खेमेबंदी की शिकार मैत्रेयी पुष्पा ? — अपूर्व जोशी



ओछी ईर्ष्या के बीच खेमेबंदी

— अपूर्व जोशी

पहले मुझे ज्ञात नहीं था कि साहित्य जगत में भी जबरदस्त राजनीति होती है। यहां भी घराने बने हुए हैं। लेकिन ‘पाखी’ के अनुभवों ने जैसे नए संसार से हमारा परिचय कराया जहां जातीय, क्षेत्रीय, वैचारिक संकीर्णता का जबरदस्त बोलबाला है। अल्बेयर कामू के शब्दों में कहूं तो ‘ओछी ईर्ष्या’ का वर्चस्व है। और जहां तमाम प्रकार के विमर्शों के बीच उसी प्रवृति का हावी होना है जिसका प्रतिरोध यह विमर्श करते हैं।
खेमेबंदी की शिकार मैत्रेयी पुष्पा ? — अपूर्व जोशी


राजेंद्र यादवजी के ना रहने से हिंदी साहित्य जगत में एक विरानगी-सी पसर गई लगती है। हालांकि जैसा संसार का नियम है किसी के जाने के बाद भी सब कुछ चलायमान रहता है। ‘हंस’ का नियमित प्रकाशन हो रहा है। रचना यादव अपने पिता के पैशन को जिलाए रखने का बखूबी काम कर रही हैं। ‘हंस’ का वार्षिक उत्सव भी बिना नागा हो रहा है।राजेंद्रजी का जन्मदिन समारोह भी पूर्व की भांति आयोजित किया जा रहा है। लेकिन राजेंद्र यादव का ना होना सबको खटक रहा है। उनका स्मरण इसलिए कि इन दिनों उनका स्थान लेने की होड़-सी मच गई है। राजेंद्रजी साहित्य के मठाधीश कहे जाते थे। अपने विशिष्ट अदांज में उन्होंने कईयों को रातों-रात कहानीकार, साहित्यकार बना डाला। इनमें कई ऐसी सुकन्याएं भी शामिल थीं जो उनके जाने के बाद लापता सी हो गई हैं। राजेंद्रजी पर यह आरोप भी लगता था कि उन्होंने कइयों को नजरअंदाज भी किया। वैसे ये आरोप कई और संपादकों पर भी लगता है। नामवरजी पर कईयों की अनदेखी करने और कुछ को योग्यता ना होने के बावजूद फर्श से अर्श पर बैठाने की बात उठती रही है। इस सबके बावजूद राजेंद्र यादव ने हिंदी साहित्य की अद्भुत सेवा की जिससे कोई इंकार नहीं कर सकता।


‘ओछी ईर्ष्या’ का वर्चस्व

बहरहाल मैं बात अब उनके स्थान पर स्थापित होने की चाह रखने वाले दिग्गजों की कर रहा हूं, जो अपने-अपने मठों का विस्तार करने में जुट गए हैं। ‘हंस’ साहित्योत्सव में ‘पाखी’ संपादक प्रेम भारद्वाज ने इसी तरफ इशारा करते हुए जब कहा कि कई युवा कहानीकार आज कहीं नजर नहीं आते, जिन्हें इसी मठाधीशी फितरत के चलते एकाएक हिंदी साहित्य जगत में महान कहानीकार, कवि का दर्जा हासिल हो गया था। कई तो ऐसे कि वे लिखते ही पत्रिका विशेष के लिए हैं। उन्हीं की कहानी पर चर्चा होती, उन्हें ही सराहा जाता, बाकी जो देश के गांव-कस्बों और छोटे शहरों में साहित्य-सृजन कर रहे हैं उनको तवज्जो नहीं मिलती। राष्ट्रभाषा होने के बावजूद हिंदी का लगातार सिकुड़ते जाना इसी मनोवृति के चलते हुआ। मैं तो मात्र एक पाठक भर था। अच्छा साहित्य पढ़ने की आदत बचपन से पड़ गई थी। ‘पाखी’ प्रकाशन से पहले मुझे ज्ञात नहीं था कि साहित्य जगत में भी जबरदस्त राजनीति होती है। यहां भी घराने बने हुए हैं। लेकिन ‘पाखी’ के अनुभवों ने जैसे नए संसार से हमारा परिचय कराया जहां जातीय, क्षेत्रीय, वैचारिक संकीर्णता का जबरदस्त बोलबाला है। अल्बेयर कामू के शब्दों में कहूं तो ‘ओछी ईर्ष्या’ का वर्चस्व है। और जहां तमाम प्रकार के विमर्शों के बीच उसी प्रवृति का हावी होना है जिसका प्रतिरोध यह विमर्श करते हैं। मैंने देखा कि कैसे वैचारिक प्रतिबद्धता की आड़ में या फिर उसकी संकीर्णता के चलते कइयों को नकारा जाता है, उपेक्षा की जाती है और मठाधीशी प्रवृति के चलते ऐसों को प्रोत्साहित किया जाता है जो कूड़ेदान में डालने के योग्य हैं।

एकमतवादियों का बोलबाला

ऐसा दशकों से होता आ रहा है। आजादी के बाद से बात करूं तो बहुतों को इस ओछी ईर्ष्या ने पनपने नहीं दिया। मानवीय संबंधों की एक बड़ी पहचान है अपने हमसफरों के साथ हमारे रिश्तों की गरमाहट या उनमें पसरा ठंडापन। विशेषकर उन हमराहियों के संग जिनसे हमारे वैचारिक मतभेद रहते हैं, उनसे जो हमारी जाति अथवा धर्म के नहीं होते। हिंदी साहित्य संसार की सबसे बड़ी विड़ंबना यही है कि यहां के ‘बुद्धिवादी’ अपनी इस वैचारिक संकीर्णता से उबर नहीं पाए। हालांकि ऐसा रवैया सिर्फ हिंदी साहित्य नहीं बल्कि विश्वभर में लेखक के संग यह बौद्धिक प्रतिबद्धता का मसला रहता आया है। जियां ग्रेनिए ने 1935 में इसके प्रति अपने समकालीनों को आगाह करते हुए लिखा था कि ‘कलाकार अपने सृजन को बचाने के लिए अपनी बौद्धिक प्रतिबद्धता से थोड़ी दूरी रखें।’ स्वयं गे्रनिए ने जमकर मार्क्सवादी दुराग्रह और स्टालिनिस्टक असहिष्णुता का हर उपलब्ध मंच से विरोध किया था। हिंदी साहित्य संसार में यह दुराग्रह स्पष्ट रूप से नजर आता है यदि चश्मा परे रखकर देखा जाए तो। एक तरफ वे हैं जो किसी खेमे विशेष से बंधे होने के चलते उठा-पटक करते हैं तो दूसरी तरफ वे हैं जो जातिगत आधार पर ऐसा कर रहे हैं। ऐसे समय में जब स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श से लेकर आदिवासी आदि तबके की रचनाशीलता उभर रही है, यह गोलबंदी ज्यादा तेज हो गई है। जैसा फ्रांचेस्का ओरसिनी कहती है, ‘हिंदी में दो प्रकार की धराएं शुरुआती दौर से रही हैं। एकमत पसंद और बहुमत पसंद। समस्या यह कि एकमत पसंद वाले बहुतायत में हैं।’ इसी के चलते उनके द्वारा, उनकी सुविधा अनुसार श्रेष्ठता के मानक तय किए गए हैं। कहानी से लेकर कविता तक यही हाल है। मंचीय कविता को सस्ता कहने का काम इसी के चलते हुआ। जिस मंच पर कभी दिनकर, बच्चन, दुष्यंत, निराला आदि होते थे, वहां इन्हीं मानकों के चलते आज उनका कब्जा हो गया जो वस्तुतः तुकबंदी और फूहड़ हास्य के रचनाकार हैं। दोषी पर कौन है, निश्चित ही यह एकमतवादी।


मैत्रेयी पुष्पाजी की टिप्पणी रोचक है, मेरे कथन की पृष्टि करती है 


बहरहाल मैं बात राजेंद्र यादव की कर रहा था। हालांकि वे स्वयं एक बड़े मठाधीश कहे जाते रहे लेकिन उन्होंने बहुमत को संरक्षण भी देने का काम किया। उन्होंने ही विमर्शों को आगे बढ़ाया जिसके चलते हिंदी साहित्य में नई ज्योति प्रकट हुई। हालांकि उनमें से बहुत की चमक स्थाई है, कुछेक की ज्योति राजेंद्रजी के साथ ही लुप्त हो गई। अब प्रश्न उठता है आज कौन संपादक है जो राजेंद्र यादव बनने की क्षमता रखता है। इसी को लेकर होड़ है। राजनीतिक दलों की भांति लेखक एक खेमे से टूटकर दूसरे खेमे में जा रहे हैं। कुछेक निर्विकार भी हैं। साहित्य समागमों का सिलसिला भी बढ़ रहा है। ऐसे ज्यादातर समागमों में खेमेवादी का साया साफ दिखाई पड़ता है। यह समागमों दो प्रकार के हैं, एक बड़े मीडिया हाउस आयोजित कर रहे हैं जहां साहित्य पर गंभीर चिंतन के बजाए ग्लैमर के तड़के का ज्यादा बोलबाला दिख रहा है। बॉलीवुड के चर्चित चेहरों को यहां मंच दिया जाता है। दर्शकों में भी ज्यादातर वह युवावर्ग मौजूदा रहता है, जो इन सितारों का दिवाना है। दूसरी तरफ वे कार्यक्रम है जो या तो किसी साहित्य पत्रिका द्वारा आयोजित हो रहे हैं या फिर किसी बड़े आलोचक, साहित्यकार द्वारा। अभी पिछले दिनों ही अशोक वाजपेयीजी ने युवा सम्मेलन ‘युवा-2016’ कराया। सम्मेलन दिल्ली में हुआ। इसका घोषित उद्देश्य युवा कथाकारों, कवियों को आगे लाना, उनके सृजन पर चर्चा करना था। ऐसे आयोजनों से सार्थक क्या निकलेगा यह अभी से कहना संभव नहीं।

अथ वरिष्ठ जूनियर फेसबुक संवाद ... 

वरिष्ठ लेखिकायें अपने जूनियर्स को सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखातीं —मैत्रेयी पुष्पा

मैत्रेयी पुष्पा: जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में 16 - 17 Nov. को "साहित्य सृजन में स्त्रियों की भूमिका " विषय पर कार्यक्रम के दोनों दिन यह बात मुझे गहरे तक सालती रही कि वरिष्ठ लेखिकायें अपने जूनियर्स को सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखातीं । मन्च नहीं मिले तो आना गवारा नहीं । यही होती है साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता ?
गीताश्री: मन न मिले तो लोग बुलाते भी नहीं. नाम तक कटवा देते हैं. कुछ लोगों से दूरी बना कर चलने से यह सब समस्याएँ आती ही हैं.
वीणा शर्मा: एक बात और भी है तुम मेरी पीठ थपथपाओ और मैं तुम्हारी - यह वाली संस्कृति अधिक हावी है!
अनंत विजय: मैत्रेयी जी आप कुछ नामों को बार-बार काट देती हैं ये क्यों । मेरा नाम तो हर बार ही काट देती हैं ।
हिंदी अकादमी, दिल्ली ने पिछले दिनों ‘साहित्य सृजन में स्त्रियों की भूमिका’ विषय पर राष्ट्रीय गोष्ठी कराई। चूंकि हमें यानी मुझे और प्रेम भारद्वाज को इसमें आमंत्रित नहीं किया गया था। हम श्रोता होने का लाभ न उठा सके। इस गोष्ठी के बाद अपनी फेसबुक वॉल पर अकादमी उपाध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पाजी की टिप्पणी रोचक है, मेरे कथन की पुष्टि करती है कि ओछी ईर्ष्या का बोलबाला इस संसार में जबरदस्त व्याप्त है। वे लिखती हैं ‘‘साहित्य सृजन में स्त्रियों की भूमिका’’ विषय पर कार्यक्रम के दोनों दिन यह बात मुझे गहरे तक सालती रही कि वरिष्ठ लेखिकाएं अपने जूनियर्स को सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाती। मंच नहीं तो आना गवारा नहीं। यही होती है साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता’’ मैं सहमत हूं मैत्रेयीजी से कि मंच मिले तभी क्या सीनियर या युवा कार्यक्रम में आते हैं। अन्यथा श्रोताओं में बैठना उनको अपनी प्रतिष्ठा के खिलाफ लगता है। हालांकि स्वयं मैत्रेयीजी ऐसे कार्यक्रम में बतौर श्रोता भाग लेती हैं यह मुझे ज्ञात नहीं, लेकिन ऐसा अवश्य लगता है कि वह भी खेमेबंदी का शिकार होने लगी हैं। हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष बनते ही उनके प्रशंसकों की एकाएक बढ़ोतरी हो गई है। उनके कार्यक्रमों में कुछेक चेहरे स्थाई नजर आते है। तो कुछेक हम जैसे भी है जिन्हें सूचना तक नहीं होती। यूं निजी स्तर पर मैत्रेयीजी से मेरे संबंध बेहद प्रगाढ़ हैं, लेकिन हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष हमें घास क्यों नहीं डालती, यह रहस्य कायम है।

1972 में पटना में एक युवा सम्मेलन हुआ था। उस सम्मेलन में जो युवा शामिल हुए उनमें से कइयों ने आगे चलकर अपनी-अपनी विधा में अद्भुत सृजन किया। अशोक वाजपेयी, धूमिल आदि कई इस सम्मेलन में थे। मैं समझता हूं ऐसे आयोजनों की सार्थकता तभी है, जब युवा पीढ़ी अपनी पिछली पीढ़ी के काम को समझ, उनसे प्रेरणा ले, कुछ ऐसा रचे जिससे हिंदी का नया पाठक वर्ग पैदा हो, उसका विस्तार हो। अन्यथा यदि स्वान्तः सुहाय ही लक्ष्य है तो मेरी समझ से इन आयोजनों से कुछ सार्थक होने वाला नहीं।
— अपूर्व जोशी

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story: कोई रिश्ता ना होगा तब — नीलिमा शर्मा की कहानी
विडियो में कविता: कौन जो बतलाये सच  — गिरधर राठी
इरफ़ान ख़ान, गहरी आंखों और समंदर-सी प्रतिभा वाला कलाकार  — यूनुस ख़ान
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
परिन्दों का लौटना: उर्मिला शिरीष की भावुक प्रेम कहानी 2025
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل
रेणु हुसैन की 5 गज़लें और परिचय: प्रेम और संवेदना की शायरी | Shabdankan
एक पेड़ की मौत: अलका सरावगी की हिंदी कहानी | 2025 पर्यावरण चेतना
द ग्रेट कंचना सर्कस: मृदुला गर्ग की भूमिका - विश्वास पाटील की साहसिक कथा