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नामवर सिंह, मेरी शादी हो रही थी और मैं रो रहा था (जीवन क्या जिया : 2 )


मैंने कभी अपने गुरुदेव हजारी प्रसाद द्विवेदी से पूछा था, ”सबसे बड़ा दुख क्या है?“ बोले, ”न समझा जाना।“ और सबसे बड़ा सुख? मैंने पूछा। फिर बोले, ”ठीक उलटा! समझा जाना।“
Prof Namvar Singh with Raendra Yadav (Photo: Bharat Tiwari)
Prof Namvar Singh with Rajendra Yadav (Photo: Bharat Tiwari)

Jeevan kya Jiya - 2

Namvar Singh

जीवन क्या जिया! 

(आत्मकथा नामवर सिंह बक़लम ख़ुद का अंश)


मैंने कहा, ”मैं शादी नहीं करूंगा

मैं हाई स्कूल में था। कक्षा नौ में पढ़ रहा था। बहुत बीमार पड़ा। यह सन् 44 की घटना होगी। इसी के आसपास कुछ ही दिनों बाद पिताजी बीमार पड़े हार्निया की शिकायत थी। गांवों में जैसा इलाज होता है, वैसा ही हो रहा था। और उसी समय उनका ट्रांसफर भी हो गया था। बड़ी परेशानी में थे। घर में तय हुआ कि मेरी शादी कर देनी चाहिए। मैं पढ़ना चाहता था और चूंकि मुझको शहर की हवा भी लग चुकी थी, मैंने कहा, ”मैं शादी नहीं करूंगा।“ पिताजी सोचते थे कि कहीं वह मर जायें और इसकी शादी ही न हो। जल्दबाजी में उन्होंने मेरी शादी तय कर दी। मैं घर से भाग आया। लेकिन पकड़ कर लाया गया। हाईस्कूल का इम्तिहान खत्म हुआ था और मेरी शादी कर दी गयी। यू.पी. से लगा हुआ बिहार का बार्डर है दुर्गावती नदी के किनारे बसा हुआ गांव मचखिया, वहीं मेरी शादी हो रही थी और मैं रो रहा था।

बहुत दिनों तक इस शादी को मैंने स्वीकार नहीं किया। वह अलग कहानी है। गौने के बाद मेरी पत्नी आयीं। 1945 में मेरी शादी हुई थी, 48 में मेरा पहला पुत्र हुआ। दूसरी संतान बीस साल बाद 1968 में हुई बेटी।

पिताजी ने मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरा विवाह किया था, सही है लेकिन उसका दंड मेरी पत्नी भोगे यह उचित नहीं, यह मैं जानता था और जानता हूं लेकिन जाने क्यों मन में ऐसी गांठ थी कि मैं पत्नी को पति का सुख नहीं दे सका। आज तक। कारण जो हो, मैं उसका विश्लेषण नहीं करता, लेकिन इसका दुख तो मेरे मन में रहेगा ही कि इतना पढ़ने, लिखने, समझने, मानवीय संवेदना की बातें करने के बावजूद मैं अपनी पत्नी को सुख नहीं दे सका

राजेन्द्र मन्नू का घर ऐसा था, जिसमें अपनापन मिलता था

मैं पारिवारिक आदमी तो नहीं रहा लेकिन एक दूसरी तरह के परिवार ने मुझे सहारा दिया। मित्रों का परिवार। दिल्ली अजीब शहर है। पराया है। पूरब वालों के लिए तो खास तौर पर। मैं 1965 में यहां आया था और किराये का मकान लेकर रहता था। कुछ ऐसे परिवार थे जिनसे मेरे पुराने सम्बंध थे। कुछ नये सम्बंध बने। एक परिवार था राजेन्द्र मन्नू का। मैं माडल हाउस में रहता था, ये शक्तिनगर में रहते थे। राजेन्द्र मन्नू का घर ऐसा था, जिसमें अपनापन मिलता था। लेकिन मैं दो लोगों का विशेष जिक्र करना चाहूंगा। एक हैं मेरे छात्र जीवन के सहपाठी मार्कण्डेय सिंह। आजमगढ़ के रहने वाले, आई.पी.एस.। दिल्ली में नौकरी करते हुए भी कई बार मुझसे बनारस में मिल चुके थे। मैं दिल्ली आया तो जो लखनऊ रोड कहलाता है माल रोड के सामने, वहां वह रहते थे। साथ में भाभी जी, उनके बेटे बेटी। मार्कण्डेय सिंह का घर जैसे मेरा भी घर था। दिल्ली रहते हुए उन दिनों मैं अकसर शाम को उनके यहां जाता था। छुट्टी वाले दिन कभी कभी दो बार चला जाता था। आज भी हमारे उनके वैसे ही सम्बंध हैं। वह विद्यानुरागी आदमी हैं। ‘आलोचना’ में मैंने जार्ज लूकाच के एक इंटरव्यू का उनके द्वारा किया गया अनुवाद छापा था प्राज्ञ नाम से। खास तौर से मार्क्सवाद का उन्होंने अच्छा अध्ययन किया था। बाद में उनकी दिलचस्पी तंत्र में हुई...।

इसी तरह से एक दूसरा परिवार है डा. निर्मला जैन का। वह माल रोड पर रहतीं थी और दिल्ली विवि. में पढ़ाती थीं। लिखती भी थीं और साहित्यकारों से उनके सम्बंध थे। उस परिवार में मेरा प्रवेश मेरे मित्र भारत भूषण अग्रवाल और बिन्दु जी के माध्यम से हुआ। बिन्दु जी भी बी.एच.यू. में पढ़ाती थीं तो भारत भूषण जी उनसे मिलने बनारस आया करते थे। तो उनके कारण निर्मला जी से परिचय हुआ।



निर्मला जी दिल्ली की रहने वाली हैं। बहुत व्यवहार कुशल। जैन लोग वैसे भी बहुत प्रैक्टिकल होते हैं। आर्थिक मामले में महिलाएं और ज्यादा। जीवन में अनेक व्यावहारिक समस्याएं आती थीं तो उन्हें मैं निर्मला जी की सहायता से सुलझाता। आज भी ऐसे मामलों में वह बहुत सहायक हैं। निर्मला जी के भी सम्बंध राजेन्द्र यादव और मन्नू से थे। इसी तरह के कुछ और भी परिवार थे, देवी शंकर अवस्थी का, अजित कुमार का, विश्वनाथ त्रिपाठी का...

परिवार की कमी दिल्ली में पूरी हुई

मेरे जीवन में परिवार का सुख नहीं रहा लेकिन दिल्ली में मुझे जो ये परिवार मिले, अविस्मरणीय हैं। मुझे अपने मित्रों से घर का वातावरण मिला। रोजमर्रा के जीवन में सुख दुख में काम आने वाला सम्बंध मिला। मैं अपना सौभाग्य मानूंगा कि परिवार की कमी दिल्ली में पूरी हुई। वर्ना मैं भी बोहेमियन होता जैसा कि दिल्ली में आकर बहुत से लोग हो गये।

जिन परिवारों ने मुझे संभाल कर रखा उसमें प्रमुख है श्रीमती शीला संधू और उनके पति हरदेव संधू का परिवार। कम्युनिस्ट पार्टी के मेम्बर रहे हैं ये लोग। राजकमल प्रकाशन के नाते इनसे मेरे लेखक प्रकाशक के, सम्पादक के सम्बंध तो बने उससे आगे पारिवारिक सम्बंध भी बने। शीला जी बड़ी ही रौशनख्याल, प्रबुद्ध साहित्य प्रेमी, पंजाबी साहित्य, अंग्रेजी साहित्य खूब पढ़ने वाली महिला हैं। उनके यहां अक्सर शाम को जुड़ाव होता था। राजेन्द्र, मन्नू, निर्मला जी तो वहां आते ही थे; भारत जी, निर्मल जी अपने परिवार के साथ आते थे, कृष्णा सोबती आती थीं। तो यह पारिवारिक जमावड़ा जैसा होता। दिल्ली में मेरा पहला आपरेशन अपेन्डिक्स का हुआ। आपरेशन के बाद हफ्ते पंद्रह दिन के लिए देख भाल की जरूरत थी तो शीला जी अपने घर ले आयी थीं। यह मैं नहीं भूल सकता। यह ऐसी बात थी कि हृदय कृतज्ञता से भर जाता है। ऐसा नहीं कि नाशुक्रा हूं, बस कभी जिक्र करने का मौका नहीं आया। लेकिन मैं सोचता हूं कि उम्र के जिस बिन्दु पर मैं पहुंचा हूं वहां आकर सारी कृतज्ञताएं प्रकट कर देनी चाहिए।

भवभूति का एक श्लोक याद आता हैः
न किंचिदपि कुर्वाणः सौख्यैर्दुःखान्यपोहति।
तत्तस्य किमपि द्रव्यं यो हि यस्य प्रियो जनः।।

राजेन्द्र यादव को तो मेरी बेटी ‘दुश्मन’ नाम से जानती है

मित्रता की इससे अच्छी परिभाषा नहीं हो सकती। बिना कुछ किये, सौख्य मात्र से ही सारे दुखों को दूर कर देता है ऐसे मित्र अनिर्वचनीय उपलब्धि हैं आपके जीवन की। ये हमारे जितने मित्र हैं उनसे खटपट भी होती रहती। गलतफहमियां भी होती रहती थीं। राजेन्द्र यादव को तो मेरी बेटी ‘दुश्मन’ नाम से जानती है। लेकिन यह वैसा ही दुश्मन है जैसा अश्क का ‘मंटो मेरा दुश्मन’। यद्यपि राजेन्द्र मंटो नहीं हैं। जाहिर है कि अश्क होना मेरे लिए कोई स्पृहणीय बात नहीं है। खैर यह सब तो होता ही रहता है। सच्चाई यह है कि मैं भाग्यशाली हूं कि मुझे जैसे भाई मिले, उसी तरह के मित्र मिले।

इस प्रसंग में मैं कहना चाहूंगा कि मेरे दो ऐसे गैर साहित्यिक मित्र हैं जो मुझको मुझसे भी अधिक जानते समझते हैं। एक हैं एडवोकेट नगेन्द्र प्रसाद सिंह। बनारस के। यह हमारे कक्षा पांच के सहपाठी हैं। अकेले वही हैं जो मुझे डांट सकते हैं और मैं चुप लगा जाता हूं। मेरी तीखी आलोचना कर सकते हैं। मेरे प्रशंसक नहीं हैं वह। वह मुझे तुम कह सकते हैं, बल्कि ‘तुम’ कह कर ही बुलाते हैं। वह नामवर नाम से बुलाते हैं। सिंह कभी नहीं बोलते हैं। इस तरह पुकारने वाले दूसरे हैं मार्कण्डेय सिंह। हम भी उनको केवल मार्कण्डेय कहते हैं। भूतपूर्व लेफ्टिनेण्ट गवर्नर। वकील साहब नगेन्द्र प्रसाद सिंह से मैं महीनों नहीं मिलता। वह बनारस में रहते हैं, मैं दिल्ली में, लेकिन ऐसा लगता है कि हम लोग कल ही मिले थे शाम को।

इसी तरह परिवार में भी एक व्यक्ति ऐसा मिला मेरा भाई काशीनाथ जो इन दोनों मित्रों से भी ज्यादा मुझे समझता है और आर पार मुझे देखता रहा है। उसने सबसे ज्यादा निकट से मुझे देखा और जाना है और मुझे बिना बतलाए मेरी बहुत सी भूलों को गलतियों को क्षमा भी कर देता है। मैंने कभी अपने गुरुदेव हजारी प्रसाद द्विवेदी से पूछा था, ”सबसे बड़ा दुख क्या है?“ बोले, ”न समझा जाना।“ और सबसे बड़ा सुख? मैंने पूछा। फिर बोले, ”ठीक उलटा! समझा जाना।“ अगर लगे कि दुनिया में सभी गलत समझ रहे हैं लेकिन एक भी आदमी ऐसा है जिसके बारे में तुम आश्वस्त हो कि वह तुझे समझता है तो फिर उसके बाद किसी और चीज की कमी नहीं रह जाती। इस दृष्टि से मैं बहुत आश्वस्त हूं और निश्चिन्त भी। वह इस कारण है कि एक आदमी है जो मेरे निकट का है, संयोग से मेरा भाई है, वह मुझे जानता है।
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