नामवर जी का सत्ता की चापलूसी करना क़तई शोभा नहीं देता — अशोक वाजपेयी (नामवर विफलताएँ - 2)


Prof Namvar Singh's 90th Birthday Exclusive

Ashok Vajpeyi's critical analyses of  Prof Namvar Singh's work

Part 2 of 3
On Namvar Singh's 90th birthday, Ashok Vajpeyi critically analyse his work. Part 2 of 3

नामवर विफलताएँ - 2 

— अशोक वाजपेयी 

लिखित न होने के कारण उनके कई अभिमत, निन्दा-प्रशंसा, प्रहार आदि संवाद और बहस के दायरे से बाहर चले जाते हैं



इस सामाजिकी के फैलने और व्यापक रूप से प्रचिलित होने का एक मोटा कारण तो यह है कि नामवर जी के छात्र बड़ी संख्या में आसेतुहिमालय फैले हुए हैं और उनमें से अनेक को अकादैमिक संस्थाओं में जगह नामवर जी ने ही सीधे उन्हें चुनकर या अपने प्रभाव का उपयोग कर दिलवाई है। ये शिष्य उनकी कीर्ति की ध्वजाएँ फहराते रहते हैं और उनमें से बहुत कम ऐसे हैं जो इस सामाजिकी से अलग जाने की हिम्मत कर सकें। उनकी बुनियादी दृष्टि ‘नामवर-दीक्षित’ होने के कारण, बिना समतुल्य प्रतिभा और अनुभव के, इस सामाजिकी को बनाए रखने और पुष्ट करने को अपना अलिखित-अघोषित धर्म मानती और उससे साहित्य में जो दाख़िल-ख़ारिज होता है उसे कृतज्ञता ज्ञापित करने के तरीक़े के रूप में जस का तस अपना लेती है। 

इस मुक़ाम पर नामवर जी के चार अतिचारों का ज़िक्र करना उचित होगा। विचारधारा के अतिरेक के अलावा उनके यहाँ तीन और अतिचार सक्रिय रहे हैं : वाचिकता, अवसरवादिता और सत्ता का आकर्षण। सही है कि किसी हद तक नामवर जी ने हिन्दी-आलोचना में वाचिक-परम्परा की एक तरह से शुरूआत की। कई बड़े और अच्छे लेखक हिन्दी में प्रभावशाली वक्ता रहे हैं पर उनमें से प्रत्येक ने अपनी बुनियादी अभिव्यक्ति लिखकर ही की। नामवर जी पहले आलोचक हैं जिन्होंने पिछले लगभग चार दशक लिखकर कम, बोलकर अधिक बिताए हैं। उनके बोले हुए को लिखित में बदलने और संग्रहित करते हुए चार पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं : चार और आना है। आठ पुस्तक भर नामवर जी से पहले किसी हिन्दी लेखक ने नहीं बोला। इसका एक दूसरा पहलू भी है : नामवर जी ने अक्सर जो बोला वह कभी लिखा नहीं। अपनी वाक-शूरता और वाग्मिता से वे सारा हिन्दी-अंचल दशकों से लगभग रौंदते रहे हैं : उसका अधिकांश लिखित में कभी नहीं आया, न आएगा – इन आठ पुस्तकों में भी नहीं। यह कई तरह से अपने को रिकार्ड से बाहर रखने जैसा जतन है। राजनेताओं की तरह वे अपना बचाव, मौक़ा आने पर, भले यह कहकर न करें कि “मैंने तो ऐसा नहीं कहा था और मेरी बात सन्दर्भ से काटकर देखी जा रही है”, पर यह तथ्य अपनी जगह बना रहता है कि लिखित न होने के कारण उनके कई अभिमत, निन्दा-प्रशंसा, प्रहार आदि संवाद और बहस के दायरे से बाहर चले जाते हैं। इसे आलोचकीय अनैतिकता के अलावा कुछ और नहीं कहा जा सकता। आलोचना, प्रथमत: और अन्ततः, लिखित संवाद, विवेचन और विश्लेषण है। ऐसी वाचिकता उसे रिकार्ड से बाहर रखकर कुछ ऐसा करती है जो एक साथ अनैतिक और आलोचना का अवमूल्यन है। यह, एक स्तर पर, आलोचना को निरे अभिमत, अफ़वाह या फ़तवे मे बदलने जैसा है। दिल्ली में रहने वाले हम जैसे लोग याद कर सकते हैं  कि इस दौरान नामवर जी ने अपने वक्तव्यों में लगभग हर वर्ष किसी साहित्यिक आयोजन, पुस्तक, लेखक या पत्रिका के लोकार्पण आदि के अवसर उन्हें खुल्लमखुल्ला और निस्संकोच ऐतिहासिक घोषित किया है जबकि उनमें से प्राय: सभी एक वर्ष भी ध्यान नहीं रह पाये या पाते हैं।



बरसों पहले मैंने एक इण्टरव्यू में नामवर जी को अचूक अवसरवादी कहा था। उनके यहाँ अवसर के अनुकूल कुछ कहने-करने की अब एक लम्बी परिपाटी बन गई है। सभा-गोष्ठियों में वे श्रोताओं को देखकर उन्हें रिझाने की दृष्टि से कुछ कहते हैं : कभी कभी खरी-खोटी भी सुना देते हैं। लेकिन, ज़्यादातर, वे अनुकूल और प्रिय बातें कहकर ही श्रोताओं की प्रशंसा जीतते हैं। लोकतान्त्रिक भावना का सहारा लेकर वे ऐसे मंचों पर जाते रहे हैं जिनके आयोजकों से उनका घोर विरोध जगज़ाहिर रहा है : वहाँ वे अपना वैचारिक विरोध प्रगट नहीं करते बल्कि कुछ बेहद निरामिष कहकर सन्तुष्ट हो जाते हैं। यह दुश्मन के मंच का इस्तेमाल करना नहीं है, जो की उनकी प्रगतिशीलता की एक घोषित रणनीति रही है। यह उस मंच को अपने इस्तेमाल के अनर्जित छूट देना है। नामवर जी अपनी विचारधारा से विपथ होते हैं पर किसी वैचारिक उद्वेलन या किसी रचना या स्थिति या मूल्य-संकट के कारण नहीं : उनका ऐसा विचलन या अतिक्रमण शमशेर बहादुर सिंह या गजानन माधव मुक्तिबोध के अतिक्रमण से कोसों दूर, शुद्ध अवसरवादिता के कारण होता रहा है। उनके साहित्यिक आचरण में यह अवसरवादिता एक अन्तर्प्रवाह ही बन गई है। उन्होंने कुछ वर्ष पहले अपने बारे में बात करते हुए यह कहा था कि ‘उन्हें लेखक प्रगतिशील लेखक संघ ने बनाया’ : अगर यह सच है तो भयानक है — क्योंकि हमारे जाने, स्वयं संघ ने लेखक बनाने का दावा कभी नहीं किया। लेकिन शायद यह संघ का समर्थन सुनिश्चित किए जाने की एक अवसरवादी हरकत भर है, गम्भीर सचाई नहीं।

यही अवसरवादिता नामवर जी के एक और रुझान का कारण है : उनमें सत्ता के प्रति अतर्कित आकर्षण रहा है। हममें से कइयों ने दिल्ली में उन्हें सत्ताधारियों के साथ मंच पर होने पर बहुत विनम्र होते देखा है। कुल दो उदाहरण पर्याप्त होंगे। उनका अमृत-महोत्सव उनके प्रिय और एक हिन्दी दैनिक के सम्पादक-मित्र ने बहुत ज़ोर-शोर से मनाया था। उसमें समापन के समय पाँच-छ: राजनेताओं ने नामवर जी की अभ्यर्थना की। उनमें से किसी पर यह लांछन नहीं लगाया जा सकता कि उन्होंने कभी उनका लिखा कुछ पढ़ा होगा। उस समय बचाव में यह कहा गया था कि वे राजनेता हिन्दी-समाज की ओर से नामवर जी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने एकत्र हुए थे। सभी राजनेता थे, राजनीति और वर्तमान या भूतपूर्व सत्ताधारी होने की समानता थी — वे संयोगवश एक ही वर्ण के भी थे। हिन्दी-समाज उसके लेखकों, बुद्धिजीवियों, विद्वानों आदि के बजाय उसके राजनेताओं को अपना सबसे ऊँचा और प्रामाणिक प्रतिनिधि मानता है। यह मानने का कोई आधार न तब था, न आज है। हिन्दी-समाज में बुद्धि और सृजन की, विचार और आलोचना आदि के प्रति बहुत उदासीनता है, यह सही है। पर उसमें राजनीति से परे अपनी सर्जनात्मकता और विचारशीलता को समझने और उसका आदर करने की तेजस्विता भी है। इस विचित्र अभ्यर्थना के पीछे नामवर जी की सहमति न रही हो यह मानने का कोई कारण नहीं है। दूसरा उदाहरण भवानीप्रसाद मिश्र के पैतृक गाँव में हुए एक आयोजन का है जिसमें मिश्र जी पर केन्द्रित एक आयोजन में नामवर जी गए थे और मध्यप्रदेश के तब के मुख्यमंत्री को आना था। वे देर से आए और उन्हें जल्दी जाना भी था। नामवर जी ने इस अवसर पर दिये अपने संक्षिप्त वक्तव्य में मिश्र जी के बारे में कुछ नहीं कहा और मुख्यमंत्री की नाहक प्रशंसा में सारा समय लगाया। वे हिन्दी के अग्रणी सार्वजनिक बुद्धिजीवी हैं और उनका सत्ता के समक्ष इस क़दर विनम्र और कई बार उसकी चापलूसी करना क़तई शोभा नहीं देता। यह एक बड़े आलोचक का अतिचार ही है।

नामवर जी उचित ही साहित्य को सामाजिक संस्था मानते हैं। स्वयं उन्हें संस्था-निर्माता तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि उन्होंने ‘जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय’ में हिन्दी विभाग के अलावा कोई और संस्था नहीं बनाई है। अलबत्ता वे कई बनी बनाई संस्थाओं जैसे ‘साहित्य अकादमी’, ‘प्रगतिशील लेखक संघ’, ‘महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय’, ‘राजा राममोहन राय लायब्रेरी फ़ाउण्डेशन’ आदि में पदासीन रहे हैं। उनकी इन संस्थाओं में भूमिका का विशद विश्लेषण करना लम्बा काम है, और यह उसका अवसर नहीं है। कुछ मोटी मोटी बातें कही जा सकती हैं। अकादमी में जब तक नामवर जी किसी निर्णायक भूमिका में रहे, किसी ग़ैर-प्रगतिशील को पुरस्कार या प्रोत्साहन नहीं मिल पाया। एकाध अपवाद होंगे पर वे उनकी विचारधारा की अटूट वफ़ादारी के नियम को असिद्ध नहीं करते। सोवियत संघ और यूरोप में साम्यवादी व्यवस्थाओं के विघटन ने मार्क्सवादी विचारधारा के समक्ष गहरा संकट उपस्थित किया। इस संकट पर नामवर जी ने गहराई से न स्वयं विचार किया और न ही उनके नेतृत्व में लेखक-संघ ने। अगर उसके रुख़ में थोड़ी-बहुत उदारता आई तो वह बदली परिस्थिति के दबाव में आई, किसी वैचारिक-मंथन के कारण नहीं। संघ का अपार समर्थन उन्हें मिलता रहा है पर नामवर जी के नेतृत्व में उसने कोई नई सार्थक दिशा नहीं पाई और न ही उसमें अपनी दृष्टि के पुनराविष्कार की वैसी कोई उत्तेजना हुई जैसी कि अनेक पश्चिमी बुद्धिजीवियों-लेखकों में संभव हुई। अंततः नामवर जी मार्क्सवाद में भी यथास्थिति के पोषक ही साबित हुए।
नामवर विफलताएँ - 3 

बहुवचन से साभार
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