21वीं सदी का ज़फर: एम्ऍफ़ हुसैन वाया पार्थिव शाह — भरत तिवारी #photography



कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए 

दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में  

— बहादुर शाह ‘ज़फर’  


मकबूल ‘फ़िदा’ हुसैन की तस्वीरों के सामने से एक-एक कर गुजरता हुआ, ठहरता हुआ, हुसैन की आँखों की ज़बरदस्त चमक देखता हुआ, ठहर जाता हूँ, आखरी मुग़ल बहादुर शाह ‘ज़फर’  की याद सीने में भीतर से चिपक जाती है, और उस इंसान की बदनसीबी सोचता हूँ —  जिसे उसके ही देश ने निकाला दे दिया हो, देश जिससे वह बेपनाह मुहब्बत करता हो, जहाँ से निकाल दिए जाने का उसे कोई ख़्वाब भी, कभी नहीं आया हो। 1858  में, ज़फर को, बाहरी अंग्रेजों ने बाहर किया था; और ढेड़-सदी बाद, 2006 में, हुसैन को, भीतरी हमने बाहर किया। दोनों ही अपनी मिट्टी से दूर, दूर देश में सुपुर्दे ख़ाक हुए। 
(आज के नवोदय टाइम्स में प्रकाशित)
http://epaper.navodayatimes.in/1357704/The-Navodaya-Times-Main/Navodaya-Times-Main#page/11/2

हुसैन से मिलने, जब उनके एक मित्र, दिल्ली से दुबई जाने की तैयारी में लगे थे, उन्होंने हुसैन को फ़ोन किया, “आपके लिए दिल्ली से क्या लेता आऊँ?” हुसैन ने कहा खूब सारे अखबार और पुरानी दिल्ली से दीवान-ए-ग़ालिब लेते आइयेगा!“ उनके मित्र पुरानी दिल्ली गए दीवान-ए-ग़ालिब ख़रीदा और दुबई जाते समय, हवाई अड्डे से अख़बारों को ले लिए। मित्र जब दुबई पहुंचे, और उनके घर में दाखिल हुए, उन्होंने देखा कि तमाम अखबार वहां घर में घुसते ही नज़र आ रहे हैं; और ऐसा ही कुछ दीवान-ए-ग़ालिब के साथ भी था । असमंजस में पड़, जब उन्होंने सवाल किया, “हुसैन भाई आपके पास तो पहले से ही, यह सब है, फिर आपने दिल्ली से लाने को क्यों कहा?” हुसैन ने कहा “मेरे दोस्त इन अखबारों से मुझे देश की खुशबू मिलती है, दीवान-ए-ग़ालिब के साथ मैं अपनी दिल्ली की खुशबू में उतर पाता हूँ।“ दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में ...


किरण नादर में पार्थिव 
फोटोग्राफर के योगदान को, कम आंकना, पूरे भारत की एक बड़ी कमजोरी है; इस ‘पूरे’ में वह आम इन्सान तो शामिल है ही जिसे कला से कुछ लेनादेना नहीं है, वह-भी शामिल है जो ख़ुद को कला-प्रेमी मानता है और वह भी शामिल है जिसे लोग कला-प्रेमी मानते हैं, जानते हैं। यह विडम्बना ‘बड़ी’ है। और ऐसी सिर्फ उम्मीद की जा सकती है —  जबकि उम्मीद किये जाने का कारण नहीं दिखता — कि भविष्य में भारत फोटोग्राफी-कला को समझेगा। एक तरीका जो उम्मीद बन सकता है वह यह है; जिसके कारण मुझे अभी एम्ऍफ़ हुसैन याद आ रहे हैं। अभी भारत के नामी फोटोग्राफर पार्थिव शाह की खींची तस्वीरों की प्रदर्शनी ‘सड़क.सराय.शहर.बस्ती:एम्ऍफ़ हुसैन’, किरण नादर कला संग्रहालय, दिल्ली — 2010 में खुला किरण नादर पहला, आधुनिक और समकालीन कला को प्रदर्शित करने वाला, निजी संग्रहालय है — में देख और उनकी व एस कालिदास के बीच हुई बातचीत, जिसे सुनने काफी लोग आये हुए थे, सुन कर आ रहा हूँ।




पार्थिव ने हुसैन की तस्वीरों को अपने लेंस से कागज़ पर उतारा है, या ऐसे कहूँ हुसैन को उस गैलरी में ले आये हैं, ज़िन्दा। कि आप न सिर्फ हुसैन को देख सकें बल्कि — जो काम सिर्फ एक बेहतरीन फोटोग्राफर के हाथों संभव है — उन्हें महसूस सकें, उनके साथ बस्ती निजामुद्दीन की गलियों में घूम सकें, साथ चाय पी सकें। आदमकद तस्वीरों के सामने खड़े हो कर उनसे आँखें मिलाने की कोशिश कर सकें, वो अलग बात है कि जब मैंने यह करना चाहा तो हुसैन जैसे पूछ उठे, ‘तब कहाँ थे मियाँ जब 95 वर्ष के मुझ पर 900 कोर्टकेस चल रहे थे? जब मुझे 21वीं सदी का बहादुर शाह ज़फर बनाया जा रहा था?


शाह की, 72 ब्लैक एंड वाइट तस्वीरों में, हर सदी के रंग है, हुसैन की आँखों में वो चमक है जो उनसे छीन ली गयी; ऐसी छायाचित्र प्रदर्शनियों में जाना और वहां वक़्त बिताकर उन्हें समझना ज़रूरी है, फोटोग्राफर से मिलना संभव हो सके तो ज़रूर मिलना चाहिए। ...वह उम्मीद जिसकी बात मैंने ऊपर कही, वह यही है। इससे भारत में फोटोग्राफी के महत्व को नहीं समझा जाना, कम हो सकता है। इससे और हुसैन होना रुक सकता है, ऐसी तस्वीरें ही आपको यह सोचने पर मजबूर कर सकती हैं कि अगर तस्वीर नहीं होती तब ...? अगर पार्थिव शाह ने हुसैन की यह तस्वीरें नहीं खींची होतीं तब... और कि काश हुसैन यहीं होते...सड़क.सराय.शहर.बस्ती:एम्ऍफ़ हुसैन अभी जारी है, जाइये देख आइये।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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