
संकीर्ण स्वार्थों और मतभेदों को भुलाना होगा नहीं तो मोदी सरकार हमारी हर आज़ादी को छीन लेगी
~ विमल कुमार
मेरे प्रिय कहानीकारों में से एक उदयप्रकाश ने प्रो० कालबुर्गी की हत्या के विरोध में साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटने का जो फैसला किया है, उसका मैं स्वागत करता हूँ। इस तरह उन्होंने अपने ऊपर लगे उस दाग को धोने की कोशिश की है जो भाजपा संसद योगी आदित्य नाथ के हाथों पुरस्कार लेने से उनपर लगा था । सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने उदयप्रकाश पर छींटाकशी भी की है कि उन्होंने सस्ती लोकप्रियता बटोरने के लिए ये कदम उठाया है लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता हूँ । हालाँकि ये सच है कि उन्हें इस से पहले योगी आदित्यनाथ वाला पुरस्कार भी लौटा देना चाहिए । मुझे उम्मीद भी है कि वे देर सबेर उसे भी लौटा देंगे लेकिन मेरे लिए ये बहस का मुद्दा नहीं है, मेरे लिए चिंता का विषय ये है कि कालबुर्गी की हत्या पर जिस तरह का रोष साहित्य और बुद्धिजीवीसमाज में व्यक्त होना चाहिए था और मीडिया में जिस तरह इसे केन्द्रित किया जाना चाहिए था वैसा क्यों नहीं हुआ जबकि शीना बोहरा हत्याकांड को बेचने में चैनलों में एक तरह से होड़ लगी है । ये कोई पहली घटना नहीं । दाभोलकर और पंसारे के बाद ये ऐसी तीसरी वारदात है । पहली बार हिन्दी के किसी लेखक ने ऐसे किसी मुद्दे पर पुरस्कार लौटाया है । साहित्य अकादेमी पुरस्कार पाने वाले किसी भी हिन्दी लेखक ने आज तक कोई पुरस्कार नहीं लौटाया है । सुमित्रानंदन पन्त को भी अकादेमी पुरस्कार जरूर मिला था लेकिन उन्होंने भाषा के सवाल पर पद्मभूषण लौटाया था । आपातकाल में रेणुजी ने जरूर पद्मश्री लौटाया था । अगर राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, अरुणकमल और वीरेन डंगवाल जैसे साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त लेखक भी अगर अपना पुरस्कार लौटा दें तो मुझे अधिक खुशी होगी और इस तरह सरकार पर दबाव बनेगा. यह जानते हुए कि भारतीय राज्य पूरी तरह क्रूर हो चूका है, इस से समाज में विरोध का स्वर तेज जरूर होगा और आवाज़ दूर तक जायेगी... लेकिन उदयप्रकाश के पुरस्कार लौटने की घटना को मीडिया ने अधिक तवज्जो नहीं दी है क्योंकि ये मीडिया अपने मूलचरित्र में सत्तालोलुप और साम्प्रदायिक तथा बाजारू अधिक है । ऐसे में इस पतनशील मीडिया से बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती है । लेकिन इस से अधिक चिंता इस बात की है कि राजनीतिक दलों ने भी इस खतरनाक घटना का उतना कडा प्रतिरोध नहीं किया या इस प्रतिरोध का उतना व्यापक असर नहीं हुआ या हुआ तो मीडिया में उसकी आवाज़ कम सुनायी पडी । पुणे में पंसारे की घटना के विरोध में वामदलों की एक विशाल रैली जरूर हुई थी लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी उसको बहुत दिखाया नहीं गया । दरअसल मोदी सरदार के बाद सांप्रदायिक ताक़तें जिस तरह मजबूत हुई है उस से अभिव्यक्ति की आज़ादी के खतरे बढ़ गए हैं। सोशल मीडिया पर इसके अनेक उदाहरण देखे गए। दिल्ली पुलिस तो आप के नेताओं को फ़ौरन पकड़ लेती हैं लेकिन कविता कृष्णन पर सोशल मीडिया में भद्दी टिप्पणी करनेवाले के खिलाफ कोई कड़ी करवाई नहीं करती है । इस से साफ़ पता चलता है कि सत्ता और प्रशासन दोनों हिंदुत्व के रंग में रंगते जा रहें है । संघ परिवार के दरबार में प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी सर झुकाते हैं, संघ परिवार सत्ता को रिमोट कंट्रोल से नहीं चलाता नहीं बल्कि डायरेक्ट कंट्रोल करता हैं। ऐसे में कालबुर्गी जैसे वैज्ञानिक सोचवालों की हत्या तो होनी ही थी। इसलिए ऐसे समय में लेखकों कलाकारों को एकजुट होने की अधिक जरूरत है अतः उदयप्रकाश के पिछले अतीत पर हमला करने की बजाय ताकतवर हिन्दुत्ववादियों पर निशाना साधने की जरूरत है । ये देखकर खुशी हुई कि तीस से अधिक संगठनों ने जंतर मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया । लेकिन जब तक ये आन्दोलन राष्ट्रीय आन्दोलन नहीं बनता तब तक कालबुर्गी जैसे लोग हत्या के शिकार होते रहेंगे लेकिन दुर्भाग्य से कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल भी इसे गंभीरता से नहीं ले रहे । इसका नतीजा है कि मोदी सरकार का मन लगातार बढ़ता ही जा रहा है, वो हमेशा अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने की कोशिश कर रही है। कभी सोशल मीडिया को तो कभी चैनलों को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही है, यह देखते हुए खतरा कहीं अधिक बढ़ गया है । मोदी सरकार लगातार एक झूठे सपने दिखा रही है चारों तरफ एक नकली और हास्यास्पद यथार्थ को रचने में लगी है । उसने हर चीज़ की री-पैकेजिंग करनी शुरू कर दी है । बार बार झूठे आश्वासन देना और दबाव में आकर यु-टर्न लेना उसकी फितरत बन गयी है । चाहे बिहार के विशेष पैकेज का मामला हो या फिर भूमि अधिग्रहण बिल का मामला हो । लेकिन चिंता की बात है कि विपक्ष को जिस तरह मज़बूत होना चाहिए था, वो है नहीं । कभी मुलायम तो कभी ममता, मोदी से हाथ मिलाने के चक्कर में रहते हैं। कालबुर्गी की हत्या खतरे की घंटी के सामान है । लेखक समाज को कम से कम सचेत हो जाना चाहिए और हमें अपनी आवाज़ और बुलंद करनी होगी । हमें अपने संकीर्ण स्वार्थों और मतभेदों को भुलाना होगा नहीं तो मोदी सरकार हमारी हर आज़ादी को छीन लेगी । हिन्दू राष्ट्र बनाना संघ परिवार का एजेंडा है । वे बहुलता और गंगा-जमुनी संस्कृति के खिलाफ हैं। वे तानाशाही के पक्षधर हैं वे केन्द्रीयकरण के पक्ष में हैं। उनका कापरेटिव federalism भी एक दिखावा है । भाजपा की करनी और कथनी में भी बहुत फर्क है ।
आज हिन्दी के लेखकों को ये बात समझने की जरूरत है । हिन्दी साहित्य शुरू से अब तक प्रतिरोध का साहित्य रहा है । उसमें तर्क और संवेदना के लिए जगह रही है । मुझे उम्मीद है कि हिन्दी समाज मोदी के इस पाखण्ड को समझेगा लेकिन दुर्भाग्य ये है कि हिन्दी पट्टी का स्वर्ण मध्यवर्ग बुरी तरह सांप्रदायिक होता जा रहा है बिहार का चुनाव इसका उदाहरण हैं। पिछले चुनाव में भी हम यह देख चुकें हैं। लेकिन जब तक हम खतरे नहीं उठाएंगे तब तक अधिनायकवादी ताकतें हमें इस तरह कुचलती रहेंगी । यह समय मूक रहकर तमाशा देखने का नहीं है ।
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