और एक दोपहर उन्होंने त्याग पत्र दे दिया क्योंकि उनके रहते वह संभव ही नहीं था जो परिषद् की मंशा थी...
प्रभाकर श्रोत्रिय की यादें
— मधु कांकरिया
वे वहीं थे
तब सारी दुनिया मेरी दुश्मन थी ।
मेरी सारी उर्जा और अंत:शक्ति जीवन के बंदोवस्त में खर्च हो रही थी, पोटली में कभी कुछ बच जाता तो दो चार हाथ कहानियों पर भी मार लेती थी, पर कहानियां थी कि गरीब की बेटी की तरह इन्हें कोई वर ही नसीब नहीं हो रहा था । कोई पत्रिका तैयार नहीं थी इन्हें छापने को । आँखों में सौ सौ अरमान लिए ‘हंस‘ में कहानी भेजती पर दूसरे सप्ताह ही कहानी बिना किसी टिपण्णी के खेद सहित वापस । अपनी कल्पना में राजेंद्रजी को गोली मार मार लहूलुहान करने के अलावा कोई चारा भी न था ।
सब कुछ तैयार था, स्वप्न, जमाने भर का दुःख (बिना दुःख के भला कोई कहानी लिखी जा सकती है!), फड़कती भाषा, कहानी के लिए जरूरी कच्चा माल । बस जरूरत थी एक अदद सम्पादक की जो पहचान कर सके इस पारखी की.
उन्ही उजड़े उखडे दिनों एक दिन जनसत्ता में पढ़ा कि कोलकाता से वागर्थ निकलने जा रही है । उन दिनों संपादक मेरे लिए संसार का सबसे निकृष्ट और जाहिल जीव हुआ करता था । यूं साक्षात् दर्शन तबतक सिर्फ रविवार और जनसत्ता के फीचर संपादकों से ही हुआ था ... जिनके ऑफिस में मैं घडी देखकर आधे घंटे तक बैठी रहती और तब सरकारी बाबू की तरह मुंडी उठाकर कृपापूर्वक वे मेरी तरफ देखते और मैं चुप से कहानी का लिफाफा उन्हें पकड़ा कर निकल जाती । कहानी कभी छप जाती, कभी निकल पड़ती अज्ञातवास की अनंत यात्रा पर ।
ऐसे ही धक्का खाते आत्मविश्वास और खंडित आस्था के साथ एक अनोखी शाम मैं पंहुची भारतीय भाषा परिषद् के कार्यालय में । इच्छा एकदम नहीं थी, सम्पादक नाम धारी किसी भी जीव से मिलने की पर आसपास कोई परिंदा तक नहीं था जिसके मार्फ़त अपनी कहानी उनतक पंहुचा पाती । लिहाजा धुकधुक मन से एक छोटे से सम्पादकीय कमरे में जा पंहुची ।
मिनट दो मिनट गुजरे कि कोई भीतर आया । भव्य रूप । कहिये ! अपनी मुस्कराहट को संभालते वे आँखें मुस्कुराई ।
- मैं...मैं लिखती हूँ, कहानी लेकर आई हूँ । वे फिर मुस्कुराए
- अच्छी बात है जरूर दीजिये ।
- और क्या करती हैं ? फिर एक आत्मीय दृष्टि !
- कुछ नहीं !
- उन्होंने एक नजर कहानियों पर डाली और तभी मुझे ख्याल आया कि मेरे पास दोनों ही कहानियों की कार्बन कॉपी थी जो धुंधली थी । लो बैठे बिठाए बहाना मिल गया, अभी कह देंगे कि फिर से टाइप कराइए, ये अस्पष्ट है ... ऐसा भी हो चुका था । निराशा में मैं उठने को हुई कि उन्होंने कहा – आठ दस दिनों के भीतर पढ़ कर बताता हूँ ...
- आप पढेंगे न ! स्वर की दयनीयता से मैं खुद ही झेंप गयी ।
- इस बार वे उन्मुक्त हो हँसे तो पूरा कमरा ही जैसे चहक उठा – बिना पढ़े कैसे बताऊँगा कि कहानी कैसी है ! पहली बार महसूसा कि व्यक्तित्व, विद्वता और यश प्रतिष्ठा के बाबजूद मैं उनके साथ कम्फ़र्टेबल जोन में थी ।
उस शाम पहली बार आत्मा को भीतर तक सींच गया था एक संपादक और उसका दोस्ताना व्यवहार !
और जब दो महीने बाद ही अपनी कहानी ‘मुहल्ले में‘ को वागर्थ में प्रकाशित देखा तो यकीन मानिए पहली बार जीवन और साहित्य के प्रति गिरते हुए मेरे आत्मविश्वास ने उठान ली – तो मैं भी उस अन्तरिक्ष में घुस सकती हूँ जिसका नाम है साहित्य ।
शायद हर बड़े और सच्चे साहित्यकार अभिशप्त होते हैं अपने समय की सत्ता द्वारा प्रताड़ित होने के लिएऐसा नहीं था कि वागर्थ ने मेरी कहानियां नहीं लौटाई … पर जब जब कहानियां लौटाई गयी … मेरी साहित्यिक समझ समृद्ध हुई … कला के भीतरी आलोक और साहित्य की ताकत पर विश्वास बढा । मेरी एक वापस की गयी कहानी पर उनकी टिपण्णी आज भी स्मृति पट पर अंकित है – कहानी ऐसी हो कि पृष्ठ पर समाप्त होकर पाठक के मन के अन्दर चलती रहे । एक और कहानी पर टिप्पणी – अच्छी भली कहानी पर राजनीत का छोंक लगाने की क्या जरूरत थी ?
बाद के दिनों में मैंने महसूस किया कि यह न तो विद्वता थी और न ही यश या प्रतिष्ठा जिसने हम जैसे लेखकों के बीच उन्हें अलग पहचान दी थी यह थी उनकी संवेदनशीलता जो इस कदर बहती थी कि सामने वाला नहा जाए । विद्वता और साहित्य जिस भावभूमि पर हमें ले जाता है वे वहीँ थे – सबके लिए स्नेह और विनम्रता !
मेरे पहले ही उपन्यास ‘खुले गगन के लाल सितारे’ पर इण्डिया टूडे में जबरदस्त नकारात्मक समीक्षा … इस कदर कि लेखकीय आस्था तो दूर की बात कलम पकड़ने तक से वितृष्णा हो जाए । आधे पेज की समीक्षा में धिक्कार ही धिक्कार ! मैं खंड खंड खंडित कि तभी चमत्कार की तरह प्रभाकर जी का फोन – साहित्य की दुनिया आपने चुनी है तो ये पथराव भी आपको सहने ही होंगे । किसी भी लेखक की पहली कृति को फूलों की तरह छूना होता है … हथौड़े की तरह नहीं पर यह विवेक भी आज के समीक्षकों में नहीं । पर आप परेशान न हों इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं है ।
साहित्य और कथा के प्रति एकनिष्ठ समर्पण और प्राणों को उंडेल देने वाले उनके मन और परिश्रम का परिणाम था कि वागर्थ और उनके सम्पादकीय साहित्य के आकाश में उजास फैला रहे थे । अपने समय और समाज की शायद ही कोई ज्वलंत समस्या हो जिस पर उनके सम्पादकीय में कलम न चली हो । आम आदमी से लेकर साईंबर कैफे तक, मोदी की दुकान से लेकर विश्व व्यापार संगठन तक, कालाहांडी से कैलिफोर्निया तक उनके सम्पादकीय दूर दूर तक करंट मारते थे । वागर्थ में आने वाली हर एक रचना को वे स्वंय पढ़ते थे । शायद ही किसी पत्रिका ने नए रचनाकारों को इतना छापा होगा जितना वागर्थ ने । अनगढ़ रचनाकारों को गढ़ने का काम वे पूरी जिम्मेदारी के साथ करते थे ।
उनका कोलकाता प्रवास उन दिनों ‘वागर्थ प्रवास ‘ था । उनके सूक्ष्म प्राण वागर्थ में ही बसते थे । बहुत कम लोग जानते हैं कि भारतीय भाषा परिषद जैसी अल्पज्ञात संस्था को राष्ट्रीय स्तर तक उठा ले जाने में निदेशक और संपादक प्रभाकर जी का कितना पसीना बहा था, कितनी रातें अधसोई गुजरी थी, चश्मे का पॉवर कितना बढा था और सबसे बढ़कर उनकी व्यक्तिगत साहित्य सर्जना कितनी दांव पर लगी थी । वागर्थ से ही वे इतना एकात्म हो गए थे कि लोग भूल ही गए थे कि वे एक प्रतिष्ठित कवि, नाटककार और आलोचक भी थे । कई बार जब समारोहों में उनका परिचय ‘वागर्थ‘ के संपादक कहकर करवाया जाता था तब वे सिर्फ मुस्कुरा कर रह जाते थे । न कभी उन्होंने कभी अपनी निजी उपलब्धियों के बारे में किसी को बताया, न कभी अपने संघर्षों के बारे में बात की, अपने कार्यकाल में कृष्णा सोबती, अली सरदार जाफर, भीष्म साहनी, नामवर सिंह समेत एक से एक शिखर लोगों को आमंत्रित किया… उनके वक्तव्य सुने पर खुद को मंच से दूर ही रखा, इतनी पत्रिकाओं का सम्पादन किया पर अपनी किसी भी किताब की कोई भी समीक्षा अपनी पत्रिका में नहीं छपने दी ।
Madhu Kankaria
सम्पर्क :H-602,Green Wood Complex, Near Chakala Bus Stop,
Anderi Kurla Rd, Andheri (East),
Mumbai-400093.
Mobile:-09167735950.
e-mail: madhu.kankaria07@gmail.com
और ठीक जिन दिनों हरी मिर्च के से अपने तीखे सम्पादकीय और उन्मुक्त ठहाकों से वे महानगर के साहित्यिक चमन को गुलजार कर रहे थे और लोगों में यह विश्वास भर रहे थे कि नैतिक मूल्यों के प्रति समर्पित और मानवीय होना इस फिजा में भी मुमकिन है, तभी धीरे धीरे गर्म हवा के थपेड़े चलना शुरू हो गए । ऊपर से ठहरे समुद्र की तरह शांत, उमंगित और उन्मुक्त ठहाके लगाने वाले इस शख्स की जड़ों में कितना उबाल है, यह तब देखने में आया जब परिषद् की कार्यकारिणी के किसी भी असाहित्यिक और असांस्कृतिक प्रस्तावों का उन्होंने जम कर विरोध किया । उनका स्वपन था भारतीय भाषा परिषद् को देश की सर्वोच्च साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्था बनाना जहाँ विभिन्न भाषाओं के साहित्य का संवर्धन – संरक्षण हो सके । पर परिषद् के सचिव और कार्यकारिणी के सदस्यों को अब स्वपनों में चांदी दिखने लगी थी … आकाश चूमती परिषद् की प्रतिष्ठा … भव्य इमारत, परिषद् की धनराशि और मुनाफा के चतुर्भुज के बीच अड़ियल से खड़े प्रभाकर जी … बैठकों पर बैठक होती रही … भवन के स्वरूप को नयी मांगों के अनुसार परिवर्तित करने की चाल खेली जाती रही … परिषद् में स्थित पुस्तकालय को सीमित करने के प्रस्ताव पास होते रहे पर पत्थर की तरह खड़े प्रभाकर जी को न इंच भर खिसकना था और न वे खिसके । उन्हें मनाने, मनुहार करने और विवश करने के सारे दाव पेंच खेले गये । और एक दोपहर उन्होंने त्याग पत्र दे दिया क्योंकि उनके रहते वह संभव ही नहीं था जो परिषद् की मंशा थी ।
शायद हर बड़े और सच्चे साहित्यकार अभिशप्त होते हैं अपने समय की सत्ता द्वारा प्रताड़ित होने के लिए । वे भी हुए । और आज जब हिंदी जगत में भी ऐसे स्टार आलोचकों और साहित्यकारों की कमी नहीं ... राजनेताओं को भी मात करते गिरगिट की तरह रंग बदलते जिनके चरित्र ! आज क्रांति की बात और कल क्रांति की मलाई की जुगाड़ ! ऐसे में क्या यह भी मात्र संयोग था कि 37 पुस्तकों के सृजनकर्ता, चार अनूदित पुस्तकें और विभिन्न प्रदेशों की चार राष्ट्रीय पत्रिकाओं के यशस्वी श्वेत श्याम दरवेशनुमा साहित्यकार के खाते में कोई भी बड़ा पुरस्कार नहीं था ?
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