देखो मैं इतने बड़े लेखक के करीब हूं — रवीन्द्र कालिया पर कथाकार अखिलेश #जालंधर_से_दिल्ली_वाया_इलाहाबाद (2)


रवींद्र कालिया की कहानियों से मैं चमत्कृत था; उनकी भाषा, उनका यथार्थ के प्रति सुलूक, उनकी मध्यवर्गीय भावुकताविहीनता, उनका खिलंदड़ा अंदाज, इन सब तत्वों ने मुझ पर असर डाला था । दूसरी बात यह कि जब कोई नया लेखक किसी बड़े साहित्यकार के निकट होता है तो वह उसकी श्रेष्ठता को अपनी आइडेंटिटी से जोड़कर देखने लगता है । वह सोचता है कि देखो मैं इतने बड़े लेखक के करीब हूं और वह अपनी निकटता को सार्वजानिक भी करना चाहता है । मेरे साथ यह सब हो रहा था... — कथाकार अखिलेश

देखो मैं इतने बड़े लेखक के करीब हूं 

— कथाकार अखिलेश

जालंधर से दिल्ली वाया इलाहाबाद ... भाग २


और नहीं तो जाने कैसे अफवाह उड़ा दी गयी कि मैं इतनी कम उम्र में बहुत बड़ा शराबी बन गया हूं । ईश्वर की कसम, उस वक्त तक मैंने महज एक बार कलकत्ते में पौन बोतल बियर पी थी; जबकि अफवाह के मताबिक मेरा दोस्त, कवि बद्री नारायण जो अब देश का नामीगिरामी इतिहासकार, समाज विज्ञानी भी बन चुका है और मैं स्वयं, अपनी अपनी कांखों में मदिरा की बोतल दबाये सिविल लाइन्स में खुलेआम झूमते लहराते चले जा रहे थे । इस गणित से हमारे पास चार बोतलें कांख में दबी होनी थीं लेकिन हकीकत में हम सिविल लाइन्स में मूंगफली खाते हए जा रहे थे; हमारे हाथ मूंगफली फोड़ने और नमक चाटने में व्यस्त थे इसलिए हमने अपने हाथ की किताबें कांखों में दबा ली थीं, उन्हीं किताबों को निष्ठुरतापूर्वक शराब की बोतल में तब्दील कर दिया गया था ।

संख्या के मामले में इलाहाबाद सदैव विकासशील रहता था

जब मैं इलाहाबाद वि.वि. में पढ़ाई के लिए सुलतानपुर से आया तो यहां एक जगमग साहित्यिक वातावरण था । वि.वि. में मेरे हिंदी विभाग को जरा दिखिए : सर्वश्री डॉक्टर रघुवंश, रामस्वरूप चतुर्वेदी, जगदीश गुप्त, दूधनाथ सिंह, रामकमल राय, राजेंद्र कुमार, सत्य प्रकाश मिश्र हमारे गुरु थे । पास के राजनीतिशास्त्र विभाग में देवी प्रसाद त्रिपाठी अध्यापक थे जो अपनी वामपंथी प्रतिबद्धता, विलक्षण बौद्धिकता और साहित्यिक विवेक के कारण चर्चित थे । अब थोड़ा शहर की और चलिए : महादेवी वर्मा, फ़िराक गोरखपुरी, अमृत राय, उपेन्द्रनाथ अश्क, भैरव प्रसाद गुप्त, विजयदेव नारायण साही, नरेश मेहता, अमरकांत, मार्कंडेय, लक्ष्मीकांत वर्मा, शैलेश मटियानी, शेखर जोशी, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, सतीश जमाली, नीलकांत, केशव चन्द्र वर्मा, विभूति नारायण राय, अजित पुष्कल, नीलाभ...और भी न जाने कितने...तो इलाहाबाद अपनी नदियों और उनके 'संगम', आईएएस बनाने के कीर्तिमान, अमरूदों और वकीलों के साथ साथ इस लेखकीय हासिल पर क्यों न इतराता । इस तरह, किसी धार्मिक व्यक्ति के लिए जिस प्रकार इलाहाबाद एक प्रमुख तीर्थ था वैसे ही लिखने पढ़ने में मुन्तिला युवा के लिए भी इलाहाबाद एक महातीर्थ था; एक बहुत अजीबोगरीब और उत्कृष्ट प्रशिक्षणकेंद्र था । अजीबोगरीब इसलिए कि वहां यदि कोई रचनाकार ज्ञान और साहित्य को लेकर बहुत गंभीरता दिखाता तो लेखक लोग उस पर हंसते थे, उसका उपहास उड़ाते थे लेकिन इससे यह आशय कतई नहीं निकालना चाहिए कि वे साहित्य के प्रति कम संजीदा थे । बात केवल इतनी थी कि संजीदगी के दिखावे से इलाहाबादियों को ऐतराज था । वहां मजाक मजाक में, चलते फिरते, उठते बैठते साहित्य के गूढ़ से गूढ़तर रहस्यों का उदघाटन होता था, सृजनात्मकता का वरदान मिल जाया करता था । जब मैंने वहां दाखिला लिया तो इस संस्कृति को समझाने के लिए दो किस्से सुनाये गए ।


मेरा मन हो रहा था कि हर्ष के मारे वहीं कूदने लगूं— कथाकार अखिलेश / जालंधर से दिल्ली वाया इलाहाबाद ... भाग १

किस्सा नंबर एक था : दिल्ली से एक बड़े आलोचक इलाहाबाद में इस मकसद से आये थे कि उनको विख्यात आलोचक विजयदेव नारायण साही से साहित्य के कुछ प्रश्नों पर गंभीर विचार विनिमय करना था । जबकि साही जी की स्थिति यह थी कि वह नामवर सिंह के अतिरिक्त शायद ही अन्य किसी लेखक से साहित्य चर्चा को अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप पाते थे । बहरहाल उन्होंने दिल्ली के अतिथि को इंडियन काफी हाउस में बुलाया और करीब एक घंटे वार्ता की किन्तु उन्होंने एक भी शब्द साहित्य पर नहीं कहा । दिल्ली वाले आलोचक जैसे ही कोई गूढ़ बात शुरू करते अथवा साहित्य सम्बन्धी कोई जिज्ञासा प्रस्तुत करते, साही जी उनसे इस तरह की बतकही आरम्भ कर देते : आप कितने बजे दिल्ली से चले, रस्ते में कोई तकलीफ तो नहीं हुई, आपके कुरते में बड़ी खूबसूरत बटन लगी हुई है, सात बजकर बारह मिनट हुए हैं आदि आदि । ऐसी ही एक अन्य घटना : इलाहाबाद में एक गोष्ठी में रमेशचन्द्र शाह का व्याख्यान होना था । इलाहाबाद में ज्यादातर बड़ी गोष्ठियां हिंदुस्तानी अकादमी के सभागार में होती थीं । जिसमें प्रमुख वक्तागण सफ़ेद चादरों से ढके बिछे तख्तों पर बैठते, बाकी सारे लोग सभागार के फर्श पर बिछी दरी पर । उपरोक्त आयोजन शायद कविता पर था लेकिन उसमें कहानीकार भी कम नहीं पहुंचे थे, जिसमें सतीश जमाली भी शामिल थे जिनको मंच पर भाषण देते कभी किसी ने नहीं देखा सुना था । रमेशचन्द्र शाह का व्याख्यान, बताया गया कि, लगभग पचास पृष्ठ दीर्घ एक पुस्तकाकार चिंतनपरक आलेख था जिसे सुनते हुए लोग ऊब रहे थे । कुछ लोग तो सभागार छोड़कर बाहर निकल आये थे । जब आलेखवाचन पूर्ण हुआ तो संचालक ने श्रोतासमूह से कहा, यदि किसी को कुछ टिप्पणी करनी है तो वह सादर आमंत्रित है । इस निमंत्रण पर पहला हाथ सतीश जमाली का उठा । लोग भौचक...जमाली कभी माइक से बोलते ही नहीं फिर क्यों बढ़े चले जा रहे हैं...इतने उत्साह से...इतने कठिन आलेख पर...वाह भाई वाह...देखें क्या तमाशा होता है । जमाली जी की टिप्पणी थी : रमेश जी ने अद्भुत आलेख पढ़ा, यह बहुत श्रेष्ठ है किन्तु समस्या है कि समझ में बिलकुल नहीं आया और दो तीन बार में भी इसे समझ पाना असंभव है अतः रमेश जी इसका आज दिन भर...कई कई बार इसका वाचन करें । श्रोता समूह होहो कर हंसते हुए अपना पिछवाड़ा झाड़ते हॉल से चला गया । किसी को हूट करने के लिए पिछवाड़ा झाड़ते हुए निकल जाना वहां का अपना विरल तरीका था । हूट करने कराने में माहिर शख्स सतीश जमाली भी सुरक्षित नहीं थे; सत्य प्रकाश मिश्र ने व्यक्तिगत स्तर पर किसी से सतीश जमाली की कहानी कला पर बोलते हए कहा, "जमाली क्या खाक अच्छी कहानियां लिखेगा, वह तो पैंट के नीचे चड्ढी ही नहीं पहनता ।” अच्छी कहानी लिखने और चड्ढी पहनने के अंतर्संबंध को स्थापित करने वाला यह मूल्यांकन निश्चय ही नया और जटिल था किन्तु वह समूचे रचनाकार समुदाय के बीच जल्द ही प्रसारित होकर लोकप्रिय हो गया था । दरअसल इलाहाबाद में प्रत्येक महत्वपूर्ण लेखक को लेकर उसका उपहास उड़ाने वाले एक या अनेक किस्से जरूर चला करते थे । संभवतः अपनी महान प्रतिभाओं को देवत्व की जड़ता से बचाकर उन्हें मनुष्य ही बनाये रखने का इलाहाबाद का यह अपना ढंग था । और नहीं कुछ सूझता तो किसी लेखक को किसी ख़ुफ़िया एजेंसी का जासूस बना दिया जाता था । लक्ष्मीकांत वर्मा जी को लेकर अफवाह चली थी, वह सीआईडी के एजेंट हैं तो सतीश जमाली को पाकिस्तान का जासूस बताने वाले मिल जाते थे । मार्कंडेय जी प्रसिद्ध कथाकार होने के साथ संघर्षशील लेखक थे किंतु किसी कोने से उड़ा दिया गया था कि वह पुलिस विभाग में गुप्त रूप से बहुत बड़े अफसर हैं । भैरव प्रसाद गुप्त को लेकर प्रचलित था, उनके पास स्वर्ण का बहुत बड़ा जखीरा है और यह भी कि उनके यहां नाश्ते में भूजा से भरा थाल आता है और भूजा के बीचोंबीच एक बड़ा सा लाल मिर्चा खुंसा रहता है । अश्क जी ने अपने कहानी संग्रह बैगन का पौधा की हजारों प्रतियां उद्यान विभाग की सरकारी खरीद में बेचकर तगड़ा मनाफा बटोर लिया है । शैलेश मटियानी अपनी पत्रिका विकल्प के लिए हर तीन चार महीने पर विज्ञापन मांगने निकल जाते हैं; लौटने पर उनके कई थैले रुपयों से भरे रहते हैं । तब वह दिन रात बढ़िया चीजें खाते हैं । इतने फल इतने केले खाते हैं कि छिलकों की प्रतीक्षा में अनगिनत गायें उनके घर के सामने बैठी रहती हैं । मेरे सुल्तानपुर के शिक्षक गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव के कहानी संकलन का शीर्षक कांटा था तो जब वह इलाहाबाद पहुंचते सब कहते, 'कांटा आ गया...कांटा आ गया ।' इलाहाबाद में मेरे शिक्षक राजेन्द्र कुमार जी थे वह ज्यादातर पैदल ही कहीं जाते आते थे; उनको देखकर लोग कहते. 'पैदल जी आ गए...पैदल जी आ गए ।' नरेश मेहता सरीखे वरिष्ठ साहित्यकार को दूर से ही देखकर लोकभारती प्रकाशन के दिनेश ग्रोवर अपमानजनक भाषा का प्रयोग शुरू कर देते, नजदीक आने पर पूज्यभाव से प्रणाम प्रणाम करने लगते । क्या वरिष्ठ क्या युवा सभी जानकार होने का दावा करते हए बताते रहते थे कि किस लेखक ने किसके मकान पर कब्ज़ा कर लिया है, किसने किसका रुपया हजम कर लिया है, कौन कहां से धन ले रहा है कौन कहां पर खर्च कर रहा । आलम यह था कि किसी साहित्यकार के घर में जो घट रहा होता था वह सभी को पता रहता था । इससे भी अधिक रोचक था, जो नहीं घटा रहता वह भी सबको ज्ञात रहता और उसे भी सब रुचिपूर्वक परस्पर साझा करते । लोगों में किसी के वर्णन पर शक करने, सच्चाई की तलाश, छानबीन करने का बिलकुल रिवाज नहीं था । एक आदमी एक लेखक के विषय में एक झूठा सच्चा कथानक एक लेखक को सुनाता वह फ़ौरन ही उसे अनेक लोगों में वितरित करने लगता । यह रही वहां के तत्कालीन साहित्यिक समाज की अंतर्वस्तु; जहां तक शैली का सवाल है तो रचनाकारों को दूसरे रचनाकारों से जुड़े विवरणों को अतिरंजित और हास्यास्पद रूप देकर प्रस्तुत करना प्रिय था । जैसे एक प्रसिद्ध कथाकार, जिनका आलोचना के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय काम है, का विश्वविद्यालय की अपनी सहधर्मी से प्रेमप्रसंग चर्चा में था; उनके बारे में यह नहीं कहा जाता था कि वह प्रेम में हैं बल्कि इलाहाबाद में लेखक बताते कि वह नौकर की तरह बाहर सहधर्मी के घर की लॉबी में बैठे रहते हैं । झाडू वाडू लगाते रहते हैं, फर्नीचर वगैरह की डस्टिंग करते हैं । एक नए रचनाकार ने सूचना दी कि वह उधर से गुजर रहा था तो देखा कि उनका प्रिय कथाकार मैडम के बगीचे में पौधों की सिंचाई कर रहा है । दूसरे का आख्यान था कि उसने देखा, गुरु जी मैडम जी के घर धुले कपड़े बाल्टी से निकाल निकाल कर डारा पर सूखने के लिए फैला रहे थे ।
उनका कथन था, उतने पांव पसारिये जितनी चादर होय एक विकास विरोधी कहावत है । यह यथास्थिति को बनाये रखने का फलसफा है । अगर इंसान जितना है उतने में ही सिमटा रहेगा तो तरक्की कैसे होगी । अतः वह प्रायः अपने पैर चादर से ज्यादा लम्बे किये रहते थे । चादर बढ़ती, वह अपने पैर और लम्बे कर लेते थे । 
उन दिनों के इलाहाबाद के लेखकों की सार रूप में विशेषता बतानी हो तो कह सकते है, कोई रचनाकार चाहे जिस विधा में लिख रहा हो मगर किस्सागोई जरूर उसके भीतर रहती थी । सबकी खिल्ली उड़ाने में सबको महारत थी । केवल अमरकांत जी और शेखर जोशी जी बचे रहते थे । इनके बारे में शायद ही कभी कोई किस्सा सुनाने की हिमाकत करता था । ये दोनों स्वयं भी इलाहाबाद के माहौल में अपवाद स्वरूप थे, कभी किसी को लेकर हल्की बात भूले से भी नहीं करते थे । बाकी किसी के यहां कोई भी बख्शा नहीं जाता था । दिलचस्प यह कि सभी को पता रहता था कि इन लेखकों का जीवन कितनी आर्थिक विषमताओं, संघर्षों से बीत रहा था फिर भी अफवाहों पर त्वरित गति से यकीन करने की प्रवृति थी सबकी । जीवन ही नहीं साहित्यिक मूल्यांकन के समय भी यदाकदा अजीब तरह की पद्धति अपनाई जाती थी जिसकी चपेट में कभी कभी अमरकांत और शेखर जोशी भी आ जाते जिनके जीवन को लेकर अमूमन हल्की फुल्की बातें नहीं की जाती थीं । एक गोष्ठी में शेखर जोशी द्वारा अपनी नई कहानी बच्चे का सपना का पाठ किये जाने पर भैरव प्रसाद गुप्त ने इस तरह समीक्षा प्रस्तुत की : शेखर जोशी ने अगर इसी स्तर की कहानी लिखने के लिए वीआरएस लिया है तो बेहतर था वह नौकरी ही करते रहते । अमरकांत जी पर इलाहाबाद की पत्रिका नई कहानी में इलाहाबाद में ही रहने वाले आलोचक विद्याधर शुक्ल ने एक लेख लिखा जिसका विचित्र सा शीर्षक दिया मुंशी परंपरा का बाबू कथाकार । विद्याधर शुक्ल का साहित्यकारों के जीवन में ताकझांक करने में इतना मन लगता था कि उन्होंने घर का पैसा फूंककर साहित्यनामा नाम से एक पत्रिका सम्पादित करनी शुरू कर दी थी जिसमें ज्यादातर लेखकों की जिन्दगी की अंतर्कथा, सत्यकथा छापने का दावा किया जाता था । नई कहानी के जिस अंक में उनका अमरकांत वाला लेख था उसी में नामवर सिंह जी पर सत्य प्रकाश जी का लेख भी था; उसका शीर्षक था महाबली का पतन, जिसमें नामवर जी पर आक्रमण करते हुए इस तरह की भाषा में लिखा गया था : नामवर सिंह के मुंह से फेचकुर आने लगा । ऐसा नहीं था कि वामपंथी मिजाज के ही लोग ऐसा करते थे, परिमल संस्था से सम्बद्धता का अतीत रखने वाले वामपंथ विरोधी भी इसी रंग में रंगे थे । दूधनाथ सिंह ने अपने ताजा लिखे नाटक यमगाथा का पाठ किया, नाटक जरा दीर्घ था तो समीक्षा करते हुए केशव चन्द्र वर्मा ने टिप्पणी की : दूधनाथ जी के इस नाटक का यदि मंचन किया जाए तो करीब रात भर चलेगा, तो दूधनाथ जी यह बताएं कि यह नाटक है या नौटंकी ? इस समूचे प्रसंग में यह बताये बगैर बात अधूरी रहेगी कि लेखक अपने ऊपर हुए इस प्रकार के हमलों से विचलित नहीं होते थे । अपने बारे में उड़ाई गयी अफवाहों, झूठों, सच्चाइयों का बुरा नहीं मानते थे क्योंकि आयेदिन वे खुद यही काम करते थे । दरअसल इलाहाबाद को देवता रास नहीं आते थे; ऐसा नहीं कि महानताएं प्रिय नहीं थीं मगर महानता की धजा से सख्त ऐतराज था अतः यदि कोई महानता का जागिंग सूट बूट पहनकर दौड़ने को होता था तो उसे टंगड़ी मार दी जाती थी । बल्कि इस तरह की नौबत आये उसके पहले ही वहां यह काम कर डाला जाता था, अतः इलाहाबाद नए या युवा रचनाकारों से भी, उनको जमीन का आदमी बनाये रखने के इरादे से, चहलबाजी करने में कोताही नहीं करता था । मार्कंडेय जी कहते थे : इलाहाबाद वह अखाड़ा है जिसमें नए रचनाकार को भरपूर पटखनी दी जाती है इसके बावजूद वह यदि टिका रहा तो भविष्य में वह कहीं भी पटखनी नहीं खायेगा ।

ममता जी को मेरे ख्याल से डाइनिंग टेबल पर खाना पीना पसंद था लेकिन वह कालिया जी को इतना पसंद करतीं कि उनकी ही रुचियों को तरजीह देतीं । यह वजह भी हो सकती है कि कालिया जी अपनी पसंद नापसंद को लेकर जिददी और निर्णायक रहते थे । किसी की, चाहे ममता जी ही क्यूं न हों, गुजारिश, मनुहार का उनपर असर नहीं पड़ता था; उलटे वह ज्यादा जिद पकड़ लेते थे, चिडचिडा जाते । 

तो इस प्रकार के विलक्षण गुणों से समृद्ध नगर इलाहाबाद, जिसे प्राचीनकाल में प्रयाग नाम से जाना जाता था और जिसे आगे जाकर इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के अंतिम वर्षों में प्रयागराज के नाम से पुकारे जाने का सरकारी आदेश पास किया जाना था, में मैं सुल्तानपुर से एक दिन पढ़ाई करने के बहाने लेखक बनने पहुंचा था । बेशक साहित्यकारों को लेकर मेरे मन में बड़ा पवित्र भाव था; मैं उनको लेकर उसी प्रकार मोह, कौतुक, इज्जत से सराबोर था जैसे क्रिकेट के दीवाने युवक सुनील गावस्कर और फिल्मों के जुनूनी नौजवान अमिताभ बच्चन, रेखा को लेकर थे ।

कालिया जी से ममता जी से पहले से ही परिचय था । कालिया जी के यहां एक बार मैं अमरकांत जी, मार्कंडेय जी, शैलेश मटियानी जी सरीखे अनेक दिग्गज रचनाकारों से मिला ही था और उन सबके सामने कालिया जी ने मेरी तारीफ भी की थी; तो मुझे लगता था कि मैं हाथोंहाथ लिया जाऊंगा । मेरे इतराने का दूसरा कारण भी था, लगभग दो साल पहले ही कालिया जी ने दो तीन बार मेरी कहानियां सारिका पत्रिका में भेजी थीं । कन्हैया लाल नंदन हाल ही में सारिका के संपादक हुए थे; उनकी कालिया जी से धर्मयुग में नौकरी के समय से गहरी दोस्ती थी; उन्हीं की दोस्ती के कारण कालिया जी ने धर्मयुग की जमी जमाई नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया था । उस प्रकरण का कालिया जी ने अपनी पुस्तक गालिब छुटी शराब में जिक्र करते हए कहा है कि पत्रिका के संपादक धर्मवीर भारती ने कालिया जी से कहा, तुम नंदन जी के खिलाफ मेरा साथ दो । कालिया जी ने मजबूरी बताई, मैं नंदन जी के विरोध में कैसे जा सकता हूं वह मेरी मदद करते हैं; मुझे पतलून सिलवा देते हैं । भारती जी प्रश्न था, तुमको पतलून चाहिए या प्रमोशन ? कालिया जी का जवाब, मुझे प्रमोशन नहीं पतलून चाहिए । अतः सहज ही था, कालिया जी अपने दोस्त की, नई जिम्मेदारी मिलने पर, रचनात्मक मदद करते । उन्होंने बहुत सारे प्रतिष्ठित रचनाकारों से नंदन जी को सहयोग करने के लिए व्यक्तिगत आग्रह किया था; नये कहानीकार को प्रोत्साहन देने के मकसद से मेरी कहानी भी अपनी संस्तुति के साथ भेजी थी । उनका स्वाभाव भी ऐसा था कि प्रायः किसी भी जिम्मेदारी से दूर भागते थे लेकिन अगर किसी में मन लग गया तो भूख प्यास तजकर जुट जाते । जैसाकि कालिया जी के मित्र डी.पी. त्रिपाठी का कथन था - आलस्य प्रतिभा की खाद है, कालिया जी को भी आलस्य पसंद था मगर वर्तमान साहित्य के कहानी महाविशेषांक, गंगा यमुना, वागर्थ, नया ज्ञानोदय के संपादन के प्रसंग में हमने देखा है कि दायित्व स्वीकार कर लेने के बाद वह फिर दिन हो रात, अपने काम में डूबे रहते थे इस फ़िक्र में कि कैसे ऐसा कुछ किया जाये कि ये रिसाले चतुर्दिक छा जायें, इनकी धूम मच जाए । ऐसा ही उन दिनों सारिका को लेकर भी हो रहा था । लेकिन इलाहाबाद में लोगों ने प्रतिक्रिया दी : सारिका के आजकल दो संपादक हैं, एक बटा तीन कन्हैया लाल नंदन जोकि वैतनिक हैं और दो बटा तीन रवींद्र कालिया जो अवैतनिक हैं । फ़िलहाल कहना यह है, जब मैं एमए की शिक्षा के लिए आया तब तक सारिका में मेरी कुछ कहानियां छप चुकी थीं जोकि किसी नवोदित के लिए खास बात थी; इस वजह से भी मैं आत्मविश्वास से भरा हुआ इलाहाबाद आया था । लेकिन यह शहर तो यह शहर था, बड़े बड़े का पानी उतार चुका था फिर मैं किस खेत का गाजर मूली । ज्यादातर ने मुझे अहसास कराया कि मेरा कोई अस्तित्व नहीं है । मैं अस्तित्व साबित करने के लिए सूचित करता, मेरी कहानियां छपी हैं तो लोग इस बात की नोटिस ही नहीं लेते । और नहीं तो जाने कैसे अफवाह उड़ा दी गयी कि मैं इतनी कम उम्र में बहुत बड़ा शराबी बन गया हूं । ईश्वर की कसम, उस वक्त तक मैंने महज एक बार कलकत्ते में पौन बोतल बियर पी थी; जबकि अफवाह के मताबिक मेरा दोस्त, कवि बद्री नारायण जो अब देश का नामीगिरामी इतिहासकार, समाज विज्ञानी भी बन चुका है और मैं स्वयं, अपनी अपनी कांखों में मदिरा की बोतल दबाये सिविल लाइन्स में खुलेआम झूमते लहराते चले जा रहे थे । इस गणित से हमारे पास चार बोतलें कांख में दबी होनी थीं लेकिन हकीकत में हम सिविल लाइन्स में मूंगफली खाते हए जा रहे थे; हमारे हाथ मूंगफली फोड़ने और नमक चाटने में व्यस्त थे इसलिए हमने अपने हाथ की किताबें कांखों में दबा ली थीं, उन्हीं किताबों को निष्ठुरतापूर्वक शराब की बोतल में तब्दील कर दिया गया था । यह महज एक झलक है नये लेखक को, लोहे को, सोना बनाने के लिए पीटने की, वरना वाकये अनेक हैं । अभी बस एक दो ही बताता हूं: कालिया जी के यहां कुछ वरिष्ठ लेखक बैठे हुए थे; ममता जी चाय आदि का इंतजाम करने लगी । मैं काफी कमउम्र था; कालिया जी से करीब दो दशक छोटा; अतः ममता जी की मदद के इरादे से मैं भी चाय वगैरह लाने में उनकी सहायता करने लगा । जल्द ही इलाहाबाद में खबर प्रसारित थी कि अखिलेश कालिया के यहां चायवाय बनाता, ले आता है । अंततः तंग आकर मैंने एक दिन सोचा, अब इज्जत करने से कोई फायदा नहीं होना है, अब मैं भी मनगढंत चीजें प्रसारित करके बदला लूंगा । ऐसा निर्णय करते ही मुझे महसूस हुआ कि अब जाकर मैं इलाहाबाद की साहित्यिक संस्कृति में परिपक्व होने लगा हूं । वैसे यह मेरा भ्रम था क्योंकि इस मार्ग पर प्रस्थान करते ही मुझको ऐसी टंगड़ी लगी कि सद्बुद्धि आ गयी और मैंने जान लिया कि अनाड़ी इतनी जल्दी खिलाड़ी नहीं बन सकता । मुझको अभी और चप्पलें घिसनी पड़ेंगी जो मैं लगातार घिस रहा था । हालांकि इस तरह के माहौल की क्रूरता कभी कभी असह्य हो जाती थी तब मैं दुखी, उदास हो उठता । ऐसी मनःस्थिति से उबरने में भी कालिया जी का घर मददगार बनता । वहां सदैव मझको अपनापन, स्नेह और भरोसा मिलता । इस स्थिति की वजह से भी ममता जी और कालिया जी के लिए मेरे भीतर सम्मान और लगाव बढ़ा । निश्चय ही रवींद्र कालिया की कहानियों से मैं चमत्कृत था; उनकी भाषा, उनका यथार्थ के प्रति सुलूक, उनकी मध्यवर्गीय भावुकताविहीनता, उनका खिलंदड़ा अंदाज, इन सब तत्वों ने मुझ पर असर डाला था । दूसरी बात यह कि जब कोई नया लेखक किसी बड़े साहित्यकार के निकट होता है तो वह उसकी श्रेष्ठता को अपनी आइडेंटिटी से जोड़कर देखने लगता है । वह सोचता है कि देखो मैं इतने बड़े लेखक के करीब हूं और वह अपनी निकटता को सार्वजानिक भी करना चाहता है । मेरे साथ यह सब हो रहा था जिसका एक परिणाम यह हुआ था कि मैंने कालिया जी की कहानियों पर एक बारह चौदह पृष्ठों का लेख लिखा । इस लेख में स्पष्टतः कालिया जी की बतौर कथाकार सराहना थी । इस लेख के लिखे जाने के विषय में मैंने हो सकता है एक दो लोगों को बताया हो किन्तु किसी को पढ़ाया कतई नहीं था; क्योंकि यह अभी ठीक तरह से पूरा भी न हआ था । इलाहाबाद ने इसको अपनी विशिष्ट शैली में ग्रहण किया । कहा गया : अखिलेश ने कालिया जी के बारे में एक अत्यंत चाटुकारितापूर्वक लेख लिखा है । यह घोषणा की गयी कि इस लेख के छपते ही साहित्य में इस युवक का यदि कोई भविष्य रहा होगा तो वह भी तबाह हो जायेगा । मैं परेशान हुआ, अभी इसे किसी ने देखा भी नहीं फिर कैसे इस तरह की बातें हो रही हैं ? गोया इतना नाकाफी था : मैं एक दिन मटियानी जी के यहां गया, वहां मार्कंडेय जी भी बैठे थे । मटियानी जी को लगा, मेरी उनसे पहचान नहीं है अतः उन्होंने मुस्कराते हुए मेरा परिचय कराया, “यह अखिलेश हैं, कालिया की कहानियों पर एक साठ पेज का लेख लिखे हैं " मैंने प्रतिवाद किया, "साठ पेज का नहीं है ।" हालांकि साठ से भी ज्यादा का होता तो क्या गलत हो जाता । बहरहाल मार्कंडेय जी ने और भी ज्यादा मुस्कराते हुए कहा, "जो भी लिखो लेकिन अपने को नष्ट करने का जोखिम उठाने की आवश्यकता नहीं है ।” दो चार दिनों के अंदर मेरे लेख की पृष्ठ संख्या बढ़ते बढ़ते सौ पार कर गयी । संख्या के मामले में इलाहाबाद सदैव विकासशील रहता था । एक बार देवी प्रसाद त्रिपाठी के यहां रात्रिभोज और रसरंजन की समाप्ति के बाद मार्कंडेय जी, सतीश जमाली, सत्यप्रकाश मिश्र, नीलकांत आदि साहित्यकार विदा हो रहे थे । थोड़ी ही दूरी पर एक बड़ा सा तालाब का गड्ढा सा था । मुझे चिंता हुई, अंधेरे में कहीं मार्कंडेय जी गिर न जायें क्योंकि उन पर रसरंजन का अपेक्षाकृत तीव्र प्रभाव था । मैं इस इरादे से उनके बगल में चलने लगा कि यदि वैसी कोई बात होती है तो मैं सभांल लूंगा । वही हुआ जिसकी आशंका थी । मार्कंडेय जी गड़ही के किनारे लडखडाये लेकिन मैंने उनकी बांह पकड़ ली और कुछ भी बुरा न हुआ । यह ऐसी कोई खास बात न थी मगर अगले रोज इसका पाठ इस प्रकार व्याप्त था : मार्कंडेय जी थोड़ा सुरूर में थे; मौका देखकर अखिलेश उनके बगल में चलने लगा और जैसे ही गड़ही आई उसने गुरु, मार्कंडेय जी को ज्यादातर लोग गुरु कहते थे, को धक्का देकर गढ़ही में गिरा दिया । दो चार दिनों के भीतर गुरु एक नहीं बारह तेरह बार गड़ही में गिरा दिए गए थे । अखीर में दृश्य इस प्रकार रचा गया : गुरु ऊपर आने की बार बार कोशिश करते मगर जैसे ही उनका सिर ऊपर झलकता उन्हें पुनः धकेल दिया जाता ।

यह मेरे जैसे नवोदित के लिए दहशत पैदा करने वाली अफवाहबाजी थी । मैं क्या सफाई पेश करता... वैसे भी इलाहाबाद में अपनी सफाई पेश करने का रिवाज नहीं था । वहां एक गप्प, अफवाह, लंतरानी की काट दूसरी गप्प, अफवाह, लंतरानी होती थी । जबकि इसके लिए मैं अभी भी पूरी तरह प्रशिक्षित नहीं हो सका था ।

कालिया जी अलग ढंग के थे । उनके पास हाजिरजवाबी और चुस्त तुर्श भाषिक प्रहार की अकूत संपदा थी; वह प्रायः उसी से काम चलाते थे । जैसेकि लोकभारती प्रकाशन के स्वामी दिनेश ग्रोवर ने आत्मश्लाघा से बताया, "मैं अपने एक कर्मचारी को रक्तदान करके आ रहा हूं ।" कालिया जी ने वार किया, "पहले आप उनका रक्त पीते हैं बाद में रक्तदान करते हैं ।" वैसे वह भी कभी कभार कल्पनाशीलता की मदद लेने से गरेज नहीं करते थे । लक्ष्मीकांत वर्मा को सीआईडी और सतीश जमाली को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी का जासूस घोषित करने का स्रोत संभवतः वह ही थे । जितने मार्क्सवाद विरोधी या गैर वामपंथी थे उनका संबंध सीआईए से जोड़ना भी उन दिनों काफी लोकप्रिय था । लेकिन कालिया जी में यह गजब का संतुलन था; वह अच्छी तरह जानते थे कि इस तरह के मजाक को कहां तक ले जाकर रोक देना है । जैसे ही चीजें भदेस और क्रूरता की तरफ झुकती वह उन्हें लतीफे में बदल देते । यह मानवीय कला इलाहाबाद में कम ही लोगों में थी । अधिकतर अफवाह को इतना दुहते कि वह अत्याचार में परिवर्तित होने लगती । दूसरी बात, जहां अधिकतर लोग दूसरों पर ही हंसते थे वहीं कालिया जी दूसरों जितना अपना भी उपहास उड़ाने की सामर्थ्य रखते थे । इस मामले में अमरकांत जी भी याद आ रहे हैं । एक बार उन्होंने सिगरेट सुलगाई और धुंआ छोड़ते हुए कहा, सिगरेट के एक तरफ आग है और दूसरी ओर मूर्ख मनुष्य । खैर बात कालिया जी की हो रही है; यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि वह इलाहाबादी संस्कृति के विपरीत अपने परिवेश के लोगों पर रहमदिल थे, बिलकुल नहीं, अमरकांत जी के अलावा अन्य कोई ऐसा दिग्गज नहीं था जिसे निशाने पर लेने से उन्होंने परहेज किया हो । हिसाब चुकता करने से वह कतई नहीं चूकते थे । अमरकांत जी के अलावा वह मोहन राकेश का को भी अत्यंत सम्मान से याद करते लेकिन तब वह इस दुनिया में नहीं थे । मोहन राकेश जालंधर में उनके छात्र जीवन में शिक्षक थे । मुझे लगता है, कालिया जी के व्यक्तित्व में आधुनिकता और जिंदगी को अपनी शर्तों पर जीने का जो जज्बा था उसमें उनकी मोहन राकेश की शागिर्दी का विशेष अवदान था । सुना है मोहन राकेश, चाहे जितनी विपरीत स्थितियां हों, अपने बनाये जीवनस्तर से नीचे नहीं उतरते थे । कालिया जी का भी यही हाल था । मेरी जानकारी में है, कई बार उनके पास अर्थाभाव होता था तब भी उनके जीने का ढंग यथावत रहता । उनका कथन था, उतने पांव पसारिये जितनी चादर होय एक विकास विरोधी कहावत है । यह यथास्थिति को बनाये रखने का फलसफा है । अगर इंसान जितना है उतने में ही सिमटा रहेगा तो तरक्की कैसे होगी । अतः वह प्रायः अपने पैर चादर से ज्यादा लम्बे किये रहते थे । चादर बढ़ती, वह अपने पैर और लम्बे कर लेते थे । एक दफा तो उन्होंने रद्दी बेचकर अपनी महंगी सिगरेट का इंतजाम किया था । हालात जैसे भी हों उनकी यारबाशी बरक़रार रहती । अक्सर उनके घर पर रात्रिभोज होता जिसमें, जाहिर है, खाने से ज्यादा ज़ोर पीने पर रहता था । इसीलिए तब सभी को बहुत आश्चर्य हुआ जब कालिया जी ने घोषणा कर दी, "मुझे एक पंडित जी ने मंत्र पढ़कर जाने कैसा प्रसाद खिला दिया कि अब शराब की गंध से मुझे उल्टी होती है ।” बेशक यह सनसनीखेज खबर थी किन्तु इससे भी सनसनीखेज यह था कि जल्द ही मैंने घर पर उन्हें पूर्ववत पीते हुए देखा । मेरी उत्सुकता देखकर वह बोले, "मैंने झूठमूठ में न पीने की बात फैलाई है । मैं दुखी हो गया था, सब मेरी पीते और मुझे ही शराबी कहते ।” यूं वह अपनी जीवनशैली पर प्रभाव के सन्दर्भ में अक्सर अपने मुम्बई के दोस्त ओबी का जिक्र करते थे और ओबी को आधार बनाकर उन्होंने अपने उपन्यास 17 रानडे रोड का मुख्य चरित्र भी गढ़ा है किन्तु कुल मिलाकर यही सच लगता है कि मोहन राकेश ने आधुनिकता को लेकर कम से कम उनमें शुरुआती रुझान जरूर जगाया था । इसीलिए लेखन में उन्होंने भले ही पुरानी पीढ़ी से अपना पार्थक्य दिखाने के लिए मोहन राकेश के नाटक आषाढ़ का एक दिन के एक संवाद की पैरोडी की है लेकिन व्यावहारिक जगत में उन्होंने कभी भी उनको हलके में नहीं लिया था । जैसाकि पहले कहा है, अमरकांत जी के लिए उनके मन में गहरा लगाव था ही । वह कहते, "अमरकांत जी की संगत ने मेरा दुनिया को देखने समझने का पूरा दृष्टिकोण ही बदल दिया । उनके सानिध्य से मेरी कहानियों की पूरी काया ही पलट गयी ।” आखिर कैसे इतने शक्तिशाली हो गए अमरकान्त कि उनके ठीक बाद की पीढ़ी का एक बड़ा कथाकार परिवर्तित हो जाता है; जबकि जहां तक अमरकांत का सवाल है, वह मोहन राकेश की तरह, विशिष्ट जीवनशैली वाले नहीं थे । वह सत्ताकेंद्र नहीं थे । सभी के सामने खुलते नहीं थे । दिखने में भी अति साधारण । मझोले कद के । सर्दियों में हरवक्त गले में मफलर लपेटे रखने वाले, लगभग निम्न मध्यवर्गीय जिन्दगी जी रहे साधारण हिंदुस्तानी के साक्षात् प्रतिनिधि अमरकांत के पास कौन सा जादू था जिसने कालिया जी सरीखे जिददी और तुनकमिजाज इंसान को वैसा नहीं रहने दिया जैसा वह पहले थे । हम ध्यान से देखें तो आधुनिकता अपनेआप में एक विचारधारा दिखती है किन्तु जिस औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप इसका जन्म हुआ था उसने आधुनिकता को लेकर कई तरह की समर्थक दृष्टियों का निर्माण किया जिसमें अधिकतर ने कुल मिलकर यह सहजबोध रचा कि आधुनिकता विज्ञान, शिक्षा, शहर, नई सेक्सुएलिटी, औद्योगिक विकास आदि में निहित है यानी ये सब जहां नहीं हैं वह आधुनिक नहीं है । जबकि मार्क्सवाद आधुनिकता को स्वीकार करते हुए वर्गीय समाज में आधुनिकता पर प्रभु वर्ग की इजारेदारी को लेकर प्रश्न उठाता है और उसके बराबर बंटवारे की पैरवी करता है । अमरकान्त एक मार्क्सवादी लेखक थे और इस नाते उनकी आधुनिकता राजेंद्र यादव जैसे नई कहानी आन्दोलन के अन्य कुछ कहानीकारों की आधुनिकता से भिन्न थी । यही वजह है कि अमरकांत की कहानियों के संसार में आधुनिकता की उपलब्धियों से वंचित समुदाय के दुखों, विडम्बनाओं, संघर्षों का आख्यान मार्मिकता के साथ अभिव्यक्त हुआ है । जाहिर है उनकी सोहबत ने कालिया जी के आधुनिकताबोध को बदला तथा विस्तृत किया । इस सन्दर्भ में सबसे खास बात यह है कि बंबई का जीवन छोड़कर इलाहाबाद के रानीमंडी मोहल्ले में जहां वह रहने आये और जहां उनका प्रेस भी था वह पूरा इलाका असंगठित क्षेत्र के गरीब, संघर्षशील श्रमिकों से आबाद था । इसमें हिन्दू मुस्लिम की साझी जनता थी । वे तवायफें भी यहां थी जिन्होंने दफा 8 लगने के बाद जीवन जीने के लिए मेहनत मजूरी के रास्ते इख़्तियार कर लिए थे । इन सब तत्वों ने मिलकर कालिया जी के भीतर बाहर, जीवन लेखन को प्रभावित किया था । इसको समझने के इरादे से इलाहाबाद आने के बाद कालिया जी दवारा लिखे गए कथा साहित्य को देखना होगा । पहले उनकी कहानियां 'लघु और ठोस' थीं अब वे बड़ा आकार ग्रहण कर रही थीं । उनकी पूर्व की कहानियों के पात्र अमूमन 'सर्वनाम' वाले थे और वे प्रायः समय के लघु टुकड़े पर किसी एक ही मनःस्थिति में किसी अपने जैसे को संबोधित होते थे । ये किरदार अधिकतर मध्यवर्गीय, नगरीय युवा थे । किन्तु इधर की कहानियां और थोड़ा बाद में जाकर लिखा गया उनका उपन्यास खुदा सही सलामत है जीवन संग्राम का आख्यान हैं जिनमें सभी वगों समुदायों के किरदार अपनी समूची संज्ञा और विशेषण और पहिचान के साथ मौजूद हैं । ये किरदार केवल अपने जैसे किसी एक को नहीं अनेक को सम्बोधित कर रहे हैं । जब खुदा सही सलामत है लिखा जा रहा था तब कई बार उसके ताजा लिखे गए पृष्ठों को कालिया जी से सुनने का अवसर मुझे मिला । बाद में उसका प्रकाशन लोकभारती ने किया मगर मुद्रण कालिया जी के प्रेस से ही हो रहा था । कालिया जी ने मुझसे कहा, “तुम इसका प्रूफ पढ़ दोगे ।"

बेशक कालिया जी द्वारा दिया गया यह काम करके मुझको ख़ुशी हासिल होती लेकिन मुश्किल यह थी कि प्रूफ पढ़ने का काम मैं ठीक से जानता नहीं था; केवल एक दफा निष्कर्ष के कुछ पन्ने देखे थे जिसमें बाद में काफी गलतियां पायी गयी थीं । मैंने कहा, "मैं प्रूफ रीडिंग अच्छी तरह जानता नहीं हूं ।"

"चलो इसी बहाने सीख लोगे ।"

दोहरा लाभ हुआ : मैं वाकई बढ़िया प्रूफरीडिंग करने लगा जिसका लाभ आगे चलकर संपादन के काम में मिला । दूसरी बात, एक बेहतरीन उपन्यास छपने से पेश्तर पढ़ लेने का अनूठा अनुभव हुआ । पेश्तर शब्द से याद आया मैं प्रूफरीडिंग की प्रक्रिया में उर्दू के अनेक शब्दों से वाकिफ हो गया था । वह उपन्यास हिन्दू मुस्लिम समुदाय के तमाम सारे चरित्रों से जीवंत था; इसीलिए उर्दू के लफ्ज पर्याप्त इस्तेमाल हुए थे । जैसे उरूज, गायबाना, पेश्तर, मगरिब वगैरह । अच्छी बात यह भी कि लगे हाथ थोड़ा बहुत नुक्ता लगाने का भी तजुर्बा मिल गया था । यह जरूरी काम हुआ क्योंकि इसके पहले एक बार लफ्जों पर नुक्ता लगाने के शौक में आकर मैंने अपनी किसी कहानी में तमाम जरूरी जगहों पर नहीं लगाया था और उससे भी अधिक संख्या में गैरजरूरी शब्दों पर नुक्ता दे मारा था । फिलहाल चर्चा कालिया जी की आधुनिकता की हो रही थी तो अब धीरे धीरे मुझे दिखने लगा कि वह आधुनिकता के पैरोकार अवश्य थे; यह तथ्य उनकी जीवनशैली और उनकी रचनाओं में विन्यस्त भी था; किन्तु वह अपने मिजाज में, स्वाद आदि में आधुनिक से अधिक देशज निकले । उनको अपने और दूसरों के भी घर में कांटा छुरी चम्मच से भोजन करने से भरपूर विरक्ति थी । इन औजारों को देखते ही उनका जैसे पारा गरम हो जाता था । इतना ही नहीं, वह उम्दा चाय के शौक़ीन थे; बशर्ते वह कांच के गिलास में हो, कप प्याले में दिए जाने पर वह उम्दा चाय उनके लिए असह्य हो उठती थी । इसी प्रकार कम से कम अपने घर में डाइनिंग टेबल पर भोजन करने से उनको सख्त ऐतराज था । वह हमेशा सेंट्रल टेबल पर लंच, डिनर करना पसंद करते थे । उनके घर में डाइनिंग टेबल किताबें पत्रिकाएं, डिब्बे, बर्तन, अचार मुरब्बे आदि को रखने का स्थल था । ममता जी को मेरे ख्याल से डाइनिंग टेबल पर खाना पीना पसंद था लेकिन वह कालिया जी को इतना पसंद करतीं कि उनकी ही रुचियों को तरजीह देतीं । यह वजह भी हो सकती है कि कालिया जी अपनी पसंद नापसंद को लेकर जिददी और निर्णायक रहते थे । किसी की, चाहे ममता जी ही क्यूं न हों, गुजारिश, मनुहार का उनपर असर नहीं पड़ता था; उलटे वह ज्यादा जिद पकड़ लेते थे, चिडचिडा जाते । खाने के वक्त इसकी आशंका ज्यादा रहती थी । ममता जी बड़े प्रेम से कई सब्जियां बनाती लेकिन वह अड़ जाते एक ही से खाने के लिए । कहते, “मैं गरीब अध्यापक का बेटा हूं अतः एक से ही काम चलाऊंगा " ममता जी लाख आग्रह करें, उन्होंने बड़े प्रेम से पकाया है, यह खा लो वह भी खा लो, मगर उन पर असर नहीं पड़ता था । ज्यादा ज़ोर देने पर वह नाराज हो जाते । दूसरी तरफ ममता जी अपनी पसंदगी को उनके लिए कुर्बान कर देती थीं । वह यू.पी, की हैं और अग्रवाल हैं; जाहिर है कि उनकी अरहर की दाल, चावल में रुचि हो पर कालिया जी ठहरे जायका दा पंजाब वाले, चावल से दूर भागते और अरहर की दाल के विषय में उनका मत था, कोई कितना भी आकर्षक हो यदि अरहर की दाल खाए है तो उसके पास नहीं बैठ सकते । नतीजा यह था कि घर में अगर दाल पकती भी तो अधिकतर मूंग की बनती । पहनावे में भी ऐसी जद्दोजहद चलती रहती । वह चाहती उनके रवि बनठन के रहें; वह अपने रवि के लिए एक से एक बढ़िया और महंगे शर्ट पैंट जैकेट खरीदती पर रवि साहब ने उन दिनों कुर्ता पायजामा का फैशन धारण कर लिया था जिस पर सर्दियों में सदरी पहन लेते । वह कुर्ता पायजामा ही उनकी पोशाक थी और पावों में चप्पल । ठंड के मौसम में मोज़े चप्पल की अनोखी जोड़ी में ही वह सिविल लाइन्स, चौक तक घूम आते । ममता जी भी क्या करतीं, जब कालिया जी की ओर से कोई प्रोत्साहन नहीं था । उलटे उन्होंने ममता जी पर संस्मरण लिखते हुए कहा कि शादी के बाद जब वह वाशरूम से बाहर निकले तो ममता जी ने अपनी बांह पर रखा तौलिया उनके लिए पेश कर दिया । इस पर कालिया जी लिखते हैं कि वह पशोपेश में पड़ गए कि उनका विवाह किसी लेखिका की जगह किसी नर्स से हो गया है क्या । ऐसी प्रतिक्रिया के बावजूद ममता जी का प्रेम ही था जो उन्हें मजबूर करता, वह कालिया जी का खूब ध्यान रखें । कालिया जी के स्वभाव में था, वह अपने ही तरीके से रहना जीना पसंद करते थे । यदि कोई उनकी ज्यादा परवाह करता, देखभाल करने लगता, चाहे ममता जी ही क्यों न, तो उनको पसंद नहीं आता था; उन्हें महसूस होता कि उनकी आजादी में दखल दिया जा रहा है । दूसरी बात उन्हें वह चीज पसंद नहीं आती थी जो परंपरागत शिल्प में हो । इस कसौटी पर वह साहित्य ही नहीं आसपास के मानव व्यवहार को भी कसते थे । सम्मान प्रकट करने का तरीका हो या प्यार जताने का या विश्वास जगाने का, यदि वह फार्मूला पद्धति से उनके सामने अभिव्यक्त किया जा रहा है तो वह उनके लिए इमोशनल नहीं, कॉमिक हो जाता था ।

कालिया जी की जीवनशैली के सन्दर्भ में उनके देशज स्वाद का जिक्र कर रहा था । इलाहाबाद के उन दिनों में मैंने देखा था कि बाजार में उनके लिए भोज्य पदार्थ के नजरिये से सर्वाधिक रुचिकर स्थल कोई बड़ा बेशकीमती रेस्तरां नहीं बल्कि चन्नीलाल का ढाबा था; वहां से वह जबतब राजमा पैक कराकर लाते थे । इसे उनकी मितव्ययिता से न जोड़ा जाये इसलिए कहना चाहता हूं वह मितव्ययी नहीं फिजूलखर्च ही थे लेकिन अपने स्वादबोध की गिरफ्त में थे । बचपन का जायका हम सभी का ताजिंदगी पीछा करता रहता है; कालिया जी भी पंजाब का जायका तलाशते रहते थे । वह महंगे सितारा होटल में भी पंजाब के तड़के वाला इंटीरियर और सरसों दा साग, मक्के दी रोटी की तलाश करते । जब वह भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक थे तब इस नाते उनको इंडिया इंटर नेशनल सेण्टर की सदस्यता हासिल थी; वह खुद और अपने मित्रों मेहमानों को भी, ऑफिस के खर्चे पर वहां लंच डिनर करने कराने हेतु अधिकृत थे लेकिन वह वहां अपवाद स्वरूप ही जाते । मेरा जब दिल्ली जाना होता तो जितने दिन रहता रोज ही मिलना होता और दिन का भोजन उन्हीं के साथ करना रहता । करीब एक बजे के आसपास वह मेरी खोज खबर लेने लगते । कभी कभी कहते कि आज चलो आईआईसी चलते हैं मगर लंच टाइम आते आते वह गाड़ी अपने घर की तरफ मुड़वा देते । किसी किसी रोज वह रास्ते में पड़ने वाले एक खास ढाबे से मा की दाल या कोई सब्जी पैक कराते । हालांकि वह खाते बेहद कम थे । अपनी प्रसिद्ध कृति गालिब छटी शराब में उन्होंने लिखा भी है कि वह अपने को खाते पीते लोगों में नहीं वरन पीते पीते लोगों में शुमार करते थे । जब मैं इलाहाबाद में था तो एक दौर में यह स्थिति थी कि वह दिन में भी पीने लगे थे । वह देर से सोकर उठते, दस बजे तक नाश्ता करते और जरूरी कामधाम निपटाने के बाद साढ़े बारह, एक तक अपना पेग बनाना आरंभ कर देते । ढाई तीन तक खाना खाकर सो जाते । उठने के बाद शाम के सत्र की प्रतीक्षा एवं तैयारी । उनमें अपने ऊपर हंस सकने की शक्ति थी अतः वह अपना मजाक बनाते हुए कहते, “मैं तवायफ की तरह हो गया हूं जो हर दिन शाम का इंतजार करती है और शाम की तैयारी करती है ।"

मैं उनकी मयनोशी की बहुत सारी शामों का साक्षी रहा हूं, विशेष रूप से इलाहाबाद में । कारण यह था, जैसा बता चका हं कि मैं शनिवार को प्रायः कालिया जी ममता जी के घर चला जाता और सोमवार की सुबह वापस आता था । इस तरह दो शाम उनकी सोहबत में रहता ही था । कालिया जी को भी मेरी उपस्थिति में पीना पसंद था । क्योंकि उनका सिद्धांत अकेले बैठकर पीने के खिलाफ था; इस प्रकार की पियक्कड़ी को वह आत्मरति कहते; अगर मूड में हुए तो हस्तमैथुन कहते । कहने का अभिप्राय उनको मद्यपान के समय एक साथी चाहिए होता था । ममता जी घर में थीं किन्तु वह उनकी मयनोशी को न उत्साहित करती थीं न उसका विरोध करती थीं । यह भी था, वह अपने वक्त पर सोने चली जाती जबकि कालिया जी देर तक जागते, पीते थे । इस परिस्थिति में मैं मुफीद साथी था । इसलिए भी क्योंकि मेरे लिए शराब का खर्चा भी नहीं करना पड़ता था । यूं मैं श्रीलाल शुक्ल, रवीन्द्र कालिया, मुद्राराक्षस, देवी प्रसाद त्रिपाठी जैसी मदिरापान के लिए विख्यात शख्सियतों के नजदीकी सान्निध्य में रहा हूं लेकिन मुझमें उसके प्रति समुचित आदर तथा आकर्षण नहीं रहा है, उन दिनों तो और भी कम था । मदिरा से अधिक उसके संग चलने वाले चखने में मेरी रुचि रहती जिसमें कालिया जी की कतई दिलचस्पी नहीं रहती थी । इस प्रकार मैं उनके मदिरापान के समय ऐसा साथ देने वाला था जिस पर, कभी कभार के अपवादों को छोड़ दें, मदिरा के मद में खर्च नहीं करना था । जबकि जितनी देर सत्र चलता था मैं एक शानदार पियक्कड़ की तरह ही भरपूर मनोयोग से सम्मिलित रहता था । ऐसा भी अनेक बार घटित हुआ कि वार्ता की रौ में मैं कालिया जी से भी ज्यादा वाचाल हो उठता था; फिर भी वास्तविकता यही थी कि शराब पीकर कालिया जी अक्सर बहुत हिम्मती हो जाते थे और काफी मुखरता के साथ अपनी बात रखते । श्रीलाल शुक्ल जी और वह जब भी हमप्याला हुए तो शुरुआत परस्पर गहरे प्रेम से होती थी पर बाद में कालिया जी भिड़ जाते; उन पर परिमलवादी होने का इल्जाम लगाते । श्रीलाल जी पहले सफाई पेश करते, सुलह की कोशिश करते; लेकिन कालिया जी पर सकारात्मक असर न होता देखकर वह भी अपने शब्दों को पैना नुकीला करने लगते । इलाहाबाद के अपने छात्र जीवन में भी जब कालिया जी के साथ बैठकी करता तब भी अक्सर परिमल का जिक्र वह प्रतिपक्षी की तरह करते । उनकी निगाह में परिमल कवियों, कायस्थों, कलावादियों का समूह था जो मार्क्सवाद और कहानी जैसी प्रगतिशील विधा का विरोध करने के उददेश्य से गठित किया गया था । साहित्य के इतिहास में दखल रखने वाले जानते ही हैं, परिमल और प्रगतिशीलों के मध्य इस प्रकार के तनाव बेशक थे; जो धीरे धीरे अन्य बहस के तीव्र हो जाने के कारण कालांतर में शिथिल पड़ गए थे लेकिन कालिया जी आक्रमण का कोई अवसर कदापि नहीं खोते थे । इसी तरह साहित्य में कलावाद पर वह गाहे बगाहे चोट करते रहते । तीसरा दुश्मन था सी.आई.ए. । उन दिनों बहत सारे वामपंथियों के साथ साथ वह भी मानते थे कि यह अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी दुनिया के तमाम देशों सहित भारत में भी राजनीति, साहित्य, संस्कृति आदि में मार्क्सवाद के प्रसार के खिलाफ साम दाम दंड भेद का इस्तेमाल करती है और इस मुहिम में इन क्षेत्रों में सक्रिय कुछ लॉबियों को प्रश्रय देती है । इस आधार पर कालिया जी परिमल, कलावाद और सी. आई. ए. के बीच एका स्थापित कर देते थे । मैं इस तरह के विश्लेषणों से उत्साहित हो जाता था और महसूस करने लगता था कि सीआईए के निशाने पर मैं भी होऊंगा । अतः मैं प्रचुर उत्सुकता, संतोष और उत्साह के साथ उस अर्धरात्रि तक चलने वाले वार्तालाप में शामिल रहता था । वार्तालाप क्यों कहा जाए, वह किस्से की तरह था जिसमें मेरी भूमिका अधिकतर हुंकारी भरने वाले की तरह रहती थी । कालिया जी उस वक्त जी भरकर अपने मन का गुबार निकालते । वह इलाहाबाद में अन्य महत्वपूर्ण लेखकों की तुलना में बहुत बाद में आये थे; उनकी जड़ें उत्तर प्रदेश की नहीं सुदूर पंजाब के शहर जालंधर की थीं और इलाहाबाद का अपना विशिष्ट स्वभाव कि वह किसी नवागंतुक लेखक को जल्दी अपनाता नहीं था, उस पर रंदे चलाता था, तो कालिया जी को भी यहां बसने, रमने, स्वीकृति पाने के लिए बहुत कुछ झेलना पड़ा होगा जिसमें कुछ की बुरी, तकलीफदेह स्मृतियां उनके पास थीं । कालिया जी नशा आ जाने पर उन्हें याद करते और अपने विरोधियों के खिलाफ शुरू कर देते कठोर से कठोरतर टिप्पणियां । उनकी अपनी शैली थी; कभी विरोधी पर आक्रोश में आ जाते कभी उसका ऐसा प्रहसन उपस्थित कर देते जो प्रहार से भी ज्यादा मारक होता । मेरे लिए हैरानी की बात यह रहती कि अगले रोज वह उन्हीं लोगों से बड़ी हार्दिकता से मिल रहे होते थे । दरअसल उनकी आदत में शुमार था कि कोई बात दिल पर बड़े गहरे से ले लेते थे लेकिन थोड़े दिनों बाद भूलचूक माफ़ कर देते थे । इतने लम्बे साथ में मैंने उनके बहुत से विरोधी और दुश्मन देखे मगर उन्होंने कोई दुश्मनी अधिक समय तक नहीं निभाई । उलटे कुछ प्रसंगों में उसके पक्ष में खड़े होकर उसकी वाहवाही शुरू कर देते । एक दो बार मैंने उन्हें याद दिलाया कि ये आपके विरोध में थे । तब वह अपने को उदार और क्षमाशील बताने के बजाय कहते, “यह क्षमाशीलता मेरी महानता नहीं, मेरी रणनीति है ।” दरअसल कोई उनकी तारीफ करे तो उनको असुविधा सी महसूस होने लगती थी । वह एक उदार, यारबाश, सहृदय और जिंदादिल इंसान थे; अनगिनत लोगों की उन्होंने सहायता की, उनके जीवन को बेहतर बनाया; लेकिन आप यह उनसे कहते तो वह इसे तोहमत की तरह लेते थे । उनको इसमें मजा आता था कि लोग उन्हें खिलाड़ी, शातिर और 'इनसे कभी न टकराओ' वाला समझें । वैसे यह एक प्रकार से इलाहाबाद के मिजाज में समाया हुआ था । वहां सज्जनता और मासूमियत एक भयंकर दुर्गुण की तरह माना जाता था । वहां इस प्रवृत्ति के मनुष्य दयनीय, हेय और बोर समझे जाते थे ।

मेरा मन हो रहा था कि हर्ष के मारे वहीं कूदने लगूं

— कथाकार अखिलेश / जालंधर से दिल्ली वाया इलाहाबाद ... भाग १


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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1 टिप्पणियाँ

  1. जीता जागता समय खड़ा कर दिया अखिलेश ने।स्मृतियों को जीवन ऐसे ही मिलता है।

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