रज़ा का अनंत — अशोक वाजपेयी SH Raza Ka Anant - Ashok Vajpeyi



रज़ा ने अंत तक कभी कला से अवकाश नहीं लिया

— अशोक वाजपेयी




लगभग साढ़े चौरानबे वर्ष की आयु में भारत के एक शीर्षस्थानीय चित्रकार सैयद हैदर रज़ा का लंबी बीमारी के बाद दिल्ली के एक अस्पताल में निधन हो गया. वे चाहते थे कि अगर भारत में रहते उनकी मृत्यु हो तो उन्हें उनके पिता की मजार के बगल में मंडला में और अगर फ्रांस में हो तो उनकी पत्नी फ्रेंच कलाकार जानीन मोंज़िला की मजार के बगल में दफनाया जाए जहां एक खाली कब्र उन्होंने अपने लिए बरसों पहले खरीद रखी थी. उनका अंतिम संस्कार शिया मुस्लिम पद्धति से मंडला में हुआ : वे जिस मिट्टी से उठकर संसार में गए थे उसी मिट्टी में उनका शरीर शामिल हो गया. उनके जन्मस्थान बाबरिया से कुछ लोग वहां की मिट्टी लेकर आए थे क्योंकि बरसों पहले किया गया ऐसा रज़ा का आग्रह उन्हें याद था. मंडला की मिट्टी के साथ-साथ बाबरिया की मिट्टी भी उनकी कब्र में मिलाई गई. अपनी मूल मिट्टी, अपने बचपन के गांव-शहरों, अपनी नर्मदाजी से रज़ा का प्यार अनोखा था : साठ बरस फ्रांस में रचने-रहने के बाद भी उन्हें अपना स्थान कभी नहीं भूला मानो उनका घर, फ्रांस के पेरिस और गोर्बियो में नहीं, भारत में ही था. वे बाबरिया, ककैया से मंडला, नरसिंहपुर, दमोह, नागपुर और बंबई होते हुए पेरिस गए थे. 2010 के लगभग अंत में वे स्थायी रूप से भारत लौटे. हालांकि उसके पहले के साठ बरसों में वे नियमित रूप से भारत आते रहे थे. दिल्ली से नागपुर होते हुए मंडला तक उनकी अंतिम यात्र हुई. एक महावृत्त का अंत हुआ. एक लंबे पूर्णकाम भौतिक जीवन का अंत हुआ और कला और स्मृतियों में रज़ा के अनंत का आरंभ हुआ.

उन्हें अपनी अद्वितीयता को लेकर आत्मविश्वास रहा होगा पर वे यह भी मानते हैं कि हम दूसरों के बिना कुछ नहीं हो सकते, न आगे बढ़ सकते हैं, न कुछ टिकाऊ और सार्थक कर सकते हैं. 

हमारे यहां देश-काल की अवधारणा सृजन के संबंध में प्राचीन है. रज़ा को देश का गहरा और निरंतर बोध था : उनका देश-बोध प्रबल और सदा सक्रिय था. पर, यह विचित्र और विलक्षण है, उनका काल-बोध शिथिल था. यह उस अवधि में जो बीसवीं से लेकर इक्कीसवीं शताब्दियों तक फैली थी और जिसमें समय का अहसास, उससे संबंध-संवाद, उसका कलाओं में प्रतिबिंबन कलाओं का लगभग केंद्रीय अभिप्राय बन गया था. रज़ा समय में रहते हुए भी उससे प्राय: अछूते रहे : वह उन पर कभी हावी नहीं हो पाया. वे समय के बीतने-बिखरने से कभी आक्रांत नहीं हुए : उन्होंने अपने लिए, समय से हटकर या उसे बरकाकर, काल का आश्रय चुना था. उनके लिए अनंत की निरंतरता अधिक मानवीय, अधिक सजर्नात्मक संभावनाओं वाला परिसर थी.



बरसों पहले एक अंतरंग बातचीत में रज़ा ने कहा था : ‘..मैं ईमानदारी से यह मानता हूं कि मानवीय स्थिति में मेरी गहरी दिलचस्पी है लेकिन वे तरीके दूसरे हैं जिनमें मैं उपयोगी हो सकता हूं. और अपनी रोजाना की जिंदगी में मैंने उन्हें आजमाया है. किसी संगठित तरीके से नहीं बल्कि दूसरे इंसानों के बीच रह रहे एक व्यक्ति की तरह. मेरी समझ है कि मानवता की भावना, मानवीय संवेदना सबसे बड़ा गुण है जिसे हमें पूरी ताकत से पकड़े रहना चाहिए. लेकिन, फिर चित्रकला मेरे लिए भिन्न अर्थ था और मैं ऐसे चित्र बनाने का इच्छुक न था जो हमारे समाज का, जो हम खुद हैं, वर्तमान के जीवन का निदर्शन मात्र करता हो. मेरा विचार है कि मानवीय जीवन के उच्चतर पक्ष को प्रामाणिक चित्रों में प्रतिबिंबित किया जा सकता है और कम से कम जहां तक मेरा सवाल है मैंने भारतीय परंपरा के उन नौ रसों की दिशा में अपनी चित्रकृतियों का विकास किया है. मैंने अपने संपूर्ण रचनाकर्म का विकास प्रेम, शत्रुता, वैषम्य, शांति, रात और दिन, जो मूल मानवीय अनुभव हैं, उन्हें व्यक्त करनेवाली विभिन्न मनोदशाओं, विविध वातावरणों का सृजन करने के लिए  किया है. मैंने रंग का व्यवहार इस प्रकार किया है मानो वह हमारे शरीर का जीवन-तत्व हो, रेखाएं मानो हमारी शिराएं. चित्रित सतह मानो शरीर, ज्यामिति मानो ढांचा, शरीर के अंदर की अस्थियां. मुझे लगा कि इसी तरह मैं जीवनानुभवों के सार को व्यंजित कर सकता हूं. ..मेरी जद्दोजहद भौतिक सतह पर चलनेवाली न थी, बल्कि भावनात्मक और आध्यात्मिक स्तर पर जहां से मैं अपनी बिंबावली प्राप्त करता हूं.’ उन्होंने आगे जोड़ा : ‘..अगर मैं ठीक समझ पाया हूं तो जीवन-मूल्य तो अंतत: मानवीय मूल्य हैं, मानवीय लगाव या ऊष्मा और यह बोध कि जीवन कितना असाधारण है और कितना अद्भुत. ..जीवन-मूल्य ही मूलभूत हैं, कल्पना की उड़ान का, रचना का आधार जो आवश्यक है उसे परिभाषित करने का, सही-गलत को पहचानने का पैमाना.



रज़ा की आधुनिकता आस्था से उपजी थी : वे उन आधुनिकों से अलग थे जो अनास्था और आत्मसंदेह से, तनावों और विकृतियों आदि से घिरे रहते थे और हैं. उनका स्पष्ट मत था, ‘ईमानदारी से कहूं तो मैंने निजी तौर पर यह पाया कि जीवन के अनेक स्तरों और अनेकानेक कोटियों से होते हुए जीवन के विकासक्रम में, पशुओं के स्तर से उच्चतर स्तर तक हम एक-एक अवस्था पार कर ही बढ़ते हैं. और सबसे महत्वपूर्ण अवस्था में एक खास आध्यात्मिक परीक्षा देनी पड़ती है जो हम सबके धार्मिक विश्वास द्वारा ली जाती है. मेरे विचार से यह संभव है और खुद अपने मामले में कोशिश कर रहा हूं कि भारत में प्रमुखत: कम से कम तीन धर्मो के बीच समान तत्व की तलाश की जाए और चाहे जो हो, खुद में अपनी चेतना के स्तर पर हिंदू धर्म और ईसाई धर्म से प्रभावित रहा हूं. मेरी यह समझ है कि यह सोचना मुमकिन है कि ऐसे मूलभूत मूल्य होते हैं जिन्हें उस प्रकार का भौतिकवादी युग जिसमें हम जी रहे हैं, बुहार कर किनारे नहीं कर सकता. ..यह बिलकुल संभव है और निजी तौर पर मैं अपने बारे में बोल सकता हूं कि प्रार्थना, धर्म और जीवन-मूल्यों की एक सर्वव्यापी सार्वभौम अवधारणा विकसित की जाए. यह समझ पाना बिलकुल मुमकिन है क्योंकि सबसे महत्वपूर्ण केंद्र का निवास स्वयं मनुष्य के अंदर है.’ रज़ा की कला किसी सतही या दिखाऊ स्तर पर आध्यात्मिक नहीं है : उसमें अध्यात्म का मूल तत्व अंतध्र्वनित होता है -- वह आपको समय के पार अनंत में ले जाती है. उसकी रंगछाया में जो उज्ज्वलता है वह आपको दिव्य आलोक की तरह घेर लेती है.



रज़ा के अंतिम साढ़े पांच वर्ष स्वदेश में बीते. यह यों तो निरी भौगोलिक वापसी थी क्योंकि फ्रांस में बिताये छह दशकों में वे अपनी आत्मा और कला में भारत में ही बसे रहे. उनकी कला उनकी गहरी जीवनासक्ति से ही निकली थी : उन्होंने लगभग अंत तक कभी कला से अवकाश नहीं लिया. वे अपने पिछले जन्मदिन 22 फरवरी 2016 से पहले तक चित्र बनाते रहे. दिल्ली, मुंबई और कोलकाता में हुई उनकी तीन प्रदर्शनियों में अधिकांशत: उनके वे चित्र शामिल थे जो उन्होंने 2015-16 में बनाए थे. दूसरे शब्दों में, अपनी आयु के 94वें वर्ष में बनाए चित्र. रज़ा के जीवन और उनकी कला के बीच दूरी हमेशा ही कम थी. लेकिन अपने अंतिम चरण में उन्होंने यह दूरी लगभग पूरी तरह समाप्त कर दी : वे चित्र बनाने के लिए, तमाम व्याधियों के बावजूद, जीते रहे और तमाम बाधाओं के रहते हुए भी जीने के लिए ही चित्र बनाते रहे. जीने की इच्छा और रचने की इच्छा उनके यहां एक ही हो गईं. वे जीवन भर राग के चित्रकार बने रहे -- उनमें कला और जीवन से ऊब और उलझनें भले हुई होंगी, कभी विराग नहीं हुआ. उनकी कला में जीवन के प्रति उत्साह और ललक मंद या मुखर राग की तरह बराबर अनुगुंजित होते रहे. उन्हें जीवन-राग का शास्त्रीय चित्रकार भी कहा जा सकता है. उन्होंने शास्त्रीय चिंतन और भारतीय परंपरा से बहुत कुछ सीखा था और उन्हें अपनी कलादृष्टि में, अपनी अचूक आधुनिकता के अनुरूप, पुनराविष्कृत किया था.

SH Raza with friends


रज़ा की कला जीवन, संसार, पूर्वजों, प्रकृति आदि के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन भी है. उनमें दूसरों के लिए चिंता करना, जैसे भी हो मदद करना स्वभाव का अंग ही बन गई थीं. उन्हें अपनी अद्वितीयता को लेकर आत्मविश्वास रहा होगा पर वे यह भी मानते हैं कि हम दूसरों के बिना कुछ नहीं हो सकते, न आगे बढ़ सकते हैं, न कुछ टिकाऊ और सार्थक कर सकते हैं. वे अपने कड़े संघर्ष और शुरू की अपार बाधाएं कभी नहीं भूले. जब लगभग 15 वर्ष पहले उनके मन में युवा लोगों की मदद के लिए अपनी आय के एक बड़े हिस्से से एक संस्थान बनाने का विचार आया तो उसके पीछे यही कृतज्ञता भाव था. मुझे याद है कि उसे रज़ा फाउंडेशन कहने पर उनकी आपत्ति का निवारण करने में, क्योंकि उन्हें वह अनैतिक लग रहा था, मुझे उनसे कई दिन पेरिस में उनके साथ रहकर बहस करनी पड़ी थी. किसी और कलाकार ने इतनी बड़ी राशि दूसरों की मदद के लिए, हमारे जाने, नहीं दी है. फाउंडेशन बनने के पहले से ही वे अनेक युवाओं की मदद करते आए थे. ललित कलाओं, कविता, संगीत आदि में ऐसे बहुत से प्रतिष्ठित लोग हैं जिनकी रज़ा ने उनके करियर के किसी नाजुक बिंदु पर मदद की थी.

रज़ा का जीवन और उनकी कला विराट रहे हैं: उनमें मानो शुरू से ही विराट स्पंदित होता रहा. यह स्पंदन उन्हें विनयशील भी बनाता था. उनके यहां वैभव और विनय का दुर्लभ संयोग था. कम से कम मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि जिन विराट व्यक्तित्वों ने हमारी बीसवीं शताब्दी बनाई उनमें रज़ा एक थे. अपनी सहज मानवीयता, अपने चेहरे की आध्यात्मिक आभा, अपनी कला की श्रेष्ठता और अपनी अचूक उदारता में वे अप्रत्याशित और सहज एक साथ थे. उनका भौतिक अंत उनके लंबे अनंत का आरंभ है.

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1 टिप्पणियाँ

  1. रजा हैदर का गहरा विश्लेषण किया गया है । वाजपेयी जी को बधाई ।

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