जल जोत और जीवन — मृणाल पाण्डे #MrinalPande


भूगर्भीय जलभंडार तेज़ी से छीज रहा है

— मृणाल पाण्डे

जहाँ पहले 50 फुट पर पानी मिल जाता था, पानी निकालने को 700 से हज़ार फीट तक बोरिंग ज़रूरी है। 

इस देश का सबसे पुराना और सबसे गहरा रागात्मक रिश्ता अगर किसी से रहा है, तो अपने जलस्रोतों से। अपनी नदियों को इस कृषि प्रधान देश ने हज़ारों साल पहले देविस्वरूपा माँ (अम्बितमे, देवितमे) की संज्ञा दी। और जल संसाधनों के पैमाने पर खेती की सारी ज़मीन को नदी जल पर निर्भर (नदी मातृक) और बारिश के पानी पर निर्भर (देव मातृक) श्रेणियों में बाँट कर स्थानीय पर्यावरण के हिसाब से किसानी का स्वरूप भी गढा, जो बीसवीं सदी के साठवें दशक तक कायम था। नदी मातृक माने गये इलाके मानो माँ की गोद में ही बैठे रहते थे। किसानों ने जो चाहा, बरस भर उगाया। किंतु देव मातृक भाग को उस बारिश के पानी से ही जीवन चलाना होता था जिसकी सालाना मात्रा दैवनिर्भर रहती। ऐसे इलाकों के लिये गेहूँ के साथ कम से कम पानी में भी पेट भरने लायक अन्न उपजा सकने वाली फसलों का चक्र बनाया गया, ताकि कम बारिश वाले (गुजरात, विदर्भ, राजस्थान जैसे) इलाकों के किसान भी गेहूँ के साथ ज्वार, बाजरा और दालों की अनेक सस्ती स्थानीय किस्में उगा कर अनावृष्टि के सालों में भी ठीक ठाक पोषाहार पा सकें। सामाजिक धार्मिक नियमों से जोडी गई जल और वनस्पति संरक्षण पद्धतियों के असर से इन इलाकों के सीमित जल स्रोत नष्ट नहीं हुए। साथ ही पशुपालन के वास्ते जंगलों और गोचरों में पर्याप्त चारा और पानी हमेशा बचाया जाता रहा।


भूगर्भीय जलभंडार तेज़ी से छीज रहा है

लेकिन आज हमारे संबद्ध अफसर तथा मंत्री नदियों को लेकर धार्मिक मुहावरों का भले ही भावुक इस्तेमाल करें, सचाई यह है कि नदी तालाबों झीलों का पानी ही नहीं, उन सबका स्रोत, वह भूगर्भीय जलभंडार, जो हमारे पेय जल की 80 फीसदी तथा खेती की दो तिहाई ज़रूरतें आज भी पूरी करता है, तेज़ी से छीज रहा है। और ताबडतोड विकास कामों ने ज़मीन की सतह को कंक्रीट और सीमेंट से इस तरह पाट दिया है कि मानसूनी बारिश का जल उस भंडार को दोबारा भरने की बजाय शहरों को डुबा रहा है। इस दु:खद सचाई के साथ हमको मानना ही होगा कि साठ के दशक में हरित क्रांति देश में आई, तो उसने बौने गेहूँ और धान की अधिक उपज देने वाली किस्मों के साथ अधिकाधिक जल और उर्वरकों के इस्तेमाल का संदेश भी दिया। तब फौरी तौर से कुछ दशक तक उपज बढने से समृद्धि आई, अकाल का भय घटा, लेकिन आगे जाकर नासमझ लालच ने लगातार दुही गई ज़मीन तथा जल संसाधनों में रासायनिक विष घोल दिया।

वोट बैंक की तुष्टि के लिये

शुरुआती सुखद परिणाम देख हर इलाके के किसान पारंपरिक मडुवा, कोदों, ज्वार बाजरा सरीखे मोटे अनाज की बजाय गेहूँ, चावल, अथवा कपास, गन्ना या सोयाबीन सरीखी भरपूर दाम देने वाली फसलों की तरफ झुकने लगे। पर वे भरपूर पानी और रासायनिक खाद पर निर्भर बनाने लगीं। किसानों को स्थानीय मिट्टी पानी की फितरत के अनुसार ही फसल बोना सिखाने की बजाय दशकों तक सभी दलों के राजनेताओं ने चुनावी फायदा लेने को देश के इस सबसे बडे मतदाता वोट बैंक की तुष्टि के लिये खुश्क इलाकों में भी भूजल खींचने को हैण्ड पंप और नलकूप लगाने के लिये भरपूर कैश सबसीडी, मुफ्त या सस्ती बिजली देना जारी रखा।

इससे दो नुकसान हुए। एक : नलकूप लगने से जो जलस्रोत अबतक ग्रामीण इलाकों (जंगलों, चरागाहों या तालाबों) में सामुदायिक ज़मीन के बतौर सुरक्षित रहे आये थे, अब सामूहिक नियामन से बाहर हो कर निजी स्वामित्व में आ गये। दो : जब घरों खेतों में पंप से मनचाहा पानी भरने की छूट हो गई और घर की खटाल में बाज़ार से चारा खरीद कर पशुओं की सानी पानी भी होने लगी तो जल और किसानी परिवारों का सदियों से कायम जीवंत दैनिक रिश्ता टूट गया। बिना आगा पीछा सोचे, सिर्फ अपने लिये भरपूर फसल लेने को, अधिकाधिक जल दुह कर इस महत्वपूर्ण विशाल कोष को रीता किया जाने लगा। उधर उर्वरकों का उत्पादन वितरण भले ही राज्य सरकारें करने लगीं, लेकिन रासायनिक खाद के जैविक दुष्परिणामों पर ग्रामीणों को आगाह नहीं किया गया। सो ज़मीन की गुणवत्ता एक हद के बाद दुष्प्रभावित हो चली। और धीमे धीमे ताबडतोड विकास, भरपूर नगदी और भारी अन्न भंडारण, तरक्की के यही लक्षण बन गये।

जब हालात बेकाबू हो गये तब भी कई मंचों पर गैरसरकारी संस्थायें और कृषि-वैज्ञानिक जब जल जंगल ज़मीन की सुरक्षा की बात उठाते तो हमारी कृषि क्रांति तथा औद्योगिक तरक्की की विश्वव्यापी तारीफ का हवाला देकर उनकी चिंता को दूर सरका दिया जाता रहा।


नतीजा सामने है

अब जबकि पिछले कुछ सालों से बडी तादाद में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। और इधर हफ्तों से तमिलनाडु के किसान नग्न हो कर दिल्ली में प्रदर्शन पर आ बैठे हैं, किसानी की दुर्दशा को नज़रअंदाज़ करना असंभव हो गया है। जल संसाधनों के क्षरण के साथ ही हर पीढी के साथ जोतों का आकार घटने से छोटे और सीमांत किसानों के लिये खेती अब घाटे का सौदा है। लिहाज़ा हर राज्य में किसानों के बच्चे खेतीबाडी की बजाय शहर जा कर काम करने को लालायित हैं। इस पर पहले तर्क दिया जाता था कि यह बदलते समय का सहज लक्षण है। इतने सारे लोगों को खेती काम नहीं दे सकती तो न सही, उद्योगों को बढावा देने को खेती की ज़मीन खरीदना बेहतर होगा। उद्योग पनपे तो किसानी परिवारों को शहरों में बेहतर काम मिलेगा। कुछ दशक तक मिला भी। लेकिन ग्रामीण पलायन से शहरी आबादी लगातार बढी। इससे शहरों में जल मल व्ययन की दिक्कतें बेहद बढीं और कल कारखानों के प्रदूषित जल का शोधन न होने से उनके बहाये विषाक्त रसायनों से नदियाँ मरने लगीं। औद्योगिक उपक्रमों और शहरी बसासतों के ताबडतोड निर्माण से पानी खींचने से भूजल क्षरण बढ रहा है यह नज़रअंदाज़ कर हरियाणा से लेकर कोलकाता तक तमाम तरह के बिल्डरों ने शहरी सीमा में समाते गाँवों के किसानों से ज़मीन खरीद कर वृहदाकार निर्माण कार्य शुरू कर दिये। नतीजा सामने है : बंगाल में आज पेय जल में ज़मीन के नीचे पडा ज़हरीला तत्व आर्सेनिक घुल कर पानी को विषाक्त बना रहा है। उधर पंजाब में भी पेय जल के लगातार खारे और खतरनाक रसायन (यूरेनियम) मिश्रित होते जाने की खबर है।

बदले गये फसल चक्र, बिजली चालित गहरे जलकूपों से सिंचाई और दुनिया के मौसम में आई भारी तब्दीलियों का सबसे बुरा असर पहले पहल उन इलाकों में दीखा जहाँ पारंपरिक रूप से मौसम खुश्क और जल का भंडार सीमित रहा है। 1960-61 में इन इलाकों में सिंचाई के लिये 61% पानी की नहरों और जलाशयों से आता था, और ट्यूब वैल कुल जल का सिर्फ 0.6% हिस्सा मुहैय्या कराते थे, पर 2002-2003 तक आते आते नहरों और जलाशयों से मिलने वाला जल सिर्फ 33 फीसदी ज़रूरत निबटा पा रहा था, 39 फीसदी पानी ट्यूबवैलों से खींचा जाने लगा था। जहाँ पहले 50 फुट पर पानी मिल जाता था, पानी निकालने को 700 से हज़ार फीट तक बोरिंग ज़रूरी है। कमोबेश यही हाल देश का 50 फीसदी अन्न उपजाने वाले राज्यों : पंजाब, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, हरियाणा और तमिलनाडु का भी है।

अब समय आ गया है कि सरकार, (जिसे नये राष्ट्रीय जल कानून (नेशनल वॉटर फ्रेमवर्क लॉ) की तहत जनता के लिये जनसंसाधनों की सुरक्षा और सही वितरण की गारंटी देनेवाले संरक्षक (ट्रस्टी) का ओहदा दिया गया है) समग्र नज़रिये से देश में तेज़ी से छीज रहे जल के नियामन, शोधन और वितरण की नई व्यवस्था कायम करे वर्ना विकास का सारा साहिबी ठाठ धरा रह जायेगा। सयाने कह गये हैं :
  रहिमन पानी राखिये,
     बिन पानी सब सून।
         पानी गये न ऊबरें
             मोती मानुख चून !


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story: कोई रिश्ता ना होगा तब — नीलिमा शर्मा की कहानी
इरफ़ान ख़ान, गहरी आंखों और समंदर-सी प्रतिभा वाला कलाकार  — यूनुस ख़ान
कहानी ... प्लीज मम्मी, किल मी ! - प्रेम भारद्वाज
विडियो में कविता: कौन जो बतलाये सच  — गिरधर राठी
दो कवितायेँ - वत्सला पाण्डेय
समीक्षा: अँधेरा : सांप्रदायिक दंगे का ब्लैकआउट - विनोद तिवारी | Review of writer Akhilesh's Hindi story by Vinod Tiwari
ब्रिटेन में हिन्दी कविता कार्यशाला - तेजेंद्र शर्मा
अखिलेश की कहानी 'अँधेरा' | Hindi Kahani 'Andhera' by Akhilesh
हमारी ब्रा के स्ट्रैप देखकर तुम्हारी नसें क्यों तन जाती हैं ‘भाई’? — सिंधुवासिनी
सेकुलर समाज में ही मुसलमानों का भविष्य बेहतर है - क़मर वहीद नक़वी | Qamar Waheed Naqvi on Indian Muslims