गोरखपुर से सिसकियाँ
सुकृता पॉल कुमार
अनुवाद: हर्षबाला शर्मा
दम घोंटू काले धुंए से घिरा
एक जीवित बम
रख दिया गया हर छोटी सी छाती पर
जिसने चीर दिया
भीतर तक फेफड़ों को,
जकड़ता गया उनको
लेता गया अपनी गिरफ्त में
और डूबती सिसकियों से उभरा
हर एक का ‘हिरोशिमा’
माताओ की छाती से बहता दूध
बहता नहीं जम जाता है
चट्टान बनकर भीतर ही,
पिता भीगते हुए पसीने से
ढूंढते हैं उस हवा को शिद्दत से
जो खुदा ने बख्शी है सभी को
बेहोश बच्चे एक-एक करके
पड़ते जाते हैं नीले और फिर पीले
नीम बेहोशी में
जाती है जान एक-एक की
क्या फर्क पड़ता है
इनकी गिनती का,
हर पल
छुरे की नोक की तरह
चीरता है भीतर तक
दर्द के तीर धंस जाते हैं
मौत की सुरंग मजबूरन चौड़ी होकर
निगल लेती है
नन्हीं जानों को
गोरखपुर के घरों में
खाली पड़ें हैं पालने
सूने हो चुके हैं मन,
नन्हीं रूहें प्रवेश करती हैं
हम सब के घरों में
चारों ओर इस दुनिया में
भरती जाती है
एक भयानक उदासी
भीतर तक हम सब में
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2 टिप्पणियाँ
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-08-2017) को "चौमासे का रूप" (चर्चा अंक 2702) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मार्मिक रचना
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