हिंदी कहानी: शहर की सुबह - इंदिरा दांगी | Hindi Kahani : Indira Dangi

हिंदी कहानी: शहर की सुबह - इंदिरा दांगी #शब्दांकन

शहर की सुबह

- इंदिरा दांगी


रचना घर से दूध की थैलियाँ लेने निकली है।


ऊँचाई-तराईनुमा बेढब इलाक़े में बने एलआईजी, एमआईजी, अपार्टमेंटों के बीच की ऊबड़-खाबड़ सड़क पर हमेशा इधर-उधर की नालियों का पानी रिसता रहता है। लोग स्कूटरों-स्कूटियों और कारों को बचा-बचा कर निकाल रहे हैं। स्कूल जाते बच्चे अपनी यूनीफार्म की, मैली सड़क के छीटों से भरसक रक्षा कर रहे हैं। जमादार झाडू लगा रहे हैं। महरियाँ काम पर आ रही हैं। हॉकर अपना काम समेट बचे अख़बारों के साथ लौट रहे हैं। दूध के बूथ पर ख़ासी भीड़ है; रहती ही है। पति के दफ़्तर और बच्चों के स्कूल निकल जाते ही गृहणियाँ अमूमन यहाँ दूध-ब्रेड वगैरह ख़रीदने आती हैं। हर दिन नकद; दुकानदार और ग्राहक के बीच उधार वाला कोई मीठा वास्ता नहीं इस तेज़ रफ़्तार शहर की जि़न्दगी में।

दुकान से दूध की थैलियाँ ख़रीदकर रचना जैसे ही मुड़ी; चौंक गई। मायके के घनिष्ठ पड़ोसी सुनील भईया और सुधा भाभी अपने दो बच्चों, एक अटैची और एक झोले के साथ, सड़क किनारे एक मकान के बाहर खड़े थे और वृद्ध मकानमालिक को एक पर्ची दिखाते हुये कुछ पूछते-से दिख रहे थे। साफ़ था कि वे उसी का घर तलाश रहे थे।

रचना का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। उसने घूँघट निकालकर चेहरा छिपा लिया और तेज़-तेज़ कदमों से उसी सड़क से चली आई जिसपर भटकते उसके वे पुराने और कभी घनिष्ट रहे परिचित उसका घर तलाश रहे थे।

दो छोटे कमरों के अपने एलआईजी फ़्लैट का ताला खोल वो रसोई में पहुँची और गैस चूल्हे पर भगोनी में दूध उबलने रख दिया। फ्रिज से बोतल निकालकर ठंडा पानी पीते सोचने लगी; आसमान छूती मँहगाई, पति की मामूली नौकरी, फ़्लैट के लोन की मासिक किश्तें और रोज़-रोज़ की न जाने कितनी ज़रूरतें; इन सबके बीच कहाँ गुंजाइश है कि किसी अतिथि का सत्कार किया जाये! यह एलआईजी फ़्लैट तो पति-पत्नी और एक बेटी से ही भरा-भरा लगता है। ऐसे में जब दो-चार मेहमान आ रुकते हैं तो घर का माहौल बदल जाता है। पति खिंचे-खिंचे, बेटी चिड़ी-चिड़ी और वो शर्मिन्दा-शर्मिन्दा रहती है।


...पति की झुंझलाहट छुपाती रचना!

...आतिथ्य पर छुपी बचत लुटाती रचना!

...परिवार और अतिथियों की सुविधाओं-असुविधाओं के मध्य संतुलन साधती-गिड़गिड़ाती रचना!

...अतिथियों को अपने अभावग्रस्त जीवन की उपलब्धियाँ दिखाती रचना!

...व्यथित रचना! पीड़ित रचना!

...बस! अब रचना नहीं चाहती कि उसका घर किसी का आतिथ्य करे; एक बार भी नहीं!


उसने गैस बन्द कर दी गोकि दूध उबल नहीं पाया था। फ़्लैट का ताला लगाया और सोचने लगी, मेहमान ताला देखेंगे और घण्टे-दो घण्टे प्रतीक्षा कर लौट जायेंगे पर ये घण्टे-दो घण्टे वो काटे कहाँ? यों वो किसी के घर बैठने-बतियाने जाती नहीं या ये कहिये, जा नहीं पाती।

महानगरों की निम्न मध्यवर्गीय गृहणियाँ, जिनके मायके दूर कस्बों में हैं, योद्धा सरीखा जीवन जीती हैं। हर एक दिन एक नया युद्ध है... रुपया-रुपया बचाने का युद्ध ... छोटे-छोटे सुख जुटाने का युद्ध ... शहरी स्वार्थपरता सीखने का और उससे जूझने का युद्ध ... कस्बाती संस्कारों को अपने भीतर दबाये रखने का युद्ध ... और अभावों को आवरणों में ढाँपने का युद्ध! अपने-अपने युद्धों की ये लहूलुहान विजेता स्त्रियाँ पड़ोसिनों के पास बैठ हँसने-बतियाने की कस्बाती प्रसन्नताओं के लिये तरस कर रह जाती हैं। इस बहुमंजि़ला इमारत और आसपास की ऐसी कई बहुमंजि़ला इमारतों के अनगिनत फ़्लैटों की गृहणियाँ हर शाम, पतियों के लौटने से पहले, दड़बेनुमा घरों से निकलकर, सड़क पर अपने छोटे बच्चों के साथ टहलती हैं और एक-दूसरे से अपनी नितांत व्यक्तिगत बातों, मामूली उपलब्धियों एवं छोटे-छोटे आडम्बरों का बखान कर दूसरों से अधिक स्वयं को तुष्ट करती हैं। इन मित्रताओं के मूल में आत्मीयता नहीं आवश्यकताएं होती हैं ... जीवन को सुखमय कहते रहने की आवश्यकताएं!

अस्तु, उसे कहीं न कहीं तो जाना ही था सो वो सामने वाली बिल्डिंग की पाँचवी मंजि़ल के चौथे फ़्लैट में रहने वाली साक्षी सक्सेना के दरवाज़े तक पहुँच गई। दरवाज़ा साक्षी ने ही खोला,

‘‘अरे, रचना तुम? इतनी सुबह-सुबह कैसे आना हुआ?’’

प्रश्न में सीमित परिचय का-सा अपरिचित भाव था। ईवनिंग वॉक के समय वाली जानी-पहचानी आत्मीयता नहीं थी जिसे चेहरे पर लाकर साक्षी अपने पति के दोषों, सास की बुराइयों, बेटे की स्कूली उपलब्धियों या अपने धनी मायकेवालों के बड़प्पन की लम्बी चर्चायें किया करती थी।

‘‘सुबह कहाँ है? नौ तो बजने वाले हैं। तुम रोज़ शाम शिकायत करती हो न कि मैं कभी तुम्हारे घर नहीं आती तो मैंने सोचा, आज तुम्हारे घर हो ही आऊँ!’’

‘‘हाँ; पर इतनी सुबह-सुबह? अभी तक तो ये भी ऑफि़स को नहीं निकले हैं।’’ वो सामने से नहीं हटी।

‘‘ओह! कोई बात नहीं, मैं चलती हूँ।’’

‘‘शाम को वॉक के लिये चलेंगे। छह बजे तक बाहर आ जाना।’’ सहसा ही आवाज़ में वही चिर परिचित आत्मीयता उतर आई थी।

‘‘देखूँगी। आज बहुत काम है घर में।’’


रचना का मन कड़वा हो गया। अपने घर में उसने इसी साक्षी को तीन बार चाय पिलाई है वो भी नमकीन और बिस्कुटों के साथ! हूँऽह ... इस शहर के लोग कितने धूर्त है! पति ठीक ही कहते हैं कि वो अब तक कस्बाती मूर्खताओं से बाहर नहीं निकल पाई है।


कहाँ जाये अब? सोचते-सोचते वह सड़क पर आ गई।


‘‘अरे रचना जी, आप यहाँ घूम रही हैं और वहाँ आपके फ़्लैट के बाहर आपके रिश्तेदार खड़े हैं। वैसे, आप गयीं कहाँ थीं सबेरे-सबेरे?’’


ये थे मनमोहन तिवारी, इस अपार्टमेंट की स्वयंभू सोसायटी के बुज़ुर्ग सेक्रेट्री जो जवान औरतों को देखते ही मुस्कुराने लगते हैं। आसपास की सभी औरतें इनसे बात करने से कतराती हैं क्योंकि सिर्फ़ एक ही बार इनसे अगर मुस्कुराकर बात कर ली जाये तो अगले दिन ये अधिकारपूर्वक घर पहुँच जाते हैं चाय पीने; और वो भी पति की अनुपस्थिति में! रचना भी संक्षिप्त उत्तर दे, कतराकर चली आई।

उसकी पड़ोसन गृहणी तुलसी राय सब्ज़ी के ठेलेवाले से प्याज़ तुलवा चुककर अब मोलभाव कर रही है। तुलसी ज़्यादा दाम कैसे दे दे और ठेलेवाला कम दाम कैसे ले ले -दोनों ही के लिए अपनी-अपनी गाढ़ी कमाई की रक्षा करने के युद्ध सरीखी है रुपये-दो रुपये पर की जा रही बहस ... ज़्यादा और कम के बीच कहीं भाव ठहरेगा ही जिसे दोनों पक्ष अपनी जीत मानेंगे अपने-अपने दिलों में।


सब्ज़ी तो कितनी मँहगी हो गई है!! -उसने ख़ुद को याद दिलाया और बेमन से अपने अपार्टमेंट में घुसी; पर चौथी मंजि़ल स्थित अपने फ़्लैट की ओर जाने के बजाय दूसरी मंजि़ल स्थित मालती अवस्थी के फ़्लैट की ओर चल दी।

मालती की जडें भी किसी कस्बे में हैं और इस ठगनी महानगरीय जीवनशैली को कोसतीं, वे दोनों एक-दूसरे में अपने कस्बे तलाशती हैं। कस्बाती संस्कारों, महानगरीय धूर्तताओं, शहरी नीचताओं और अपने ठगे जाने को भोलापन, भलमनसाहत या ऐसा ही कुछ करार देने जैसे विषयों पर दोनों लगभग एक ही जैसे शब्दों का प्रयोग करती हैं।

मालती उसे देखते ही खिल उठी,

‘‘अरे! रचना तुम? चलो अच्छा हुआ आ गयीं। ये अभी-अभी निकले हैं दफ़्तर को। पूरा घर बिखरा पड़ा है। इत्ता काम है और देखो ना, ये मीनू गोद से उतरती ही नहीं। तुम ज़रा ले लो इसे। मैं बस पाँच मिनिट में नहाकर आती हूँ। अललेले, मीनू बिटिया जाओ मौसी के पास।’’

दस माह की अपनी मोटी, पिन्नी लड़की रचना को पकड़ाकर मालती झट बाथरूम में घुस गई। रचना ने बच्ची को गोद में बिठा लिया और कमरे में जहाँ-तहाँ बिखरे सामान को देखने लगी। उसकी इच्छा चाय पीने की हो रही थी।

मालती नहाकर निकली और जल्दी-जल्दी घर के काम समेटने लगी। उसने झाडू लगाई और फिर कपड़े धोने बैठ गई।

‘‘मालती, मीनू ने पेशाब कर ली है। लो, इसकी चड्डी बदल दो।’’

‘‘रचना, अंदर कमरे में छोटी अलमारी में इसके कपड़े रखे हैं, एक चड्डी उठा लाओ और इसे पहना दो। बस, मैं ज़रा कपड़े और धो लूँ फिर बर्तन माँजकर चाय बनाऊँगी, फुर्सत से बैठकर पीयेंगे। मीनू के साथ तो कुछ काम हो ही नहीं पाता है। जब ये सो जाती है तब मैं तसल्ली से कुछ खा-पी पाती हूँ।’’ बाथरूम में मोगरी से जल्दी-जल्दी कपड़े कूटती मालती कहती जा रही थी।




रचना को लगा, वो निरी मूर्ख है और मालती? इसे दिल्ली आये अभी दिन ही कितने हुये हैं; और ये कितनी चंट होती जा रही है! चाय की भी तब पूछती है जब सामने वाला इसकी इस रोअन्टी मौड़ी को घण्टा भर गोद में लादे रहे। मैं कितने सालों से दिल्ली में रह रही हूँ पर ऐसा चंटपना...??


रचना का मन यहाँ भी कड़वा ही हुआ। मालती उसे रोकती रही; और वो उस मोटी, गीली, रोती बच्ची को गोद से उतार, बहाना कर चली आई।

‘‘वो समझती है, मैं निरी मूर्ख हूँ! मैं उसकी पिन्नी लड़की को सम्हालूँगी और वो जल्दी-जल्दी अपने सब काम निबटा लेगी ताकि मैडम दोपहर भर घोड़े बेचकर सोयें! अरे, गये वो ज़माने जब लोग मुझे उल्लू ...पर हाय! मैं अपने घर के काम कब करूँगी? बाल्टी में कपड़े भीगे रखे हैं। सिंक में जूठे बर्तनों का ढेर लगा ह। पोंछा लगाना है और खाना भी तो बनाना है! भूख़ लग रही है! ... ये कमबख़्त मेहमान, आते ही क्यों हैं ?’’

रचना अपार्टमेंट की पार्किंग में एक कार की ओट में दीवार की ओर मुँह करके खड़ी हो गई। जब मेहमान बिल्डिंग से बाहर निकलेंगे; वो यहाँ से देख लेगी और फिर अपने घर चली जायेगी।

वह सोचने लगी, कैसे? आखि़र कैसे इतने नाते-रिश्तेदारों को उसका पता मिल जाता है? अम्मा-बाबूजी से कितनी बार विनती की है कि हरेक को न बताया करें कि उनकी बेटी दिल्ली में रहती है, वो भी ख़ुद के फ़्लैट में। अरे, ये तो दिल्ली है; हरेक को कभी-न-कभी यहाँ काम पड़ता ही है। मुफ़्त में रहने-खाने की व्यवस्था हो जाये तो लोग क्यों न चले आयें उसके घर?

अब उसे अपने मायकेवालों पर गुस्सा आने लगा। क्यों ब्याहा उसे दिल्ली में? वो भी एक ऐसे आदमी के साथ जिसकी आमदनी बहुत नहीं है! और अब अगर ब्याह ही दिया है तो जीने क्यों नहीं देते उसे इस कटी-कटी जि़न्दगी में? शहर और कस्बे को एक साथ तो नहीं जिया जा सकता ना? पर उन्हें क्या? वे तो हर ऐरे-ग़ैरे-नत्थू खैरे को उसके घर का पता लिखा देते हैं; भुगते बेचारी वह! सारे के सारे मेहमान उसके मायके तरफ़ के; पति दिल को लगने वाली ऐसी-ऐसी बातें करते हैं कि...

उसकी आँखों में आँसू उतर आये। मायके में बिताये दिन याद आये, वो घर याद आया ... अतिथियों के स्वागत में मुस्कुराता घर, ... मनुहार कर-करके भोजन परोसता घर, ... सत्कार में बिछ-बिछ जाता घर, ... मेलजोल वालों के ठहाकों से भरा-भरा घर! ऐसा एक दिन नहीं जाता था जब बाबूजी या भाईसाहब के साथ कोई बाहर का आदमी भोजन न करे। अतिथि, अपनत्व की आँच में पके उस सुस्वादु भोजन की बड़ाई करते न अघाते। चाय और नाश्ते का हिसाब रखने वाला कोई न था। भाभी कड़ाही भर पोहा बनातीं और देखते-ही-देखते सब चट! पड़ोसी और किरायेदार उस विशाल आँगन में यूँ घुले-मिले फिरते मानो उसी का एक हिस्सा हों।

पार्किंग की सीलन और काई से मैली दीवार को वह ताकने लगी। इस अपार्टमेंट के पीछे गंदा नाला बहता है जिसका बदबूदार पानी इस दीवार से बारहों महीने रिसता है।

उसका रिश्ता दिल्ली तय हुआ था। नाते-रिश्तेदार, परिचित-पड़ोसी ... सब ख़ुश! वे दिल्ली आने-जाने की अपनी ज़रूरतों- मजबूरियों का जि़क्र करते और उसकी भावी ससुराल में ठहरने की चर्चा करने लगते। वह हरेक से आत्मीयता भरी मनुहारें करती-सब आना! हाँ, सब आना!

बड़ा शहर, कमाऊ पति, सुविधासम्पन्न एकल गृहस्थी और स्वतंत्र जीवन; कितनी सुनहली कल्पनाओं के साथ ब्याहकर आई थी वो यहाँ!

सीढि़यों से उतरती, भारी-भरकम, साँवली, प्रौढ़ा श्रीमती अरोरा ने (जिन्हें दूसरों की निजताओं को सार्वजनिक करने की ऐसी बुरी आदत थी कि अपार्टमेंट की युवा गृहणियों ने उनका नाम ‘लोकल न्यूज़ चैनल’ रख छोड़ा था और सिवाय श्रीमती अरोरा के, सब इस नाम से वाकिफ़ थे) उसे टोका,

‘‘अरे रचना! क्या हुआ? वहाँ कार के पीछे कोने में क्यों खड़ी हो?’’

‘‘कअ...कुछ नहीं। कुछ भी तो नहीं। हाँ... वो... मैं बिल्डिंग के चौकीदार को तलाश रही हूँ।’’

‘‘क्यों? कुछ काम है उससे?’’

‘‘हाँ, है तो सही; पर चौकीदार कहीं दिख ही नहीं रहा।’’

‘‘हूँऽह, दिखेगा कैसे कमबख़्त? रात का नशा अब तक उतरा ही नहीं होगा। मुआँ अपने कमरे में पड़ा सो रहा होगा। रात के एक बजे दारू पीकर इतना चिल्ला रहा था अपनी बीवी पर कि पूछो मत! मैंने इनसे कहा, इस इतवार सोसायटी की मीटिंग में शिकायत कर इसे हटवा ही दो। सोसायटी वालों को रखना ही है तो कोई ढंग का चौकीदार रखें। एक है भी मेरी पहचान का। चंगा आदमी है। बुरी आदत एक भी नहीं। सुपारी तक नहीं खाता भला आदमी; और उसकी घरवाली तो इतनी अच्छी है! बड़ा ही साफ़-सुथरा काम करती है। यहाँ रहने आ जायेगी तो मैं उसे ही महरी के काम पर रख लूँगी। आजकल अच्छी महरियाँ मिलती ही कहाँ हैं? और बिना महरी के हमारा तो एक दिन भी काम न चले। वैसेऽऽऽ, तुम तो अपने घर का पूरा काम ख़ुद ही करती हो ना? हाँ भई, ज़रा-सा तो फ़्लैट है, काम ही कितना होगा?’’

... एमआईजी फ़्लैट की मालकिन ने एलआईजी फ़्लैट की मालकिन को नीचा दिखाने के लिये व्यंग्य किया।

उसे बुरा लगा। जी चाहा, पलटकर कोई चुभती बात कहे पर ऐसे मौक़ों पर करारे जवाब सूझते ही नहीं। रगों में बहते कस्बाती लहू को वो कभी नहीं बदल पायेगी शायद।

थैंक्स टू गॉड! पीछे से श्रीमान अरोरा आ गए और वे चली गयीं; पर पार्किंग में आती-जाती और कितनी नज़रों से छुप पायेगी ?

नहीं !! उसे यहाँ नहीं खड़े रहना चाहिए वर्ना लोग समझेंगे कि अपने फ़्लैट के बाहर खड़े मेहमानों से छुपने के लिए उसने अपनी पूरी सुबह पार्किंग में बिता दी; पर वो करे भी तो क्या? किसके घर जाकर बैठ जाये? ईवनिंग वॉक में आत्मीयता से हिलकती दर्जनों स्त्रियों में से एक भी नाम उसे याद नहीं आ रहा था जिसका दरवाज़ा इस समय उसके लिये खुल सकता हो। उसे लगा, वह मूर्ख है!

..चलो, मूर्ख ही सही; उसने फिर एक बार वही निर्णय लिया जो ऐसे अवसरों पर उसकी आत्मा उसे सुझाती है। पति के हाथों ज़लील होने, बजट के बिगड़ जाने, अतिरिक्त काम के बोझ और अभावों को आवरणों में न छुपा पाने की शर्मिन्दगी के बारे में सोच चुकने के बाद उसने अपने मेहमानों का स्वागत करना तय किया। वो बिल्डिंग से बाहर आई। किराने की दुकान से उधार ब्रेड, अण्डे और बेसन लिया।

काँपते पैरों और धड़कते दिल से रचना सीढि़याँ चढ़ने लगी। सामने से सुनील भईया अपने परिवार के साथ सीढि़याँ उतर रहे थे।

‘‘अरे! सुनील भईया, सुधा भाभी, चिन्टू-पिन्कू! आप सब कब आये? और लौटकर कहाँ जा रहे हैं?’’ चेहरे पर भरपूर अपनत्व और आश्चर्य लाते हुये उसने पूछा।

‘‘यहाँ एक शादी में आये थे। लौटते समय सोचा, तुझसे मिलते चलें। अभी डेढ़ घण्टा तेरे फ़्लैट के बाहर बैठे तेरा इन्तज़ार करते रहे। कहाँ चली गई थी सबेरे-सबेरे?’’

‘‘अरे, अब क्या बताऊँ, सुनील भईया? यहाँ कॉलोनी की दुकानों पर अच्छी क्वालिटी का सामान मिलता ही नहीं। ब्रेड और अण्डे वगैरह ख़रीदने मैं पास ही के मार्केट जाती हूँ टैक्सी से। आप लोग यहाँ क्यों खड़े हैं? घर चलिये ना!’’

‘‘अरे नहीं रच्चू! हमाई रेल का समय हो रहा है। छूट गई तो पता नहीं, दूसरी रेल कित्ती देर में मिले? हमारा आज ही पहुँचना ज़रूरी है।’’

‘‘ये क्या बात हुई; आप लोग छोटी बहन के घर पहली बार आये हैं। कम से कम चाय तो पीकर ही जाईये। मैं आप लोगों को इस तरह नहीं जाने दूँगी।’’ वो कस्बाती रच्चू की तरह ठुनकी।

‘‘अबकी जाने दो, बिन्ना। देर हो रही है। अगली बार आयेंगे तो ठहरेंगे दिन-दो दिन तुम्हारे घर।’’

सुधा भाभी ने सौ का नोट उसके हाथ पर रखा और उसके पैर छुए।

अतिथियों को विदा कर, भीगी आँखें पोंछती रचना अपने एलआईजी फ़्लैट का ताला खोलने लगी। उसकी मुट्ठी में सौ का नोट है जिसके बारे में वो तय नहीं कर पा रही है कि ... बेटी के लिए नया लंच बॉक्स ख़रीदे? ... या ख़ुद के शहरी जीवन के अनुकूल हो जाने वाली विजयनुमा बात की तरह पति को बताये? ... या छुपाकर रख ले अलमारी में, साड़ियों  की तहों के बीच, अगली बार आने वाले मेहमानों के आतिथ्य के लिए ??

००००००००००००००००