जिम्मेवार कौन? नोटबंदी से कटघरे में आयी भारतीय रिज़र्व बैंक की साख — मृणाल पाण्डे @MrinalPande1



बैंकिंग तंत्र, साखबहाली की ज़रूरत

मृणाल पाण्डे

मृणाल पाण्डे

किसी भी देश में राजा और प्रजा, या मतदाता और उसकी चुनी हुई सरकार के बीच सबसे बड़ा रिश्ता आपसी भरोसे का होता है । और राजकीय मुद्रा इस भरोसे पर एक ठोस मुहर तथा राज्य के रसूख का इतना पक्का प्रतीक मानी जाती है कि अमुक का ‘सिक्का चलना’ एक मुहावरा ही बन गया है ।





जब विमुद्रीकरण की घोषणा कर बिना संस्थागत तैयारी के रातोंरात 80% मुद्रा को चलन से बाहर कर दिया गया तो राज्य की साख हिल गई और  घोर अफरातफरी और अनिश्चय का माहौल बना ।

अचानक अपनी ही कमाई के लिये हाथ फैलाने को मजबूर मतदाता को लगा कि जैसे कांग्रेस का ‘गरीबी हटाओ’ जुमला यकीन का नहीं वोट का मामला साबित हुआ, उसी तरह ‘कालेधन और भ्रष्टाचार का खात्मा’ भी कहीं भाजपा के लिये भी आगामी विधानसभा चुनावों के लिये वोट जुगाड़ने का ज़रिया मात्र तो नहीं ?

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इस माहौल में बैंकों के आगे खाली हाथ इंतज़ार करती जनता को लड्डू बाँट कर कहना यह जनता का दु:ख साझा करने की कोशिश है या ...

नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी द्वारा प्रेस कांफ्रेंस कर एक ‘लकी ग्राहक योजना’ की तहत कैशलैस खरीदारी को बढ़ावा देने को इनामी लॉटरी से हर हफ्ते इनाम में 1000 रु की नगदी देने का ऐलान भी जनता को बेतुका मज़ाक लगा ।
जनता को अचंभा यह भी है, कि जब रिज़र्व बैंक के मज़बूत कंधों पर नई करंसी छपवाने, फिर देश भर में उसकी उपलब्धता तय करने और साथ ही डिजिटल माध्यम से कैशलैस व्यवस्था को जल्द अज़ जल्द लागू करने की इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी डाली गई है, तब नोटबंदी विषयक अधिकतर काँटे की सूचनायें और जानकारियाँ (नये नोटों को अपने दस्तखत से जारी करनेवाले) रिज़र्व बैंक के गवर्नर या उनके अनुभवी वरिष्ठ अफसरों की बजाय केंद्रीय वित्तमंत्री या विभागीय सचिवों की मार्फत क्यों प्रसारित की जा रही हैं ? अब तक सरकार तथा रिज़र्व बैंक द्वारा पचास से ज़्यादा सूचनायें जारी की जा चुकी हैं लेकिन जो रिज़र्व बैंक हमेशा नई मुद्रा लाने के साथ उसके बारे में किये आकलनों, लगाये गये सरकारी अनुमानों तथा उनका डाटा-आधार सार्वजनिक कर देता है, वह इस बार नहीं किया गया है । इस फैसले में रिज़र्व बैंक प्रमुख तथा उनकी अनुभवी टीम का प्रोफेशनल विमर्श शामिल किया गया था या नहीं ?

यह ठीक है कि अब कर विभाग छापामारी करे और भारी तादाद में देश के हर कोने से लगातार नये नोटों के गुप्त ज़खीरे, हवाला कारोबारी और उनके राजनैतिक संरक्षक बेनकाब किये जाते रहें । पर जितनी तादाद में नई मुद्रा की चोरी पकड़ी जा रही है, और जिस तरह लगभग सभी दलों के कुछ कार्यकर्ताओं के नाम दागी गुटों से जुड़ रहे हैं, इससे ज़ाहिर हो रहा है कि आज भी कमीशन खा कर पुराने नोटों को नये में बदलनेवालों के अनेक दस्ते देश भर में सक्रिय हैं । उनकी चतुराई से काले धन की एक नई खेप फिर पैदा हो गई है ।
आनेवाले समय में इन तमाम लोगों के खिलाफ किन नियमों की तहत क्या कार्रवाई होगी, कितनी मुद्रा सरकार को मिलेगी इस बाबत अभी हमको कुछ नहीं पता ।

अलबत्ता भारी तादाद में नये नोटों का रिज़र्व बैंक के छापेखानों से सीधे एटीएम या बैंक के खातेदारों की बजाय इन कालेबाज़ारियों के हाथ पड़ जाना रिज़र्व बैंक के निगरानी तथा प्रशासकीय तंत्र और कई सार्वजनिक व निजी बैंकों की साख पर कुछ गंभीर सवाल खड़े करता है ।

कड़ी चौकीदारी के बीच से नोटों के ज़खीरे निकाल ले जाने के पीछे भीतरी मिलीभगत की पुष्टि इस बात से होती है कि अबतक रिज़र्व बैंक समेत कई सार्वजनिक बैंकों के दर्ज़नों कर्मी मुअत्तल किये जा चुके हैं । 

नोटबंदी से पहले भी जनता के बीच कई घोटालों से धारणा बनी है कि भारतीय बैंक अक्सर राजनेताओं के नज़दीकी बड़े अमीर आसामियों को कई बार नियम उल्लंघन कर तुरत लोन दिलवाने या उनसे ॠण वसूली में कुछ अधिक ही सदयता दिखाते हैं जबकि गरीब किसानों की कुर्की में उनको कोई देर नहीं लगती ।

पर इस बीच बैंकिंग क्षेत्र के ईमानदार कर्मियों की चंद जायज़ शिकायतें भी सामने लाना ज़रूरी है, जिन्होंने इन तकलीफदेह दिनों में भी दिन रात जनता की सेवा की है ।

तनाव के चलते कैशियर को बैंक में हार्ट अटैक, मौत

नोटबंदी के बाद से लगातार काम का दबाव झेल से एसबीआई के एक कैशियर नसीम खान की बैंक में ही हार्ट अटैक पड़ने से मौत हो गई — हिंदुस्तान

विमुद्रीकरण तो केंद्र सरकार तथा रिज़र्व बैंक का फैसला था जिसे लागू करने को वे बाध्य थे, फिर भी आमने सामने होने पर बलि का बकरा बन कर जनता का गुस्सा वे ही झेलते हैं । गोपनीयता इतनी बरती गई कि अचानक फैसला लागू करने की घड़ी में बैंकों के संस्थागत ढाँचे संसाधनों तथा तैयारी की कमी से बुरी तरह हिलने लगे । बैंकों की छोटी शाखाओं के परिसर या एटीएम नई मुद्रा लेने आई भारी भीड़ के लिये पहले से तैयार नहीं किये गये थे और न ही उनको अतिरिक्त काम के बोझ से निबटने के लिये अतिरिक्त कर्मी या सुरक्षा उपलब्ध कराए गये थे । फिर भी उन्होने लगातार मोर्चा सँभाला और सरकारी आदेशों का पालन कर सरकार को बड़ी राशि के अचानक किसी खाते में दिखने पर इत्तला भी दी । पर उनके होम करते हाथ जले...

एक तो काम से बैंककर्मियों की पीठ टूटी तिस पर जब कर विभाग के दस्ते बैंकों में आ कर छापा मारने लगे तो उनकी तारीफ से ऐसा माहौल बना मानो कर-विभाग तो नायक है, और बैंककर्मी खलनायक ।  

सवाल उठता है कि डिजिटल और नगदीविहीन बनती अर्थव्यवस्था में जटिल नये क्षेत्रों की निगरानी कौन, किस तरह और किस हद तक करेगा ? कथित रूप से स्वायत्त रिज़र्व बैंक चूंकि देश के पूरे बैंकिंग ढाँचे का मुकुट है, यह जवाबदेही तय करने और जनता के बीच बैंकों की साख बहाली में उसकी सबसे बड़ी भूमिका बनती है । यह बात रेखांकित करना इसलिये भी ज़रूरी है कि इधर विमुद्रीकरण समेत कई अहम फैसलों की बाबत विभागीय जानकारी और संस्थागत तैयारी के अभाव में ज़मीनी निवहन के समय तकनीकी सवाल बेतरह उलझ गये ।

मसलन नोटबंदी के बाद अब ऑन लाइन आगये सार्वजनिक बैंकिंग क्षेत्र तथा बैंकों को डिजिटल ढाँचा और साइबर सुरक्षा देनेवाली निजी (देसी व अंतर्राष्ट्रीय) कंपनियों के बीच के रिश्ते तथा साझा उत्तरदायित्व किस तरह तय होंगे ?

अभी एक बहुप्रचारित निजी डिजिटल कंपनी पेटीएम ने शिकायत दर्ज कराई कि 8 गाहकों ने उसे लाखों का चूना लगा दिया है । इसकी जाँच का काम सरकार ने तुरत साइबर पुलिस की बजाय सीधे सीबीआई को सौंप दिया, जो व्यवस्था तथा सुरक्षा दोनों दृष्टियों से काफी चकरानेवाली बात है ।

ऐसे नये प्रकरण रिज़र्व बैंक की अरसे से बहुप्रशंसित रही स्वायत्तता तथा देश की बैंकिंग संस्थाओं में उभर रही कई ऐसी दरारों की तरफ ध्यान खींचते हैं जो भविष्य में हैरान परेशान कर सकती हैं । अगर आनेवाले समय में सरकार ने देश की सारी जनता को डिजिटल बैंकिंग तथा कैशलैस प्रणाली से सही तरह जोड़ना है तो उसे अनुभवी रिज़र्व बैंक को साथ लेकर तमाम आशंकाओं पर समवेत सोच विचार कर राह निकालनी होगी । तभी भारतीय रिज़र्व बैंक और मौद्रिक व्यवस्था की खोई अनमोल साख की बहाली संभव है ।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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