मंच से बिन्नू बोलेगी या फिर मैत्रेयी पुष्पा

बड़े शहर के निवासी हो चले हम जब — अपने घर-गाँव अपनी जन्मस्थली, जहाँ बचपन बीता हो — जाते हैं तो दिल-ओ-दिमाग़ पर जो प्यारी-सी नमी छा जाती है उसे मैत्रेयी जी ने  अपने इस संस्मरण में कलमबद्ध कर दिया है।

भरत तिवारी
मंच से बिन्नू बोलेगी या फिर मैत्रेयी पुष्पा



फोर लाइन सड़क, गांव और भौजाइयां

— मैत्रेयी पुष्पा


पीछे मुड़कर देखती हूँ और सोचती हूं कि मैं गांव पर ही क्यों लिखती हूं। शहर में रहते हुए 40 साल हो गए। फिर भी शहर पर नहीं लिखा। पिछले दिनों एक किताब लिखी थी — राजेंद्र यादव पर। वह सफर था या मुकाम — 'मेरी नज़र में राजेंद्र यादव'। इसके बाद मैं सोचती थी कि मैं लिख नहीं पाऊंगी। ऊपर से अकादमी का काम भी है — मेरे सामने। इस वजह से मैं शायद नहीं लिख पाऊंगी। क्योंकि मेरी रचनात्मकता के बीच शहर रह नहीं पाता, लेकिन पिछले हफ्ते जब झांसी गई तो लगा कि मैं उस जमीन पर जा रही हूं, जहां कागज पर मेरी कलम उतरने वाली है। और जब दूसरे दिन सुबह-सबेरे अपने गांव खिल्ली के लिए चल दी तो 4 लाइन सड़क पर चलते हुए वे ही जंगल, वृक्ष, झाड़ियां अमलतास, पलाश ढूढ़ती रही, लेकिन अब वे वहां नहीं थे। लगा कि मेरा गांव भी कहीं खोनेवाला है, क्योंकि सहपाठी जो गांव करगवां, सेमरी, अमरा, अमरौल के थे — कहीं नहीं दिखाई दे रहे थे। जहां मेरे मित्र कभी सड़क पर खड़े दिखाई देते थे और मुझे बस में बैठी देखकर तुरंत पास आते थे और जानकारों को बुलाते थे। कहते थे — ''देखो — पुष्पा आ गई।'' बस प्राइवेट हो या सरकारी — मेरी मित्रता के लिए उसे 5 मिनट ज्यादा रुकना ही पड़ता था कि हम अपने मिलने के उल्लास को, खिलखिलाहट को एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर विश्वास कर सकें कि हम सब आपस में मिल रहे हैं। वही नजदीकी है — जो थी।

4 लाइन सड़क ने मेरे साथ नाइंसाफी की है। मेरे मित्रों को मुझसे दूर कर दिया और मेरी नज़र उन नज़ारों में बीहड़ हो गई, जिसमें कभी अमलतास की तरह खिलखिल जाती थी। फिर भी मैं अपनी खुशी को किसी-न-किसी तरह लौटा रही थी। अपने आपको समझा रही थी। झांसी रेलवे स्टेशन पर शताब्दी से जब मैं उतरी तो मुझे बुंदेलखण्ड कॉलेज के साथी-सहपाठी, दोस्त भीड़ में दिखाई देने लग गए। वे खुद में थे या मेरी खुशी थी। मैंने पूछा था — ''तुम लोगों को कैसे पता कि मैं आ रही हूं।'' मेरा हाथ पकड़कर बोले वे — ''तुम जहां भी पैर रखती हो, हमें पता चल जाता है। पेपर-अखबार में छपा था — तुम्हारा नाम, जिसे हमने कई बार पढ़ने के बाद छू-छूकर देखा और खुश होते रहे। तभी से इंतजार कर रहे थे कि कब तुम्हारी शताब्दी आएगी। इसका समय हमने पूछ लिया था और हम स्टेशन पहुंचे।'' यकीन मानिए, तब से जितने समय मैं वहां रुकी — मदन मानव मेरे साथ-साथ रहे।
nostalgia of my village - maitreyi pushpa

बुंदेलखंड विश्वविद्यालय में साहित्य पर दो दिन का कार्यक्रम था। कार्यक्रम ऐसा पहली बार हुआ, जो यादगार बन गया। उस कार्यक्रम में जब बोली तो सबसे पहले मैंने अपने गुरुवर और स्वतंत्रता सेनानी स्व. भगवानदास माहौर को याद किया और सामने बैठे मदन मानव को सम्बोधित किया। माहौर साहब ने हमने मन में क्रांति का बीज न बोया होता तो न मदन मानव, मदन मानव होते और न मैत्रेयी, मैत्रेयी पुष्पा। मदन मानव ने समाज के सामने प्रेम का जो सलीका रखा, वो आज भी युवकों के लिए अनुकरणीय है कि प्रेमिका की गरिमा की हर हाल में रक्षा करना व खुद के लिए बिछोह को भरपूर प्यार में जीना तथा गरीबों-वंचितों के लिए खुद को अर्पण कर देना।

मेरे लिए माहौर साहब आदर्श हैं। उन्होंने मुझे पढ़ाया। साथ ही उन्होंने मेरे बारे में भविष्यवाणी की थी कि यह लड़की एक दिन लेखिका बनेगी। तब मैंने इस बात को महज एक बहलावा समझा था कि मेरे गुरुवर मेरा आत्मविश्वास बढ़ा रहे हैं जैसा कि आदर्शवान अध्यापकों का कर्तव्य होता है। लेकिन मुझे अभी पता चला कि जो सच्चा अध्यापक होता है — वह अपने शिष्य की योग्यता की गहराई समझ लेता है। तब मेरा झांसी रहना किसी तीर्थ से कम नहीं था। बुंदेलखण्ड कॉलेज दुनिया का सबसे बड़ा शिक्षा का मंदिर है, जिसमें मैं खड़ी होकर अपने अध्यापकों की वंदना कर सकती हूं।

दूसरे दिन सुबह-सबेरे लगभग 7 बजे ही मैं अपने गांव खिल्ली के लिए चल दी कि झांसी आई हूं तो गांव को छोड़कर जाना मेरे लिए सम्भव न होगा और भाभी-भौजाइयां यह बर्दाश्त नहीं कर पाएंगी कि बिन्नू झांसी से ही लौट गईं। इतै लौ नहीं आईं। मैं पशोपेश में थी कि मेरे पास बहुत कम समय है कि आखिर एक बजे फिर रेलवे स्टेशन लौटना है और गांव 62 कि.मी. दूर है। मैं गांव पहुंची, लेकिन गांव में घुसते ही मैंने देखा कि जो गांव की पहली पहचान थी — मंदिर, अब वहां नहीं है — उस पहचान को जरा दूर सरका दिया गया है। क्योंकि जब से 4 लाइन सड़क बनी है दूरियां बढ़ गई हैं। विकास में बने रास्ते हमेशा दूरियां कम करते हैं, लेकिन नजदीकी चीजों को उतनी ही दूर फेंक देते हैं। मैं घर पहुंची। हमारा घर अब एक नहीं रहा। परिवार बढ़ने से 12-15 घरों में बंट गए हैं। भाई मुझे सीधे भगवान सिंह भैया के घर ले गए, जो पुलिस के रिटायर्ड दारोगा हैं। मैंने देखा — मेरी भाभी-भौजाइयां सबकी सब वहीं एक घर के बैठक में जमा हैं। मैं भौचक-सी थी कि सब एक जगह कैसे? ऐसा तो शादी-समारोह या किसी दुख-शोक में होता है। उनके सामने अब मैं आई तो वे सब हर्ष उठीं। मैंने कहा — ''अरे, सब एक जगह।'' बड़ी भाभी बोलीं — ''हमें बता दई थी कि बिन्नू जाने के लाने टैम नहीं काढ़ पाएंगी सो सब जनीं एक जगा इकट्ठी हो गईं।'' जमीन पर चादरें बिछी थीं। एक छोटा-सा सोफा बिछा था, जिस पर बड़ी भाभी और मुझे बिठाया गया। फिर क्या था, बातें शुरू हो गईं — ''बिछिया काय उतार दईं। हाथ में चुरियां सोए नहीं पहनीं। का रूप बना लयो। किताबें लिखतीं तो चुरिया और बिछियां की मनाई है का। और बताओ डॉक्टर साहब को संगै काय नहीं लाईं। हम तो उनकी बाट घेर रहे थे। और बिटियां कैसी हैं। अब के आइयो तो चार-पांच दिन के लान्हें जरूर आइयो।''

भाभियों के साथ !! मेरी दुनिया के लोग फ़ैशनेबल क्रान्ति नहीं ज़मीनी बदलाव करते हैं !! — मैत्रेयी पुष्पा
बातें होतीं रहीं। वे मुझे छू-छूकर देखती रहीं। मेरे कमजोर होने की, दुबली होने की शिकायतें सुनाती रहीं और कहती रहीं — ''तुमै का कमी है बिन्नू। काय थकावट है — सो बताव। डॉक्टर साहब नहीं रखत का ठीक से सो हमें बताव। हम समझाउते।''



यह कहते-सुनते कब चलने की बेरा हो गई न भाभियों को पता चला न मुझे। भाई ने कहा — 'समय हो रहा है। उठ के खड़े होना चाहिए।'' इतने में कुसमा भाभी ने बांह पकड़ कर बैठा लिया और बोलजीं — ''ऐसे चली जाओगी — खाली हाथ? सूने माथे। एक टिकली माथे और गांठ बंधायी रुपैया तो बिन्नू लेने ही हैं। बस।''

मेरी साड़ी के छोर में एक-एक कर पंद्रह-सोलह भौजाइयां — जैसे ही रुपैया बांधने लगीं, मेरी रुलाई छूटी। मैं ऐसे रोई जैसे मायके से पहली बार बिदा होती रोई थी। भौजाइयों ने एक-एक कर कंधों से लगकर मुझे चुपाया — ''न रोओ बिन्नू, नोने राजी-खुशी रहो। तुमारे लाने कौन किमी है। कछू दुख-तकलीफ दहो तो फोन पर बता दियो। भैया तुरंत पहुंच जैहें तुम्हारे पास। इतैक तो डॉक्टर साहब भी जानत हैं।''

मैं दरवाजे से बाहर निकल आई, इस भावना के साथ कि अपने प्यार के धान-फूल फेंकती हूं अपनी भौजाइयों की बखरी में कि वे ऐसे ही लगावभरी, अपनापन लिए बनी रहें मेरे लिए और मेरी बेटियों के लिए। मैं सोचती जा रही थी कि बुंदेलखण्ड विश्वविद्यालय के सेमिनार के मंच से बिन्नू बोलेगी या फिर मैत्रेयी पुष्पा।
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5 टिप्पणियाँ

  1. मर्मस्पर्शी,शानदार। ऐसा अपनापन औपचारिकता से भरे शहर में यह सपना है। बहुत बहुत शुक्रिया।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (21-07-2016) को "खिलता सुमन गुलाब" (चर्चा अंक-2410) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. बहुत सुन्दर और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति. बहुत बहुत धन्यवाद और शुभ कामनायें

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  4. बहुत मार्मिक और भाव पूर्ण लेख था गाँव की अनोपचारिक सांत्वना भरे संवाद बिलकुल दिल से निकलते हैं , लेकिन इन्हें समझने के लिए दिल भी बिन्नू का सा दिल चाहिए --------

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  5. ऐसा स्नेह कौन नही पाना चाहता नमन आपको व उन भाभियों को

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