसे आठ हज़ार तूमान भी पेश किए गये थे। उसे हिरात की सबसे शानदार इमारत मंजि़ले-बेगम में ठहराया गया था। 

हुमायूँ ने शाह तहमास के दरबार में जाने से पहले अपने विशेष दूत बैरम बेग को शाही दरबार में भेजा था। शाह ने बैरम बेग को देख कर यह आदेश दिया था कि उसे अपने बाल कटवा कर फारसी ढंग की टोपी लगाना चाहिए। इस आदेश पर बैरम बेग ने जवाब दिया था कि वह किसी दूसरे सम्राट का नौकर है और जब तक उसका सम्राट उसे ऐसा आदेश नहीं देगा वह वैसा नहीं करेगा। इस बात पर शाह तहमास नराज़ हो गया था और उसने बैरम बेग को डराने के लिए उसके सामने कुछ अपराधियों को मृत्यु दण्ड दिए जाने का आदेश दिया था। 

आखिरकार हुमायूँ की शाह तहमास से मुलाकात हुई। हुमायूँ अपने घोड़े से उतर कर बैरम बेग और साम मिर्जा के साथ शाह के दरबार की तरफ बढ़ा। शाह तहमास अपनी मसनद से उठ कर बस दो कदम आगे बढ़ा और हुमायूँ को गले से लगा लिया। औपचारिक बातचीत के बाद शाह ने फिर अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठता, पहचान और महत्ता सिद्ध करने के लिए हुमायूँ से कहा कि वह ईरानी टोपी लगाये। हुमायूँ तैयार हो गया। शाह ने अपने हाथों से हुमायूँ को ईरानी टोपी पहना दी। 

दो बादशाहों की दोस्ती लम्बी न चल सकी क्योंकि छोटी-मोटी शिकायतों के अलावा बड़ा फ़र्क़ यह था कि शाह तहमास शिआ मत का जबरदस्त समर्थक था और सुन्नी मत के बहुत खिलाफ था। हुमायूँ सुन्नी था। कुछ ही दिन बाद हुमायूँ को शाह ईरान का संदेश मिला कि वह अपना मत परिवर्तन करके शिआ हो जाये वरना उसे आग में झोंक दिया जायेगा। हुमायूँ ने जवाब दिया कि वह अपने धार्मिक विश्वास में अडिग है। उसे साम्राज्य की कोई लालसा नहीं। वह बस इतना चाहता है कि उसे मक्का जाने की अनुमति दे दी जाये जिसके लिए वह निकला है। इसके जवाब में शाह तहमास ने उसे संदेश भेजा कि वह जल्दी ही सुन्नी मत के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करने वाला है और यह अच्छा है कि एक सुन्नी बादशाह अपने आप उसके अधिकार में आ गया है। इस तरह बात और आगे बढ़ गयी। शाह तहमास ने हुमायूँ के पास काज़ी जहान को भेजा ताकि उसे शिआ मत स्वीकार करने पर तैयार किया जा सके। काज़ी जहान ने हुमायूँ को समझाया कि ऐसी स्थिति में उसके लिए यही अच्छा है कि वह शिआ मत स्वीकार कर ले। आख़िरकार हुमायूँ ने कहा कि पूरा मामला उसके सामने लिखित रूप में रखा जाये। काज़ी ने उसके सामने तीन लिखित कागज़ रखे। हुमायूँ ने दो पर हस्ताक्षर कर दिए, लेकिन तीसरे कागज़ पर दस्तखत करने से इंकार कर दिया। जब काज़ी ने हुमायूँ पर ज़ोर डाला तो हुमायूँ ने कहा कि क्या ईरान के शाह को यह मालूम नहीं है कि धर्म के मामले में ज़ोर-जबरदस्ती नहीं करना चाहिए। लेकिन हालात से मजबूर होकर उसने तीसरे कागज़ पर भी दस्तखत कर दिए। 

हुमायूँ के शिआ हो जाने के बाद भी दोनों बादशाहों के दिल साफ नहीं हुए। हुमायूँ के खिलाफ़ कुछ दरबारी अफवाहें फैलाते रहे। दूसरी तरफ हुमायूँ के दिल में भी शको-शुब्हात उभरते रहे। कभी-कभी उसने अपमानित भी महसूस किया, लेकिन यह सब एक ऐसा ज़हर था जिसे पिए बग़ैर जि़न्दगी मिलना मुश्किल थी। बहरहाल किसी तरह दोनों के दिल साफ हुए। इस काम में शाह तहमास की बहन सुल्ताना बेगम ने बड़ी भूमिका निभाई। शाह को समझाया कि उसका हित हुमायूँ की मदद करने में है न कि उसकी हत्या करने में या उसे अपमानित करने में। सुल्ताना बेगम ने शाह को हुमायूँ की एक काव्य रचना भी दिखाई जिसमें उसने हजरत अली और उनके वंश पर अपनी आस्था और श्रद्धा को बहुत शानदार और प्रभावषाली ढंग से प्रगट किया था। शाह तहमास के दीवान काज़ी जहान ने भी शाह के मन में हुमायूँ के लिए जो ग़लत भावनाएं थीं, उन्हें साफ किया। यह बात शाह की समझ में आ गयी कि उसके कुछ अमीरों ने हुमायूँ के खिलाफ़ भड़काया था। शाह इन अमीरों को उनके घृणित काम के लिए दण्ड देना चाहता था, लेकिन हुमायूँ के कहने पर उन्हें माफ कर दिया। 

दो बादशाहों के जुदा होने की बेला आ गयी। भव्य विदाई समारोह शुरू हो गये। शिकार अभियान आयोजित किए गये जिनमें हज़ारों सैनिक शामिल होते थे। दिन जंगली जानवरों का पीछा करने और रातें शराब और संगीत की शानदार महफिलों की नज़्र हो जाती थीं। शाह तहमास ने हुमायूँ के जश्न-ए-बिदाई को सात दिन तक मनाने का आदेश दिया था। 

ज़मीन पर हर तरफ ईरानी कालीन नज़र आते थे। छ: सौ शाही ख़ेमे लगाये गये थे। युद्ध संगीत बजाने वालों की बारह टोलियाँ हुमायूँ को विदाई देने के लिए अपने वाद्यों को पुरजोश तरीके से बजा रही थीं। चारों तरफ कतारबद्ध सैनिक खड़े थे। उपहार और ख़िलद देने के सिलसिले जारी थे। शाह तहमास ने हुमायूँ को बताया कि उसको दी जाने वाली सहायता और सेना तैयार है। शहज़ादा मुराद बारह हज़ार घुड़सवारों के साथ विदाई समारोह में हाजि़र हुआ। हवा में दूर-दूर तक ईरानी परचम लहरा रहे थे। विदाई समारोह के अंतिम दृश्य को इतिहासकार जौहर ने इस तरह लिखा है—शाह तहमास अपने हाथों में हीरे जवाहरात जड़ा एक चाकू और दो सेब लेकर खड़ा हुआ और उसने कहा, हुमायूँ ख़ुदा हाफ़िज़। हुमायूँ ने अपने हाथ आदर से फैलाये और शाह से कहा 'स्वीकार' किया। शाह ने अपने हाथों की उँगलियों को सीधा किया और उपहार हुमायूँ के हाथों में आ गया। शाह तहमास ने कहा, अल्लाह तुम्हारे ऊपर हमेशा मेहरबान रहे... ख़ुदा हाफ़िज़। 

शाह तहमास ने हुमायूँ को जो बारह हज़ार घुड़सवार दिए थे उनके अफसरों की सूची में इतिहासकार बैज़ाद के अनुसार अट्ठारह नाम हैं जबकि अबुल फ़ज़ल ने जो सूची दी है उसमें आठ नाम ज़्यादा हैं। इन दोनों सूचियों में सैयद इकरामुद्दीन अहमद का नाम नहीं है। इसलिए अब इस नाम के सहारे आगे बढऩे का कोई तुक नहीं है। अगर इस नाम का कोई आदमी रहा भी होगा तो मामूली सिपाही होगा। 

बाक़र गंज के सैयदों के पूर्वजों में दूसरा नाम मुहम्मद तक़ी का आता है जिनके बारे में लिखा गया है कि वे मुग़ल सम्राट औरंगजेब के मनसबदार थे और उन्हें लाहौर, कश्मीर तथा दूसरे इलाक़ों में बड़ी जागीरें मिली थीं। अब मुझे मुहम्मद तक़ी की खोज में औरंगजेब के युग को खंगालना पड़ेगा। 

औरंगजेब बहुत पक्का और पवित्र मुसलमान था। हम उसे कट्टर मुसलमान भी कह सकते हैं। वह रोज़े नमाज़ का पाबंद था। क़ुरान की प्रतियाँ लिख कर और टोपियाँ सी कर जो पैसा १२ कमाता था उससे अपना निजी खर्च चलाता था। उसने अपनी वसीअत में भी निर्देश दिए हैं कि उसकी बनाई टोपियों के बेचे जाने से जो पैसा मिलता है उससे उसे कफ़न दिया जाये। 

औरंगजेब मुग़ल सम्राटों में सबसे बड़ा सम्राट इस रूप में कहा जाता है कि उसका साम्राज्य अकबर महान से भी बड़ा था। वह मुग़ल बादशाहों में सबसे ज्यादा धनवान था। उसने साम्राज्य का क्षेत्रफल 32 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला दिया था और वह पन्द्रह करोड़ लोगों पर राज करता था। उसकी सेना उस समय विश्व की सबसे बड़ी सेना थी। उसके तोपख़ाने में लाजवाब तोपें थीं जिनमें सबसे बड़ी तोपें ज़फ़रबख़्श और इब्राहीम थीं। उसने अपने पिता शाहजहाँ को क़ैद कर लिया था। उसका पूरा जीवन युद्धों में बीता था। राजपूतों और मराठों के अलावा उसने अपने समय की मुस्लिम सल्तनों आदिलशाही, क़ुतुबशाही और अहमदनगर को मिट्टी में मिला दिया था। औरंगजेब ने छब्बीस साल मुसलमानों से युद्ध किया था जिसमें लाखों मुसलमान भी मारे गये थे। उसकी फौजी छावनी चलती-फिरती राजधानी हुआ करती थी जो तीस मील की लम्बाई-चौड़ाई में फैली होती थी। उसमें ढाई सौ बाज़ारे होती थीं। पचास हज़ार ऊँटों और तीस हज़ार हाथियों वाली इस सेना में 15 लाख सिपाही और दूसरे काम करने वाले होते थे। दक्षिण में छब्बीस साल तक चले इन युद्धों के कारण न केवल अकाल पड़ा था बल्कि प्लेग जैसी महामारी भी फैली थी। 

सन 1661 में एक ऐसा ख़ौफ़नाक़ दिन आया जब दिल्लीवासियों ने मौत का ताण्डव देखा। कहा जाता है सूफ़ी संत सरमद काशानी को औरंगजेब ने मृत्यु दण्ड इसलिए दिया था कि वह आधा कलमा पढ़ता था। वह सिर्फ ''ला इलाहा इल्लिल्लाह'' कहता था—मतलब, नहीं है कोई अल्लाह, अल्लाह के अलावा। जब उससे पूछा जाता था कि वह आगे ये क्यों नहीं कहता कि ''मुहम्मदुन रसूल इल्लिाह'' (मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं) तो उसका जवाब हुआ करता था कि अभी तक मैं ''ला इलाहा इल्लिल्लाह'' का ही अर्थ नहीं समझ पाया हूं, जब इसका अर्थ समझ लूँगा तो पूरा कलमा पढ़ूँगा। 

कहते हैं कि सरमद का बड़ा जुर्म यह था कि वह दारा शिकोह का समर्थक था। दूसरा जुर्म एक प्रचलित कहानी के रूप में है। कहानी यह है कि सरमद रास्ते में नंगा बैठा था। उसके पास ही एक काला कम्बल पड़ा था। उधर से औरंगजेब की सवारी गुज़री और सम्राट ने उसे नंगा देख कर कहा कि सरमद तुम अपने जिस्म को ढंक क्यों नहीं लेते। तुम्हारे पास ही कम्बल पड़ा है। सरमद ने कहा, 'मुझ पर इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। अगर तुम्हें बुरा लगता है तो मेरे जिस्म को ढंक दो।' औरंगजेब हाथी से उतरा। सरमद के पास गया और कम्बल उठाया। लेकिन फिर फौरन ही कम्बल रख दिया और हाथी पर जाकर बैठ गया। सरमद हँसा और उसने कहा—'औरंगजेब क्या छुपाना ज़्यादा ज़रूरी है? मेरा जिस्म या तुम्हारे गुनाह?' कहा जाता है जब औरंगजेब ने कम्बल उठाया था तो उसके नीचे उसे अपने भाइयों के कटे सिर दिखाई दिए थे जिनकी उसने हत्या कराई थी। 

अपने भाइयों, सरमद और गुरु तेग़ बहादुर की निर्मम हत्या कराने वाला औरंगजेब रोज क़ुरान शरीफ पढ़ता था। पता नहीं औरंगजेब कौन-सा क़ुरान शरीफ पढ़ता था। 
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('हंस' में प्रकाशित हो रही कड़ी... )

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