कविता का कुलीनतंत्र — उमाशंकर सिंह परमार | #आलोचना "हिंदी कविता का वर्तमान"


प्रखर युवा आलोचक उमाशंकर परमार की आलोचना में वह धार है जिसका वर्तमान (युवा) साहित्यकारों का पता ही नहीं था. अच्छी बात यह है कि वह तक़रीबन निर्ममता की हद तक निष्पक्ष हैं, वैसे हिंदी साहित्य को इसकी घोर आवश्यकता थी; बधाई हो हिंदी!

उमाशंकर ने हाल में वर्तमान युवा कविता और उसके रचयिता को अपने आलोचनात्मक लेख में परखा है, लेख चूंकि बड़ा है, इसलिए इन्टरनेट पर पढ़े जाने की सहूलियत के मद्देनजर इसे ६-७ क़िस्त में बाँट रहा हूँ.

भरत आर तिवारी

कविता का कुलीनतंत्र — उमाशंकर सिंह परमार

सत्ता और पूँजी के संरक्षण में विकसित जमीन से विस्थापित कविता का कुलीनतंत्र 

— उमाशंकर सिंह परमार

महानगरीय अभिजात्य कवियों को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है मानो किसी चकमें में उलझकर अचानक कविता में हाथ आजमाने के लिए उतर आए हों...
हम कितने भी परम्परागत रचनामानकों के विरोधी हों फिर गद्य और पद्य में भेद होता है। हम गद्य को कविता नहीं कह सकते और कविता को गद्य नहीं कह सकते हैं। यदि हम छन्द, गीत, लय ताल तुक आदि का विरोध करते हैं तो कविता पर अभिरोपित हर एक "कला" जैसे वक्रोक्ति, अप्रस्तुत विधान, उच्च कल्पना, कोरी भावुकता, चमत्कार, चौंकाऊपन का भी विरोध होना चाहिए। इसका कारण है कि "कला" की अभिव्यक्ति केवल कविता में ही नहीं होती गद्य में भी होती है। चमत्कार गद्य और पद्य और बोलचाल तीनों में सम्भव है। लेकिन लय का आधुनिक एवं विकसित रूप "अन्तर्लय" केवल कविता में ही सम्भव है। अन्तर्लय कविता का प्राणतत्व है। यही वह शर्त है जिससे कविता को कविता कहा जा सकता है। अन्तर्लय में प्रवाह, विन्यास, भाषा, संगति, तर्कनिष्ठ यथार्थ जैसे गुण स्वभावतः समाहित होते हैं। अन्तर्लय कविता की एक बेहद जरूरी शर्त है। कविता की दूसरी शर्त है कवि जिस जमीन में रहता है उस जमीन और परिवेश जिसे हम व्यापक अर्थों में लोक की संज्ञा देते हैं उसका सन्निवेश। और जिस लोक पर कविता लिखी जा रही हो उस लोक की संस्कृति, भाषा व सामाजिक संरचना का पूरा बोध होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो कविता में वास्तविकता भ्रमात्मक कल्पना के रूप में प्रवेश करती है और पाठक को मिथ्या तर्क देते हुए लोक की वास्तविक विसंगतियों से ध्यान भटका देती है। कवि के लोक को हम कवि "व्यक्तित्व" का सन्निवेश कह सकते हैं। कविता में कवि के व्यक्तित्व का प्रवेश ही कवि के लोक का प्रवेश है। इससे कविता में "यथार्थ" बचा रहता है और भ्रम की संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं। कविता की तीसरी महत्वपूर्ण शर्त है तर्कनिष्ठ वास्तविक यथार्थ का होना। यह सबके बस की बात नहीं होती। वास्तविक यथार्थ वास्तविक ऐन्द्रिक संवेदनों की माँग करता है। वह आभासी नहीं होता। वह किसी अन्य माध्यमों मसलन टीवी, फिल्म, अखबार या किसी कथा कहानी का यथार्थ नहीं होता है वह देखा भाला और अनुभूत होता है। इससे कविता की प्रभाविकता और प्रासंगिकता दोनों में अभिवृद्धि होती है। वास्तविक यथार्थ के अभाव में कविता आभासी यथार्थ का प्रयोग होता है यह उन कवियों द्वारा होता है जिनका अपने लोक और अपने अनुभव कविता हेतु अपर्याप्त प्रतीत होते हैं। अथवा अपनी वर्गीय अवस्थिति के दबाव में वह दूसरे वर्ग के सम्वेदनों को नहीं ग्रहण कर पा रहा होता है। इस स्थिति में कवि कविता लिखने के लिए या तो उच्चकल्पना द्वारा एक मिथ्या अनुभवलोक निर्मित करता है और भावुकता, कला, रौमैन्टिसिज्म, नास्टेल्जिया आदि का प्रयोग करते हुए अवैचारिक, अतीतगामी, मनोरंजक, छायावादी आभास की कविता लिखता है। कविता की चौथी शर्त है विचारधारा और सरोकार। जी हाँ यह कविता के प्रयोजन की बात है कि हम कविता किसके लिए लिख रहे हैं। केवल लिख नहीं नहीं है बल्कि किसी अन्य विकृति से रहित होकर लिख रहे हैं। आज अस्मिताओं पर बात की जाती है कि कविता में अस्मिताओं के सन्दर्भ में बात होनी चाहिए मगर हम ध्यान भूल जाते हैं कि कविता हर उस समुदाय और व्यक्ति पर लिखी जाती है जो शोषण उत्पीड़न व हासिए का सवाल होता है। इसलिए जब कविता में "अस्मिता विमर्श" भी स्वाभाविक रूप से समाहित है तो पृथक पृथक अस्मिता पर लिखना कहीं कहीं अतिवाद की ओर ले जाता है। कविता जनता के लिए है जनता हित की बात करती है। जनता के पक्ष में वह किसी भी धारा, विचार, संस्था, घटना, व्यक्ति व मूल्य की आलोचना करती है। यह विहंगम प्रयोजन है जाहिर है जब अस्मिता पर बात होगी तो वह इसी प्रयोजन के तहत बात होगी। यही वैचारिक समझदारी है। जब हम अस्मिता पर अधिक बल देते हैं तो या केवल अस्मिता पर लिखते हैं तो कहीं न कहीं रूढ़ भाषा और दोहराव का शिकार होकर अन्य विकृतियों को नजर अन्दाज करने लगते हैं। यह स्थिति वैचारिक रूप से पंगु बना देती है। हमें ध्यान रखना होगा कि कविता अखबार या टीवी न्यूज नहीं है न ही वह नारेबाजी और पोस्टरबाजी है। हम विचारधारा को चीखकर नहीं, उछालकर नहीं बल्कि दूध में मिले हुए पानी की तरह प्रयोग कर सकते हैं।

केदारनाथ सिंह | फ़ोटो (c) भरत आर तिवारी

समकालीन कविता में यदि हम उपरोक्त मानकों को लेकर बात करें तो हमें हिन्दी में दो तरह के कवि दिखाई देते हैं

पहली कोटि उन कवियों की है जिनसे "समकाल" की अभिव्यक्ति हो रही है। समय के प्रति सजगता, लोकधर्मिता, सरोकार, संघर्ष व मौलिक संवेदनों की मौलिक भाषा के साथ निरन्तर रचनाएँ लिख रहे हैं। इन कवियों का वर्ग और इनकी वर्गीय पहचान भी इनकी कविता में परिलक्षित होती है ये उस परम्परा के वाहक हैं जिसे हम केदार, नागार्जुन, त्रिलोचन, मलय, विजेन्द्र, मानबहादुर सिंह, भगवत रावत शम्भु बादल, की परम्परा कहते हैं। जिस लोक में रहते हैं उसी लोक से कविता निचोड़ते हैं इनके लिए लोक आरामगाह और शरण स्थली नहीं है बल्कि रचनात्मकता का हेतु है। दूसरी बात यह कि इन कवियों को पहचानते और पढ़ते सभी हैं मगर शातिराना ढंग से चुप रहते हैं इन कवियों में नासिर अहमद सिकन्दर, विजय सिंह, महेन्द्र नेह, सन्तोष चतुर्वेदी, सतीश कुमार सिंह, बृजेश नीरज, गणेश गनी, सिद्धार्थ वल्लभ, प्रेमनन्दन, कमलेश्वर साहू, किशनलाल, राजकिशोर राजन, शहंशाह आलम, जीतेन्द्र कुमार, राज्य वर्धन, गायत्री प्रियदर्शिनी, सीमा संगसार, शम्भु यादव, संवेदना रावत आदि हैं। और दूसरे कवि वह हैं जो मीडिया एवं तकनीकी की कोख से उत्पन्न हुए, इनमें अधिकतर महानगरीय अभिजात्य परिवारों या दिल्ली की जोड़तोड़ वादी पुरस्कारवादी समझौतावादी तत्वों से जुड़े हैं। इनमें महानगरीय अभिजात्य कवियों को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है मानो किसी चकमें में उलझकर अचानक कविता में हाथ आजमाने के लिए उतर आए हों। न तो भाषा है। न संवेदन। न अनुभूति। न विचार। मात्र दोहराव है और चमत्कार है और कविता की शर्तों का तिरस्कार है। इन लोगों का आगमन फेसबुक के आभासी लोक से हुआ, वहीं सम्बन्ध बने और कविता की राजनीति करने वाले महानगरीय आलोचकों, मठों, पीठों की कृपा अर्जित की महानगरीय केन्द्रियता के नायक बनने का सुअवसर प्राप्त हुआ। और आज आलम यह है दिल्ली के मठ और पीठ इन्हें समकाल में गिनाने की साजिश अपनी पत्रिकाओं, आयोजनों व पुरस्कारों के माध्यम से करते रहते हैं। इन लेखकों और कवियों को सत्ता और पूँजी की कृपा से संचालित संस्थाओं का आशीर्वाद प्राप्त है।
अस्तु इन कवियों को कवि नहीं बल्कि सत्ता और पूँजी द्वारा गढ़ी गयी मूर्तियाँ कहना चाहिए इन्हीं की कृपा से आज साहित्य में प्रतिक्रियावादी तत्वों की भरमार है और आमजन साहित्य से दूर होता जा रहा। 
सत्ता यही चाहती है वह आमजन को साहित्य व संस्कृति से विस्थापित कर अपने अनुरूप चिन्तन विहीन चेतना विहीन वोटर तैयार करना चाहती है और इस काम को बाकायदा रणनीति के तहत किया गया ताकि सत्ता और पूँजी के खतरनाक मंसूबे सहजता से पूरे हो सकें
हमारी हिन्दी एकमात्र ऐसी भाषा है जिसमें लेखकों की पहचान उसके वर्ग से जुड़ जाती है। जब से आलोचना में अकादमिक हस्तक्षेप बढ़ा और सत्ता और कॉरपोरेट पूँजी का साहित्य में निवेश बढ़ा तब से लेखकों में भी वर्गीय विभेद बढ़े। सत्ता और कॉरपोरेट जगत ने बड़े अधिकारियों और प्रोफेसरों, व्यापारियों, पूँजीपति लेखकों को अपने साथ मिलाकर एक विशाल "अभिजात्य लेखक तन्त्र" का निर्माण किया। इन लेखकों को पूँजी और विज्ञापन की कमी नहीं थी लिहाजा खूब पत्रिकाएँ निकाली गयीं और बड़े-बड़े साहित्यिक उत्सवों की शुरुआत हुई। साहित्य में केन्द्रीयकरण बढ़ा जिस शहर में विश्वविद्यालय थे, साहित्य अकादमी थी, ज्ञानपीठ थी जहाँ कॉरपोरेट प्रकाशक रहते पूँजीपति घरानों के अखबार और टीवी चैनल रहे थे वही "महानगर" साहित्य का केन्द्र हो गया और उन संस्थाओं से जुड़े लोग "लेखक" हो गये। सत्ता यही चाहती है वह आमजन को साहित्य व संस्कृति से विस्थापित कर अपने अनुरूप चिन्तन विहीन चेतना विहीन वोटर तैयार करना चाहती है और इस काम को बाकायदा रणनीति के तहत किया गया ताकि सत्ता और पूँजी के खतरनाक मंसूबे सहजता से पूरे हो सकें। इस काम को प्रमाणिकता प्रदान करने में विश्वविद्यालयी प्रोफेसरी से बने आलोचकों का बड़ा हाथ रहा। इन आलोचकों ने अपने वर्ग के लेखकों का चुनाव किया और उन्हीं को कवि के रूप में मान्यता प्रदत्त की। आज आलम यह है कि एक छोटे से कमरे में कविता पाठ हो जाता है विमर्श जिसे आन्दोलन हो जाना चाहिए था एक भाषण में सीमित हो कर रह गये हैं इस आलेख में लोकधर्मी कविता के विरुद्ध सक्रिय सत्ता और पूँजी द्वारा प्रस्तावित "महानगरीय कुलीन लेखक तन्त्र" की समीक्षा करेंगे। ऐसा लेखक तन्त्र जिसे न तो कविता की शर्तों से मतलब है न ही परम्परा और इतिहास का बोध है। सब अपनी अपनी पोजीशन का फायदा उठाकर सत्ता अनुदान और कॉरपोरेट पैसे के बूते चलने वाली साहित्यिक गतिविधियों का हिस्सा बने हुए हैं।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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