और अबकी जो गिरा...
लिखते जाओ इंदिरा दाँगी...लिखते जाओ. प्रिय लेखक यों ही नहीं बनता; पाठक का प्रिय बन पाने के लिए वह अथाह मशक्कत से रचना कर्म का धर्म निभाता है, उसका शुक्रिया पाठक उसे 'प्रिय लेखक' बना कर देता है. और 'लीप सेकेण्ड' कहानी पढ़ने के बाद आप भी कह-ही दीजियेगा, जो इंदिरा आपकी भी प्रिय कथाकार हों... भरत एस तिवारी (संपादक, शब्दांकन)
लीप सेकेण्ड
Saanp Seedi ka game — Story Indira Dangi - "Leap Second"
— इंदिरा दाँगी
खच्च् !! —मौत के अपराजेय जबड़े ने कौर भरा; अबकी एक आकर्षक युवा ज़िंदगी निवाला है।
इंजीनियर गुलाल अपनी हालिया शुरू सॉफ्टवेयर कंपनी के दफ़्तर में रात तीन बजे तक काम करता रहा था एक बड़े सरकारी प्रोजेक्ट के लिए उसने इतनी तैयारी की है कि किसी दूसरी कम्पनी को ये प्रोजेक्ट मिल पाना कम-से-कम उसे तो मुमकिन नहीं लगता।
“इस प्रोजेक्ट के बाद कम्पनी का नाम एकदम से चमक जायेगा। मैं इतनी-इतनी मेहनत करूँगा इस पर कि लोग हमारे काम की मिसाल देंगे; हमारी कम्पनी को ढूँढते फिरेंगे काम देने के लिए। ...अगले तीन सालों में बैंक लोन चुकता कर दूँगा –मुझे करना ही है! फिर स्टाफ़ बढ़ा दूँगा, फिर शहर की प्राइम लोकेशन पर ख़ुद का ऑफिस... नहीं, ये सब बाद में; पहले बिनी की पढ़ाई, उसकी शादी और इससे भी पहले पापा का ऑपरेशन –करवाना ही है जितना जल्दी हो सके। ...ये प्रोजेक्ट मुझे चाहिए ही!”
यही और ऐसा ही सब सोचते हुए वो घर के लिए निकलने से पहले एक अंतिम नज़र डाल रहा था, स्टाफ़ के सब कंप्यूटर्स बंद तो हैं ? टॉयलेट की बत्ती बंद है ? कहीं नल तो खुला नहीं रह गया ?
दो कमरों में संचालित कंपनी। छह कंप्यूटर्स-कर्मचारी। कोने में प्लाई-लकड़ी की आधी आड़ से बना उसका केबिन : टेबल-कुर्सी-कंप्यूटर भर। पीछे दीवार पर टँगी अब्दुल कलाम की फ़्रेमशुदा तस्वीर। तस्वीर के कोने पर चस्पी एक स्लिप –उसकी हैंडराइटिंग में दर्ज़ दो पंक्तियाँ,
अब्दुल कलाम साहब कहते हैं –एक बड़ाऽऽ ड्रीम पालिए!
घर को निकलने से पहले ये तस्वीर, ये पंक्तियाँ उसके ऑफिस रूटीन का अंतिम क्षण। दिन में कभी नज़र पड़ जाए तो एक सेकंड तो देखेगा ही। स्टाफ़ हंसता है, “सर की वर्किंग का लीप सेकंड!”
लीप सेकंड : जीवन का, जीवन से ऊपर एक क्षण। वो हंसकर सोचता है, “यही लीप सेकंड मुझे एक दिन सेलिब्रिटी बनायेगा; देखोगे तुम सब!”
ज़मीन के पच्चीस लीप सेकंड्स जैसा पच्चीस साल का गुलाल !
“अरे! खिड़की खुली रह गई !”
किसी शरारती बच्चे के जैसा तेज़ हवा का एक झोंका फुहार कमरे में उछालकर भाग गया। यहाँ-वहाँ कंप्यूटर्स पर बारिश की नन्ही बूँदें बदमाशी से मुस्कुराने लगीं।
खिड़की बंद करने को वो जैसे ही पास आया, एक दूसरी फुहार की लहर उसके कंधों-शर्ट-चेहरे-बालों को भिगो गई। बाहर रात कितनी ख़ूबसूरत है, किसी बुर्कापोश नाज़नीन के जैसी! जब सब ज़रूरी ज़िम्मेदारियाँ पूरी हो जायेंगी, वो शादी करेगा –फिर ऐसी ही किसी भीगी रात में, ऐसे ही किसी वक़्त उसके सेलफ़ोन पर घर से बार-बार कॉल्स आ रहे होंगे। उसके घर लौटने की बेसब्र प्रतीक्षा! हर घंटे एक कॉल! हर कॉल में डपट भरी फ़िक्र-हुक्म-मनुहार! ...वो अधखुली छोटी में गुलाबी रिबन टाँके उसके इंतजार में जागती होगी! –बदन में नींदवाला मीठा आलस उतरने लगा। हैंडसम इंजीनियर ने खिड़की बंद करने के लिए हाथ बाहर निकाला।
खच्च् !! —मौत के अपराजेय जबड़े ने कौर भरा; अबकी एक आकर्षक-युवा ज़िंदगी निवाला है। उँगली में तेज़ कुछ चुभा है। ततैया के डंक-सा दर्द ? ...नहीं, करंट के नंगे तार-सा !!
एक निमिष सेकंड में उसने हाथ भीतर खींच लिया
और और
उँगली की पोर में गपे अपने दाँतों के साथ, हवा में लहराता हुआ साँप भीतर खिंचा चला आया -रसेल वाइपर ??
दिल तेज़ नहीं धड़का, जैसे रुक गया —धक से ! उसकी आँखों में पल को अँधेरा-सा झिप आया।
“नहीं गुलाल!” –बॉडी के सेल्फ़ डिफेंस मेकेनिज्म ने कहा। साँप को मुट्टी ने भींच लिया। दूसरे हाथ ने टेबल पर रखा सीडी-बॉक्स उलट दिया,
खड् खड् खड् ड्
सेकंड्स में ये घटित हुआ। सब सीडी फ़र्श पर और मुट्टी में छटपटाता साँप पारदर्शी डिब्बे में बंद। ड्रायर में से फ़ाइल बाँधने वाला सुतली-धागा निकाला और उँगली को दम भर कसके बाँध लिया। ज़हर को फैलने से रोकना होगा –तुरंत ! पेपर कटिंग वाला चाकू हाथ में है और वो सर्पदंश वाली पोर को लगभग छील रहा है। आँखों से आँसू छलक पड़े हैं, मुँह से चीख़; ये बहुत कष्टसाध्य है –अपनी खाल ख़ुद काटना, अपना माँस गोदकर निकालना, दबाकर अपना ही ख़ून बहाना –पर जान पर बन आये तो आदमी क्या नहीं करता !
कंप्यूटर ऑन करने और इंटरनेट के सर्च पन्नों पर जाने में जो मुमकिन न्यूनतम समय लग सकता था, उससे भी कम लिया उसने।
सर्च इंजन — येलो पेजेज — एंटी वेनम — भोपाल के वे अस्पताल जहाँ इलाज उपलब्ध। पहला नाम आया —पास के सरकारी मेडिकल कॉलेज-अस्पताल का।
“हट वे !” — उस दारुण कष्ट स्थिति में भी उसने ख़ुद से कहा।
पेट दर्द-पेचिश और बात है, पर सवाल अगर जान का हो –हिन्दुस्तान के सरकारी अस्पतालों में भला कौन जाना चाहेगा सिवाय विवश-अधमरे गरीबों के ?
अगला नाम है, नर्मदा हॉस्पिटल –नियर हबीबगंज रेल्वे स्टेशन।
हबीबगंज रेल्वे स्टेशन ??
लालघाटी से हबीबगंज रेल्वे स्टेशन की दूरी –क्या पन्द्रह किलोमीटर ? नहीं, शायद बीस! ...और समय कितना शेष है ??
वो दौड़ता हुआ चार मंज़िल सीढ़ियाँ उतरा।
क्षण भर को रुककर इधर-उधर संभावित इंसानी मदद के लिए दृष्टि भटकी –लालघाटी चौराहे की सड़कें सनाका खाई हुई-सीं, चुप, सूनी, वीरान।
कोई नहीं ?? –उसके कितने सारे मित्र हैं –फेसबुक के सैकड़ों वर्चुअल फ्रेंड्स से लेकर ज़िंदगी के पुराने कॉलेजी-स्कूली यारों तक -दोस्त ही दोस्त! फिर कितने नाते-रिश्तेदार, परिचित, आत्मीयजन, कामकाज-संबंधी, और परिवार जो ज़िन्दगी है ...और इन पलों में जबकि मौत उसके आसपास है, साथ कोई नहीं ...दूर-दूर तक मदद कोई नहीं!
—प्रेजेंस ऑव माइंड गुलाल !
उसकी सेकेण्ड हैण्ड कार एक बार में कब स्टार्ट होती है?
कि र्र र्र — पसीना छूट गया उसका।
कि र्र र्र — मन रुआँसा होने को आया।
कि र्र र्र ड् ड् — एक उम्मीद
कि र्र र्र ड्अ ड्अ ड्अ ड्अ र्ड्रर्र ऽ
होहअ ! स्टार्ट हो गई!
साँपवाले बॉक्स को डेसबोर्ड पर रखा और फ़ोर्थ गियर की स्पीड साधती कार सड़क पर दौड़ती चली गई। ...रात के स्याह बुर्के में लिपटी लालघाटी अपने नौजवान को जाता देख रही है। पानी गिर रहा है — टप! टप!
क्या वो लौट पायेगा ?
रसेल वाइपर ही है !
बिनी के साथ देखा एक टी.वी. शो याद आ रहा है। दुनिया के सबसे ज़हरीले हत्यारों में से एक —रसेल वाइपर! शिकार को मरने में लगता है फ़क़त एक घण्टा। पहले ख़ून ख़राब होगा फिर साँस लेने में तकलीफ़ फिर शायद ब्रेन हेमरेज़़ या शायद दिल का काम तमाम!
मोहलत फ़क़त एक घण्टा !
उसने सेलफ़ोन में घड़ी देखी; पन्द्रह मिनिट की समय-वीथिका पार! मौत बस पैंतालीस क़दम पीछे है। कार की रफ़्तार तेज़, और तेज़; बारिश भी।
फ्रंट ग्लास पर से पानी हटाते रहने वाला वाइपर अटक गया। झड़ी-अपारदर्शिता से भरमाकर कहीं एक्सीडेंट ही न हो जाये! उसने डेसबोर्ड के भीतर से —इसी ज़रूरत के लिए रखी— सिगरेट की डिब्बी निकाली और दो-तीन सिगरेट्स तोड़-मरोड़कर उनकी तम्बाखू फ्रंट ग्लास पर बाहरी तरफ़ से घिस दी। बरसते पानी का दृश्य शीशे की तरह साफ़ हो गया।
जबकि उसकी एकाग्रता, गति, समय और सड़क के बीच भटक रही है; चुप दिमाग़ से निकल-निकलकर एक-दो-तीन हमशक्ल इर्द-गिर्द आ बैठे हैं। एक बगल की पैसेंजर सीट पर, दो पीछे। वो जैसे सुन रहा है, वे एक-एक कर साँप से मुख़ातिब हैं। पैसेंजर सीट वाला गुलाल रसेल वाइपर नाग से कह रहा है,
‘‘ “यू नो व्हॉट, मैंने तुम्हें कैसे पहचाना? बिनी के साथ एक टी.वी. शो देखा था — ख़ास साँपों पर ही। वैसे मैं टी.वी. कभी नहीं देखता। पापा ज़रूर लगे रहते हैं चैनल-दर-चैनल, कभी न्यूज़ कभी प्रवचन। बिनी कभी उनसे रिमोट लेकर जानवरों वाला कोई चैनल लगा लेती है। कहती है, हर वक़्त इंसान-इंसान देखकर ऊब जाती हूँ। उसके इस शौक पर मैं ही सबसे ज़्यादा हँसता था, बिनी तुझे इंसानों की नहीं, जानवरों की डॉक्टर बनना चाहिए —ढोर चिकित्सक! हा हा हा!”
हमशक्ल बड़ी दारुण तरह से हँसा। आँखों में आँसू हैं। बॉक्स में फन पटकते कुद्र साँप को वो उदास आवाज़ में बता रहा है,
‘‘“बिनी मेरी छोटी बहन है। मुझसे चार साल छोटी। एम.बी.बी.एस. कर रही है, एजुकेशन लोन पर। मैंने उससे कहा है, वो ज़रा चिन्ता न करे लोन की। बस, पढ़े-लिखे और ख़ुश रहे। उसकी सब चिन्ताओं को करने के लिए मैं हूँ ना उसका बड़ा भाई! बस, एक बार मेरा काम जम जाये; एम.बी.बी.एस. के बाद उसे एम.डी. करवानी है, फिर किसी अच्छे डॉक्टर लड़के से उसकी शादी करनी है। एक ही तो बहन है मेरी; वो धूम से शादी करूँगा मैं उसकी कि दुनिया देखती..., तूने ग़लत काट लिया यार!” — उसका गला रुंध गया और वो साइड ग्लास के पार देखने लगा। डेसबोर्ड पर रखा साँप कुंडली जमा रहा है।
रॉयल मार्केट-इमामी गेट के बाद कमला पार्क वाली सड़क भी बीत गई है, ये पॉलिटेक्निक चौराहा भी; और कितने अमूल्य मिनिट ख़र्च हो गए हैं ज़िन्दगी के? ...फिर घड़ी देखी उसने —बारह!
—हिम्मत रखो गुलाल!
वो सोच रहा है, अगर समय रहते हॉस्पिटल तक नहीं पहुँच पाया तो अख़बार में एक फ़ोटो छपेगी —कार की ड्राइविंग सीट पर युवक मृत पाया गया। उसका पूरा शरीर नीला पड़ चुका था।
ठंडा नीला रक्त ? —नहीं! अभी धमनियों में गर्म ख़ून बाक़ी है। उसका वश चले तो कार को उड़ाने लगे।
अब पीछे की सीट पर दाँये बैठा गुलाल साँप को सुना रहा है,
‘‘“तुमने मेरे पापा को नहीं देखा। देखा होता तो ज़रूर मुझे बख़्श देते। ...दस साल पहले उनकी बायपास सर्जरी हुई थी। अब फिर से तकलीफ़ है। डॉक्टर्स कहते हैं, नसों में ब्लाकेज़ होने लगा है; फिर से ऑपरेशन करना पड़ेगा। तब वे और आठ-दस साल जी लेंगे। पापा ऑपरेशन के लिए मना कर रहे हैं। कहते हैं, जो थोड़ा कुछ है घर-प्लॉट, वो तुम बच्चों के भविष्य के लिए है, उसे मैं ख़ुद पर हर्गिज़ नहीं..., इसी साल उनका ऑपरेशन करवाना है। मैं तो सोच रहा था, ये प्रोजेक्ट मिल जाये तो अगले ही महीने पापा को देहली ले जाऊँ; लेकिन अगर आज मैं मर गया, तब ऑपरेशन करवाने-न-करवाने का सवाल ही नहीं रहेगा —वे तो मेरी मौत की ख़बर सुनकर ही मर जायेंगे!”
ये हमशक्ल भी चुप होकर बाहर देखने लगा और ड्राइविंग करते गुलाल की मुट्ठियाँ स्टेयरिंग पर भिंच गयीं।
न्यू मार्केट को रफ़्तार से पीछे छोड़ती गाड़ी लिंक रोड नंबर एक पर है; पर गति यहाँ से कम तेज़ हो गई है। कुछ निढाल होने जैसा महसूस होने लगा है धमनियों में। सिर में एक अजीब वज़न। समय ? —समय ही तो ज़िन्दगी है; और ज़िन्दगी अभी हाथ में है ...क्या समय भी! ये ख़र्च हो गए और आठ मिनिट।
— गुलाल! ऐ गुलाल!! सोना नहीं है !!
ड्राइविंग करते अर्धचेतन दिमाग़ के सामने कुछ धुंधला-सा, सड़क के दृश्य में आ मिला है:
स्कूल के यारों के साथ बिताये परिश्रम-प्रतिद्वंदिता से भरे प्यारे दिन, ...कॉलेज के ख़ूबसूरत साल, ...वो क्लासमेट जो किसी और की प्रेमिका थी, अपने बालों की अधखुली चोटी में सदा ही एक गुलाबी रिबन टाँकती थी। कैम्पस सिलेक्शन के बाद क्या कहा था उसने ‘फिर नहीं मिलोगे गुलाल’ ? ... ‘खच्च’ —उसने हाथ खींचा है और हवा में लहराता साँप भीतर खिंचा चला आया है!
अब पीछे बाँये बैठा गुलाल साँप के साथ अपना मन बाँट रहा है,
‘“बचपन की एक घटना सुनाऊँ तुम्हें; क्या पता यही मेरा आख़िरी वक़्त हो! इस आख़िरी वक़्त में सिर्फ़ मम्मी को याद करना चाहता हूँ। मैं तुम्हें तब की घटना सुना रहा हूँ जब मैं पाँच-साढ़े पाँच साल का रहा होऊँगा। हम सब बच्चे कॉलोनी की सड़क पर क्रिकेट खेल रहे थे। मैं बॉल लेने दौड़ा, तभी सामने से आती एक तेज़ रफ़्तार मोटरसाइकिल मुझे टक्कर मारती हुई चली गई। एकतरफ़ से मेरी बॉडी छिल गई थी। पड़ोस वाली आँटी ने मुझे दवा लगाई, पट्टी बाँधी और घर छोड़ने आईं; पर घर पर क्या देखते हैं कि मम्मी बाउन्ड्री में बेहोश पड़ी हैं और पास बैठी नन्ही-सी बिनी रो रही है। किसी बच्चे ने उनसे झूठ ही कह दिया था कि एक्सीडेंट में आपका गुलाल...”
उसका गला भर आया। आँखों से अविरल आँसू बह चले,
‘‘“...तब मुझे तो नहीं, हाँ मम्मी को ज़रूर हॉस्पिटल ले जाना पड़ा था। उन्हें इतना गहरा सदमा लगा था कि कोमा में जाते-जाते बचीं। पूरा डेढ़ महीना लग गया था उन्हें नार्मल होने में। तब मैं पाँच साल का ज़रा-सा बच्चा था, अब पच्चीस साल का जवान बेटा हूँ; सोच, उन पर क्या बीतेगी? ...मेरी माँ बहुत सीधी है यार!”
बाँये बैठा हमशक्ल भी बाहर के शून्य में ताकने लगा। ड्राइविंग करते गुलाल के सीने में दर्द-सा हुआ है।
‘‘“सुनो तुम सब...” —उसने नज़र भरकर अपने तीनों हम-चेहरों को देखना चाहा।
—कहाँ ?
—कौन ?
कार में सिर्फ़ दो सच हैं — ड्राइविंग करता गुलाल और डेसबोर्ड पर कुंडली जमाये बैठा साँप।
एम.पी. नगर चौराहे से उसने राइट टर्न लिया ही है कि ...कि ये बंद पड़ गई कार!
— कि र्र र्र
— कि र्र र्र
— कि र्र र्र
— कि र्र र्र
नहीं, अब इतना वक़्त नहीं बचा है! शायद बीस ही मिनिट बचे होंगे। पीछे आती मौत फ़र्लांग भर पीछे है।
बॉक्स उठाकर उसने सड़क पर दौड़ लगा दी।
बेइंतहा बारिश में साफ़-साफ़ कुछ सूझता नहीं। वो शायद सुबह के अख़बार ले जाने वाली जीप है —शुरूआती धीमी गति जैसे लोडिंग ऑटो। थोड़ा और तेज़ दौडूँगा तो पकड़ लूँगा।
फ़ुटगार्ड पर चढ़कर बैकडोर से लटक गया वो। हाथ की पकड़ छूटने-छूटने को हो रही है। सीने में जकड़न महसूस होने लगी है, जैसे कोई अदृश्य अजगर अपने शिकार को जकड़कर उसकी साँस तोड़ रहा हो ...अजगर नहीं रसेल वाइपर !
वो ख़ुद को लगातार हिम्मत बँधाये है,
‘‘“बस, हॉस्पिटल आने ही वाला है!”
और हॉस्पिटल आने ही वाला है। ये बाएं हबीबगंज रेल्वे स्टेशन, और वो दिखने लगा है ऊँचा रोशन बोर्ड —नर्मदा हॉस्पिटल !
अरे ! पर अख़बार वाली जीप तो रेल्वे स्टेशन की तरफ़ मुड़ गई! धीमी होती जीप उसने छोड़ी और हॉस्पिटल की तरफ़ जाने वाले रास्ते पर दौड़ लगा दी।
पीछे छूट गई सेलफ़ोन की घड़ी कार में चल रही होगी; पता नहीं कितना और समय है ज़िंदगी के हाथ में ? समय का आंकलन अब सिर्फ़ साँसें हैं। तेज़ और तेज़ होती साँसें! पीछे आती मौत कितने पास आ गई है; अभी पंजा बढ़ायेगी और दबोच लेगी गुलाल को ...मम्मी के गुलाल को, ...पापा के गुलाल को, ...बिनी के पिता-समान बड़े भाई गुलाल को,
“तू ज़रा चिंता मत कर। बस पढ़-लिख और ख़ुश रह। सब चिंतायें करने के लिए मैं हूँ ना तेरा बड़ा भाई !”
क़दम लड़खड़ाने लगे हैं| साँस खींचने में बहुत तकलीफ़, नीला पड़ता जा रहा शरीर।
इस तिराहे पर दाएँ मुड़ना है –वो रहा हॉस्पिटल ! दौड़ते क़दम मुड़ने से पहले ही ताक़त खो बैठे। वो गिर पड़ा। साँप वाला बॉक्स सड़क पर दूर लुढ़क गया।
तिराहे पर बेसुध-बेहोश जैसा औंधा पड़ा है। पीछे दूर किसी नीली सड़क से कुछ चेहरे उसे पुकारते हैं :
अधखुली चोटी में गुलाबी रिबिन वाली एक लड़की उदास खड़ी है,
—फिर नहीं मिलोगे गुलाल ?
पापा सीने में दर्द से छटपटा रहे हैं
—बेटा !
रोती-परेशान उसकी बहन
—भईयाजी !
और मम्मी, जो सबसे ज़्यादा प्यार उसी से करती हैं
—मेरा बच्चा !!
लीप सेकंड : जीवन का, जीवन से ऊपर एक क्षण। ...फिर आँखें खोलकर सिर उठाने की हिम्मत जुटाई गुलाल ने।
“मैं मर नहीं सकता अभी ! मुझ पर बहुत ज़िम्मेदारियाँ हैं!”
लड़खड़ाता उठा। साँप वाला बॉक्स उठाया और फिर दौड़ा –शायद बिना ही साँसों के।
और अबकी जो गिरा, उसकी साँस लगभग बंद हो चुकी है और पूरा शरीर नीला पड़ गया है।
...और ये हॉस्पिटल की सीढ़ियाँ हैं।
जब वह दुरुस्त होशो-हवास में लौटा है; मम्मी-पापा, बिनी सब आसपास हैं। उसे लगा, जैसे बहुत दिनों से बहुत-बहुत परेशान ये तीन नम चेहरे अब कहीं जाकर मुस्कुरा पाये हैं। उसकी कलाई में सुई लगी है, ड्रिप चढ़ रही है। जूनियर डॉक्टर उसकी बाँह पर पट्टा कसते हुए ब्लडप्रेशर की सामान्यता जाँच रहा है।
“सब बढ़िया है । अभी नर्स को भेजता हूँ, आपकी ड्रिप हटानी है। अब आप एकदम स्वस्थ हैं।”
“वह रसेल वाइपर ...?”
“अपने उस दोस्त की फ़िक्र मत कीजिए। उसे हमने वनविहार नेशनल पार्क भेज दिया है।”
डॉक्टर ने मुस्कुराकर कहा और कमरे से बाहर निकल गया ।
— इंदिरा दाँगी
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