वरुण की कवितायेँ
- वरुण

वरुण अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में शिक्षा के छात्र हैं और यूथ फॉर इंडिया फ़ेलोशिप के तहत ग्रामविकास नाम की संस्था के साथ ओडिशा में एक दूरदराज के आदिवासी गांव को बिजली, शिक्षा और सशक्तिकरण के लिए काम कर रहे हैं.
संपर्क: varun.sharma13@apu.edu.in
यमन के शहज़ादे
ओह यमन!
तेरे शहज़ादों और परियों की कहानियां
इस मिट्टी के हर पुतले ने सुनी हैं
कभी न देखे तिलिस्म को सपनों में देखा था उन्होंने.
तेरी अनन्त कहानियों में से
आज की घटना भी तो कहानी सी है
ओह यमन! तू जल रहा है
क्या सच?
बचपन आज काँप रहा है
क्या वो जिन्दा रहेगा
या कुचल दिया जाएगा निर्जीव-जीवित पिशाच द्वारा
तेरी कहानियां तो ऐसी न थीं.
उनमें मानवी भावनाओं का घनघोर चित्रण था
तिलिस्मी गुफाएं और जिन्नात थे
कितना मासूम था सब
कितनी भयावह, फिर भी अन्त बसन्त की हवा सा.
दादीमाँ शायद एक कहानी सुनाना भूल गयीं थीं
जिसमें मूलसत्य था
जिसमें इंसान धर्म और सत्ता के पीछे पिशाच बन गया था
तेरा तिलिस्म माँस के लोथड़ों पर पलते इन नरपिशाचों में खो गया था.
यमन, तो क्या बचपन अब वैसा मासूम न रहेगा?
आओ साथी, संग चलें
क्या अभी भी पशोपेश में हो?
परिवर्तन चाहिए या नहीं?
तुम कुछ करोगे या नहीं?
कुछ कर भी सकते हो या नहीं?
नामर्द महसूस करने पर
औरत और हिजड़ों की उपाधियां देना बन्द कर दो
जिया हूँ उनके साथ, मिला हूँ अक्काई से
मर्दों से कहीं अधिक मर्दानगी के साथ जीते हैं वो.
अभी भी सोच रहे हो परिवर्तन होना चाहिये या नहीं?
घर की सुहागरात से बाहर निकलो
एक कदम से काम नहीं चलेगा
स्वयं को आन्दोलन बनाना होगा.
दुनिया के कोने कोने में जाना होगा
भाई-बहनों से फिर रिश्ता जोड़ना होगा
अखबार पढ़ने से काम नहीं चलेगा
मूक-बधिर की संज्ञा तुम्हें कैसे दूँ
वे भी अभी तो तुमसे अधिक सुदृढ़ हैं.
निकलो बाहर, पैर गन्दे करो
वो गन्दा पानी पीकर देखो
जो तुम्हारे करोड़ों बहन-भाई रोज़ निगलते हैं
रात-दिन उनके साथ उन जैसा बिता कर देखो
बच्चों को सरकारी स्कूल में पढाओ.
मैं कहता हूँ जवाब मिलेगा
बस घर से बाहर आ जाओ
सुबह-शाम के दफ्तर को आग लगा दो
आओ चौबीस घण्टे काम करें
किसी कॉर्पोरेट भेड़िये के लिये नहीं
अपने सम मनुष्यों के लिये.
जवाब की सुगन्ध आई?
चक्रव्यूह से बाहर निकलो मेरे दोस्त
चक्रव्यूह से बाहर निकलो.
कीर्तिमान
वैध-अवैध में फर्क मानते हैं हम
जितना धर्म में ईश्वर का होना-ना होना
सजातीय-विजातीय के चक्रव्यूह में फंसे रहना
दिन या रात को भयानक मान लेना.
इसकी परिणति कहाँ है?
जैसे वृत्त का निर्धारण, बिंदु है?
समय का निर्धारण, अनन्त है?
शांति का निर्धारण, प्रचण्ड है?
आज पड़ोस का कुत्ता कहीं से चित्कारती आत्मा उठा लाया
अफ़ग़ानिस्तान-इराक-पाकिस्तान-फिलिस्तीन में ड्रोन धमाके सुन आया
नवजीवन ने कुत्ते के मुँह से पहले बारूद सूंघ लिया था
और फासीवाद लोकतंत्र की जड़ों में पहुँच गया था.
ये सब निहायत बकवास है
चूंकि ना मैं इराकी हूँ, ना फिलिस्तीनी, ना अफगानी, ना पाकिस्तानी
आग काफी दूर है, इतनी की बार्बेक्यू तो तैयार हो ही जाएगा
मटन और रेड वाइन है, आओ इंटेलेक्चुअल डिस्कशन करें.
अंत में वैध-अवैध में फंस कर अमानवीयता के नये कीर्तिमान, नये सौपान खड़े करें.
बनमौली
(एक उड़िया शब्द जिसका अर्थ है “जंगल का फूल”)
हज़ार फुट गहरी कब्र में
सामूहिक रूप से गाड़ दो हमें
गहरा और गहरा
हम फिर बहार आयेंगे, ज़िन्दा.
हँसेंगे नहीं तुम पर
शोक मनायेंगे कि काश तुम भी साथ होते
तुम फिर भी सोचोगे- कि क्या छीन लूँ इनसे
और हम फ़िर खड़े हो जायेंगे, आओ छीन लो.
ये जो तुम और हम, दो हो गये हैं
रक्त का थक्का सा जम गया है
रुक रुक कर सांसें लेता हूँ
कब समझोगे की सांसें तुम्हारी भी रुक रही हैं.
अपने हिस्से की साँसों से तुम्हें जिन्दा रखे हुए हूँ.
जन्मदाह
चिता की जलती हुई आग में दफ़न
पंचमहाभूतों की चिंगारियां उठा
चूल्हे में झोकूँ तो भूख मिटेगी
विज्ञान का कोई भी सिद्धान्त इसे सिद्ध करने का बल नहीं रखता.
राख में अटकी आग
कल में अटके हमारी तरह
घमण्ड में चूर है
अस्तित्व के, अतीत के.
अतीत जो राख है
आग देख सकती है आँखें खोलकर
पर एक सच देखना किसे पसन्द है
सौ जगमगाते झूठ जो हैं, मृगमरीचिका सी दीपावली मनाते हुए.
श्मशान में कुआँ पूजन करने आई नवमाता
चौराहे पर मिट्टी में पैर अटके थे
बुझी हुई राख के अनगिनत कण
मिन्नतें कर रहे हैं, हंस रहे हैं, रो रहे हैं
दे आई एक और राख के बोरे को पेट से निकाल कर.
माँ आज बहुत खुश है.
डुबकी।
तुम कितना भी सोच लो
महानता की पराकाष्ठा पार कर लो
सोच में तुम गांधी हो, मार्क्स हो, लेनन हो, चे ग्वेवरा हो
तुम हो वही जो तुम कर सको।
तुम सोचते हो
भिखारी को दस रुपये दे बड़े हुए
एक मिनट किन्नर को दे महान हुए
किसी सेक्स वर्कर की तरफ मुस्कुरा अमर हुए
पर तुम हो वही दो टके के भेड़िये, याद रखो।
तुम सोचते हो
गिरे हुए को उठा लोगे
डूबते हुए को बचा लोगे
सोचते हो सिरफिरे हो तुम
हाँ हो, लेकिन जब तक जान पर न बन आये खुद तुम्हारे।
तुम सोचते तो बहुत हो
सोच सोच में दुनिया जीत ली तुमने
निरंतर पवित्रता की अग्नि में जल भी लिये
पर तुम हो वही- जातिवादी, लिंगभेदी, रंगभेदी, धर्म और धंधे के कीड़े।
मत भूलो।