कितने वादे थे ? सरकार... : विभूति नारायण राय | Vibhuti Narayan Rai on PM India


कितने वादे थे ? सरकार... : विभूति नारायण राय

एक दृश्य याद कीजिये — साल भर पहले एक आदमी कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक अपने भाषण को सुनने के लिए इकट्ठा भीड़ से बीच-बीच में टेक की तरह हुंकारी भरवाता था। वह प्रश्न वाचक लहजे में ललकारता था — 'अच्छे दिन ...' और उन्मादी भीड़ आवाज़ लगाती थी : 'आयेंगे.......'। 

बी.बी.सी. ने नरेंद्र मोदी को फ़ौजी शब्दावली में दागो और भागो प्रधानमंत्री घोषित किया है।
vibhuti narain rai's editorial of Vartman Sahitya June 2015 issue
एक सपना बेचा जा रहा था और अनगिनत बार का छला भारतीय मतदाता एक बार फिर उसे खरीदने को तैयार था। मध्य वर्ग सपनों का सबसे बड़ा खरीददार होता है। अपनी वर्तमान स्थिति से ऊबा हुआ यह तबक़ा हमेशा आशा के ऐसे सूत्र तलाशता रहता है जिनमें उसकी जिन्दगी के बेहतर होने की संभावनायें छिपी हों। हर बार एक जादूगर खड़ा होता है : कुछ अलग सा दिखने वाला और सम्प्रेषण का माहिर यह बाजीगर : अपने सामने खड़ी भीड़ के समक्ष सपनों की गठरी खोलता है और थान के थान फैलाता चला जाता है। औचक...बुरबक हिन्दुस्तानी भकुआया हुआ सा देखता है कि उसकी मुश्किल जिन्दगी के कितने आसान हल हैं इस नये जादूगर के पास! एक बार... बस एक बार यह आ जाय और फिर जिन्दगी का सब कुछ पटरी पर आ जाएगा। सरकारी दफ्तरों में उसे दुरदुराया नहीं जाएगा... बाबू हाथ जोड़े दाँत चियारे खड़ा होगा और बिना रिश्वत उसके काम करेगा, भ्रष्ट नेता जेल में होंगे और स्विस बैंक में जमा अरबों खरबों के उनके खाते से पन्द्रह लाख रुपया उसके खाते में आ जाएगा, चमचमाती सडक़ों पर उसके स्वस्थ गदबदे बच्चे ऐसे स्कूलों में पढऩे जायेंगे जिनमें अध्यापक पढ़ाते भी होंगे, अस्पतालों में दवाएं और इलाज करने वाले डाक्टर होंगे वगैरह वगैरह छोटी बड़ी इच्छाएं हैं जो इस महानायक के गद्दी पर बैठते ही पूरी हो जायेंगी। अफसोस यही है कि हर बार कार्टूनिस्ट लक्ष्मण का यह आम आदमी ठगा जाता है।

'वर्तमान साहित्य' जून, 2015 - आवरण व अनुक्रमणिका | 'Vartman Sahitya' June 2015, Cover and Content

'वर्तमान साहित्य' 

जून, 2015 

कबिरा हम सबकी कहैं/ विभूति नारायण राय 

आलेख
क्या भारतेंदु मुसलिम विरोधी थे? / डा. मुश्ताक अली
रेणु की कहानियों में राजनीतिक चित्राण / भारत यायावर

धारावाहिक उपन्यास
कल्चर वल्चर / ममता कालिया 

कहानी
वह रात किधर निकल गई / गीताश्री
तमाशा / मधु अरोड़ा 
दास्तान-ए-शहादत / हरिओम

कविताएं / ग़ज़लें
ऋतुराज, मनोज कुमार श्रीवास्तव, प्रताप सोमवंशी (ग़ज़लें), प्रमोद बेड़िया

बातचीत
विजय मोहन सिंह के बारे में विष्णु चन्द्र शर्मा से महेश दर्पण की बातचीत

अनुवाद
लाल बाल वाले (अमरीकी कहानी) / मूल: मेरी रोबर्ट्स राइन्हर्ट रूपांतरण: विजय शर्मा
मेंढ़क का मुंह (लातिनी अमरीकी कहानी) / मूल: इजाबेल अलेंदे अनु.: सुशांत सुप्रिय

स्मरण
वह ‘अपर दिनकर’ हमारा! (स्मरण में हैं आज दिनकर) / सुवास कुमार

मीडिया
बढ़ता ही जा रहा है मीडिया में आर्थिक पहलू /प्रांजल धर

स्तंभ
रचना संसार / सूरज प्रकाश
तेरी मेरी सबकी बात /नमिता सिंह
सम्मति: इधर-उधर से प्राप्त प्रतिक्रियाएं
कुछ ही दिनों पहले बाबा रामदेव और अन्ना हजारे में अपनी मुक्ति तलाशने वाले इस आम आदमी का मोहभंग हो चुका था पर वह एक बार फिर फंसा। इस बार के जादूगर के पास अद्भुत सम्मोहक भाषा थी। इसके पहले सिर्फ जवाहर लाल नेहरू के पास यह भाषा थी पर उन्होंने इसका इस्तेमाल लोगों को ठगने के लिए नहीं किया था। उनके लिए भाषा लोगों को एक आधुनिक और वैज्ञानिक चेतना से लैस प्रगतिशील समाज का सपना दिखाने का माध्यम थी। उनकी भाषा का कमाल 1951 में दिखा जब पहले आम चुनाव की पूर्व संध्या पर वे देश भर में घूम घूम कर मतदाताओं को धर्म निरपेक्षता का मतलब समझाते रहे। 26 जनवरी 1950 को जो संविधान देश में लागू किया गया था उसने भारत को एक धर्म निरपेक्ष गणतन्त्र बनाया था और 1952 का आम चुनाव इसी संविधान पर जनमत संग्रह था। अगर कांग्रेस जीत भी जाती पर चुनाव में भाग लेने वाली हिंदुत्व की तीन पार्टियां : हिन्दू महासभा, राम राज्य परिषद और भारतीय जनसंघ मिलकर सम्मानजनक सीटें हासिल कर लेतीं तो इस संविधान के लिए निरंतर खतरा बना रहता। पंडित नेहरू आसान हिन्दुस्तानी में अपने विशाल श्रोता समुदाय को, जिसमें एक चौथाई से कम साक्षर थे और धर्माधारित विभाजन की रक्तरंजित स्मृतियाँ जिनके मानस पटल पर अंकित थीं, को यह समझाने में कामयाब हुए कि भारत का भविष्य एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने में ही सुरक्षित है और हिन्दू राज्य बनते ही उसके टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।  उनके अशिक्षित मतदाता को यह आसान हिन्दुस्तानी कितनी आसानी से समझ में आ गयी यह सिर्फ इस तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि जहां कांग्रेस को प्रचंड बहुमत मिला वहां हिंदुत्व की तीनों पार्टियां मिलकर कुल दस सीटें ही जीत पायीं।
'अच्छे दिन आयेंगे' की हुंकारी भरवाने वाले ने भाषा का कैसा इस्तेमाल किया? क्या थे उसके सपने? किस तरह का समाज बनाना चाहता था वह? दो वर्षों तक कारपोरेट मीडिया और पेशेवर मीडिया एजेंसियों के माध्यम से सावधानी पूर्वक बनाई गई छवि पर मोदी का अतीत भारी पड़ जाता था। जब वे बातें विकास की करते तो लोगों को 2002 का गुजरात याद आ जाता। वे औद्योगिक विकास के वादे करते और हमारे सामने तथाकथित गुजरात मॉडल में औने-पौने भावों में उद्योगपतियों को बांटी गयी जमीनें कौंध जातीं। वे महात्मा गांधी का जि़क्र करते और लोग आधी धोती पहनने और आधी ओढऩे वाले महात्मा की तुलना महंगे डिजायनर कपड़े पहनने वाले ऐसे व्यक्ति से करने लगते जिसके वार्डरोब में इतने सेट भरे हैं कि एक बार उतर जाने के बाद कई साल तक उनका नम्बर नहीं आता। बहरहाल भाषा जीती और उसका जादूगर एक बार फिर छलने में कामयाब हो गया पर उसका सारा खोखलापन साल भर में ही सामने आ गया है। प्रचार के सारे संसाधन होने के बावजूद किसी प्रधानमन्त्री का जादू जनता के सर से इतनी जल्दी नहीं उतरा था।

बी.बी.सी. ने नरेंद्र मोदी को फ़ौजी शब्दावली में दागो और भागो प्रधानमंत्री घोषित किया है। वे एक घोषणा करते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। यह सब इतना ताबड़तोड़ होता है कि पिछली घोषणा को याद करना मुश्किल हो जाता है। स्वच्छता, नदियों की सफाई, मेक इन इंडिया, जन धन... एक के बाद एक इतने कार्यक्रम घोषित हुए कि उन्हें याद करने के लिए भी दिमाग़ पर जोर डालना पड़ेगा। अब तो उनके सहयोगी भी इन घोषणाओं को गंभीरता से नहीं लेते तभी तो भाजपा अध्यक्ष अमित शाह काले धन को वापस लाकर हर भारतीय के खाते में पन्द्रह लाख डालने की योजना को महज जुमलेबाजी करार देते हैं।

पता नहीं किसके अच्छे दिन आये हैं? कम से भारतीय जनता के दिन तो अभी भी बुरे ही हैं।

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