ग़ज़लें
~ प्रताप सोमवंशी
प्रताप सोमवंशी को कुछ रोज़ पहले एक मुशायरे में सुना, उनकी ग़ज़लों के एक-एक शेर पर वाह निकलती रही, आप ख़ुद देखें... 'लक्ष्मण रेखा भी आखिर क्या कर लेगी / सारे रावण घर के अंदर निकलेगें' और इसे देखिये 'सभी के वास्ते करता बहुत है / बुरा यह है कि कहता बहुत है... /दुकानों पर यहां रिश्ते टंगे हैं / जो दिखता है वही बिकता बहुत है... भरोसा कांच सा होता है बेशक / अगर टूटे तो ये चुभता बहुत है...' ग़ज़लों में यथार्थ को बहुत क़रीब से पिरोते हैं प्रताप, कार्यक्रम के बाद उनको अलग से मुबारकबाद दी, ग़ज़लों पर बातें हुईं .... और अब उनकी कुछ ग़ज़लें आपके लिए शब्दांकन पर ...
उम्मीदों के पक्षी के पर निकलेंगे। ... 1
प्रताप सोमवंशी
25 सालों से पत्रकारिता से जुड़े प्रताप सोमवंशी का जन्म प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश में 2 नवंबर 1968 को हुआ है. प्रताप सोमवंशी गजलें कहते हैं और कविताएँ और कहानियां लिखते हैं, उनकी गजलों का संग्रह- 'इतवार छोटा पड़ गया' शीघ्र आने वाला है।
प्रताप पिछले २० साल से देश-दुनिया में कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर लगातार लिखते और बोलते रहे हैं। हिन्दी में पहली दक्षिण एशियाई मीडिया फेलोशिप के अलावा बुंदेलखंड के किसानों की आत्महत्या और खेती के सवाल पर लेखन भी उनकी इसी कड़ी का हिस्सा हैं। अमर उजाला और दैनिक भास्कर में संपादक रहे चुके प्रताप सोमवंशी इस समय 'हिन्दुस्तान हिन्दी' दिल्ली संस्करण के संपादक।
ब्लाक-1 फ्लैट-607
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लक्ष्मण रेखा भी आखिर क्या कर लेगी।
सारे रावण घर के अंदर निकलेगें॥
दिल तो इस्टेशन के रस्ते चला गया।
पांव हमारे थोड़ा सोकर निकलेंगे॥
अच्छी-अच्छी बातें तो सब करते हैं।
इनमें से ही बद से बदतर निकलेंगे॥
बाजारों के दस्तूरों से वाकिफ हैं।
सारे आंसू अंदर ढककर निकलेंगे॥
दिल वाले तो आहट पर चल देते हैं।
अक्ल के बंदे सोच-समझकर निकलेंगे॥
यह जो एक लड़की पे हैं तैनात पहरेदार सौ। ...2
देखती हैं उसकी आंखें भेड़िए खूंखार सौ॥
चुटकियों में पेश कर देगी मेरी मुश्किल का हल।
अपने बक्से से निकालेगी अभी दो चार सौ॥
आएंगी जब मुश्किलें तो वह बचा लेगा मुझे।
इक भरोसा देगा औ करवाएगा बेगार सौ॥
रेस में होगी सड़क पर जिन्दगी की गाड़ियां।
एक अस्सी तो होगी एक की रफ्तार सौ॥
कितना मुश्किल काम है अच्छाइयों को ढूंढना।
यूं तो खबरों से भरे हैं रोज ही अखबार सौ॥
ये जो चेहरे पे मुस्कुराहट है। ...3
इक सजावट है इक बनावट है॥
मुझमें तुझमें बस एक रिश्ता है।
तेरे अंदर भी छटपटाहट है॥
कुछ तगादे हैं कुछ उधारी है।
उम्र का बोझ है थकावट है॥
हर कोई पढ़ समझ न पाएगा।
वक्त के हाथ की लिखावट है॥
गालियों की तरह ही लगती है।
ये जो नकली सी मुस्कुराहट है॥
वो पागल सब के आगे रो चुका है। ...4
किसी का दुख कोई कब बांटता है॥
हजारों बार मुझसे मिल चुका है।
जरूरत हो तभी पहचानता है॥
कभी तो मुल्क का मालिक कहेंगे।
कभी एक अर्दली भी डांटता है॥
ये घर है अपनी मर्जी जी रहा है।
पिता है रात सारी जागता है॥
वे प्यारे दिल में आकर बस गए हैं।
जो उनको भा गया वो देवता है॥
जब कहानी में लिखा किरदार छोटा पड़ गया। ...5
वो बड़ा इतना था कि अखबार छोटा पड़ गया।।
सादगी का नूर चेहरे से टपकता है हूजूर।
मैने देखा जौहरी बाजार छोटा पड़ गया।।
मुस्कुराहट ले के आया था वो सबके वास्ते।
इतनी खुशियां आ गईं घर-बार छोटा पड़ गया।।
दर्जनों किस्से-कहानी खुद ही चलकर आ गए।
उससे जब भी मैं मिला इतवार छोटा पड़ गया।।
एक भरोसा ही मेरा मुझसे सदा लड़ता रहा।
हां ये सच है उससे मैं हर बार छोटा पड़ गया।।
उसने तो अहसास के बदले में सबकुछ दे दिया।
फायदे नुकसान का व्यापार छोटा पड़ गया।।
घर में कमरे बढ़ गए लेकिन जगह सब खो गई।
बिल्डिंगें ऊंची हुई और प्यार छोटा पड़ गया।।
गांव का बिछड़ा कोई रिश्ता शहर में जब मिला।
रूपया, डालर हो कि दीनार छोटा पड़ गया।।
मेरे सिर पर हाथ रखकर मुश्किलें सब ले गया।
एक दुआ के सामने हर वार छोटा पड़ गया।।
चाहतों की उंगलियों ने उसका कांधा छू लिया।
सोने, चांदी, मोतियों का हार छोटा पड़ गया।।
सुबह से रात तक घर में बटी है। ...6
जरा सा छेड़ दो तो हंस पड़ी है।।
कोई अहसास जब कांधा छुए तो।
खुशी से अगले ही पल रो पड़ी है।।
कोई मुश्किल में हो आगे दिखी है।
कि उसके हाथ में जादू छड़ी है।
बहुत रोती है पर तनहाइयों में।
सभी रिश्तों की वो ताकत बनी है।।
मैं उसकी तिलमिलाहट देखता हूं।
किसी ने बात जब झूठी कही है।।
उसे महसूस करता हूं मैं जितना।
वो उससे और भी गहरी मिली है।।
भरोसा जैसे-जैसे बढ़ रहा है।
कई परतों में वो खुलने लगी है।।
उसे जलते हुए दिन याद आए।
सुबह से इसलिए शायद बुझी है।।
चमक चेहरे पे उसके लौट आई।
कोई उम्मीद की लौ जल उठी है।।
सभी के वास्ते करता बहुत है। ...7
बुरा यह है कि कहता बहुत है।।
गलत एक बात मैं था बोल आया।
अभी तक होंठ ये जलता बहुत है।।
कि जिसके हर तरफ मतलब छपा हो।
वो सिक्का आजकल चलता बहुत है।।
दुकानों पर यहां रिश्ते टंगे हैं।
जो दिखता है वही बिकता बहुत है।।
भरोसा कांच सा होता है बेशक।
अगर टूटे तो ये चुभता बहुत है।।
कभी खत में कोई ख्वाहिश न आई।
ये घर मजबूरियां पढ़ता बहुत है।।
उफनाई है और चढ़ी है। ...8
दुख से नदिया फूट पड़ी हैं।।
पहले दिन छोटे लगते थे।
अब लगता है रात बड़ी है।।
आसमान है उलझा उलझा।
चांद सितारों में बिगड़ी है।।
महंगे कपड़े, लम्बी गाड़ी।
आंख मगर उजड़ी उजड़ी हैं।।
बाजारों में प्यार बढ़ा है।
घर में पर तकरार बढ़ी है।।
सपने थककर घर लौटे हैं।
देहरी पर एक आस खड़ी है।।
एक झोली भर ख्वाब मिले हैं।
आंखों से तो नींद चिढ़ी है।।
सबकी मुश्किल ढक लेती है।
घर के मुखिया की पगड़ी है।।
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2 टिप्पणियाँ
नए तेवर और सोच की ये सभी ग़ज़लें एक से बढ़ कर एक हैं। सबसे बड़ी बात है शेरों में कहन की सादगी जो बहुत मुश्किल से शायरी में आती है , मुश्किल बात को आसान लफ़्ज़ों में कहना बहुत बड़ा हुनर है और प्रताप भाई में ये हुनर कूट कूट कर भरा दिखाई दे रहा है। िनकीपहली ग़ज़लों की किताब का बेताबी से इंतज़ार है। मैं इनके सुनहरे भविष्य की कामना करता हूँ।
जवाब देंहटाएंनीरज गोस्वामी
अपनी सी लगती हैं यह रचनाएं..
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