कैंसर से जूझ रहे जाने-माने म्यूजिक डायरेक्टर आदेश श्रीवास्तव की शुक्रवार 4 सितम्बर की देर रात मुंबई के कोकिलाबेन अस्पताल में देहांत हो गया, उनके पारिवारिक मित्र कवि-पत्रकार आदेश श्रीवास्तव उनको याद करते हुए कहते हैं -"मैं जिस आदेश श्रीवास्तव को जानता हूँ, मेरी नज़र में उस आदेश का क़द, उसके फ़िल्मी क़द से कहीं ऊँचा है."
शब्दांकन अपनी गहरी संवेदना व्यक्त करते हुए उनका संस्मरण आप तक ला रही है ....
संघर्ष के कण्ठ से जब कोई सुर निकलता है तो उस सुर का नाम आदेश श्रीवास्तव हो जाता है
~ आलोक श्रीवास्तव
मैं जिस आदेश श्रीवास्तव को जानता हूँ, मेरी नज़र में उस आदेश का क़द, उसके फ़िल्मी क़द से कहीं ऊँचा है. चमक-दमक में घिरा फ़िल्मी ज़िंदगी का तारा. संगीत का सितारा. दोस्ती, इंसानियत, हमदर्दी और सरोकारों के उजालों से भरा. वो उजाला अब नहीं है. मैं मुंबई से दिल्ली लौट रहा हूँ. आज उसके शरीर को अपनी आँखों के सामने धूं-धूं कर जलते देखा है. पीली लपटों को नीले आकाश में खोते देखा है. लेकिन कलाकार कहाँ खोता है. वो तो जहाज़ के बग़ल वाली सीट पर बैठा अब भी गुनगुना रहा है :
रागिनी बन के हवाओं में बिखर जाऊँगा,
अब नई तर्ज़, नया गीत गुनगुनाऊँगा.
संघर्ष के कण्ठ से जब कोई सुर निकलता है तो उस सुर का नाम आदेश श्रीवास्तव हो जाता है. कोई फ़िल्मी बैकग्राउंड नहीं. परिवार का फ़िल्मों से कोई क़रीबी रिश्ता नहीं. बस, मध्यप्रदेश के जबलपुर में बैठे एक 17-18 साल के लड़के को धुन सवार होती है और वो मुंबई आ जाता है.
उँगलियाँ ड्रम पर थिरकती थीं तो पहले पहल इंडस्ट्री में 'ड्रमर' कहलाता है. यहीं से संघर्ष का पन्ना खुलता है. क्योंकि ये वो आकाश नहीं था जिसका सपना आदेश ने देखा था. वो फ़िल्मों के दरवाज़े खटखटाता है. कोई बंद रहता है तो कोई खुल जाता है. 1990 के बाद आदेश रातों रात इंडियन फ़िल्म इंडस्ट्री की 'आँखों' का तारा हो जाता है. संगीत जगत का सितारा हो जाता है. यहाँ एक बहुत पुराना जुमला फिर याद आता है : 'इसके बाद उसने पीछे मुड़ कर नहीं देखा.'
आदेश भाई से मेरी मुलाक़ात का समय 1995 में तय होता है. ये फ़िल्मों में उनके संगीत की तूती बोलने का वक़्त हुआ करता है. साथ काम करने का कोई मौक़ा करवट लेने को ही होता है कि मैं मुंबई से वापस अपने वतन अपने शहर विदिशा आ जाता हूँ. मिलने-मिलाने का सिलसिला फ़ोन और मोबाइल तक सिमट जाता है. दस बारह बरस गंगा में पानी बह जाता है. अचानक पुराने रिश्ते फिर ताज़ा होते हैं. हम दोनों साल 2010 से फिर संपर्क में आते हैं. अब रिलेशन, प्रोफ़ेशन नहीं रह जाता है. बल्कि परिवारों तक चला आता है. दोनों में एक पारिवारिक रिश्ता बन जाता है.
मेरा मुंबई जाना और उनका दिल्ली आना, एक दूसरे से मिलने की ज़रूरत बन जाता है. धीरे-धीरे मैं जान पाता हूँ कि उनके अंदर हर वक़्त सिर्फ़ संगीत ही नहीं गुनगुनाता है. बल्कि एक शानदार शख़्स, हमदर्द दोस्त, जज़्बाती भाई और ख़ूबसूरत इंसान भी टिमटिमाता है. जिसकी मद्धम रोशनी में उनका 'मुकम्मल और बेहतरीन इंसान' सबको अपना दीवाना बनाता है.
एक रोज़ मैं दिल्ली से उन्हें फ़ोन लगाता हूँ. बताता हूँ कि पाँच साल की एक मासूम बच्ची के साथ उसी के एक अपने ने बेरहमी से बलात्कार कर दिया. बात ख़त्म हो जाती है. रात को आदेश भाई का फ़ोन आता है. दूसरी तरफ़ से दो बेटों 'अवितेश और अनिवेश' का पिता बोल रहा होता है. जिसे पाँच साल की गुड़िया के साथ हुए हादसे ने सोने नहीं दिया है : "आलोक, गुड़िया के दर्द पर कुछ लिख कर दो. बनाता हूँ, बहुत बेचैनी है मन में यार !"
दूसरे ही दिन आदेश, नौ साल की अपर्णा पंडित की आवाज़ में गुड़िया के दर्द को समर्पित गीत, रिकॉर्ड करके दिल्ली भेज देते हैं. 'आजतक' उसे गुड़िया के दर्द की आवाज़ बना कर चलाते है. एक कलाकार के सरोकार से रूबरू कराते हैं -
नज़र आता है डर ही डर तेरे घर बार में अम्मा,
नहीं आना मुझे इतने बुरे संसार में अम्मा.
इधर उत्तराखंड में बाढ़ से हाल बेहाल होता है, उधर आदेश अपने गायक मित्रों को टटोलते हैं. सिंगर शान मिल जाते हैं. आदेश बच्चों की तरह खिल जाते हैं. मुझे फ़ोन लगाते हैं : "आलोक, उत्तराखंड की त्रासदी पर एक गीत लिख, जल्दी. मैं उसे बनाऊँगा और शान के साथ गाऊँगा." मैं हतप्रभ रह जाता हूँ. बॉलीवुड की चकाचौंध से घिरे संगीत के इस सितारे को उत्तराखंड की त्रासदी भी बहा ले जाती है. गीत, केयर टुडे की मुहिम का हिस्सा बनता है. चैनल पर बजता है और दर्द ज़ुबानों पर चढ़ जाता है :
न जीवन बचा न घरों की निशानी,
पहाड़ों पे टूटा , पहाड़ों का पानी.
समय और समाज के साथ इस कलाकार के सरोकार का रिश्ता यहीं नहीं थम जाता है. एक दिन वो मुझे फिर एक धुन सुनाता है. कहता है : "एक नेशन सॉन्ग बनाते हैं." दादा (अमिताभ बच्चन जी) से गवाते हैं. मेरे सामने भी नए ख़्वाब के वरक़ खुल जाते हैं. अमित जी आदेश से बहुत प्यार करते हैं, गीत को आवाज़ देने के लिए राज़ी हो जाते हैं. रिकॉर्डिंग के दिन आदेश दो बजे रात तक स्टूडियो में काम करते हैं. गाना बनता है. चैनल पर चलता है और ज़ुबानों पर चढ़ता है : 'आओ सोचें ज़रा, आओ देखें ज़रा, हमने क्या क्या किया.' एक कलाकार का सरोकार फिर एक बार अपना परचम लहराता है. आदेश का कलाकार सेल्यूलाइट की लाइट्स से निकलकर कुछ अलग कर दिखाता है.
26 जुलाई 2015, कोकिलाबेन अस्पताल अंधेरी का रूम नंबर 14011, सुबह के क़रीब 11 बजे. ये आदेश भाई और मेरी आख़िरी मुलाक़ात का वक्त होगा, मुझे मालूम न था. बेसुध पड़े आदेश के पास उस वक़्त उनकी सहायोगी और दोस्त टीना थीं. मुझे कमरे में आता देख उनकी नीम बेहोशी टूटी. हम हँसे-मुस्कुराए. साथ नाश्ता किया. देखते ही देखते कमरे की उदासी शायरी और मौसिक़ी की महफ़िल में बदल गई. मेरी एक पुरानी रोमांटिक ग़ज़ल पर उनका दिल अटका हुआ था-
मंज़िलों पर कहाँ है नज़र आजकल,
आप जो हो गए हमसफ़र आजकल.
उसकी तर्ज़ बनाने लगे. जो आदेश भाई को जानते हैं उन्हें पता है कि जैसे ही कोई धुन, कोई तर्ज़ उनके ज़हन में आती थी वो फ़ौरन उसे अपने मोबाइल में रिकॉर्ड कर लिया करते. इस बार मेरे मोबाइल को भी उनकी इस तर्ज़ को रिकॉर्ड करने का मौक़ा मिला. बैड पर बैठे-बैठ ही उन्होंने ग़ज़ल की धुन बनाई और मोबाइल में रिकॉर्ड कर ली. टीना हतप्रभ थी, बोली- ''कलाकार को बस कला मिल जाए, दुनिया की कोई दवा नहीं चाहिए फिर. कोई मानेगा कि अभी थोड़ी देर पहले ये कैसे बेसुध पड़े थे ?'' आदेश भाई के कलाकार की दवा सचमुच उनकी कला ही थी. संगीत ही था. वे जब तक जीए उसी के सहारे जीए और अब आगे भी हमारी यादों में अपने संगीत के सहारे ही ज़िंदा रहेंगे. और ग़ालिबन वो तर्ज़ भी उनकी आख़िरी तर्ज़ों के रूप में कभी सामने आए और हम सब उसे भी गुनगुनाएँ. आमीन.
(लेखक जाने-माने कवि-पत्रकार और आदेश श्रीवास्तव के पारिवारिक मित्र हैं.)
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