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तू मुझे बुला, मैं तुझे बलाऊं — सुधीश पचौरी



साहित्यकारों में फैले अजनबीपन, अकेलेपन, आत्म-निर्वासन, अवसाद, आत्म-संघर्ष, वर्ग-संघर्ष, चिड़चिड़ेपन और गाली-गलौज आदि सब व्याधियों से मुक्ति दिलाने वाला बस एक ही मंत्र है

sudhish pachauri

तू मुझे बुला, मैं तुझे बलाऊं



  • तू मुझे बुला, मैं तुझे बुलाऊं।
  • तू मुझे खिला, मैं तुझे खिलाऊं।
  • तू मुझे पिला, मैं तुझे पिलाऊं।
  • तू मुझे पटा, मैं तुझे पटाऊं।
  • तू मुझे सटा, मैं तुझे सटाऊं।
  • तू उसे काट, मैं इसे कटाऊं।
  • तू उसे मिटा, मैं इसे मिटाऊं।
  • तू मुझे उठा, मैं तुझे उठाऊं।
  • तू उसे निरा, मैं इसे निराऊं।
  • तू उसे गिरा, मैं इसे गिराऊं।
  • तू मुझे जुटा, मैं तुझे जुटाऊं।
  • तू उसे हटा, मैं इसे हटाऊं...।


हिंदी साहित्य की ये वे तरल सरल, किंतु सर्वत्र आचरित शाश्वत सूक्तियां हैं, जो साहित्य के ‘हॉल ऑफ फेम’ की हर दीवार पर बिना लिखे लिखी रहती हैं। बिना दिखे दिखती रहती हैं और हर छोटा-बड़ा, खोटा-खरा, अच्छा-बुरा लेखक उन पर आंखें मूंदकर आचरण करता रहता है।


यही साहित्य साधना है। इसे ही साधना है। यही साहित्य का ‘हॉल ऑफ फेम’ है! यही ‘गेम’ है। तब काहे की ‘शेम’ है?


आज हिंदी साहित्य में सबकी ‘जगह’ है, जिसमें सब ‘महान’ हैं, सब ‘बड़े’ हैं, सब ‘युग-निर्माता’ हैं। सब कहीं न कहीं नई जमीन तोड़े जा रहे हैं। सब किसी न किसी इनाम-सम्मान की लाइन में लगे हैं। सबने सब उपलब्धियां पा ली हैं और जो बची हैं, उनको भी उपलब्ध करने वाले हैं। तो इन तमाम उपलब्धियों के मूल में यही सूक्तियां हैं।

जो इसे बुला रहा, तो वह उसे बुला रहा है। पटाने वाला पटाने वाले को पटा रहा है। लिखाने वाला लिखाने वाले से लिखा रहा है। वह उसकी जय बोल रहा है, यह उसकी बोल रहा है। यह साहित्य का सुपर ‘एक्सचेंज’ है।


  • तू मुझे पटना बुला, मैं तुझे दिल्ली बुलाऊं।
  • तू मुझे बना, मैं तुझे बनाऊं।
  • तू मुझे चढ़ा, मैं तुझे चढ़ाऊं।
  • तू उसे चिढ़ा, मैं इसे चिढ़ाऊं।
  • तू मुझे फिरा, मैं तुझे फिराऊं।
  • तू उसे गिरा, मैं इसे गिराऊं।
  • तू उसे रुला, मैं इसे रुलाऊं...।


एक से एक सूक्तियां हैं। किसी एक को पकड़ ले, तो साहित्यकार का ‘इहलोक’ और ‘परलोक’, दोनों संवर जाते हैं। कहा भी है- एकै साधै सब सधै, सब साधै, सब जाए। यानी एक को साध। बहुतों को साधेगा, तो कोई न सधेगा। किस-किस की चिरौरी करेगा?

साहित्यकारों में फैले अजनबीपन, अकेलेपन, आत्म-निर्वासन, अवसाद, आत्म-संघर्ष, वर्ग-संघर्ष, चिड़चिड़ेपन और गाली-गलौज आदि सब व्याधियों से मुक्ति दिलाने वाला बस एक ही मंत्र है-
                  तू मुझे बुला, मैं तुझे बलाऊं।

अकेला न रह, दुकेला हो। दोस्त बना। गुट बना। गुट में फुट रख और साहित्य की सीढ़ियों पर खट-खट चढ़ जा। चढ़ने का एक ही मंत्र है- तू मुझे चढ़ा, मैं तुझे चढ़ाऊं।

‘पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ/ साहित्यकार भया न कोय/ दो आखर इस मंत्र के/ पढ़ै सो साहित्यकार होय’।- जितने किस्म के यथार्थवाद हैं, जितने किस्म के आदर्शवाद हैं, जितने किस्म के क्रिटिकल रियलिज्म हैं और जितनी किस्म की क्रांतिकारी विचारधाराएं और संघर्षमयताएं हैं, उन सबके पीछे यही ‘बुलावा मंत्र’ होता है। जिसने इसे साध लिया, जिसने इस पर आचरण कर लिया, जो इसके अनुसार अपना जीवन जी लिया, वह साहित्य का हो गया, और साहित्य उसका हो गया- ये जिंदगी उसी की है, जो किसी का हो गया।

यही साहित्य साधना है। इसे ही साधना है। यही साहित्य का ‘हॉल ऑफ फेम’ है! यही ‘गेम’ है। तब काहे की ‘शेम’ है?

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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