दमनकारी सेंसरशिप लगाने में कोई सयानापन नहीं है — मृणाल पाण्डे #RamjasRow



फिचकुर नाहक न उगलें — मृणाल पाण्डे

उच्चशिक्षा के बहुत मेहनत और अध्यवसाय से उत्कृष्ट बनाए गए केंद्रों से दुश्मनों सरीखा बैर पाल बैठना गलत और शिक्षा के लिए घातक है। 




कहना कठिन है कि जेएनयू के कमउम्र छात्रों तथा परिसर की गोष्ठियों में कुछ प्रत्याशित सी बहसों तथा अचानक आए अनजान लोगों की उकसाऊ नारेबाजी से सरकार ने एकदम उखड़कर शिक्षकों सहित उस परिसर को लगभग अपना भीषण दुश्मन क्यों मान लिया होगा? इस बात के तूल पकड़ने पर बेवजह उसने देश भर के अकादमिक जगत तथा मीडिया के बड़े हिस्से से बेवजह दुश्मनी साध ली, पर अब लगता है उसने उच्चशिक्षा जगत के बीच राजनैतिक मोर्चे खोलकर नए सरदर्द न उपजाने की बाबत सबक नहीं सीखा। इस बार दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) परिसर निशाने पर है। वहां रामजस कालेज के एक मुख्तसर से कार्यक्रम में एक छात्र गोष्ठी के लिए जेएनयू के एक बहसतलब छात्र को बुलाए जाने पर परिसर में भाजपा की छात्र शाखा एबीवीपी के शाखामृग हिंसक झड़प पर उतर आए। उस पर समझा-बुझाकर लगाम लगाई जा सकती थी, पर सरकार ने उसकी बजाय ऐसा रुख अपनाया कि छात्रों की टोलियां सड़क तक भलभलाकर उतर आईं, पुलिस ने खोपड़ियां फोड़ीं सो फोड़ीं, कुछेक बीच-बचाव करते अध्यापक भी घायल हो गए। अब खबरें आ रही हैं कि परिसर में छात्रों और कॉलेज फेस्टिवलों तक पर भी खूब कड़ाई से लगाम साधी जा सकती है। अपने ही बच्चों में राजनीतिक विचारधाराओं की बहसों पर ऐसी असहिष्णु उग्रता? वह भी उन नेताओं में, जिन्होंने कभी खुद छात्र नेता के रूप में अपने राजनीतिक कैरियर को परवान चढ़ाया था और आज मंत्रिमंडल में बैठे हैं।

अगर राजनीतिक दलों का अपनी अपनी चुनावी रैलियों के लिए बस और वाहन भेजकर भीड़ जुटाना मृणाल पाण्डे | जयपुर साहित्य महोत्सव #jlf2017 चुनाव का सहज स्वीकार्य अंग माना जाता हो, तो युवा छात्रों के लिए अपने शैक्षिक परिसर में (जो उनका समांतर घर बन जाता है), वैचारिक बहस के लिए विभिन्न् विचारधारा वाले लोगों को आमंत्रित करने का लोकतांत्रिक महत्व भी समझा माना जाना चाहिए। 

लोकतंत्र में जवान होती हर नई पीढ़ी कुछ नई तरह की आजादखयालियां और जनमंचों पर बहसतलबी के नए तरीके सामने लाएगी, यह लाजिमी है। हमारे समय में नई तकनीक उसकी बहसों को अतिरिक्त धार तथा श्रोता-दर्शक मुहैया करा रही है, यह भी अकाट्य सच्चाई है। अब अगर राजनीतिक दलों का अपनी अपनी चुनावी रैलियों के लिए बस और वाहन भेजकर भीड़ जुटाना चुनाव का सहज स्वीकार्य अंग माना जाता हो, तो युवा छात्रों के लिए अपने शैक्षिक परिसर में (जो उनका समांतर घर बन जाता है), वैचारिक बहस के लिए विभिन्न् विचारधारा वाले लोगों को आमंत्रित करने का लोकतांत्रिक महत्व भी समझा माना जाना चाहिए। रही बात नई तकनीक की, तो हर नई तकनीक हमेशा अनेक तरह की संभावनाएं (जिनमें उसके गलत-सलत इस्तेमाल की संभावनाएं भी शामिल हैं) लेकर ही आती है। मसलन ट्रेनें, कारें आईं तो नई तरह की यातायात दुर्घटनाएं और तोड़फोड़, चक्काजाम साथ ले आईं। नई सूचना तकनीक अपवाद कैसे हो? चांदनी चौक से चीन तक ईमेल, समेकित डाटाबेस, ई-कॉमर्स, टि्वटर, फेसबुक या गूगल प्लस जैसी खबरें जमा तथा साझी करने व खोजने की सुविधाएं आज साइट्स को हैक करने वाले और उन पर पोर्नोग्राफी या जाने-माने जनों के खिलाफ आपत्तिजनक सामग्री साथ ले आई हैं तो इसमें अचंभा क्या?



अपने ही बच्चों में राजनीतिक विचारधाराओं की बहसों पर ऐसी असहिष्णु उग्रता? वह भी उन नेताओं में, जिन्होंने कभी खुद छात्र नेता के रूप में अपने राजनीतिक कैरियर को परवान चढ़ाया था और आज मंत्रिमंडल में बैठे हैं।
इस लेखिका की पीढ़ी के किसी भी ईमानदार पत्रकार के दिल में नए मीडिया को लेकर इतना अटल भरोसा शायद न हो कि उसके जरिए युवा यूजर्स खुद को जब चाहे बिना पड़ताल अफवाहों के चलते नामीगिरामी लोगों पर पत्थर फेंकने को अधिकृत मान लें। फिर भी दलों द्वारा अपने किसी खास कदम या नेता की अवमानना से पूरे गुट की आहत भावनाओं को जोड़ कर उच्चशिक्षा के बहुत मेहनत और अध्यवसाय से उत्कृष्ट बनाए गए केंद्रों से दुश्मनों सरीखा बैर पाल बैठना गलत और शिक्षा के लिए घातक है। आज जबकि देश की जनसंख्या में तीन चौथाई लोग राजनीति के कथित युवाओं से यानी 40 से कम उम्र के हैं, लोकतांत्रिक देश में उनके बीच उफनाते कई सच्चे सवालों के जवाब दिए बिना दमनकारी सेंसरशिप लगाने में कोई सयानापन नहीं है। फिर आज सोशल मीडिया पर हर मिनट सैकड़ों घंटे की फुटेज अपलोड होती हैं, जिनकी पूर्व पड़ताल के लिए कर्मचारियों की जरूरत मुताबिक विशाल फौज जुटा पाना भी चीन अमेरिका तक के लिए अकल्पनीय है।


होहल्लेबाज दमन तथा मीडिया में उन पर कठोर वक्तव्य देने से अंतत: सिर्फ कुछ धंधई निठल्लों और फितूरियों को नाहक एक तरह की सम्मानजनक शहीदी मिलती है। 
हमारी राय में जिम्मेदार छात्र नेताओं से शिक्षकों की मध्यस्थता से रिश्ते सुधारना कठिन नहीं। इसकी बजाय जिद में परिसरों को ऐन इम्तहानों से पहले उद्वेलित कर वहां तालाबंदी कराना छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ करना है। लोकतांत्रिक देशों में जहां संविधान हर नागरिक को अपनी आपत्ति अभिव्यक्त करने का हक देता है, परिसर की बहसें और इंटरनेट लोकतंत्र से कई तरह के तेजाबी गुस्से का भी विरेचन करते हैं, जो यहां नहीं उभरते तो शायद फटकर बाहर भारी तोड़फोड़ ला देते। जहां तक सेंसरशिप की बात है तो यह मुद्दा तो इतना विवादास्पद बन गया है कि व्यक्तिश: शायद ही किसी मंत्री को इतना अपयश मिलता हो जितना आज कतरनी चलाने पर मानव संसाधन मंत्री या सेंसर बोर्ड के प्रमुख झेलते हैं।


इस सबके मद्देनजर आमराय में दम है कि हर टोकाटाकी पर भीड़ का छत्ता छेड़ने से मौसमी बहसों, चौंकाने वाले शीर्षक की फिल्मों या हल्की निजी फब्तियों को नजरअंदाज करना ही बेहतर है। बात झूठी होगी और फिल्म कमजोर, तो जितनी तेजी से वह उछली है, उतनी ही जल्द बिला भी जाएगी। अगर कोई युवा परिसर में चीखे भी कि मौजूदा सब नेता और नौकरशाह ही नहीं, निचले स्तर की नौकरशाही तक सब भ्रष्ट हैं, इसलिए आओ उनको झाडू मारकर बाहर करें और फिर एक खुले मैदान में खुली जनचर्चा का आगाज कर हम आम लोग अपने हाथों से नई सरकार बनाएं, तो यह वयस्कों के बीच नाहक फिचकुर उगलने की बजाय व्यवस्था में जरूरी सुधारों पर काम करने का विषय बनना चाहिए।

सोशल साइट्स और वैचारिकता पर अंतर्कालेजिया बहसें उच्चशिक्षा और लोकतांत्रिक मीडिया का एक अनिवार्य फल हैं। होहल्लेबाज दमन तथा मीडिया में उन पर कठोर वक्तव्य देने से अंतत: सिर्फ कुछ धंधई निठल्लों और फितूरियों को नाहक एक तरह की सम्मानजनक शहीदी मिलती है। उल्टे अगर हमारे नेता सोशल नेटवर्क के औसत पाठक की उम्र को देखकर उनके खिझाने वाले वक्तव्यों से नाहक भड़कें नहीं, तो इन पर उभरी कई टिप्पणियों पर विचार हमारे युवाबहुल लोकतंत्र में पीढ़ियों के बीच खड़े कई अपरिचल के विंध्यांचल ढहा सकते हैं। इन टिप्पणियों की मार्फत बुजुर्ग पीढ़ी का युवा मतदाताओं के कड़वे गुस्से से ही नहीं उनकी सच्ची दुविधाओं, व्यवस्था के प्रति उनकी भयमिश्रित कुंठा और दोस्ती दगाबाजी की परिभाषा जानने की इच्छा से भी सहज परिचय हो सकता है। सोशल मीडिया का छोर थामकर अपने-अपने छोटे कुओं से बाहर निकल रहे युवाओं में भी इससे आत्मविश्वास और लोकतंत्र से जुड़ाव उपजेगा। इसी की मदद से युवाओं के बीच राजनीति से लेकर मीडिया तक में मौजूद गांधी, शिवाजी, मार्क्स या सावरकर के विचार सही तरह परखे और सच्चे हित-स्वार्थों के आधार पर अपनाए या ठुकराए जा सकेंगे।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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