नामवर होना ...
~ भरत तिवारी
महान तो सब बनना चाहते हैं। अब ये अलग बात है कि इन दिनों - बनें भले ही नहीं, लेकिन ख़ुद को महान समझना और औरों को ये समझाने का दौर ज़ोर पर है।
खैर, बीते दिनों राजेन्द्र यादवजी की पहली बरसी थी। उदासी तो थी ही, ऐसे इंसान का साथ ना होना, जिसने ‘साथी’ की परिभाषा से उम्र-का-अंतर मिटा दिया हो, कितना कष्टदायी होगा ! और थोड़े ही और दिनों पहले उनका जन्मदिन था, हमेशा की तरह उसे उत्सव की तरह मनाया भी गया... याद आती रही लेकिन अच्छा लगा कि उनसे प्रेम करने वाले कुछ ही सही, मौजूद थे वहां। जाने क्यों नामवर सिंह जी की याद आ रही थी – राजेंद्रजी के दिवंगत शरीर को देख उस सुबह उनकी आँखों में आया आँसू देखा था मैंने, उनके चेहरे पर घोर पीड़ा के भाव थे, ‘मेरा दोस्त चला गया’ कुछ ऐसा कहा था। ठीक से याद नहीं है और क्या बोले थे वो अपनी धीमी भर्राई आवाज़ में। ‘सर अब आप ही है और किससे कहूँगा दिल की बात’ मैंने जब कहा तो उनकी आँखों में आश्वस्त करने वाले भाव दिखे थे।
‘फ़ैज़ाबाद पुस्तक मेला’ से जब मैं वापस दिल्ली लौटा तो एक ख़त इंतज़ार कर रहा था, खोला तो पता चला कि राजेंद्रजी की पहली बरसी 28 अक्टूबर, हिंदी भवन में मनाई जाएगी। बरसी के कोई तीन दिन पहले नामवर जी की याद ने फिर से घेर लिया, उनसे मिले इधर काफी वक़्त हो गया था, स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण वो कहीं आ जा नहीं रहे थे। कुछ ही दिन पहले केदारनाथ सिंह जी और मैं अकेले किसी कार्यक्रम में जा रहे थे, गाडी चलाते हुए ही उनसे ज़िक्र किया था इस बात का मैंने – ‘नामवर जी किसी की नहीं सुनते भाई, आप उन्हें आज से जान रहे हैं और मेरी एक उम्र बीत गयी उनके साथ’ – केदारनाथ जी बोले। ...... शाम का वक़्त था मैंने नामवर जी को फ़ोन मिलाया। उन्हें बताया की तीस अक्तूबर को राजेंद्रजी की बरसी है और मैं चाह रहा हूँ कि आप आयें।
- ‘भई मैं कहीं आ जा नहीं रहा हूँ आजकल’
- ‘सर ! पता है... लेकिन फिर भी .... । चाहता हूँ कि आप हों’ (धीमी आवाज़ में फोन पर कहा मैंने) उधर से जवाब नहीं आने पर बात आगे बढ़ाई ‘मैं आ जाऊंगा आपको लेने – आप बस हाँ कर दें’।
- कितने बजे का वक़्त तय है ? कहाँ है ?
- हिंदी भवन में पाँच बजे शाम को।
- रुको मैं डायरी में नोट कर लूँ ! चार बजे निकलना होगा। आ जाना।
अब इसे महानता न कहूँ तो क्या कहूँ? क्योंकि मुझे अच्छी तरह पता है कि उम्र के इस पड़ाव में उनका स्वास्थ्य और शायद अकेलापन उन्हें कहीं जाने नहीं दे रहा है ... रहेंगे वो अकेले ही कभी किसी के साथ कहाँ रह पाए हैं वो...
बरसी में उनका राजेंद्रजी को शिद्दत से याद करना भले ही कुछ लोगों को समझ नहीं आया हो, लोगों का ये सोचना कि जीते जी तो कुछ अच्छा कहा नहीं और अब कह रहे हैं, “प्रेमचंद के असली वारिस राजेन्द्र यादव है...”। ये वही लोग हैं शायद जो स्वयं को महान समझते हैं। मैंने अपनी आँखों से राजेंद्रजी और नामवरजी का एक-दूसरे के प्रति सम्मान देखा है – लाख मतभेद होने के बावजूद !!! वो चाहते तो मुझे मना कर सकते थे। जैसी अवधारणा है कि नामवर जी नई कहानी और उसकी त्रयी खास कर राजेंद्रजी के विरुद्ध ही रहे तब तो उन्हें किसी भी हाल में नहीं आना चाहिए था। लेकिन वो आये और लोगों के चेहरों पर अलग-अलग तरह के भाव भी दिखे – उन्हें आया देख कर !!!
जब वो बोल रहे थे तब रचना यादव की आँखों में आयी नमी बता रही थी कि उनके पारिवारिक रिश्तों की जड़ को साहित्य समाज कभी नहीं देख सका है। दुनिया मतलब की है – और वहां उपस्थित लोगों की संख्या का कम होना, यही बता रहा था। राजेंद्रजी, जिनका दफ्तर ऐसा स्कूल रहा जिसने अनेकानेक लोग लेखक, संपादक दिये। जहाँ की चाय की बातों का ज़िक्र संस्मरणों में होता रहता है। अब इसे दुर्भाग्यपूर्ण कहा जाए कि श्मशान में लिखी बातों को याद किया जाये कि उनकी पहली बरसी थी और वो तमाम लोग जो उनके होने से हुए वो वहां मौजूद नहीं थे। नामवर जी का कहना कि यहाँ लोग कम हैं लेकिन जो हैं वही असली लोग हैं, यही हैं जो राजेन्द से प्रेम करते हैं।
उनके घर से हिंदी भवन का रास्ता करीब पौन घंटे का होगा, सो आने-जाने में मिले ढेढ़ घंटे पूरी तरह हमारे थे। नामवर जी के साथ दिल्ली में कहीं जाना मजेदार रहता है, आपको रास्ते का पता होना ज़रूरी नहीं है – उन्हें साहित्य के रास्तों की तरह दिल्ली के रास्ते भी खूब अच्छी तरह पता हैं, साहित्य में पथ भटकने वालों को रास्ता दिखाने वाले प्रो० नामवर सिंह की ‘हर बात’ कोई न कोई शिक्षा दे रही होती है, आप ग्रहण करें या नहीं ये आपकी किस्मत। गाडी के म्यूजिक सिस्टम में गुलज़ार की नज्मों की सीडी लगी थी, वही बज रही थी। उनके साथ गुलज़ार को सुनना एक नया अनुभव था। नज्मों की गहराई बढ़ गयी थी। कुछ एक को हमने दो-तीन बार सुना। जिस तरह वो गुलज़ार की बड़ाई करते दिखे वैसा बाकी वरिष्ठों में ना के बराबर दिखता है। वो ठीक वैसे ही चाव से सुन रहे थे जैसे गुलज़ार-प्रशंसक सुनते हैं। और ये नज़्म तो कितनी ही बार सुनी “मिटा दो सारे निशां के थे तुम/ हिलो तो जुम्बिश न हो कहीं पर / उठो तो ऐसे के कोई पत्ता हिले न जागे / लिबास का एक एक तागा/ उतार कर यों उठो के आहट से छू ना जाओ / अभी यहीं थे / अभी नहीं हो / ख्याल रखना के ज़िन्दगी की / कोई भी सिलवट / ना मौत के पाक साफ़ चेहरे के साथ जाए ” सुनी ।
वापसी में फैज़ की बातें हो रही थीं और मेरे ये पूछने पर कि आपने टीना सानी की आवाज़ में ‘चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले’ सुनी है ? बोले – सुनाओ ! मोबाईल काम आया और ग़ज़ल सुनी गयी – यूट्यूब पर। बीच में कहीं यह बात भी हुई कि किस तरह उन्होंने राजेंद्रजी को समझाया था, उस प्रतिकूल प्रभाव को कम करने के लिए जो उनके पहले प्यार के प्रति लगाव के कारण उनकी ज़िन्दगी (शादी के बाद की) पर पड़ रहा था। उनकी बातों में वो महानता साफ़ सुनाई दे रही थी जो एक सच्चे दोस्त की दूसरे को दी जाने वाली नेक सलाह में होती है.... और लोग कहते हैं कि वो दोस्त नहीं थे। इस बारे में और ज्यादा नहीं लिखूंगा बस एक बात कि उनकी दोस्ती उतनी ही ज़िन्दा है जितनी लोग उसके न होने की बातें करते हैं। यदि विश्वास नहीं हो रहा हो तो – कभी उनसे राजेन्द्रजी के बारे में बात करके देखिये, बगैर पूर्वाग्रह के। हम अलखनंदा स्थित शिवालिक, उनके घर पहुँच गए थे। दूसरी मंजिल पर उनके घर तक उन्हें छोड़ के निकलने से पहले, बड़ी हिम्मत करके उनसे पूछा ‘’सर मेरी ग़ज़ल कैसी थी’’ ? दरअसल बरसी के कार्यक्रम की शुरुआत मेरी राजेंद्रजी को समर्पित ग़ज़ल (‘तेरे जाने का ग़म घटता नहीं है / निशाँ पत्थर से ये मिटाता नहीं है ) से हुई थी लेकिन नामवर जी से पूछने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी..... “मेरी आज की शाम का हासिल थी, तुम्हारी ग़ज़ल” अवाक मैं उन्हें देखता ही रह गया। “अब अपना दीवान छपवाओ !” मैंने उनके पैर छुए और आज्ञा लेकर सीढियां उतर गया।
भरत तिवारी
ईमेल: mail@bharattiwari.com
मो: 09811664796
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एक और वाकया – ‘हिंदी भवन’ में उस शाम ‘हंस’ की अनुक्रमणिका ‘क्या, कब, कहाँ ?’ का विमोचन भी हुआ, नौ सौ पेज की किताबघर से प्रकाशित, ग्यारह सौ रुपये की उस संग्रहणीय पुस्तक को लेने की इच्छा उछाल मार रही थी, राजेन्द्र जी याद आ रहे थे कि वो होते तो उनसे कहता “सर एक प्रति मेरे लिए भी...”। ये कार्यक्रम के समाप्त होने के बाद की बात है, भारत भारद्वाज जी ने उन्हें ‘वर्तमान साहित्य’ का अंक दिया, रचना यादव दीदी उनके आने से खुश नज़र आ रही थीं उनसे बात करके हम लिफ्ट की तरफ बढे कि अनंत विजय आ गए और नामवर जी से कुछ बात करने लगे, उनको मिला गुलदस्ता और किताबें आदि मैंने पकड़ी हुई थीं। और तभी न जाने मुझे क्या सूझी मैं उनके पास गया और कान में बोला “सर एक प्रति मेरे लिए भी...” ..... । उन्होंने मुझे स्नेह-दृष्टि से देखा और दो कदम दूर उस मेज की तरफ बढ़ गए, जहाँ प्रकाशक सत्यव्रत खड़े थे, जहाँ बिक रही थी ‘क्या, कब, कहाँ ?’ ।
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