मौन-लेखक सबसे खतरनाक हैं, साहित्य अकादमी सम्मान की राजनीति - दिविक रमेश | Politics of Sahitya Academy Award - Divik Ramesh


अथ चालू पुरस्कार प्रकरण

- दिविक रमेश


वे लेखक सबसे खतरनाक हैं
जो न इधर बोल रहे हैं न उधर,
बस मौन हैं
पर पूछता हूं कि उनसे समझदार कौन हैं?


साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त भारतीय साहित्यकारों में से हिंदी सहित अन्य भाषाओं के कुछ साहित्यकारों ( शायद 25 जिनमें पुस्तक लौटाने वाले भी हैं) ने पुरस्कार लौटाया है या लौटाने की बात की है और उनका नोटिस हिन्दी आदि भारतीय भाषाओं के ही नहीं अंग्रेजी तक के अखबारों ने लिया है। उधर पुरस्कार से नवाजे जा चुके कुछ साहित्यकारों ने लौटाने के तरीके के प्रतिरोध को मृदु या कठोर स्वरों में नकारा भी है और उनके अपने तर्क हैं। हिंदी ही नहीं देश के प्रतिष्ठित एवं शीर्षस्थ आलोचक एवं चिंतक डॉ. नामवर सिंह ने संतुलित ढंग से सत्ता के प्रति विरोध के लिए सकारात्मक कदम उठाने की बात कही है। उनके अनुसार लेखकों को राष्ट्रपति, संस्कृति मंत्री या मानव संसाधन मंत्री से मिल कर विरोध जताना चाहिए और उन पर दबाव बनाना चाहिए न कि सत्ता के विरोध के लिए लेखकों की अपनी स्वायत्त संस्था साहित्य अकादमी और निर्वाचन से बने इसके अध्यक्ष को घेरे में लेते हुए साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने चाहिए। जिसकी हत्या हुई है उसके परिवार की मदद की जानी चाहिए। उनका आशय शायद यह रहा हो कि जो पुरस्कार राशि वे साहित्य अकादमी को लौटा रहे हैं उसे उनके परिवारों को दी जाए जिन्होंने हत्या के कारण अपने (साहित्यकार) जन खोए हैं।


सोशल मीडिया पर, इसी बीच, विचार यह भी आ रहा है कि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष को ही इस्तीफा दे देना चाहिए क्योंकि एक आदरणीय साहित्यकार की, उनके स्वतंत्र विचारों के कारण, हत्या के बावजूद साहित्य अकादमी ने भले ही साहित्यकार के अपने प्रदेश में शोकसभा आयोजित करके दुख और आक्रोश प्रकट कर दिया हो लेकिन दिल्ली में ऐसा नहीं किया गया। दिक्कत यहीं से शुरु होती है। और इसी कारण पुरस्कार लौटाने या न लौटानेवाले लेखक विभाजित हो गए हैं। समर्थन और प्रतिरोध का, किसी भी प्रजातांत्रिक समाज में हर नागरिक का अधिकार होता है और इसका विरोध कोई अहमक ही करेगा । लेकिन प्रतिरोध के ढंग का भी कम महत्व नहीं होता प्रतिरोध वही उचित और सफल होता है जिसका तीर सही निशाने की ओर होता है और अपने स्वार्थी दावपेंचों, निजी रागद्वेषों से ऊपर उठकर होता है। अन्यथा बहुत बार सारी बहस कहीं कि कहीं जाकर टांय टांय फुस होकर रह जाती है और ऐसे नतीजे फेंकने लगती है जो खतरनाक स्थिति में ला डालते हैं । एक ही जमात को बांट कर रख देती है। मेरी निगाह में निर्भया कांड जैसा कुछ हो या किसी भी नागरिक (जिसमें केवल साहित्यकार नहीं, आम से आम निर्दोष आदमी भी होता है) हो साहित्यकार उसके लेखन का सरोकार होता है। हत्या का मामला हो अथवा आत्महत्या के लिए मजबूर करने की परिस्थितियां पैदा करने वाली ताकतों का मसला हो, किसी भी संवेदनशील और जागरूक रचनाकार के लिए लगभग समान होता है और जिम्मेदार सत्ता के प्रति प्रतिरोध का कारण बनता है। इस नाते, मैं समझता हूं कि पुरस्कार लौटाने वाले, पुरस्कार न लौटाने की राह को ठीक न मानते हुए अन्य ढंग से विरोध करने वाले अथवा असगर वजाहत, कवि विजेंद्र, स्वयं विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, तेजेंद्र शर्मा अथवा मेरे जैसे साहित्य अकादमी पुरस्कार से फिलहाल वंचित साहित्यकार एक मंच पर हैं और मात्र आदरणीय कुलबर्गी और दादरी कांड के कारण ही नहीं बल्कि मामूली से मामूली आदमी के कहने और जीने के लिए बनायी जा रही भयावह स्थितियों के असली जिम्मेदार सत्ताधारियों के प्रति पूरी तरह प्रतिरोध के लिए कटिबद्ध हैं। जाहिर है कि किसी भी नागरिक की हत्या के कम से कम दो अहं पहलू तो होते ही हैं । एक तो यह कि हमारी सत्ता या व्यवस्था ने नागरिकों के लिए कैसी सुरक्षा प्रदान की है और दूसरा यह कि सुरक्षा में चूक हो भी गई तो हत्यारों के प्रति कैसा रवैया अपनाती है। पर हर मुहिम में कुछ ऐसे लोग भी सम्मिलित हो जाया करते हैं जो जानबूझकर और अंजाने भी सारी मुहिम के लक्ष्य को ही स्वार्थी या भ्रमित मोड़ देने के प्रयासों में लग जाते हैं। इसी के चलते एक राष्ट्रीय स्तरीय व्यापक मसले और उसके लिए व्यापक प्रतिरोधात्मक संघर्ष को साहित्य अकादमी जैसी स्वायत्त संस्था के छोटे से वातानुकूलित सभागार तक, वी.आई. पी. नुमा ढंग से सीमित करने की कोशिश की जा रही है । जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काट डालने की हरकत कर रहे हैं और चाह रहे हैं कि उसे मान्यता भी दी जाए। मसला जिस प्रकार का है उसके लिए सड़क (आधुनिक शब्दावली में जंतर मंतर आदि ) पर उतरने का साहस दिखाना होगा। नामवर जी वाली राष्ट्रपति आदि पर दबाव बनाने वाली बात पर गौर करना होगा । अच्छी खबर है कि बंगाल के 100 से अधिक लेखक राष्ट्रपति तक पहुंच गए हैं। देखिए न हत्यारे और उनके समर्थक तथा पोषक खुले और छुट्टे घूम रहे हैं और रचनाकार एक-दूसरे पर लाठियां भांज रहे हैं। अलग अलग पार्टियों के राजनेता समर्थन और असमर्थन के नाम पर , लेखकों के हलके में भी अपनी अपनी रोटियां सेंकते प्रतीत होने लगे हैं । ऐसे में, खासकर कुछ हिंदी लेखकों और समर्थकों के बारे में , साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के इस्तीफे की मांग से जो शक कुछ लोगों के मन में उभर रहा है, ठीक सा लगने लगता है। जगजाहिर है कि पहली बार चुनाव के माध्यम से अध्यक्ष पद पर सर्वसम्मति से चुना गया हिन्दी का एक जागरूक आलोचक और संवेदनशील कवि, तभी से कुछ रचनाकारों की, जो खुद या किसी अपने को इस पद के सर्वथा योग्य समझते रहे हैं, (भले ही चुनाव प्रक्रिया ने उन्हें पछाड़ दिया हो) कुंठा बने हुए हैं हालांकि वर्तमान अध्यक्ष का, उनकी खुली और गुटनिरपेक्ष सोच के चलते, अन्य भाषाओं समेत हिंदी के रचनाकारों के द्वारा प्रायः स्वागत ही अधिक हुआ था। सो लगता है उन कुछ के हाथों बटेर लग गयी है। आज भी इस अल्प मत का शायद ही कोई समर्थन करे कि जिस कारण से उनका इस्तीफा माँगा जा रहा है वह उचित है अथवा हत्याओं के लेकर वे एक संवेदनशील कवि भी होने के नाते किसी से कम पीड़ा और आक्रोश रखते हैं। पर हममें से बहुतेरे सुजान आशय के स्थान पर शब्द पकड़ू या उड़ाऊ अधिक होते हैं। हो सकता है मेरे भी किन्हीं शब्दों को लेकर बहस अधिक हो जाए और आशय एक ओर पड़ा सिसकता रह जाए। लेकिन कम से कम यह समय सब लेखकों के एकजुट होकर संघर्ष करने का है और असली निशाने पर तीर चलाने का है


लेखक, मोतीलाल नेहरू महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्राचार्य तथा अतिथि आचार्य, हांगुक यूनिवर्सिटी ऑफ फोरन स्टेडीज़, सोल, दक्षिण कोरिया, हैं। 
संपर्क:
बी.295, सेक्टर-20, नोएडा - 201301
ईमेल : divik_ramesh@yahoo.com
मोबाईल : 9910177099
अंत में स्पष्ट कर दूं कि मैंने किताबी बात नहीं की है बल्कि पूरी जिम्मेदारी के साथ अनुभवजन्य बात कही है। । मैं स्वयं साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं के निर्णायक मण्डल में रहा हूं, कविता पर सोवियत लॆंड नेहरू अवार्ड, हिन्दी अकादमी के साहित्यकार सम्मान सहित तीन पुरस्कार, कोरियाई दूतावास का सम्मान, एन.सी.ई.आर.टी और उत्तर प्रदेश संस्थान के उस विधा में सर्वोच्च पुरस्कार प्राप्त कर चुका हूं। साहित्य अकादमी ने मेरी दो पुस्तकें प्रकाशित की हैं और एन.बी.टी. और प्रकाशन विभाग ने भी अनेक पुस्तकें प्रकाशित की हैं। यही नहीं, मॆं नहीं जानता पुरस्कार लौटाने वालों में से कितने आम आदमी के मुद्दों को लेकर जेल में गए हैं, मैं नौकरी का खतरा उठा कर, व्यापक मुद्दे के लिए, सरकार के खिलाफ, तीन दिन दिल्ली की तिहाड़ जेल में रह चुका हूं। लेकिन इन सबके बारे में गाना या मात्र पुरस्कार आदि लौटा कर,और वह भी महज साहित्य अकादमी या उसके अध्यक्ष या किसी भी पदाधिकारी के प्रति दिल्ली में रस्मी शोकसभा न आयोजित करने के कारण, चर्चित हो जाने की राह अपनाना मुझे अपने को असली मुद्दे से भटकाना प्रतीत लगता है हालांकि मैं अच्छी तरह जानता हूं कि यह चर्चित या सुर्खियों वाली बात हर लौटाने वाले सम्माननीय साहित्यकार पर कतई लागू नहीं होती। यूं मेरी निगाह में, रचनाकार की दृष्टि से तो सभी सम्माननीय हैं। 


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