औरतें सदियों पहले ही बोन्साई बना दी गईं थी — देवी नागरानी | Review: Ek Thaka Hua Sach


अम्मा, रस्मो रिवाजों के धागों से बनी 
तार-तार चुनर मुझसे वापस लेले 
मैं तो पैबंद लगाकर थक गयी
वो अपनी बेटी को कैसे पेश करुँगी ? 
माँ मुझे माफ़ कर देना
तुझे छोड़ कर जा रही हूँ
क्योंकि, अपनी बेटी को अँधेरों में
ठोकरें खाते हुए देख नहीं पाऊँगी
अगर जीत जागता जीव हूँ तो
जीने की ख़ातिर संघर्ष करुँगी
मैं बुरके की मोटी जाली से
दुनिया को देखना नहीं चाहती

— अतिया दाऊद (अनुवाद: देवी नागरानी)



मंजू मिश्रा अतिया दाऊद देवी नागरानी

समीक्षा 'एक थका हुआ सच' 

— मंजू मिश्रा



"एक थका हुआ सच" जिंदगी की जद्दोज़हद से लड़ते हुए अपने वजूद को महसूस करते-कराते थकी हुयी औरत का वो नंगा सच है जो पढ़ने वालों की आत्मा को झकझोर कर रख देता है। यह औरत की जिंदगी की कड़वी सच्चाई की एक ऐसी दास्तान है जो अपने अस्तित्व को बचाए रखने की जद्दोजहद में थक कर चूर हो चली है, लेकिन उसकी लड़ाई अभी बाकी है जो आखिरी सांस तक ख़त्म नहीं होती। औरत की बेबसी का बेहद सशक्त चित्रण अतिया दाऊद की कविताओं में हुआ है.
कविता संग्रह: अतिया दाऊद अनुवाद: देवी नागरानी
कविता संग्रह: अतिया दाऊद
अनुवाद: देवी नागरानी

कविता की आत्मा को जिंदा रखते हुए कविता का दूसरी भाषा में अनुवाद करके भी उसको कविता ही बनाए रखने का काम बहुत मुश्किल होता है लेकिन यह मुश्किल काम बखूबी करने वालों में एक जाना माना नाम है देवी नागरानी. देवी जी सिंधी की कविताओं एवं कहानियों का हिंदी में एवं हिंदी से सिंधी में अनुवाद करती हैं। उन्होंने मूलरूप से सिंधी भाषा में लिखी हुई अतिया दाऊद के काव्य संग्रह "एक थका हुआ सच" को हिन्दी में अनुवाद करके हिंदी के पाठकों तक पहुँचाने का जो काम किया है उसके लिए उनको अनेकों धन्यवाद !

किताब शुरू करते ही जिस बात ने सबसे पहले प्रभावित किया वो था "अर्पण" के अंतर्गत लिखा हुआ देवी नागरानी जी का सन्देश "कल आज और कल की नारी को, जो संघर्षों की सीमाओं पर अपने होने का ऐलान करती है". उनका यह कहना इस बात का पुख्ता सुबूत है की वो सिर्फ कहने भर के लिए नारी विमर्श की बात नहीं करती हैं बल्कि वे सही मायनों में नारी के नारी होने की पैरोकार हैं। वो इस सच को घूँट-घूँट जीती हैं अपनी लेखनी के माध्यम से।

उनकी लिखी प्रस्तावना पढ़ते हुए एक जगह जब मैंने यह लाइन पढ़ी "प्रस्तावना में सारा की इतनी प्रशंसा पढ़ कर, मैंने उसकी नज्में गौर से पढ़ीं" तो एक बहुत ही दिलचस्प सा सवाल मेरे ज़ेहन में आया कि अक्सर ऐसा क्यों होता है कि किसी चीज को - खास तौर से औरत की उपलब्धि को - अच्छा समझने के लिए हमें उसके अच्छा होने की सनद पहले किसी और से चाहिए होती है। ये एक ऐसा सच है जो लफ्ज़-ब-लफ्ज़ सौ फीसदी सच है। औरत को अपना वजूद, अपनी अच्छाई, अपनी काबिलियत सब ताज़िन्दगी साबित करते रहना पड़ता है और उस पर भी हजार तोहमतें, हजार बंदिशें और हजारों लानतें न जाने क्या क्या सहते रहना पड़ता है .



ताउम्र खुद को बदलने का काम औरत को ही करना पड़ता है, इसी किताब की ये लाइनें इस बात को कितनी खूबसूरती से बयान करती हैं "औरत एक पेंग्विन सी / अपने को ढाल लेती है / और उड़ना भूल कर / चलना सीख लेती है"

कितनी सच्चाई है इस कविता में "औरतें सदियों पहले ही / बोन्साई बना दी गईं थी" , सच ही तो है, औरतों को अपनी मर्ज़ी से जीने का हक़ कहाँ होता है, वो तो हमेशा काँट-छाँट कर साँचे में फिट होने के हिसाब से ही तराशी जाती हैं। औरत को हमेशा ढलना होता है मर्दों की इस दुनिया में मर्दों के हिसाब से, फिर वो मर्द चाहे कोई भी हो बाप, भाई, शौहर या बेटा.... वो जब जहाँ जिसके साथ रहती है उसकी नजर के हिसाब से बदलती रहती है। "तुम जिस कोण से देखोगे / मैं तुम्हें उस अनुसार नजर आऊंगी "

औरत के औरत होने भर के गुनाह की बेबसी का बयान अतिया की कविताओं में भरपूर नजर आता है "शारीरिक मतभेद के अपराध में / जंजीरों से बाँधी गयी हूँ" या फिर "मेरे जिस्म की अलग पहचान के जुर्म में / एक इंसान का नाम छीनकर / और कितने डाले / मैं बीवी हूँ, मैं वैश्या हूँ, महबूब हूँ, रखैल हूँ" या फिर "ये कैसी जिंदगानी है / कि रोटी की तरह जीवन भी मुझे झोली में मिलता है अम्मा, मुझे मोहताजी की यह कौन सी घुट्टी पिलाई है / जो सभी संग / अंग.....सलामत होने के बावजूद / रहम के काबिल नजर आती हूँ मैं सारा जीवन / औरों की बनाई शराफत के पुल / पर चली हूँ / पिता की पगड़ी, भाई की टोपी की खातिर / मैंने हर इक सांस उनकी मर्जी से ली है” इन्तेहा तो तब होती है जब ताउम्र हिदायतों और बंदिशों से थकी हुयी औरत जो एक माँ है, अपनी बेटी से कहती है "शराफत के शोकेस में / नकाब ओढ़ कर मत बैठना / प्यार जरूर करना" ये बगावत का वो परचम है जो वो उसके हाथों में थमा रही है, वो अपनी बेटी को इंसान न होकर बस एक औरत भर होने की जंजीरों से आजाद करना चाहती है। इसी जमीन पर लिखी “उड़ान से पहले" कविता बेबसी और जिल्लत की जिंदगी से उकताई हुयी औरत की बगावत का एक ऐसा दस्तावेज है कि इसका एक एक शब्द नश्तर की तरह सीधा दिल में चुभता है "अम्मा, रस्मो रिवाजों के धागों से बनी / तार-तार चुनर मुझसे वापस लेले / मैं तो पैबंद लगाकर थक गयी / वो अपनी बेटी को कैसे पेश करुँगी ? माँ मुझे माफ़ कर देना / तुझे छोड़ कर जा रही हूँ / क्योंकि, अपनी बेटी को अँधेरों में / ठोकरें खाते हुए देख नहीं पाऊँगी / अगर जीत जागता जीव हूँ तो / जीने की ख़ातिर संघर्ष करुँगी / मैं बुरके की मोटी जाली से / दुनिया को देखना नहीं चाहती" यह विद्रोह की चिंगारी कोई नयी नहीं है, यह तो युगों पुरानी है, बस थोड़ी सी हवा लगते ही यह धधक कर आग बन गयी है। जब कोई बात दर्द से तपकर दिल से निकलती है तो उसकी धार बड़ी तीक्ष्ण होती है। औरत की ज़ात को सिर्फ आधी आबादी कह देने भर से कुछ नहीं होगा ..... उस आधी आबादी को उसका सही मुकाम मुहैय्या करवाना भी जरुरी है और इस जरूरत को ताल ठोंक कर रौशनी में लाने का काम करता है अतिया दाऊद का "एक थका हुआ सच " इस किताब की पहली कविता कितने तल्ख लफ्जों में औरत की जिंदगी का कड़वा सच बयान करती है कि खून के आंसुओं में डूबी हुयी सिसकियाँ सुने बिना पाठक रह नहीं सकता "मेरी जिंदगी का सफर/ घर से कब्रिस्तान तक / लाश की तरह बाप-भाई / बेटे और शौहर के /कांधों पर" "मेरा सफर / न जाने कितनी सदियों से जारी है / सच का सलीब पीठ पर उठाये / फरेब से सजी धरती पर /"

औरत बगावत ही करना चाहती है ऐसा नहीं है , वो तो बस मर्द की जागीर या खिलौने के सांचे से बाहर निकल कर इंसान हो कर जीना चाहती है, छल और फरेब के मुलम्मे से परे सच्ची मुहब्बत चाहती है, मुहब्बत की चाहत की इन्तहा देखिये कि वो कहती है कि "मेरी अक्ल मेरे लिए अजाब है / काश, मैं समझदार न बनूँ ! / तुम्हारी ऊँगली पकड़कर / ख्वाबों में ही चलती रहूँ / तूझारे साथ को ही सच समझकर / सपनों में उड़ती रहूँ / तुम जो भी मनगढंत कहानी सुनाओ / बच्चे की तरह सुनती रहूँ / मेरी अक्ल मेरे लिए अजाब बानी / काश, मैं समझदार न बनूँ !"

ऐसा नहीं है कि अतिया की कलम औरत के वजूद से जुड़े हुए मसलों पर ही चलती है, वो समाज की बुराइयों पर, आतंकवाद पर भी उतनी ही बारीकी से नजर रखती हैं , उनकी "निरर्थक खिलौने", "धरती के दिल के दाग" , "अमर गीत" कवितायेँ बड़ी शिद्दत से इस पर अपना नजरिया पेश करती हैं।

“निरर्थक खिलौने" पढ़ते हुए दिल पर आरियां सी चलती हैं, हर बेटी की माँ मर्दों के वहशत भरे रवैये वाले समाज में ऐसे ही डर के साये में जीती है..... समाज की वहशत से डरी सहमी बच्चियों के दर्द को बयां करती इससे ज्यादा पुरअसर या बेहतर रचना शायद ही कोई और हो.

— मंजु मिश्रा
3966, Churchill Dr, Pleasanton CA 94588

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2 टिप्पणियाँ

  1. सुन्दर प्रस्तुति ! शब्दांकन टीम का बहुत बहुत धन्यवाद !

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  2. एक -एक अक्षर अनेकों प्रश्न पूछता गया कि कहीं मेरे, तुम्हारे या सभी औरतों को मुखातिब करके तो नहीं लिखी गई यह किताब | इस पुस्तक में हर औरत अपने अस्तित्व का प्रतिबिम्ब देखेगी | देवी जी ने अनुवाद करके और मंजू जी ने अपनी समीक्षा के द्वारा हमें इस संग्रह से परिचित करा के एक सराहनीय कार्य किया है | देवी जी की यह पुस्तक पढ़ना चाहेंगे |

    शशि पाधा

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