किशोरी अमोनकर : हर-संगीतप्रेमी की पसंदीदा गायिका — यतीन्द्र मिश्र | #kishoriamonkar



किशोरी अमोनकर: स्मरण

यतीन्द्र मिश्र

यतीन्द्र का संगीत से प्रेम बड़ा है और उनके द्वारा-ही इस प्रेम को साहित्य के रूप में परिवर्तित किये जाना एक ऐसा डॉक्यूमेंटेशन है जो दुर्लभ और ऑथेंटिक दोनों है। किशोरीजी के जाने से आहत यतीन्द्र का मानना है कि किशोरी अमोनकर की गायकी उसी श्रेणी में आती है जिसमें भीमसेन जोशी या फिर लता मंगेशकर जैसे गायक हैं जो संगीत की शास्त्रीयता से ऊपर होते हैं और वे संगीत-प्रेमी-आमजन जिसे शास्त्रीय संगीत से सरोकार नहीं होता, उसे भी मोहित करती है। यह बहुत कुछ, संगीत में दैवीय शक्ति की उपस्थित के जैसा है। उनके देहान्त पर सोशल मीडिया पर जिस तरह से लोगों ने अपने उद्गार प्रकट किये हैं— वह उस फैशन का हिस्सा नहीं है जिसके लिए सोशल मीडिया बदनाम है — लोगों ने उस दुःख को ज़ाहिर किया है जो उनका अपना, अपना निजी दुःख है

यतीन्द्र मिश्र का यह स्मरण, किशोरी अमोनकर के विषय में ऐसी जानकारियाँ दे रहा है जो उनके चाहने वालों को, उनके होने के अहसास को बनाये रखने में सहायता देगा।

भरत तिवारी 

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किशोरी अमोनकर का गायन भाव और बुद्धि का संगम है — यतीन्द्र मिश्र


यतीन्द्र मिश्र
Yatindra Mishra
किशोरी अमोनकर की गायकी संशय और आश्वस्ति के बीच आवाजाही करती है। एक दार्शनिक क़िस्म का गायन, जिसमें इस बात की पूरी सम्भावना बनी रहती है कि गायक, सुनने वाले की मानसिक स्थिति एवं उसके हृदय को पूरी तरह भिगो देगा या धो डालेगा। ‘सोल-वाशिंग’ जैसी प्रक्रिया, जहाँ ज्ञान और जिज्ञासा के बीच का फर्क मिट जाता है। एक आत्ममुग्ध किस्म का खेल, जैसा भक्ति-युग में चैतन्य महाप्रभु, आण्डाल या अक्क महादेवी के लिए सम्भव होता रहा होगा। जयपुर-अतरौली घराने के बारे में यह किंवदन्ती मशहूर है कि अल्लादिया ख़ाँ साहब के घराने में कोई बेसुरा नहीं गाता। अब अल्लादिया ख़ाँ साहब की प्रशस्त परम्परा, तिस पर किशोरी अमोनकर जैसी प्रगतिशील, घरानेदारी से दूर भागती कलाकार और उस सब के बाद रोज नये ढंग का नवाचार और प्रयोग। स्वरों की शुद्धता पर जोर, मगर ख्याल की अदायगी में तमाम घरानों से बटोरा गया हुनर। इस सब से मिलकर जो चेहरा बनता है, वह उसी तरह ‘दुर्लभ’ और ‘स्पृहणीय’ है, जिस तरह ‘दो रागों का जोड़’ या ‘अनवट राग’ इस घराने की पहचान रहे हैं।

किशोरी अमोनकर का गायन भाव और बुद्धि का संगम है। एक प्रकार की दमसाज गायकी जैसी स्वयं उनकी माँ मोगूबाई कुर्डीकर या पूर्ववर्ती गायिका केसरबाई केरकर की अपने समय में रही है। चूँकि जयपुर घराने की गायकी हमेशा ताल के साथ जाती है, इस कारण ताल की शुद्धता को पकड़े हुए, स्वरमंडल के साथ जुगलबन्दी करती किशोरी अमोनकर की ‘पुकार’ उन्हें समकालीनों में सबसे अलग करती है। इसी घराने की एक युवा गायिका श्रुति सादोलिकर की यह टिप्पणी उन्हें समझने की एक सुन्दर तस्वीर हमारे सामने पेश करती है— ”किशोरी जी की गायकी क्लिष्ट नहीं है। उन्होंने अछोप (अनवट) रागों को भी इस तरह गाया है, लगता है जैसे उन रागों की बंदिशों को सुगमतापूर्वक गाकर सुलझा दिया है।“ एक तरह से जयपुर घराने की खूबियों और विशिष्टताओं को आत्मसात करते हुए किशोरी अमोनकर का वृत्त बड़ा बनता है। श्रुति सादोलिकर जिन अछोप रागों को लेकर उन पर यह टिप्पणी करती हैं कि उन्होंने उन रागों को व्याख्या करने के स्तर पर खोल कर गाया है, उसमें प्रमुख रूप से किशोरी जी ने लगभग सभी ऐसे रागों को अपनी गायकी का अंग बनाया है। ऐसी श्रेणी के रागों में शुद्ध-कल्याण, सूर-मल्हार, जीवनपुरी या जौनपुरी, काफी कान्हड़ा, ललित विभास, बसन्ती केदार, ललित पंचम, बहादुरी तोड़ी आदि आते हैं। इसी वक्त यह जानना भी प्रासंगिक होगा कि शुरुआती दिनों में, अपने गायन के बिल्कुल आरम्भिक वर्षों में, उन क्षणों में जिनमें किसी नवोदित के भीतर संस्कार पड़ते हैं, वे हीराबाई बड़ोदेकर, केसरबाई केरकर, सरस्वती राणे और उस्ताद बड़े गुलाम अली ख़ाँ को सुना करती थीं। इन सबको मिलाकर ही हमें आज की किशोरी अमोनकर सुलभ होती हैं। एक अपरोक्ष संस्कार के तहत जिन कलाकारों का प्रभाव उन्होंने स्वीकारा है, वह उनके उदार व्यक्तित्व की एक निशानदेही भर है।



‘वीणा’ को लेकर या वीणा के साथ किशोरी अमोनकर ने कभी नहीं गाया। लेकिन एक आस्थावान कलाकार के रूप में वे वीणा को संगीत में अत्यधिक आदर के साथ देखती रही हैं। ‘वीणा’ उनका ‘आल टाइम फेवरिट’ वाद्य है और शायद इसलिए भी वीणा पर ‘मींड़’ बहुत सुगमता से व्यक्त होता है। वीणा उनके प्रेरणा पुरुष गुरु, राघवेन्द्र स्वामी भी बजाते रहे हैं। (ऐसी मान्यता है कि राघवेन्द्र स्वामी वीणा का एक प्राचीन प्रकार, सरस्वती वीणा बजाते थे) इन सब तर्कों के चलते किशोरी अमोनकर गाते समय अपनी गायकी में ‘मींड़’ की ‘उपज’ उस दैवीय वीणा का ध्यान करते हुए करती हैं, जो शायद उनके साथ मंच या सभा में कभी उपस्थित भी नहीं होती। एक गायक की यह दीवानगी या श्रद्धा उससे कुछ अत्यन्त ‘कल्पनातीत’ की सृष्टि कराते हैं, जो शायद प्रचलित अर्थों में एक घराने में महदूद रहने वाला कलाकार सोच भी नहीं सकता।

घराने से विचलन और गायकी का सर्वोत्तम पाने की कोटि में सिर्फ, किशोरी अमोनकर ही नहीं रहीं; बल्कि यह स्थिति उनके यहाँ उनकी परम्परा, उस्ताद अल्लादिया ख़ाँ के समय से चली आई है.... और अब तो यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत में वही कलाकार मूर्धन्य की श्रेणी में आ सके हैं, जिन्होंने अपने घराने को पीठ दिखाते हुए लीक से थोड़ा दायें-बायें चलने का प्रयास किया है। उस्ताद फैयाज़ ख़ाँ, पं. ओंकारनाथ ठाकुर, उस्ताद अमीर ख़ाँ, केसरबाई केरकर, पं. निवृत्ति बुआ सरनायक, पं. मल्लिकार्जुन मंसूर, पं. कुमार गन्धर्व, पं. भास्कर बुआ बखले समेत विदुषी किशोरी अमोनकर ऐसे ढेरों नाम हैं, जिन्होंने अपने गायन से घरानेदारी की चौखट को तोड़कर विस्तृत किया है।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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