सचेत सेकुलर अचेत रूप में साम्प्रदायिक कैसे होता है ? — अभय कुमार दुबे Secular Sampradayik Abhay Kumar Dubey


Secular/Sampradayik Ek Bhartiya Uljhan Ke Kuchh Aayam, ABHAY KUMAR DUBEY



किसी को साम्प्रदायिक कहने का मतलब है एक अंतहीन बहस निमंत्रित करना

— अभय कुमार दुबे

अभय कुमार दुबे की किताब 'सेकुलर/सांप्रदायिक : एक भारतीय उलझन के कुछ आयाम' की भूमिका.

आज़ादी के अढ़सठ साल भी भारतीय लोकतंत्र ने ऐसा कोई सिक्काबंद फार्मूला विकसित नहीं कर पाया है जिसके ज़रिये यह पता लगाया जा सके कि हमारे सार्वजनिक जीवन में कौन सेकुलर है और कौन साम्प्रदायिक। शायद इस मुश्किल का प्रमुख कारण यह है कि राजनीति और विमर्श के दायरे में पाले के दोनों तरफ दो-दो हमशक्ल मौजूद हैं। यानी सेकुलर की भी दो क़िस्में हैं और साम्प्रदायिक की भी। एक अल्पसंख्यक सेकुलरवाद है और दूसरा बहुसंख्यक सेकुलरवाद। इसी तरह एक अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता है और दूसरी बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता। विडम्बना यह है कि इन हमशक्लों की मौजूदगी से बाक़ायदा वाकिफ़ होने के बावजूद अभी तक हम इन्हें अलग-अलग करके देखने और समझने की तमीज़ विकसित नहीं कर पाये हैं।




इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि भारत में अल्पसंख्यक कहीं-कहीं बहुसंख्यक भी हैं, और बहुसंख्यक कहीं-कहीं अल्पसंख्यक भी हैं। संख्या का यह खेल उनका राजनीतिक आचरण बदलता रहता है। लेकिन, यह एक छोटा कारण है। असली समस्या यह है कि दोनों सेकुलरवाद और दोनों साम्प्रदायिकताएँ हर समय संघर्ष और एकता के मौक़ापरस्त समीकरणों में परस्पर गुँथी रहती हैं। ये प्रवृत्तियाँ व्यवहार के धरातल पर ही नहीं, बल्कि विमर्श के दायरे में भी कभी एक-दूसरे से टकराती हैं तो कभी एक-दूसरे को पनपाती हैं। यह प्रक्रिया पाले के दोनों तरफ ही नहीं, वरन् पाले के आरपार एक परस्परव्यापी दायरे में भी चलती है। कभी-कभी वे पाला भी बदल लेती हैं। जो किसी संदर्भ में सेकुलर है, वह किसी और संदर्भ में साम्प्रदायिक लगने लगता है, और यही परिघटना अपने उलटे रूप में भी घटित होती रहती है।

एक अपरिभाषित और अदृश्य अंतराल बनता है जिसके कारण सेकुलर और साम्प्रदायिक खेमों में एक चौंका देने वाली आवाजाही होती रहती है — अभय कुमार दुबे 

किताबी लिहाज़ से कहें तो उन्हें साम्प्रदायिक समझा जाना चाहिए जो खुल कर धर्म के आधार पर राजनीतिक गोलबंदी या उसकी पैरोकारी करते हैं। इसके मुताबिक़ हिंदुत्ववादी पार्टियाँ, सिखों के बोलबाले की अपील करने वाली ताक़तें और मुसलमान-एकता या ईसाई क़िस्म की राजनीतिक अपील करने वाले दल और उनका समर्थन करने वाले बुद्धिजीवी साम्प्रदायिक हुए। लेकिन, बात इतनी आसान नहीं है। ये शक्तियाँ खुद को साम्प्रदायिक मानने से इंकार करते हुए अपनी राजनीति के आधारभूत उसूलों को सेकुलर क़रार देती हैं। वे अलग- अलग कोण से दावा करती हैं कि वे ही सच्चे तौर पर सेकुलर हैं। यह दिक्कतें उस समय और बढ़ जाती है जब हम पाते हैं कि अकाली दल जैसी धर्म आधारित पार्टी की न तो सार्वजनिक छवि साम्प्रदायिक दल जैसी है, और न ही वह खुद को इस रूप में पेश करती है।

 ऐसे सभी राजनीतिक दल सेकुलरवाद से प्रतिबद्ध भारतीय संविधान की शपथ लेते हैं और चुनाव जीत कर सरकारें चलाते हैं। जब राजनीतिक गोटी लाल करने का समय आता है तो, खुद को अल्पसंख्यकों का रक्षक कहने वाली सरकार हो या बहुसंख्यकवादी हुकूमत हो, दोनों ही अपनी शपथ को ताक पर रख कर अल्पसंख्यकों के बड़े-बड़े संहार आयोजित करने से भी नहीं हिचकते। खास बात यह है कि आँखों में चुभने वाले इन बेरहम तथ्यों के बावजूद इन पटियों की संविधानगत सेकुलर दावेदारियों में ज़रा भी शिकन नहीं पड़ती। कुल मिला कर किसी को साम्प्रदायिक कहने का मतलब है एक अंतहीन बहस निमंत्रित करना। इससे यह भी इशारा मिलता है कि हमारे यहाँ औपचारिक सेकुलर दायरे में साम्प्रदायिक गोलबंदी करते हुए हमेशा सेकुलर दावेदारियाँ करते रहने की बेचैन कर देने वाली गुंजाइश मौजूद है।

सम्भवत: सेकुलर शिविर में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यकवाद सेकुलरवादों का हमशक्ल खेल अपनी अलग-अलग शिनाख्त को सबसे ज़्यादा चुनौती देता है। जो बौद्धिक और राजनीतिक शक्तियाँ साम्प्रदायिक गोलबंदी का सहारा लिए बिना सेकुलर उसूलों को बुलंद करती नज़र आती हैं, वे भी ऊपरी सतह खुरचने पर अपने दावों के मुताबिक़ सेकुलर नहीं रह जातीं। वे खुले तौर पर साम्प्रदायिक शक्तियों का विरोध तो करती हैं, पर उनका विमर्श और राजनीतिक-सामाजिक कार्रवाई भी बहुसंख्यकवादी या अल्पसंख्यकवादी साम्प्रदायिक विमर्श से ज़मीन साझा करते हुए नज़र आती है। बाबरी-ध्वंस की प्रतिक्रिया-स्वरूप हिंदी में रचे गये साम्प्रदायिकता विरोधी विमर्श की जाँच-पड़ताल करने पर इस परिघटना के दिलचस्प प्रमाण मिलते हैं। कहना न होगा कि इन सभी तत्वों की आत्मछवि सेकुलर रंगों में रँगी हुई है। इससे एक अपरिभाषित और अदृश्य अंतराल बनता है जिसके कारण सेकुलर और साम्प्रदायिक खेमों में एक चौंका देने वाली आवाजाही होती रहती है। न केवल खयालों का तबादला होता है, बल्कि गठजोड़ राजनीति के ज़रिये समर्थन आधार भी लिया-दिया जाता रहता है। व्यावहारिक राजनीति में इसकी मिसालों की कोई कमी नहीं है।

मेरी यह किताब इसी सेकुलर/साम्प्रदायिक उलझन को सम्बोधित करने का एक प्रयास है। मेरा ख़याल है कि अपनी इन रचनाओं के माध्यम से मैंने समस्या की परतों को खोल कर उसे रेखांकित कर दिया है, पर इसका हल मेरी पकड़ से बाहर है। सम्भवत: मैंने यह समझ लिया है कि धर्म को राज्य से अलग रखने वाले सेकुलर बंदोबस्त में धार्मिक पहचानों की राजनीति अपनी घुसपैठ कैसे करती है। शायद मैंने कुछ-कुछ यह भी समझ लिया है कि सचेत सेकुलर अचेत रूप में साम्प्रदायिक कैसे होता है। लगता है कि मैंने मुसलमान समुदाय द्वारा लगातार अपने से बाहर देखने के रवैये से होने वाले नुक़सानों पर उँगली भी रख दी है। लेकिन, इन समस्याओं के समाधान महज़ बौद्धिक क़वायद का नतीजा नहीं हो सकते। ये हल तो राजनीति और समाज की ज़मीन पर संरचनागत रूप से ही निकल सकते हैं। इसलिए, मैं इस पुस्तक को एक निमंत्रण की तरह पेश कर रहा हूँ। और, यह निमंत्रण है सेकुलरवाद की एक ऐसी व्यावहारिक ज़मीन तैयार करने का जो दोनों तरह की साम्प्रदायिकताओं का पूरी तरह से निषेध करती हो।

Secular/Sampradayik Ek Bhartiya Uljhan Ke Kuchh Aayam
Format:Hard Bound
ISBN:978-93-5229-493-0
Author:ABHAY KUMAR DUBEY
Pages:382
MRP:Rs.450/-
Publisher: Vani Prakashan

मैंने यह रचना उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के अमर हुतात्मा गणेश शंकर विद्यार्थी को समर्पित की है। उन्होंने साम्प्रदायिक राजनीति की सबसे खूनी अभिव्यक्ति यानी दंगों में हिंदू-मुसलमान एकता कराते हुए उस समय अपने प्राणों की आहुति दी जब वे अपनी राजनीति और बौद्धिकता के शिखर पर थे। विद्यार्थीजी निर्विवाद रूप से न केवल आधुनिक हिंदी पत्रकारिता के शलाका पुरुषों में से एक थे, बल्कि यशस्वी प्रताप के लिए लिखी गयी उनकी रचनाएँ हमें यह भी शिक्षित करती हैं कि सार्वजनिक जीवन में साम्प्रदायिकता विरोधी विमर्श कैसे चलाया जाना चाहिए।
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1 टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कलमंगलवार (09-08-2016) को "फलवाला वृक्ष ही झुकता है" (चर्चा अंक-2429) पर भी होगी।
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    मित्रतादिवस और नाग पञ्चमी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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