बलात्कार के ख़िलाफ़ आवाज़ में सहूलियत का एजेंडा — 'देह ही देश' पर अंकिता जैन


बलात्कार के ख़िलाफ़ आवाज़ में सहूलियत का एजेंडा — 'देह ही देश' पर अंकिता जैन

देह व्यापार हो या बलात्कार, हम हायतौबा भी अपनी सहूलियत और अपने एजेंडा के हिसाब से मचाते हैं। मेरे शहर में कोई बलात्कार हुआ तो मैं दुःखी हो जाऊंगी आपके शहर में कोई हुआ तो आप। इस सत्य को जानते हुए अनदेखी कर जाते हैं कि भारत में हर रोज़ बलात्कार हो रहे हैं। — अंकिता जैन
देह ही देश नाम से जेएनयू प्रो. गरिमा श्रीवास्तव ने अपने क्रोएशिया-प्रवास की डायरी के माध्यम से समाज की उस बंद आँख को खोलने की कोशिश की है जो युद्ध में स्त्री को इन्सान नहीं योनि माना जाना देखने ही नहीं देती. अंकिता जैन ने इस चर्चित किताब के बहुत गहरे पाठ के बाद जो बातें कही हैं उन्हें पढ़िए, यदि एक स्त्री के लिए यह किताब ऐसे ज़हरीले सचों को सामने रख सकती है तो पुरुष के लिए इसका पाठ कैसा होगा, अंदाज़ा लगाना मुश्किल है. शुक्रिया अंकिता जैन.  — भरत एस तिवारी/ संपादक शब्दांकन    
 

बलात्कार के ख़िलाफ़ आवाज़ में सहूलियत का एजेंडा

'देह ही देश' पर अंकिता जैन 

"देह ही देश" पढ़ना शुरू करते ही यशपाल की झूठा सच का एक दृश्य मेरी आँखों के सामने झूलने लगा। कहानी की मुख्य किरदार तारा जब बमुश्किल हिंदुस्तान वापस लौटती है तो बॉर्डर पार करते ही उसे जश्न मनाते कुछ लोग नज़र आते हैं। वे लोग एक स्त्री को लूट लेने का, मार डालने का और किसी का सब कुछ ख़त्म कर देने का जश्न मना रहे थे। यकीनन वे हिन्दू थे और उनके हाथ में बाँस पर जो नग्न मरा हुआ "स्त्री" लोथड़ा टाँगों के बीच से फंसाया गया था वह एक मुस्लिम का था। यही हाल पाकिस्तान में मुसलमानों द्वारा हिन्दू स्त्रियों का वह देख-भोगकर आई थी। उसके साथ-साथ जिन औरतों का वहाँ वर्णन है वह काफ़ी दिनों तक मेरे लिए दुःस्वप्न बना रहा। मुझे डरावने सपने आते। हिंदुस्तान पाकिस्तान के बँटवारे में कितनी स्त्रियों की बलि दी गई इसका हिसाब शायद ही अब तक किसी ने लगाया हो। मज़हब और राजनीतिक बँटवारे में सज़ा किसको मिली?

देह ही देश पढ़ते हुए मुझे बचपन की एक घटना फिर से टीस की तरफ़ चुभने लगी है। यह 1997 की बात है शायद। हम नए-नए गुना में शिफ़्ट हुए थे। मैं 10 साल की थी। एक दूधवाले से दूध बांधा। अक्सर मैं जाया करती। घर से बहुत दूर नहीं था। बस कुछ ही गलियों का फांसला था। रास्ते में एक औरत मिलती। नग्न, सिर्फ एक पतली-सी शर्ट पहने हुए, जिसके आगे के बटन खुले रहते और उसकी छातियाँ दिखतीं। उसके शरीर पर वह शर्ट सिर्फ नाम के लिए होती। उसके पैर में मवेशी बाँधने वाली साँकल बंधी होती जिससे छूटकर वह कई बार सड़क पर भाग आती और किसी के भी चबूतरे पर बैठकर चीखती-चिल्लाती-रोती। अपनी योनि और छातियों को पीटती और फिर रोती। लोग कहते वह पागल थी। पर मुझे बहुत सालों बाद इस आशंका ने घेर लिया कि हो ना हो वह किसी यौनशोषण की शिकार थी। बाईस साल बीत चुके हैं लेकिन वह आज भी मेरी स्मृति में यूँ कौंधती है जैसी कल ही की बात हो।

वह मुझे कभी इस किताब की कल्याणी लगती जिसके गाँव की लड़कियों को देह व्यापार ही पेट की भूख मिटाने का आसरा है। और कभी सेम्का, ऐंजिलिना, एमिना या क्रोएशिया की वे तमाम स्त्रियाँ जिन्होंने इसी दुनिया में नरक का दुःख भोगा और जिनके लिए स्त्री पर्याय में जन्म लेना गुनाह हो गया।

कुछ साल पहले एक ख़बर देखी। जिसमें एक स्त्री का बलात्कार किया जाता है और उसी के सामने उसके नन्हे बच्चे को गोद से छीनकर सिर्फ़ इसलिए मार दिया जाता है क्योंकि वह बलात्कार में बाधा लग रहा था। मैं उस रात बहुत रोई। जाने क्यों मेरा मन इतना विचलित हो गया था कि मैं डरने लगी थी अकेले अपने नन्हे बच्चे के साथ जाने में। किसी बच्चे को उसकी माँ के सामने मार डालने की पीड़ा क्या होती होगी इसकी कल्पना करने भर से रूह कांप जाती है। ऐसी एक घटना ने मुझे हिलाकर रख दिया था। क्रोएशिया में ऐसी अनेकों घटनाएँ हुईं।

बोजैक जिनकी आठ वर्षीय बेटी और पत्नी के साथ सैनिकों ने इस हद तक क्रूरता दिखाई कि बेटी रक्तरंजित हो तड़पती रही और फिर भी सैनिक उसकी देह से खेलते रहे। वह मर गई और पत्नी कुछ समय बाद दिल की बीमारी और सदमे से मर गई। एमिना जिन्हें युद्ध के उपहार के रूप में गहरी शारिरिक और मानसिक पीड़ा के बाद दो जुड़वां बच्चों का गर्भ मिला। एक परिवार से दादी, चार बहुएँ और पाँच पोतियाँ सभी सर्ब सैनिकों के रेप का भाजन बनीं। पुरुषों और बच्चों को ज़िंदा जला दिया गया। परिवार की मंझली बहू ही एकमात्र पोती के साथ अब तक जीवित है। ऐसे ना जाने कितने मामले जिनका वर्णन इस किताब में पढ़ते हुए मेरी रूह रोती और शरीर थरथरा जाता।

ज़ाग्रेब और क्रोएशिया ने अपनी भूमि को पाने के लिए युद्ध किए और युद्ध के हमले का भाजन भी बने। "युद्ध में सर्बों ने क्रोआतियों को मारा, उनके घर जला दिए, बदले में क्रोआतियों ने पूरे क्रोएशिया को सर्बविहीन करने की मुहिम छेड़ दी।"

"बोस्निया-हर्ज़ेगोविना, क्रोएशिया के खिलाफ़ युद्ध में सर्बिया ने नागरिक और सैन्य कैदियों के कुल 480 कैम्प लगाए थे। क्रोएशियन और बोस्निया नागरिकों को डराने के लिए उनकी स्त्रियों से बलात्कार किए गए। बोस्निया और हर्ज़ेगोविना पर जब तक सर्बिया का कब्ज़ा रहा, किसी उम्र की स्त्री ऐसी नहीं बची जिसका यौन शोषण या बलात्कार न किया गया हो।"

इस पूरे युध्द काल में स्त्रियों को मानव का दर्जा नहीं मिल पाया। वे बस योनि को ढोने वाली एक ऐसी वस्तु मानी गईं जिनकी इज़्ज़त लूटने से युद्ध की न सिर्फ मुख्य रणनीति तैयार होती बल्कि सैनिकों को भी ख़ुश रखा जाता। सैनिक भी मानसिकता से पूर्णतः पंगु बना दिए गए थे। वे स्त्रियों को तीन हिस्सों में बाँटते। अतिवृद्ध जिन्हें खाना पकाने जैसे काम सौंपे जाते, कमसिन, सुंदर या छोटे बच्चों की माताएँ जिन्हें भोगा और मारा जाता और जिनकी कोख में अपना वीर्य स्थापित कर देना ही उनका एक मात्र उद्देश्य होता और तीसरी गर्भवती जिनके गर्भ को गिराने के लिए पहले उन्हें शारीरिक प्रताड़नाएँ दी जातीं, भोगा जाता और फिर उनके गर्भ में अपने दंभ की पुनर्स्थापना की जाती है।

ऐसा नहीं था कि सिर्फ स्त्रियाँ बल्कि पुरुष और बच्चों को भी ये दुःख भोगने पड़े लेकिन उनकी संख्या बहुत कम थी।

इस पूरे दुर्घटना-क्रम में जो बच गईं वे अब सामान्य जीवन जीने की कोशिश कर रही हैं लेकिन यह कितना संभव होगा इसका अनुमान मात्र ही हम लगा सकते हैं। हाँ यांद्रका के बारे में पढ़ते हुए मुझे कुछ सुकून मिला था, जो मानती हैं कि उन्होंने जो भोगा उससे उनका आत्मसम्मान नहीं गया। वे बलात्कारी की आँखों में आँखें डाल देखतीं कि उसे अहसास हो वह क्या कर रहा है। उनका मानना है कि जो हुआ वह शरीर के साथ और अब मैं आत्मा को पुनर्जीवित कर नए साहस के साथ जीवन जीने की कोशिश कर रही हूँ। कुछ हरवातिनेक जैसी भाग्यशाली भी रहीं जिनके पति ने ब्लात्कार के बाद उन्हें छोड़ा नहीं बल्कि पीड़ा को कम करने में हर संभव सहयोग दिया। पीड़ा कम हुई यह कह पाना कठिन है।

इस युद्ध के बाद जो जीवित बच गईं उनमें से कइयों को देह व्यापार में घुसना पड़ा। परिवार या तो नष्ट कर दिया गया था या स्वीकार नहीं कर रहा था। इसके अलावा भी देह व्यापार में क्या और किस तरह स्त्रियों को सब्जी-भाजी की तरह खरीदा-बेचा जाता है और उच्च स्तर पर बैठे तमाशबीन कैसे इसका हिस्सा हैं, यह वर्णन किताब में पढ़कर अब दुनिया का कोई कोना स्त्रियों के लिए अलग दिखाई नहीं देता।

भारत में हर रोज़ एक ख़बर बलात्कार की सुनती हूँ। भारत पाकिस्तान विभाजन हो या बंगाल विभाजन हज़ारों स्त्रियों ने वही दुःख भोगा जो क्रोएशियन स्त्रियों ने। दुनिया में कहीं भी चले जाएं क्या स्त्रियों के दुःख एक ही रहेंगे? क्या उन्हें कभी भोगवस्तु से इतर एक मनुष्य का दर्ज़ा मिलेगा?

इस किताब को पढ़ने के बाद स्त्रीवाद की परिभाषा को फिर से समझने की आवश्यकता महसूस होती है। वर्तमान में आत्मकेंद्रित स्त्रीवाद देख-देख अब सब छल और फ़रेब लगने लगा है। सच कहूँ इस किताब ने भीतर कोई ऐसी चोट की है जिसकी गूँज जाने कितने समय तक सुनाई देती रहेगी और जिसकी टीस जाने कितने समय तक चुभती रहेगी।

मैं जब यह सब पढ़ रही थी मेरी चेतना जवाब देने लगी थी और सुख के मायने बदल गए थे।

भारत में कितनी ही स्त्रियाँ आज देह व्यापार के लिए मजबूर हैं। वे कैसे वहाँ पहुँची, उनकी कहानी क्या थी? यह हम शायद ही कभी सोचते हैं। देह व्यापार हो या बलात्कार, हम हायतौबा भी अपनी सहूलियत और अपने एजेंडा के हिसाब से मचाते हैं। मेरे शहर में कोई बलात्कार हुआ तो मैं दुःखी हो जाऊंगी आपके शहर में कोई हुआ तो आप। इस सत्य को जानते हुए अनदेखी कर जाते हैं कि भारत में हर रोज़ बलात्कार हो रहे हैं। हम बोलते हैं सब पर? क्या करेंगे बोलकर भी। अख़बार का पन्ना पलटते या स्क्रीन स्क्रोल करते ही वह दुःख एक 'अपडेट' मात्र बन जाती है। ज़्यादा हुआ तो हम दो शब्द लिख लेते हैं। पर यह सब कब बंद होगा? कैसे बंद होगा? इसकी ना सरकार को पड़ी है ना हमें। यह दुनिया स्त्रियों के लिए किस हद तक क्रूर है इसका दस्तावेज़ है 'देह ही देश'... जिसे पढ़ते हुए मैं अवसाद में जाने से ख़ुद को हज़ार बदलावों के प्रयोग कर बचा रही हूँ। जिसे पढ़कर अपना हर दुःख झूठा लगने लगता है।

इस किताब को पढ़ने के बाद मेरे मन में यह तीव्र इच्छा पैदा हुई कि मैं किताब की लेखक के साथ किसी ऊँची पहाड़ी के मुहाने पर, उजाड़ से दरख़्त के नीचे बैठ उनसे क्रोएशियाई स्त्रियों के वे बचे रुदन भी सुन लूँ जिन्हें वे किसी भी चाही-अनचाही वजह से किताब में सम्मिलित ना कर पाई हों। जब वे ये रुदन-गीत सुना रही हों तब हमारे सामने बिछी गहरी खाई असीमित बादलों से पटी हो। और रुदन-गीत के ख़त्म होते ही वे बादल छंट जाएँ। मैं और लेखक दोनों साथ उन घनघोर-कारे बादलों के छंटने की और उम्मीद के सूरज के चमकने की ख़ुशी साथ मनाएँ। यह सोचते हुए कि दुनिया स्त्रियों के लिए नरक सही लेकिन कभी तो घर्षण कम होगा या मिटेगा। कभी तो हमें या दूसरों को हराने के लिए हमारे शरीर वस्तु-मात्र नहीं समझे जाएँगे। कभी तो पौरुष का दंभ भरने वाली मनुष्य प्रजाति अपने बल और बुद्धि से युद्धों को जीतेगी न कि स्त्रियों के गुप्तांगों के दम पर।

यह किताब पढ़ने के लिए नहीं बल्कि एक अहम दस्तावेज़ बनाकर हर व्यक्ति को समझने की ज़रूरत है। इसे पढ़े बिना स्त्रीवाद की हर परिभाषा अधूरी है।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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