मार्च की 'हंस' पत्रिका महिला दिवस मना रही है और अंक में गीताश्री की कहानी 'डाउनलोड होते हैं सपने' भी है. मेरा गीताश्री की कहानियों से पहले दोस्ताना नहीं बन पाता रहा है मगर इधर-बीच उनकी कहानियाँ लगातार प्रभावित किये जा रही हैं. इस कहानी में उन्होंने महानगर (कोई भी शहर हो सकता है) के निवासी — और हमारे घर को चलाने में उस दर्ज़े के सहायक कि वो एक दिन न आयें तो हडकंप मच जाता है — वो जिनके घर-दुआर का हमें कुछ नहीं पता होता (त्रासदी) — की कथा को दिल-छू लेने वाली भाषा, जो यक़ीनन दिल से लिखी कहानी में ही उतर सकती है — में लिखा है .
अच्छी कहानी !!!
— भरत तिवारी
डाउनलोड होते हैं सपनें
गीताश्री
सांवले गालों पर काजल की लंबी गीली लकीरें खिंची चली जा रही थीं।
आज बहुत दिनों के बाद तो वह खुल कर रो पा रही थी. दोराहे पर खड़ी जिन्दगी से और उम्मीद भी क्या करे? चकाचौंध से भरी एक दुनिया उसे अपनी तरफ बुला रही थी, पर वह न जाने क्यों चली आई थी उस दुनिया से? न न, कोई उसका इंतज़ार करता हुआ नहीं था, घर पर कौन होगा? उसने खुद से पूछा? घर पर, माँ होगी न! रास्ता देख रही होगी.
“सुमित्रा नहीं आई”.
हे भगवान, ये सुमित्रा नाम? “आई हेट दिस नेम, इत्ता पुराना जैसे राजा राम चंदर के जमाने की रही हूँ मैं”. बड़े लोगों के घर झाडू-पोंछा करते करते वह लव, हेट जैसे शब्द और आई लव यू, आई हेट यू, या आई लव दिस, आई हेट दिस जैसे जुमले सीख गयी थी और सीख गयी थी अपने नाम से नफरत करना और अपने आप से प्यार करना। आखिर कमी क्या थी उसमें? अच्छी खासी तो है! खोड़ा कोलोनी में पैदा न होकर हाईवे के पार जो फ्लैट्स की आलीशान दुनिया है, वहां पैदा हुई होती तो आज वह भी “ कुछ कुछ होता है” वाली अंजली जैसी होती! उत्ती ही सुन्दर, उत्ती ही कोमल. बड़े लोगों के फ्लैट उसे अपनी तरफ खींचते थे पर वह केवल झाडू-पोंछे के लिए वहां नहीं जाना चाहती थी, वह जाना चाहती थी, लड़कों की गर्लफ्रेंड बनकर! जहां उसके बालों में नई नई कलरिंग हो, हाई हील हो, छोटी-छोटी ड्रेस हो, डांस हो और उसपे फिदा होने वाले कम से कम दो तीन लड़के तो हों. हाँ वैसे उसकी खोड़ा कलोनी में तीन चार लड़के हैं, जो उसके पीछे पड़े हैं, पर उनका क्या? उनका क्या स्टेंडर्ड? एक तो कूड़ा बीनता है, साला! थू... आँखों से आंसू, उसके मुंह में आ गए थे. आंसुओं का खारापन उस लड़के के कूड़े की बदबू में जैसे मिल गया. उसने साला, कमीना कहकर थूक दिया, गला खखारा, अन्दर से जो भी बह रहा था उसे सड़क पर साला, कुत्ता, कमीना, मुझसे प्यार करेगा, औकात देखी है, कह कर थूक दिया. जैसे अभी होटल में जो हुआ उसे भी अपने शरीर के अन्दर से निकाल कर फेंकना चाह रही हो. “ये साले मरद एक ही जैसे होते हैं, सालों को एक ही चीज़ चाहिए! थू, आक थू” उसने थूकना चालू रखा था. और फिर दूसरा लड़का कहीं पर नाई का काम करता है, ऐसा लगता है जैसे वह न तो आदमी में ही है और न ही औरतों में! हरामी, खोड़े की इस कलोनी की हर लड़की के बारे में जानता है, उसकी दुकान में आते हैं, कई आवारा बाल कटाने, तो बाल काटते काटते उनकी अय्याशियों के किस्से सुनता है और हर लड़की किसके साथ है या कौन कब लोधी गार्डन या कालिंदी कुञ्ज गया या जिसे कहीं जगह नहीं मिली तो शाम होते ही नहर के किनारे झाड़ियों में कूड़े के ढेर के पास ही कौन किस के साथ कितने समय तक रहा, कितना शरीर किसका गुलज़ार हुआ, ये सब उसे पता होता था. “हरामी, क्या मैं वैसी हूँ? पूरे खोड़े गांव में मेरे जैसी न होगी”
“मैडम जी, क्या हुआ? कोई परेशानी है क्या ? ” पुलिस वाले ने आकर पूछा
“नहीं सर जी”
“न जी, आप बहुत देर से यहाँ बैठी हैं न, ये इलाका भली औरतों का है नहीं न रात में”
“सर जी, बस थोड़ी देर बैठी रहने दीजिए, अभी घर से कोई आएगा तो चली जाऊंगी”
“मर्जी है आपकी मैडम जी. वैसे ये होटल न, बहुत चालू है, आप सम्हल कर रहिएगा. बाकी मैं तो इस गाड़ी में हूँ ही”
“क्या सर जी”
“ओ, मैंने कहा कि 100 नंबर वाली गाड़ी होटल के सामने ही खड़ी रहती है, आप चाहें, या आपको कोई प्रोब्लम हो तो झिझकना नहीं”
“थन्कू सर जी”
“ओये, कोई नहीं लग रहा पहली बार वाली है” उससे मिलकर अपने साथी से बोलते हुए उस पुलिस वाले ने कहा. उनलोगों की हँसी उसने अपने शरीर पर रेंगती-सी महसूस की. ये कमबख्त शरीर ही सबसे बड़ी जड़ है, परेशानी की.
उफ, ये पहली बार! पहली बार शब्द उसे ऐसे ही लगता था जैसे उसके ऊपर कोई उसी एसिड की बारिश कर रहा हो जिससे वह अपना घिसा हुआ बाथरूम घिसती थी. उसे याद है जब उसके शराबी पिता ने उसके साथ शराब के नशे में बदतमीजी की थी और अपना शरीर उसपर थोपने की कोशिश की थी, कैसे दर्द में नहा गयी थे, उसके बाप ने बेशर्मी से हँसते हुए कहा था “साली, नखरे करती है, एकदम अपनी माँ पर गयी है, शरीर है दर्द तो होगा ही, पहली बार है न, बाद में तो खुद ही मज़े आएँगे”. पर उनके शरीर को खुद पर से ढकेल कर भाग गयी थी. बस उसके कानों में उसके बाप के “पहली बार” शब्द गूँज रहे थे. अपनी माँ से पूछना चाहती थी, “पहली बार में तो बहुत दरद हुआ था क्या !” संकोच और भय की सहज दीवार सामने आ खड़ी होती। बेटी होकर मां से इतना भीषण प्रश्न कैसे पूछ सकती है। सवाल के बाद मां क्या उतनी ही ममतामयी रह पाएगी। पता नहीं कौन सी देवी दुर्गा काली का रुप धारण कर ले। जवाब में गाली-ठुकाई संभव। काम से दिन भर की थकी मां के लिए आराम भर चरपाई चाहिए, कोई दुख दर्द की गाथा नहीं, कोई अनचाहे सवाल नहीं। बड़ी हिम्मत करके तो उसने पिता वाली बात बता दी। हैरान रह गई सुमित्रा कि मां को अचरज न हुआ। जैसे उन्हें उम्मीद रही हो पिता से। मां के चेहरे पर सावधानी ले लक्षण जरुर उभरे। उस दिन कोशिश करतीं कि बाप से साथ अकेली बेटियों को घर में छोड़ कर न निकले । मां को इतना ठंडा पा कर उसकी हिम्मत बढ गई। फिर उसने टनों भारी सवाल पूछ ही दिया-
“माँ, तुम्हें पहली बार किसने… ? ”
चटाक से एक थप्पड़ उसके गाल पर लगा।
“करमजली, साली, अपनी माँ से ऐसे पूछती है ? अरे हम औरतें क्या होती है? इत्ते लोग गुजरते हैं ऊपर से कि कभी न कभी तो किसी न किसी का पहली बार होता ही है, किसे किसे बताऊँ! चल भाग यहाँ से! हम झुग्गियों की औरतों को इस्तेमाल की चीज समझते हैं लोग, धंधेवालियों पर तो पैसा फूंक आते हैं, हम तो फ्री में हैं। भाग यहाँ से …”
ओह, काश इतना ही इतना सरल होता भागना, तो वह भाग जाती, भाग जाती सड़क पार की रंगीनियों में, भाग जाती नोयडा जाने वाली हर कैब में, जिसमें वह सुबह सुबह इन्हीं फ्लैटों से तैयार होती लड़कियों को जाते देखती. वह क्या उनसे कम है? अगर उसे उसके अम्मा बाप ने पढाया होता तो वह भी जा रही होती आज, इतना ही मेकअप करके!
.....
“जी आंटी ...... नहीं........ बस..... नहीं, अब नहीं करूंगी...... मैं होटल के बाहर ही...... जी ........”
सुधा आंटी का फोन था, ये सुधा आंटी भी न! बहुत जल्दी रहती है उसे नई लड़कियों की सील खुलवाने की. हाँ, यही भाषा बोलती थी. उसने सुना था कि वह कोठियों में काम दिलाती है. बाप के मरने के बाद, माँ ने भी जब खाट पकड़ ली तो छोटे भाई बहनों की बहती नाक पोंछने वाली सुमित्रा पर घर की जिम्मेदारी आ गयी. उधर उसका गूजर मकानमालिक भी उसे डराता था कि दो महीने से किराया नहीं दिया है, अबकी बार सामान ही फ़ेंक देगा. हाय, सामान फ़ेंक देगा तो उसके भाई बहन तो अभी से आवारा हो जाएंगे! वैसे भी उन्होंने इसी नहर और नाले के किनारे रहकर आवारा होना ही है पर अभी नहीं. ऐसे ही उसके पीछे पड़े तीसरे लड़के ने, जिससे कभी कभी वह बात कर लेती थी, कभी कभी उसके साथ जलेबी भी खा लेती थी और जो कभी कभी पहली बार का सुख चाहता था, और वह उसे सिर्फ पप्पी झप्पी देकर कृतार्थ करती रहती थी, ने उसे सुधा आंटी के बारे में बताया था कि वह कोठियों में झाडू पोंछे का काम दिला सकती है ।
“चली जा, कुछ न कुछ तो करा देगी वह. “
सुधा आंटी, लोग बहुत कुछ कहते थे उनके बारे में पीठ पीछे पर सामने तो सब उनकी तारीफें करते थे और खोड़ा के अच्छे घरों के मरद अपनी अपनी बीवियों को सुधा आंटी के हवाले छोड़कर निश्चिन्त हो जाते थे कि चलो उनकी रात की दारू पक्की. अब जब बीवी कमा ही लेगी तो दिन में अपनी नोयडा में किसी फैक्ट्री में मजूरी करो और रात में बीवी की चिक चिक से भी दूर. अपनी पियो और जियो. पर रात में किसके यहाँ झाडू पोंछा होता है. सुधा आंटी सबसे पहले अपने यहाँ आने वाली हर लड़की को सजाती थी, संवारती थी, वह भी अपने ब्यूटी पार्लर में जिसे उन्होंने घर पर ही खोल रखा था, उसमें वह सबको मेकअप करना सिखाती थी, एक अंग्रेजी सिखाने वाली भी थी, जो थैन्कू, सौरी जैसे शब्द लड़कियों को सिखाती थी. उसने एक दिन पूछ ही लिया “आंटी, क्या झाडू पोंछा के लिए भी इत्ती सब की जरूरत होती है ? ”
सुधा आंटी कितना हँसी थी-
“अरे, ये सब झाडू पोंछा ही तो होता है, शरीर का झाडू पोंछा” और सब हंसने लगी थी. दरअसल सब एक परत के नीचे होता था. ऐसा नहीं कि किसी को पता नहीं. सबको सब कुछ पता. दिन में बयूटी पार्लर में सजाओ और अंग्रेजी सिखाओ और रात में. बाप रे, कैसे कैसे लोगों के फोन आते थे, सुधा आंटी के पास और सबकी डिमांड अलग अलग. अधिकतर की डिमांड होती थी शादीशुदा, घरेलू औरतें, जो ज्यादा चूं चपड़ न करें. दो घंटे बस उनकी इच्छाओं पर नाचें. और इसके लिए वे सब इतना पैसा देने के लिए तैयार रहते थे कि सुधा आंटी के प्लेसमेंट ब्यूरो में नौकरी करने वालियों की कमी नहीं होने पाती थी. एक बार जो सुधा आंटी के प्लेसमेंट ब्यूरो का हिस्सा बना तो वह बस बन ही जाता था. फिर और कहीं नहीं जा पाता था.
कुछ झुग्गियों के अय्याश मरद बीवियों को मारपीट कर भी सुधा आंटी के पास लाते थे, “साली घर पर पड़ी रोटी तोडती है, कुछ करा दो, जरा पांच छे मरद छू लेंगे तो अपवितर नहीं हो जाएगी, वैसे ही कौन सी सीता मैया थी, सादी से पहले भी तो सब कुछ करे बैठी है, अपने यार के साथ...”
रात होते ही सुधा आंटी का ब्यूरो गुलज़ार होने लगता था, एक गाड़ी आती. उसमें नंबर के हिसाब से और किसके पास कौन जा रहा है, के हिसाब से लडकियाँ बैठती. आंटी के तमाम हुकुमों में से सबसे बड़ा हुकुम यही होता कि नखरे नहीं करना, जो कस्टमर बोले वह करना. ज्यादा नखरे करने से कस्टमर तुनक जाते हैं. और तुनकने का मतलब है कि कस्टमर का हाथ से जाना. और कस्टमर के हाथ से जाने का मतलब है, तुम्हारी कमाई न होना ।
और लगभग सभी औरतें हाँ में सिर हिलाती. हाँ, घर में ही रहकर कौन-सी रानी बनी बैठती हैं. ये कामवालियों की बस्ती थी जहाँ पर रात होते ही कराहें और आहें पूरे माहौल पर छा जाती थी. दिन भर काम करने के बाद अपने आवारा पतियों की इच्छा पर शरीर को परोसने के बाद वे सब अपने सुख दुःख साझा करने के लिए बैठ जाती थी. पर उसकी माँ के साथ ऐसा नहीं होता था. उसकी माँ पिट लेती थी, अपना शरीर कुचलवा देती थी, फ्लैटों में झाडू पोंछा करके जो पैसा आता था, उसका बाप वह सब छीन लेता था पर मजाल कि वह कुछ बोल भी दे. वह कुछ नहीं बोलती थी. बस जो उसका पति यानी उसका बापू बोलता था, उसी में राजी हो जाती थी । उसे इस कामवालियों की बस्ती में उठने वाली हर कराह और आह अपनी ही लगती थी और अपने दरवाजे पर बैठकर सबके दर्द बांटती । कभी कभी जब सुबह वह काम पर जा रही होती तो कुछ कामवालियां अपनी रात की कहानी सुना रही होती, वह बस इतना कहती—
“सुनो, बच्चे हैं, कोठरी में जाकर किस्सा सुनाओ, इंगरेजी सराब का”
और उसे समझ में न आता था कि उसकी कलोनी में तो इंगरेजी सराब की दुकान भी नहीं है फिर भी ये इंग्रजी सराब? अब समझ में आ रहा है. कभी कभी तो उसे सही भी लगता है कि रात में उसका बाप ही कौन सा उसकी माँ को छोड़ देता था । देसी दारू की बदबू जरा-सी कोठरी में फैल जाती थी और उसकी माँ उसके बाप के घर आते ही उसे भाई बहनों के साथ भगा देती थी। उसका बाप ही उस पर भद्दी नजर डालता-
“अरे, है तो यह मेरी ही, आ जा,” उसकी माँ उसे भगा देती. और वह भाग जाती. उसका मन होता कि अभी जाकर मंदिर में भगवान से पूछे कि अगर उसे सड़क के इस तरफ पैदा न कर दूसरी तरफ पैदा कर दिया होता तो उसका क्या बिगड़ जाता ।
.....
बहुत समय हो गया है, इसी मेकअप में यहाँ होटल के बाहर बैठे हुए. कैलामाइन बहुत लगा दिया था शायद, अभी तक मेकअप की परत हटी नहीं है. उसकी नज़र, सामने वाली पुलिस की गाड़ी पर गयी. सिपाही ने हाथ हिलाकर कहा-
“मैडम जी, जैसी भी जरूरत हो बता देना, खाली ही हैं.”
तभी दूसरे वाले की आवाज़ उसके कान में पड़ी-
“यार, शरीफ लग रही है. छोड़ न, बेचारी लग रहा फँस गयी है”
मैं, बेचारी! उसने सोचा. हाँ शायद उनके लिए मैं लग रही होऊंगी. पर इस होटल तक का सफर तो उसने खुद ही तय किया था. सुधा आंटी ने उसे सब कुछ बता दिया था. पहले उसकी ट्रेनिंग हुई थी कि कैसे उसे कस्टमर को खुश करना है, कैसे बोलना है, कैसा मेकअप करना है. अब पहले की तरह मेकअप नहीं होता, जिससे ऐसी औरतें पहचान में आ जाती थी. अब तो उन्हें घरेलू शरीफ औरतें चाहिए होती हैं. कभी कभी उसे शरीफ शब्द से सबसे ज्यादा चिढ़ होने लगती है. शरीफ कौन होता है? पर उसे क्या? होता रहे शरीफ कोई भी? उसके लिए शराफत केवल इस समय अपने भाई बहनों का पेट भरना और अपने सपनों को पूरा करना है. उसके सपने, आंसू पोंछते हुए, उसने अपने शरीर पर अपने कस्टमर के होंठों का बोझ महसूस किया. फिर उसे अपने सपनों के साथ तौला! वाह देखो तो अभी भी उसके सपने ही भारी थे. उसके सपने, कलर किए हुए बाल, छोटी छोटी ड्रेस, पार्टियों में जाना, इंग्रजी वाली सराब पीना ।
सुधा आंटी ने उससे कहा था कि उसके ये सभी सपने पूरे होंगे। वह रात में बस दो तीन घंटे बिता आए, और दिन में कुछ भी करे. डांस सीखे, पढाई करे, मेकअप करे कुछ भी करे. पर रात का काम? लोग क्या कहेंगे? सुधा आंटी ने कहा “कौन से लोग? किन लोगों से डर रही हो? जब तुम्हारा बाप जंगली बनकर तुम्हारी माँ को नोचता था कोई आया बचाने ?”
“हाँ, सुधा आंटी ने ठीक ही कहा था! एक दिन उसके हाथ में उसकी माँ की पुरानी फोटो लगी थी. उसने पूछा “माँ ये कौन है?”
“अरी नासपीटी, कहाँ से मिली?”
“काले बकसिया से?”
“तो निकाली क्यों?”
“पर ये है कौन?”
“मैं ही हूँ”
“तुम, पर तुम्हारे बाल तो बहुत लम्बे हैं. और घने भी”
“हाँ, शम्पू तो खरीदने के लिए पैसे नहीं होते थे, तो काली मिट्टी से साफ करती थी माँ मेरी”
“ओह, माँ तो अब?”
“तब क्या, तुम देखती तो हो रोज़ ? ”
और सच, उसकी माँ का कोई भी लम्हा उससे छिपा नहीं था. उसका बाप देसी के नशे में आकर माँ के चेहरे पर तो नोचता ही था पर उसने नोच नोचकर उसके सर के बालों को भी उसकी माँ को गंजा कर दिया था. माँ चीखती पर उस बस्ती में ये चीख कोई नई बात तो थी नहीं, फिर एक दिन उसकी सारी चीखें बंद हो गयी, अब न उसके सर पर बाल बचे और न ही उसका चेहरा ही ऐसा बचा था जिसे वह और खराब कर पाए. और एक बरस पहले तो बापू ही चला गया, उसने उस दिन चैन की सांस ली थी. वह इन फ्लैटों में देखती, छोटी छोटी बच्चियां अपने बापों से कैसे लड़ियाती थी. वे अपने बाप के कंधे पर सर रखकर सोती रहती हैं और मैडम लोग तो एकदम रानी बनकर बैठी रहती हैं. क्या कभी उसके साथ ये सब होगा? या वह भी अपनी माँ की तरह एक अभिशप्त जीवन जिएगी?
सुधा आंटी उसे समझाती-
“क्या फर्क पड़ जाएगा?, देखो ये सब भी तो कर ही रही हैं?, अपने पति से ज्यादा कमा रही हैं, और देखो कोई भी इन्हें नहीं मारता?”
सुधा आंटी शायद अपने धंधे के कारण उन सब परेशानियों को कैलामाइन की परत के नीचे नहीं देख पाती थी पर, वह कैसे उन सब सपनों को अनदेखा कर दे! सुधा आंटी को क्या पता कि पति के पैसों से लोकल बाज़ार में जलेबी खाने में जो मजा है वह सरीर बेचकर पिज्जा खाने में नहीं! उसकी माँ की आँखों में उस मिठाई की कितनी खुशी होती थी जो उसका बाप कभी कभी ले आता था और, नशे में नहीं होता था तो उसकी माँ के बाल भी काढ़ता था. अपनी माँ का चेहरा देखकर वह भी खुश हो जाती थी। उसका मन होता था कि वह सुधा आंटी से पूछे कि क्या उन्हें बिलकुल भी यह नहीं दीखता कि मेकअप की परत के नीचे इन औरतों की कई कसकें दबी हैं? पति के पैसों से ही सिंगार करने की हसरत? पति के पैसों से गोलगप्पे खाने की हसरतें? क्या ज्यादा मांगती हैं हम कामवालियों की बस्ती की औरतें? जो मांगती हैं, वह भी मिलता नहीं! उसके लिए भी लात घूंसे ही मिलते हैं? हम कामवालियों की बस्ती केवल आहों और कराहों का ही हिसाब रखती है. और जो सपनो का हिसाब रखती हैं उन्हें बहुत कुछ खोना पड़ता है. और औरतें खोने के लिए तैयार भी हैं.
सुधा आंटी इस तड़प को समझती हैं और वे इसी तड़प का हिसाब वसूलती हैं. वे जो मेकअप करती हैं, उसी मेकअप में उस तड़प को इतना अन्दर दफना देती है कि आँखों के काजल में मादकता और नशा ही रह जाता है. आँसू कहाँ जाते हैं, उसे पता नहीं चलता पर सुबह जब आंटी उन्हें पैसा देती हैं तो उस खुशी में छिपे दर्द को वह महसूस करती है. वह भी रोती है, जब बगल वाली आंटी सुबह सुधा आंटी से पैसा लेते समय हंस पड़ती है क्योंकि जब से उसके बाप ने जबरदस्ती की थी तब से वह जबरदस्ती के दर्द से ही कांप उठती थी. पर सुधा आंटी ने बताया था कि ये तो इंगरेजी सराब वाले होते हैं, न बड़ी नफासत से करते हैं सब कुछ.
ओह, इस काम में नफासत भी होती है? एक दिन उसने अपनी माँ को अपने बाप के हाथों नंगा होते और बाप को उसे नोचते खसोटते देख लिया था. उसके मन में डर बैठ गया था. सब कुछ कितना भयानक होता है? पर अपने सपने पाने के लिए इस भयानक दौर से तो गुजरना ही होगा? एक तरफ उसके मन में डर पैदा होता तो दूसरी तरफ उसके मन में अपने सपने थे? वह क्या करे? सुधा आंटी ने कितनी खूबसूरत तस्वीर उसके सामने खींची है. जब मन हो तब काम करो और जब मन न हो तो न करो. रात में दो तीन घंटे का काम और फिर आराम? उसे हँसी आई थी पहले दिन तो? ये साले सरीफ घरों के आदमी? दिन के उजाले में हम जैसियों की तरफ देखते नहीं पर रात में कोई फर्क नहीं पड़ता! दिन में कौन जात हमारा पानी न छू ले, अरे ये बुर्का वाली नहीं, और रात में क्या जात, क्या बुर्का और क्या घूंघट? हा हा, भगवान ने भी शरीर का सुख कैसा सुख बनाया है? ये आदमी सुबह उठते ही सब भूल जाते होंगे कि रात में किसके साथ थे, कोई गंगाजल डालता होगा तो कोई अजान पढने बैठ जाता होगा! और इधर हम लोग खुश हो जाते हैं चलो अपना कुछ दिनों का काम चलेगा! ये सुधा आंटी भी न, कितने प्यारे तरीके से समझाती है! क्या करे वह? अब सुमित्रा थकने लगी है बैठे बैठे! ये बस स्टैंड पर और ज्यादा देर नहीं बैठ सकती! पुलिस वाले हालांकि अभी भी खड़े हैं पर वह अब जाना चाहती है! कहाँ जाए? अगर वापस जाती है तो उसके हाई हील, कलर्ड बालों वाले सपनों का क्या होगा? वापस जाएगी तो वही फ्लैटवालियों के घरों में झाड़ू पोंछे वाली बनकर रह जाएगी? और होटल जाती है तो दिन में एक पहचान और रात में एक पहचान जिएगी? वह दो पहचानों वाली हो जाएगी? कोई उसे कॉल गर्ल कहेगा, कोई सेक्सवर्कर? पर वह क्या होगी? अगर वापस जाएगी तो ही कौन-सी भली ज़िन्दगी जी लेगी? क्या पता जो उसने उस लड़के के साथ किया जलेबी खाते खाते वह, उसके होने वाले मर्द को पता चला तो वह भी उसके जूठन का ही आरोप लगाएगा और फिर उसके साथ भी वही होगा जो उसकी माँ के साथ हुआ. नहीं नहीं वह अपने शैम्पू से कोमल बने बालों के साथ कुछ बुरा नहीं होने दे सकती. उसे अपने चेहरे से भी बहुत प्यार है. उसे अपने शरीर से भी बहुत प्यार है. उसे अभी डांस भी सीखना है, भाई बहनों का पेट भी भरना है और माँ की दवाई भी लानी है. उसे बहुत कुछ करना है और इस बहुत कुछ करने में कुछ समझौते करने पड़े तो क्या हर्ज है? क्या वह इन समझौतों की कीमत चुकाने के लिए तैयार है? क्या वह उस दर्द से गुजरने के लिए तैयार है? हाँ, क्यों नहीं! उसके सपने बहुत बड़े हैं. इन फ्लैटों से भी बड़े और अपनी कलोनी से तो बहुत ही बड़े. सुधा आंटी का फोन फिर आने लगा है, कस्टमर उसे परेशान कर रहा होगा! वह क्या करे? उसने फिर फोन काट दिया है. अब होटल से कोई आ रहा है.
“मैडम, आपकी मैडम का फोन आया है, आप या तो अन्दर चलिए या हम उन्हें बुलाएं”
ओह, ये सुधा आंटी भी न! बस परेशान ही कर देती हैं! सड़क पर जिस तरह स्ट्रीट लाईट खुलने और बंद होने की प्रक्रिया में लपलपा रही हैं वैसे ही उसके मन में उसके सपने और नैतिकता और शराफत में से बारी बारी से कोई न कोई आ रहा है. फोन बज रहा है, होटल वाला संदेशा देकर जा चुका है, और वह अपने मन में सपनों का पलड़ा भारी देखकर मन ही मन में समझा रही है…
“इंग्रजी पीने वाले सरीफ होते हैं”
“वे नोचते नहीं है”
....
और ये कोठी वाले...फ्लैट्स वाले...घरों में सबसे ज्यादा मेड की तरफदारी यही लोग तो करते हैं और अपनी बीवियों से भिड़ जाते हैं कई बार। मां किस्से सुनाती है तो सुन कर उसे बड़ा मजा आता था । लेकिन कभी उसके साथ ऐसी नौबत नहीं आई। ज्यादा दिन टिकी भी तो नहीं कहीं। कोई दो दिन रखता तो चार दिन। सुपरटेक वाली मैडम ने तो देखते ही मना कर दिया था। और वो गौड़ गंगा वाली मैडम देर तक उसे घूरती रहीं। सारी बात तय कर ली और आखिर में मना कर दिया। अंतिम घर जहां उसने काम किया किया था, मैडम ने वहीं फोन लगा कर सुमित्रा के बारे में तसल्ली करनी चाही। फोन पर बात करते हुए मैडम का रंग बदलता रहा और सुमित्रा का दिल डूबता रहा। वह समझ गई कि यह काम भी हाथ से गया।
फोन कट होने के बाद मैडम का रंग बदल गया था।
“सौरी...मैं तुम्हें नहीं रख पाऊंगी। मैंने तुम्हारे सारे किस्से सुन लिए...हम नहीं झेल पाएंगे यह सब. दो जवान होते बेटो का घर है, ऐसी छम्मकछल्लो को रख कर घर बरबाद करना है क्या...?”
“आंटी...कैसी बातें करते हो आप..?”
वह मिमियाई.
“नो आंटी..मैम बोलो...हमारी कोई रिश्तेदारी है क्या...मेड हो, आंटी फांटी मत कहा करो...इसीलिए तुझे काम नहीं मिल रहा...”
वह खिसिया गई थीं।
“आपको मेरे काम से कोई शिकायत नहीं होगी, एक बार काम करवा कर तो देखो...आपको पता नहीं उन्होंने क्या बता दिया है...?”
रुआंसी हो गई। हाथ से सबकुछ फिसलता-सा लगा। एक और रिजेक्शन झेलना पड़ेगा।
“वे क्या बताएंगी...तेरे लक्षण देख तो रही हूं। जब से आई है कान में मोबाइल का वायर लगा ही हुआ है, पता नहीं मेरी बात सुन रही है या गाने।“
“गाना औफ कर रखा है...आप मेरी बात तो सुनो...”
“ना ...जा...तुझे उर्मिला ने भेजा है न, जरा उसको भेजिओ मेरे पास...कुछ बात करनी है...मुझे कामवाली चाहिए, मनोरंजन का साधन नहीं। बता रही थीं तेरी पहली मैडम कि तेरे ख्वाब हैं बड़े बड़े, तुझे डांस भी सीखना है, गाना भी गाना है, मौल भी घूमना है, नाइट सो भी देखना है...दिन भर मोबाइल पर लगे रहना है..काम क्या करेगी..?”
“उन्होंने ऐसा कहा आपसे...? कितना झूठ बोलती हैं मैडम..”
सुमित्रा की आंखें फैल गईं।
“चल वो झूठ बोलती हैं पर तेरी वेशभूषा तो नहीं झूठ बोल रही ना। दिख तो रही है न जैसा उन्होंने कहा।
“ये जो तू हीरोइन बनी फिरती है, बालों का पफ बना कर, ये छोटे छोटे कपड़े...किसी ने टोका नहीं तुझे..कोई रखेगा ऐसी हीरोइन को...कामवाली चाहिए, नचनिया गवनिया नहीं...समझी...”
स्थूलकाय मैडम हाथ नचा नचा कर उसे औकात पर ला रही थीं । खुद दिन भर चेहरे की पुताई में लगी रहती थीं । यहां भेजने से पहले उर्मिला ने बता दिया था कि मैडम कोई काम करना नहीं चाहती। उसे हेल्पर चाहिए। हर समय उसका आर्डर बजाए...
सुमित्रा को तेज गुस्सा आया...काम तो नहीं देगी । ठीक से सुना कर निकल जाएगी..किसी का उधार नहीं रखना। काम ही तो मांगने आई थी, भीख नहीं. काम न दें पर इस तरह अपमान क्यों कर रही हैं।
“मैडम...आप मुझे नचनिया गवनिया क्यों कह रही हैं...मैंने ऐसा क्या कर दिया...मैं पूछूंगी उन मैडम से जिन्होंने आपको मेरे बारे में गलत बातें बताईं..जाती हूं अभी...”
तमतमाती हुई उठ खड़ी हुई।
मैडम मुस्कुराई।
“सुना है, तू झाड़ू लगाते समय ठुमकती रहती है और रोटी बेलते समय गाने गाती है...पूरा घर डिस्टर्ब हो गया उनका । लोग पुकारते रहते हैं और तू सुनती कहां हैं उनकी...अपनी धुन में रहती है..फिर ये दिन रात फोन की घंटी बजती रहती है...क्या गलत कहां उन्होंने। तुझे इस सोसायटी में तो काम मिलने से रहा...हम मिलने न देंगे...कहीं और काम ढूंढो...जाओ...पहले खुद को कामवाली जैसी बनाओ फिर काम खोजो...”
सुमित्रा बिना कुछ कहे निकल गई। मैडम पीछे से बकबकाती जा रही थीं...
“जरा तेवर तो देखो...रहेगी झुग्गी में और सपने देखेगी बड़े बड़े...”
हां, गलत तो नहीं कह रही थीं वे । सपने ही तो देख रही थी जिसकी कीमत चुकानी पड़ रही है। कहीं काम नहीं मिल रहा है । अगर उसे संगीत पसंद है तो क्या बुरा है। वह काम के साथ नाचती है तो क्या जलजला आ जाएगा। अपने में ही तो मस्त रहती हूं...मोबाइल पर गाने सुनना इतना क्यों अखर जाता है इन मैडमो को… बड़बड़ाती हुई जब सुधा आंटी के पास पहुंची तो वे इस बार सहानूभूति के मूड में दिखीं।
“आंटी, क्या ही अच्छा होता कि मुझे नाचने गाने का ही काम मिल जाता...कहीं..वो स्टेज पर भीड़ में नाचते हैं लड़के लड़कियां, आप जानते हो किसी को...? हमें उसी ग्रुप में काम दिलवा दो न..प्लीज...कमसेकम इज्जत की दो रोटी तो खा सकूंगी। मेरा नाचना गाना तो किसी को बुरा न लगेगा...जानते हो आंटी किसी को...? बताओ न...”
सुधा ने इस विचित्र निगाहों से घूरा ।
“तू क्या क्या करेगी जीवन में...? कुछ भी क्लियर है तेरा...वहां भी पढे लिखे लोग चाहिए..कलाकार होते हैं..कलाकार...”
थोड़ी देर वह चुप रही ।
सुमित्रा ने उम्मीद भरी निगाहें उन पर टिका दी ।
“सुन...पता नहीं वो तुझे लेगा या नहीं...रोहित सर हैं, सोसाइटियों में बच्चों को वेस्टर्न डांस सीखाने जाते हैं। मैं उनसे बात करके देखूंगी...ये मेरा आखिरी कोशिश होगी । उसके बाद तुझे वही रास्ता पकड़ना पड़ेगा...समझ ले...आसान नहीं जिंदगी बच्चू...कूद फांद बंद कर और कोई एक काम-धंधा पकड़ ले...तू शादी कर ले किसी बुढ्ढे से...साला जल्दी मरेगा और तेरा जीवन संवर जाएगा। खोज ले कोई बीमार बुढ्डा...”
सुधा आंटी ठहाका लगा रही थीं।
सुमित्रा को याद आया कि उसकी स्मार्टनेस देखकर कई कामवालियों ने अपने निकम्मे भाई भतीजों के लिए उसे पटाने की कोशिश की थी। एक लड़के से तो दो चार मुलाकातें भी हुईं। तीसरी मुलाकात में मोमो खाते खिलाते वह अपनी औकात पर आ गया-
“ये छोटे छोटे कपड़े नहीं पहनने दूंगा..सादी के बाद...”
“ज्यादा लटक झटक ना पसंद हमें...साड़ी पहनने पड़ेंगे तुझे...मैम बन के ना रह पाएगी, सोच लियो...हम पैसा कमाएंगे, तू घर संभालियों...ज्यादा से ज्यादा एकाध कोठी में काम पकड़ लेना ...बस..”
एक लड़के ने तो नया मोबाइल भी पकड़ा दिया और शर्त रखी कि इस पर सिर्फ मुझसे बात करेगी। अस्सी के दशक के सारे पिटे हुए रोमांटिक गाने उसमें डलवा दिए कि वह खाली वक्त में उसे याद करे और सुनती रहे।
इन लड़को की बातें सुनकर उसका मुंह कड़वा हो गया। शादी की सारी रुमानियत गायब हो गई और खुद को साड़ी में लिपटी हुई खोड़ा गांव की कच्ची गलियों में भागती हांफती देखने लगी। जिसकी सारी लटें गायब, पफ गायब और हथेलियों में दरारें, पैरो में पानी के काटे का निशां...
वक्त की बेरहम ताल पर नाचती हुई सुमित्रा और उसकी धूलधूसरित कामनाएं।
ना ना...नहीं होने देगी ऐसा। खुद कमाएगी..चाहे जैसे भी हो..अपना रास्ता खुद बनाएगी..अपने सपने खुद पूरे करेगी...वो बार बार बोलता है न सुधा आंटी का चमचा...”ओ छोरी..तेरे सपने डाउनलोड कर ले...देख कर ही खुश रहिओ...”
वह दिखा देगी सबको...उन लड़को को...इन मैडमो को...सुधा आंटी को भी...कभी कभी सही मंजिल पर पहुंचने के लिए गलत रास्ते पर चलना पड़ता है, वह चलेगी...वह बस स्टाप से उठ खड़ी हुई। मन ही मन फैसला कर लिया। चाहे कदम किधर जाएं...वह खुद कहां जा रही है, उसके सपने उधर ले जा रहे हैं...सपनों का कसूर है...।
उसने कदम होटल की तरफ बढ़ा दिए।
“रुक..कहां जा रही है...? उधर मत जा...सुमित्रा...आंटी ने भेजा है...”
कौन उसे ओरिजिनल नाम से पुकार रहा है...यहां पर...? वह पलटी..
दांत निपोरता हुआ सुधा आंटी का चमचा तेजी से चला आ रहा था। साथ में कोई छोटे कद का छरहरा लड़का जैसा। पीठ पर बैगपैक लादे। स्मार्ट दीख रहा था। चेहरे पर गंभीरता का आवरण चढ़ाए।
“क्या है...यहां तू क्या करने आया है...इतनी दूर...क्या बात हो गई..?”
सुमित्रा ने त्योरियां चढ़ा लीं।
“इनसे मिल, रोहित सर हैं, डांस सीखाते हैं और इनका अपना ग्रुप भी है। सुधा आंटी के पास आए थे। इन्हें अपने ग्रुप के लिए डांसर चाहिए...तेरी जैसी पागल लड़कियां..जाएगी तो बात कर ले...आखिरी चांस है...नहीं तो जिधर मरना हो मर..”
सुमित्रा को कुछ सुनाई देना बंद हो गया। वह हवा से भी हल्की हो कर उड़ रही थी। हवा में कुछ मंत्र-सा छिटक रहा था....
“हम आपको अभी मंथली पैसा नहीं देंगे, पर हर शो के तीन हजार रुपये देंगे। आप चाहे तो हमारे स्कूल में स्टे कर सकती हैं। पूरी तरह समर्पित होकर डांस में लगना होगा। कपड़े में नखरे नहीं। हर साइज के एक्सपोजर वाले भी पहनने पड़ेगे..इज्जत पूरी मिलेगी...बहुत नाम है हमारे ग्रुप का..हम कोरस में नाचते हैं...बड़े बड़े मौल्स और स्टार के साथ हमारा ग्रुप परफार्म करता है...बस जी..हम इतना ही शुरु में औफर कर सकते हैं,....आप देख लें...”
सुमित्रा को लगा हवा से हल्की देह होती है...जो कभी कभी पतंग भी बन जाती है। एक डोर उसे सपनों की तरफ लिए जा रही थी। एक सपना डाउनलोड हो रहा था....।
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