कविता और रेखाचित्र
~ अनुप्रिया
अनुप्रिया
सुपौल, बिहार
कवियित्री, रेखा-चित्रकार
संपर्क: श्री चैतन्य योग
गली नंबर -27,फ्लैट नंबर-817
चौथी मंजिल ,डी डी ए फ्लैट्स
मदनगीर ,नयी दिल्ली 110062
ईमेल: anupriyayoga@gmail.com
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टूटी हुई धुन पहनकर
हम भटकना चाहती हैंयूँ ही
बिना किसी वजह
अब हर बात की वजह हो
जरूरी तो नहीं
हम सुनना चाहती हैं
अपने भीतर के आवारा सपनों की फुसफुसाहटें
कि कितना शोर है बाहर
कुछ कहाँ सुनाई देता है
हम टोहना चाहती हैं
अपना आप
फुरसत के पलों में
हम टूटी हुई धुन पहनकर
मन होना चाहती हैं
हम भटकना चाहती हैं
यूँ ही!!
वजूद
वह हँसती है ठहाकों मेंइस तरह कि
ठीक पल भर पहले उसकी आँखों के आँसू
आपको नजर ही नहीं आएंगे
उसकी आवाज की ख़राश
वो बड़ी सफाई से
इस तरह छिपा लेगी
कि आपको उसकी खुरदरी आवाज़ से प्यार भी हो सकता है
उसके होने से आपको महसूस हो न हो
उसका होना
लेकिन यकीन मानिए
वो नहीं होकर
आपके वजूद को अधूरा कर देगी ....
रौशनी के अँधेरे
ये रौशनी के अँधेरे हैंतुम्हें नजर नहीं आएंगे
जब भी अंधेरों को छूती हूँ तो
अपने कलेजे से लगा लेती हूँ
पर ये चुभते हुए रौशनी के टुकड़े
मुझे मैं होने नहीं देते
जबकि
मैं सिर्फ मैं होना चाहती हूँ
ये कोई और है भीतर मेरे
जो खुरच खुरच मुझे निकाल बाहर कर रहा है
धीरे-धीरे
चुप हो जाओ न
मैं सुन रही हूँ
मुझसे की गयी मेरी ही बातें
कि साफ़ -साफ़ सुनाई नहीं देता
कि कितनी घुटन है इस चुप्पी में
हाँ इस चुप्पी में ही
मेरी बातें हैं
जो मैंने कही नहीं
या मैंने सुनी नहीं
तुम अब मत ठहरो यहाँ
थोड़ी ही देर में मन बहल जाने पर
उठ कर चल दोगे
और मैं नहीं चाहती कि तुम मन भर जाने तक रुको यहाँ
तुम्हारे फिर लौट कर आने की
कोई तो वज़ह होनी चाहिए न
अभी निकल रहा है सूरज
बंद करने दो खिड़कियां
रौशनी चुभती है मुझे
यह मुझे मुझ सा नहीं होने देती
कभी छूकर देखना रौशनी को
अंधेरों की ठंढी लाश मिलेगी
अरे मैं तो भूल ही गयी
ये रौशनी के अँधेरे हैं
तुम्हें नजर नहीं आएंगे...
अल्हड़ लड़कियाँ
अल्हड़ लड़कियाँबात -बात पर
हँस देती हैं फिक्क से
सड़क पर निकलते हुए
घूरती जाती हैं
सिनेमा के नये पोस्टर
पूरी नींद कभी नहीं सोती
अक्सर पुकार ली जाती हैं
कई आवाज़ों में
अल्हड़ लड़कियाँ
पहनने ओढ़ने के सलीके
कहाँ जानती हैं
शाम के धुँधलके में
बजाती हैं सीटियाँ छत पर टहलते हुए
और बेवजह डाँट खाती हैं भाईयों से
काम -काज में लगी
अक्सर भूल जाती हैं
समय पर खाना
मर्दाना चाल चलती हुई
माँ की फटकार सुनती है
अल्हड़ लड़कियाँ
शरतचन्द्र और तस्लीमा नसरीन को पढ़ते हुए
रात -रात भर
जागती हैं
तुम्हें देखा तो ये जाना सनम सुनते हुए
शरमाती हैं
और
"बाजार" देखकर आँसुओं से रोती हैं
पहले प्रेम की मुस्कानें
नहीं छिपा पाती हैं
और धर ली जाती हैँ
ऐन मौके पर
अल्हड़ लड़कियाँ
उठती हैं
गिरती हैं
बार -बार प्रेम में पड़ती हैं
नहीं काटती हैं अपनी नसें
ना ही खाती हैं नींद की गोलियाँ
और टूटा हुआ दिल लिए
मूव ऑन कर जाती हैं
अल्हड़ लड़कियाँ
बस यूँ ही एक दिन
रात की देगची मेंउबलती रही
उम्मीदें
थोड़ी कच्ची -थोड़ी पकी
सुबह की देहरी पर
पसार दिए मैंने
रौशनी के दाने
परिन्दों की खातिर
दोपहर की मेज पर
फैला दिया कलफ लगी एक उजली मुस्कान
साँझ की खिड़की से किये इशारे
आवारा बादलों को
और देर तक ताकती रही उन्हें जाते हुए
फिर अंधेरों का हाथ थामे निकल गयी दूर तक
एक लम्बी वॉक के लिए।
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