राजनीतिक संन्यास काट रहे नरेन्द्र मोदी को फ़ोन पर मुख्यमंत्री बनाने का आदेश देते वाजपेयी, और फिर गुजरात में दंगों के बाद उन्हीं मोदी को राजधर्म की सलाह देने वाले, व्यथित हृदय से इस्तीफा लिखते प्रधानमंत्री वाजपेयी—ये भी एक ही शख़्सियत के दो संजीदा हिस्से थे । इसी वाजपेयी ने फिर सबकी राय मानते हुए नरेन्द्र मोदी को अभयदान भी दिया था
ये कैसी अलिखित प्रेम कहानी थी
— विजय त्रिवेदी
वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी की पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पर लिखी पुस्तक- ‘हार नहीं मानूंगा’ का लोकार्पण 3 जनवरी की शाम हुआ । जानिये लेखक क्या कहते हैं पुस्तक के बारे में.
L-R Minakshi Thakur, Anu Singh Choudhary, Vijai Trivedi, Sambit Patra, Jaya Jaitly, Rajdeep Sardesai, Gayatri Joshi and Sudhanshu Trivedi |
दिसम्बर 1990 की एक सर्द रात । दिल्ली में रायसीना रोड पर ज़्यादा हलचल नहीं थी । 6, रायसीना रोड पर बीजेपी के सबसे वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी के निवास पर मैं अपने मित्र और सहयोगी संजय कुलश्रेष्ठ के साथ जयपुर से दिल्ली एक कार्यक्रम का प्रस्ताव लेकर पहुँचा था — साम्प्रदायिकता और आतंकवाद के खिलाफ़ राष्ट्रीय एकता पर एक लाइट एण्ड साउण्ड कार्यक्रम का । उन दिनों हम स्वतंत्र रूप से डॉक्यूमेंट्री और मल्टीमीडिया के कार्यक्रम बनाया करते थे । वरिष्ठ नेता रामदास अग्रवाल ने वाजपेयी से हमारी ये मुलाक़ात तय करवाई थी । वाजपेयी ने प्रस्ताव पर हमारी उम्मीद से भी जल्द हामी भर दी और तय हुआ कि कार्यक्रम बीजेपी के अशोका रोड दफ्तर के प्रांगण में होगा । वाजपेयी को साउण्ड रिकार्डिंग का एक हिस्सा सुना दिया गया, जो उन्हें बेहद पसन्द आया । कार्यक्रम की सारी तैयारियाँ हो गयीं, लोगों को निमंत्रण भेज दिये गये । लेकिन कार्यक्रम शुरू होने के ठीक पहले, मुख्य अतिथि अटल बिहारी वाजपेयी के पहुँचने से ठीक पहले इतनी तेज़ आँधी और बारिश आयी कि देखते-ही-देखते सब कुछ तहस-नहस हो गया । हम आयोजकों के होश उड़े हुए थे । वाजपेयी पहुँच चुके थे । लेकिन वाजपेयी ने नाराज़गी दिखाने के बजाय हिम्मत बँधाई और कहा, “यह भी एक इम्तिहान था । अगली बार और अच्छी तैयारी करना ।” अगले दिन तो हम हताश, निराश, उदास जयपुर लौट गये लेकिन हमारे साथ मन के किसी नर्म कोने में हमारे साथ अटल बिहारी वाजपेयी नाम का एक सहृदय राजनेता भी लौटा ।
वाजपेयी की जीवन गाथा
1992 में जब मैं पत्रकारिता के सिलसिले में दिल्ली आया तब बीजेपी और ख़ासकर वाजपेयी को ही कवर करने का मौका मिला । हर बार इस शख़्सियत की एक नई ख़ासियत समझने को मिलती । ये भी क़रीब से देखने का मौका मिला कि वाजपेयी हर स्थिति में इतने सहज और विनम्र कैसे रहते हैं । ‘हार नहीं मानूँगा’ वाजपेयी की जीवन गाथा है, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा उनके राजनीतिक जीवन और उनके व्यक्तित्व को समझने और पहचानने की ईमानदार कोशिश है ।जनता पार्टी में जनसंघ का विलय
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ कश्मीर यात्रा से अपने राजनीतिक सफ़र की शुरुआत करनेवाले वाजपेयी ने प्रधानमंत्री बनते ही कश्मीर को मुख्यधारा में लाने की पुरज़ोर कोशिश की । 1957 में इस नौजवान सांसद ने प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की संसद में तीखी आलोचना तो की, लेकिन जैसे ही विदेश मंत्री बने वैसे ही न सिर्फ़ विदेश मंत्रालय की दीवारों से उतार दी गयीं नेहरू की तस्वीरें दोबारा लगवायीं बल्कि नेहरू की उदार और निष्पक्ष विदेश नीति का दामन भी थामा । वाजपेयी ने 1975 में आपातकाल में जेल में रहते हुए जयप्रकाश नारायण के साथ विपक्षी नेताओं को एकजुट करने और उसके बाद जनता पार्टी में जनसंघ का विलय करने का काम किया और कहा, “अब सवेरा हो गया है, दीपक बुझाने का वक्त आ गया है ।”वाजपेयी राम मन्दिर निर्माण आन्दोलन में बीजेपी की भूमिका और रथयात्रा के खिलाफ़ रहे
मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे बीजेपी के दोनों बड़े नेताओं — अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी — को अयोध्या आन्दोलन की ऐतिहासिक घटना के दौरान बहुत क़रीब से देखने का मौका मिला । एक ही घटना पर दोनों नेताओं की प्रतिक्रियाएँ, फ़ैसले और बर्ताव अलग-अलग रहे, लेकिन फिर भी दोनों पार्टी की ख़ातिर साथ-साथ चलते रहे । वाजपेयी राम मन्दिर निर्माण आन्दोलन में बीजेपी की भूमिका और रथयात्रा के खिलाफ़ रहे, लेकिन फिर भी उन्होंने आडवाणी की रथयात्रा को हरी झण्डी दिखायी । 1992 में बाबरी मस्जिद गिरने के बाद राजनीतिक तौर पर अछूत बनी पार्टी के लिए 1996 में बहुमत के लिए समर्थन जुटाना मुश्किल था । वाजपेयी ने भारत के इतिहास में कम कार्यकाल वाली यानी सिर्फ़ तेरह दिनों की सरकार की कमान सँभाली । तब भी, जबकि वे जानते थे कि समर्थन जुटा नहीं पायेंगे । अल्पमत की सरकार बनाने की चुनौती इसलिए स्वीकार की क्योंकि वाजपेयी पलायन नहीं करना चाहते थे । विश्वास मत प्रस्ताव के दौरान अपने भाषण में वाजपेयी ने कहा, “राष्ट्रपति जी ने शपथ विधि के लिए कहा था तो क्या चुनौती स्वीकार नहीं करता, क्या पलायन कर जाता?” लेकिन बहुमत जुटाने के लिए वाजपेयी ने कभी गलत तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया । 1996 में भी नहीं और 1999 में भी नहीं ।जब जनता पार्टी में दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठा तो उन्होंने संघ के साथ ही रहने का फ़ैसला किया
वाजपेयी की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से निष्ठा पर सवाल उठाने वालों के लिए इतना ज़िक्र बहुत है कि जब जनता पार्टी में दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठा तो उन्होंने संघ के साथ ही रहने का फ़ैसला किया और जनता पार्टी से अलग होकर नयी पार्टी बना दी, जबकि उनके साथ के कई लोगों को लगता था कि वाजपेयी संघ के बजाय जनता पार्टी के साथ ही रहना पसन्द करेंगे । फिर भी भारतीय जनता पार्टी बनाते हुए भी वाजपेयी पुराने जनसंघ का चोला उतार देना चाहते थे, इसलिए भारतीय जनता पार्टी नाम की पार्टी बनायी तो वहाँ भी जेपी के गाँधीवादी समाजवाद को लेकर मुखर रहे और पार्टी के झण्डे में भगवा रंग ही नहीं रखा, उसमें हरा रंग भी शामिल करवाया । हालाँकि फिर भी वाजपेयी ने संघ के आदेश को नकारा नहीं, बल्कि इस हद तक माना कि 1998 में अपने मंत्रिमण्डल की फ़ाइनल लिस्ट राष्ट्रपति भवन भेजने के बाद भी दो नेताओं का नाम उसमें से इसलिए काट दिये क्योंकि उन दो नामों पर संघ की मुहर नहीं लगी थी । फिर भी उनकी स्वतंत्र सोच देखिए कि बाद में दूसरा रास्ता अख़्तियार कर इन दो नेताओं को अपना करीबी सहयोगी बना ही लिया । ये दो नेता थे जसवंत सिंह और प्रमोद महाजन, जिन्होंने वाजपेयी मंत्रिमण्डल में अहम भूमिकाएँ निभायीं ।अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को वाजपेयी से मिलने भारत आना पड़ा
अपने कार्यकाल में अटल बिहारी वाजपेयी पर कमज़ोर प्रधानमंत्री होने के आक्षेप भी लगते रहे, लेकिन इसी कमज़ोर प्रधानमंत्री ने सरकार बनाते ही अमेरिका और दुनिया के दूसरे ताकतवर देशों की परवाह किये बग़ैर परमाणु परीक्षण किये । इतना ही नहीं, आर्थिक पाबन्दी लगाने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को वाजपेयी से मिलने भारत आना पड़ा क्योंकि वाजपेयी ने भारत को दुनिया के नक्शे पर एक ताक़तवर और सक्षम देश के तौर पर ला खड़ा किया था । यही वाजपेयी पाकिस्तान से दोस्ती का हाथ बढ़ाने के लिए लाहौर तक गये और पाकिस्तान से रिश्ते बेहतर करने की पुरज़ोर कोशिश की । कामचलाऊ प्रधानमंत्री थे, लेकिन कारगिल युद्ध के रूप में जब पाकिस्तान ने धोखा दिया तो न सिर्फ़ युद्ध का मुँहतोड़ जवाब दिया बल्कि शहीदों को उनकी चौखट तक ससम्मान पहुँचाने की पहल की । इतना ही नहीं, कारगिल युद्ध के कर्ता-धर्ता जनरल परवेज़ मुशर्रफ जब पाकिस्तान के राष्ट्रपति हो गये तो उन्हें शिखर सम्मेलन के लिए आगरा तक बुला लिया । ऐसी हिम्मत कोई कमज़ोर प्रधानमंत्री दिखा सकता है क्या?वाजपेयी की नई टेलीकॉम नीति की ही देन थी कि हर दसवें हिन्दुस्तानी के हाथ में फोन पहुँच गया
संघ की ज़मीन से जुड़े रहे वाजपेयी ने विकास और व्यावहारिकता का दामन कभी नहीं छोड़ा । इसी की मिसाल वाजपेयी की आर्थिक नीतियाँ हैं । ‘स्वदेशी जागरण मंच’ जैसे संगठनों के कड़े विरोध के बावज़ूद वाजपेयी देश को आर्थिक उदारीकरण की ओर ले गये, विनिवेश का दौर शुरू किया । वाजपेयी की नई टेलीकॉम नीति की ही देन थी कि हर दसवें हिन्दुस्तानी के हाथ में फोन पहुँच गया ।नरेन्द्र मोदी को अभयदान
राजनीतिक संन्यास काट रहे नरेन्द्र मोदी को फ़ोन पर मुख्यमंत्री बनाने का आदेश देते वाजपेयी, और फिर गुजरात में दंगों के बाद उन्हीं मोदी को राजधर्म की सलाह देने वाले, व्यथित हृदय से इस्तीफा लिखते प्रधानमंत्री वाजपेयी—ये भी एक ही शख़्सियत के दो संजीदा हिस्से थे । इसी वाजपेयी ने फिर सबकी राय मानते हुए नरेन्द्र मोदी को अभयदान भी दिया था ।फ़कीरी का अन्दाज़
पचास साल की लम्बी राजनीतिक पारी खेलनेवाले ऐसे कम ही राजनेता होंगे जिनकी फ़कीरी का अन्दाज़ कुछ ऐसा रहा जो संसद में अपनी कुर्सी छोड़ते हुए भाषण देते हुए कहता हो, “अध्यक्ष महोदय, जब मैं राजनीति में आया, मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं एमपी बनूँगा । मैं पत्रकार था और यह राजनीति, जिस तरह की राजनीति चल रही है, मुझे रास नहीं आती । मैं तो छोड़ना चाहता हूँ, मगर राजनीति मुझे नहीं छोड़ती है । फिर भी मैं विरोधी दल का नेता हुआ, आज प्रधानमंत्री हूँ और थोड़ी देर बाद प्रधानमंत्री भी नहीं रहूँगा । प्रधानमंत्री बनते समय मेरा हृदय आनन्द से उछलने लगा हो, ऐसा नहीं हुआ । जब मैं सब कुछ छोड़-छाड़ चला जाऊँगा, तब भी मेरे मन में किसी तरह की म्लानता होगी, ऐसा होने वाला नहीं है ।“सबसे बड़ी गठबन्धन सरकार
अब तक की सबसे बड़ी गठबन्धन सरकार अटल बिहारी वाजपेयी ने बनाई और पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री रहे जिन्होंने पाँच साल का कार्यकाल पूरा किया । इस किताब में गठबन्धन को बेहतर तरीके से चलाने में वाजपेयी की महारथ और इसके बावजूद सहयोगियों की शर्तों के आगे नहीं झुकने की काबिलियत का ज़िक्र है । दुनिया की सबसे लम्बी, और सबसे गहरी, राजनीतिक दोस्ती के बहाने वाजपेयी और आडवाणी के रिश्तों की पड़ताल करने की कोशिश है ।लेकिन क्यों इस ‘महानायक’ को ‘मुखौटा’ कहने वाले बीजेपी के अब तक के सबसे ताकतवर संगठन महासचिव गोविन्दाचार्य को वाजपेयी कभी माफ़ नहीं कर पाये?
- हमेशा मुस्कराता चेहरा लिये लोगों से मिलने वाले वाजपेयी अपनी विनम्रता के लिए जाने जाते हैं, लेकिन क्यों इस ‘महानायक’ को ‘मुखौटा’ कहने वाले बीजेपी के अब तक के सबसे ताकतवर संगठन महासचिव गोविन्दाचार्य को वाजपेयी कभी माफ़ नहीं कर पाये?
- कल्याण सिंह से नाराज़ होते हुए भी क्यों पार्टी में उनकी वापसी की इजाज़त दे दी?
- संघ की विचारधारा के साथ रह कर भी कैसे अपने निजी जीवन को उन्होंने बेहद निजी रखा?
- वाजपेयी शायद अकेले प्रधानमंत्री होंगे जहाँ सरकारी निवास पर रहने वाले के नाम प्रोटोकॉल बुक में नहीं, लेकिन वे साथ रहते हैं, एक परिवार की तरह । ये कैसी अलिखित प्रेम कहानी थी?
...ये सारी घटनाएँ वाजपेयी की राजनीतिक शख़्सियत ही नहीं, उनके स्वभाव के कई पहलुओं को उजागर करती हैं ।
इस किताब को लिखने के दौरान मैंने वाजपेयी के वक्त के सभी दलों के नेताओं, मंत्रियों, पार्टी अध्यक्षों, संगठन कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के अलावा वाजपेयी के नज़दीकी मित्रों और सहयोगियों को मिलाकर तकरीबन एक सौ से ज़्यादा लोगों से बातचीत की ताकि न सिर्फ़ घटनाक्रम की सही और चहुँमुखी जानकारी मिल सके, बल्कि उनकी पुष्टि भी हो सके । पत्रकारिता की भाषा में इसे ‘क्रॉसचेकिंग’ कहते हैं । वाजपेयी की पुत्री नमिता और दामाद रंजन भट्टाचार्य का हमेशा मुझ पर स्नेह बना रहा है, लेकिन इस बीच शायद उनकी कुछ ज़्यादा व्यस्तता रही होगी कि मेरी तमाम कोशिशों के बाद भी उनसे मेरी बात नहीं हो पायी । उनकी मदद से वाजपेयी के निजी जीवन के कुछ और अनछुए पहलू उजागर हो पाते, लेकिन ये हो न सका । इसकी मुझे तकलीफ़ भी है और माफी चाहता हूँ । हालाँकि ये भी सच है कि अटल बिहारी वाजपेयी की जीवन गाथा में ‘निज’, ‘निजता’ और ‘निजी’ का स्थान गौण ही रहा है ।
मैं कुँवारा हूँ, ब्रह्मचारी नहीं
यूँ तो वाजपेयी की ज़िन्दगी खुली किताब की तरह है, और हर पन्ने पर एक नयी कहानी भी है क्योंकि वाजपेयी ने अपने व्यवहार में छिपाव या दुराव कभी नहीं रखा । दिखावा कभी नहीं किया, ख़ामोश रहे लेकिन झूठ नहीं बोला कभी । संघ के स्वंयसेवक और प्रचारक रहे वाजपेयी ने शादी नहीं की, लेकिन ख़ुद कहा, “मैं कुँवारा हूँ, ब्रह्मचारी नहीं ।” बीजेपी और संघ के नेता सार्वजनिक तौर पर शराब या मांसाहार का ज़िक्र नहीं करते, लेकिन वाजपेयी ने अपनी जीवनशैली के इस पक्ष को कभी छिपाने की कोशिश नहीं की ।क्या वाजपेयी कुछ मौकों पर सबके साथ चलने के बजाय ख़ुद फ़ैसले लेते तो क्या देश किसी नये मोड़ पर होता, कोई नया इतिहास रचा गया होता?
विजय त्रिवेदी
15 जुलाई, 2016
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