काई — '41 साल पहले' नवोदित कहानीकार उषाकिरण खान की परिपक्व हिंदी कहानी


हिंदी कहानी

परिपक्व हिंदी कहानी 

काई

— उषाकिरण खान

एक दिन विपिन ने कहा था - ‘‘इजोतिया को तुम क्यों नहीं अपनी एकआध चोली दे देती हो? तुम्हारे नाप का ही तो आयेगा।’’

‘‘वह पहनना ही नहीं चाहती है शैतान। कहती है बंधन-सा लगता है। लेकिन तुम उसके नाप के बारे में कैसे कह सकते हो? क्या बात है?’’ मैंने कृत्रिम क्रोध से कहा था।





'काई', कहानी के बारे में वरिष्ठ कथाकार उषाकिरण खान कहती हैं, "मुझे अब समझ आया क्यों बाबा नागार्जुन ने मध्यप्रदेश में किसी को बरजा था कि उषाकिरण खान को नवोदित लेखिका न कहो!" उषाजी ने अपनी तीसरी कहानी 'काई' 1978 में लिखी थी तब की बम्बई की 'आशीर्वाद प्रतियोगिता' में यह पुरस्कृत हुई थी। उन्हें अब उस प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार पाने वाले विमल विश्वास के सौजन्य से दोबारा मिली है. यानी हम इसे 41 साल बाद पढ़ रहे हैं।

हमेशा से ही बहुत परिपक्व लेखनी रही है उषाजी की. आप अपनी राय दीजियेगा।

भरत एस तिवारी

काई

चारों ओर पीताभ शांति फैली है। इस बाहरी गोल दालान में ऊंची कुर्सी पर बैठी मैं गेहूँ की पीली डंठल का बना पंखा झल रही हूँ। वैसे यहां शहर के मुकाबले गर्मी कुछ कम है तथापि मैं सह नहीं पा रही हूँ। लगातार बिजली-पंखे और एयरकंडीशनर में रहते-रहते आदत जो बिगड़ गयी है। अंदर हवेली में मेरी भौजाईयाँ नाश्ते-चाय के प्रबंध में जुटी होंगी। आज दालान पर शांति है। मुझे यह अच्छा लगता है। ऐसे में सोचा जा सकता है, फैली बड़ी-बड़ी आँखों से प्राकृतिक सौन्दर्य पिया जा सकता है।

घर के सामने बड़ा-सा खलिहान है और खलिहान के विस्तार के पार छोटी-सी कोसी नदी। हाँ, इन दिनों कोसी क्षीणकाय दुर्बल ऐंठी हुई रस्सी-सी दीखती है। इसे देखकर कोई यह सोच भी नहीं पाता कि मई के अंत होते-होते यह फोम की तरह पसरी बालुका राशि पर न केवल चादर की तरह फैल जायगी बल्कि सहस्त्र-मुख धारा होकर सागर-रूप धर लेगी। नदी के पार का लहलहाता खेत मेरे भाइयों का है। खेत क्या है, सोने का टुकड़ा है, ऐसा ही कहते हैं लोग। इसी पर भाइयों का परिवार निर्भर करता है। इसी पर इस गांव के चंद मजदूरों के परिवार आश्रित हैं। सुखी हैं अपनी-अपनी जगह, अपनी-अपनी सीमाओं में।

मैं पंखा झलते-झलते देखती हूँ, इजोतिया अपना बोझा बांधकर खड़ी हो जाती है। घास काटने का हॅंसिया पीछे की ओर कमर में खोंस लेती है और इधर-उधर ताकने लगती है कि कोई सहारा देकर बोझा उठा दे सिर पर। कहीं कोई आता-जाता नजर नहीं आता। आसपास जो है वे सब स्वयं तेजी से घास काटने में लगे हैं। काटना छोड़कर इसका बोझा उठाने क्यों आयेंगे। मेरे मन में विचार आया, क्यों न मैं ही चली जाऊं। किंतु मेरा अभिजात्य ऐसा करने से मुझे रोकता है। दालान से उतरकर खलिहान पार करना, खलिहान के विस्तार के पार छोटी-सी कोसी नदी का घुटनों जल पार करना और मेंड़ पर चलती हुई जाकर बोझा उठा सहारा देना अपने आप में मुझे हास्यास्पद लगा। तब तक कोई और आकर उठा देगा। मैं निरर्थक परेशान होऊंगी, यही सोचा।

किंतु आज से पच्चीस वर्ष पहले तक इजोतिया अव्वल तो अकेली घास काटने जाती ही नहीं थी, मैं भी उसके साथ भागी हुई जाती। किसी कारणवश छूट जाती और वह इसी प्रकार पूला बांधकर खड़ी राह जोहती होती, तो मैं सीधे दालान से कूदकर कुलांचे भरती हुई कोसी के पार होती। मेरा हाथ बोझे पर होता, बोझा इजोतिया के सिर पर होता। कोई फर्क नहीं पड़ता था कि मैं गांव के बड़े काश्तकार मालिक की बेटी थी और वह एक मजदूर की। कोई फर्क नहीं पड़ता था कि वह गांव में रहकर खेत और हवेली का काम करती थी और मैं शहर में रहकर कालेज जाती थी।

लेकिन अब फर्क पड़ता है। मेरे व्यक्तित्व पर आभिजात्य की गहरी काइ जम चुकी है। जमते-जमते काई पथरीली हो चुकी है। मैं मन में सोच चाहे जितना लूँ, कृत्य वैसा नहीं कर सकती जैसा आज से पच्चीस-तीस वर्ष पहले करती थी।

मां कहा करती थी कि मैं और इजोतिया एक ही दिन जन्मी थी। इजोतिया ने जब ढोढ़ाई के घर जन्म लिया तो सबको बड़ी खुशी हुई। गोरी-चिट्टी सुन्दर-सी बच्ची। अंधेरे घर की इजोत (रोशनी) मानी गई। कई अजन्में शिशुओं की असफल जननी, इजोतिया की मां इसे जन्म देते ही चल बसी। खुशी दुःख में बदल गयी थी। इजोतिया को उसकी दादी ने ही कलेजे से लगाकर पाला था। मेरी मां से गाय का दूध मांगकर ले जाती थी। मां का बड़ा स्नेह था उस पर।

मेरी देहरी लगकर ही वह एक दिन जवान हो गयी थी। मेरी उतरन पहनकर ही उसने दिन काटा था। मेरी मां उसे सदैव अपनी दूसरी बिटिया कहा करती थी। मैं तो मानती हूँ वही असली बिटिया थी। मां की सारी सेवा-सुश्रूषा उसी के जिम्मे छोड़ सब निश्चिंत हो गये थे। यहां तक कि अंतिम घड़ी में गंगा-जल टपकाने भी मेरे भाई लोग तब आये, जब उनकी आंखे पथरा गयी थी। और मैं? मैं तो श्राद्ध के बुलावे पर आयी हूँ।

हस्बमामूल, इजोतिया का ब्याह दस साल की कच्ची उम्र में ही हो गया था। लेकिन मां के यह कहने पर कि ‘‘अभी बच्ची है, इसे कहां ससुराल बार-बार भेजते हो’’ ढोढ़ाई ने यही रख रखा था। वह ढोढ़ाई की नाम मात्र की बेटी थी। उठना-बैठना, खाना-पीना, सोना तक मेरे ही घर होता था। मेरी लाख सहेलियां हों कॉलेज में, लेकिन मेरी अंतरंग तो इजोतिया ही थी। होस्टल में जब मैं लड़कियों से उसकी चर्चा करती तो सब हॅंस पड़तीं। मजाक भी उड़ाने से बाज नहीं आती।

और इधर इजोतिया या तो मां के पास बनी रहती या मेरी राह देखा करती। मेरी शादी में वह नाचती फिरी थी। मैं अंदर दुलहन बनी बैठी थी और वह तितलियों की तरह उड़-उड़कर हवेली दालान से सूचनाएँ ला-लाकर मुझे गुदगुदाती रही थी। मुझे यह देखकर बड़ा संतोष हुआ कि मेरे पति भी उसे नजर-अंदाज नहीं कर रहे हैं। मैं इसी सोच से उन दिनों उदास रहा करती थी।


व्याह और गौने के बीच की अवधि को हमने मजे से जिया। हम दोनों सूरज ढलते ही खेत की ओर निकल जातीं। कभी खेत में हरे भुट्टे तोड़कर भून लेती, कभी झौली मियां की बाड़ी से ककड़ी खरबूज चुराकर खाती। इसी भाग-दौड़ में एक दिन बबूल का कांटा मेरे पैर में चुभ गया था। अब तक उसकी कसक बाकी है। मेरे गौने के समय वह सिर पटक-पटककर, लोट-लोटकर रोती रही। मैं हैरान थी, तब वह कैसे रहती थी जो अब इतनी हलकान हुई जाती है।

पहला बच्चा होने के समय मैं मायके ही आयी हुई थी। यह हमारे यहां का खास रिवाज था। रात को आयी और सुबह ही मां के साथ शहर चली गयी। जहाँ डॉक्टर की सुविधा सुलभ थी। हड़बड़ी में भी इजोतिया को न देख मां से पूछा तो पता चला, उसके भी बच्चा होने वाला है और वह ससुराल में है। मेरे पहले बच्चे के साथ ही उसका पहला बच्चा हुआ।

‘‘इजोतिया, क्या खूब पीछा किया तुमने मेरा! बच्चा भी एक साथ ही पैदा किया।’’ मैंने उसके सुंदर गोरे बच्चे को चूमते हुए कहा था।

‘‘यह कैसे नहीं हो सकता है बहिनिया! मैं ससुराल भी तो तुम्हारे साथ ही बसने लगी।’’ वह लजा गयी थी।

‘‘क्यों भई, मेरे ससुराल जाते ही तुझे भी ससुराल की सुबुद्धि आ गयी? चल अच्छा हुआ। मगर है न अचरज की बात कि एक ही हफ्ते में बच्चों का जन्म हुआ हमारे।’’ मैं यू ही रौ में कहे जा रही थी।

‘‘मगर यह बच्चा तो तुम्हारे पाहुने का ही है। उस दिन की याद है मुझे जब गौने पर लेने चार दिन पहले से ही आ गये थे। तू कपड़ों से थी और मैंने उसी दिन सिर धोया था। पीछे गिरी पलानी में मैं निगोड़ी सोयी हुई थी। पाहुन रात को लघुशंका करने निकले थे, चोरबत्ती जलाते हुए। मेरे ऊपर रोशनी पड़ गयी होगी। वहीं उसने हाथ-बांह पकड़ी थी। मैंने कहा - क्या फर्क पड़ता है मुझमें और तुझमें। तू कपड़ों से है और मैं नहायी हूँ। पाहुन को कैसे बरजू? दामाद गांव के हैं ना कैसे करूँ? क्यों, तुझसे नहीं बतलाया था उसने?’’ वह हैरान होकर मुझे देखने लगी।

मैंने फॅंसे गले से कहा था- ‘‘क्या ऐसा था जो कहते। तू ठीक ही तो कह रही है - मैं न थी तू थी। तेरे पास के फारिग होके कोहवर में मुझसे ही तो लिपट कर सोया था न। लेकिन यह लाल उसी का है यह कैसे मान लिया तूने?’’

‘‘लो सुनो! दिन चढ़ गये थे मेरे। तेरे जाते ही मेरा ससुर भी लिवाने आ गया था। मालकिन मुझे जाने ही न देना चाहती थी। मैंने ही उन्हें कहा तो जाने दिया। पीछे झंझट न हो जाता।’’ बड़ी-बड़ी काली आँखों से तिरछी देखती बतला रही थी। यह उसकी खास मोहक अदा थी।

मेरी गोद में उसका बच्चा रोने लगा था, उसे उसकी गोद में दे दिया। वह बच्चे को छाती से लगा कर दूध पिलाने लगी थी। दूसरी हथेली से उसने अपने दूसरे स्तन को दबाया था कि दूध की धार निरर्थक बहकर बरबाद न हो। सोने का जोड़ा कटोरा मानो औंधा पड़ा हो, ऐसा सौन्दर्य था उसका।

एक दिन विपिन ने कहा था - ‘‘इजोतिया को तुम क्यों नहीं अपनी एकआध चोली दे देती हो? तुम्हारे नाप का ही तो आयेगा।’’

‘‘वह पहनना ही नहीं चाहती है शैतान। कहती है बंधन-सा लगता है। लेकिन तुम उसके नाप के बारे में कैसे कह सकते हो? क्या बात है?’’ मैंने कृत्रिम क्रोध से कहा था।

‘‘अरे नहीं ... ऐसी कोई बात नहीं है। बिल्कुल एकसी कद-काठी है न, सो ...’’ वह झेंप-से गये थे।

मेरे मन पर चोट लगी। विपिन ने मुझसे छुपाया क्यों? उसका विश्वास मैं जीत न सकी, दुःख हुआ। वहीं इजोतिया के बहनापे पर, उसकी निश्छलता पर प्यार आया। मैंने गौर से उसके अनावृत्त वक्ष की ओर देखा। कितना सुंदर है, हाय! सोच रही थी मानो ऊर्ध्वमुखी सोनलहरें एक से उपर एक चढ़ती जाती हों। मानो युग्म कबूतर सटे बैठे हों। मैं बच्चे के चेहरे में विपिन का अक्स ढूंढने लगी। पर ऐसा कुछ न लगा। वह मातृमुखी था।

विपिन की नौकरी दूसरे प्रांत में लगी थी। वह ऊपर ही ऊपर चढ़े जा रहे थे। मैं अपने छोटे-से घर-संसार में अधिकाधिक लिप्त हो गयी थी। कई वर्षों के बाद अपने भाई के विवाह के मौके पर आयी थी गांव। इजोतिया भी आयी थी। उसके पाँच बच्चे हो गये थे। हम अधिक समय तक उसका दुःख ही बतियाते रहे।

‘‘क्यों न तुम अपने बड़े बच्चे को मेरे साथ कर देती हो? मैं उसे वहां पढ़-लिखा भी दूँगी और घर के काम में मेरी थोड़ी-बहुत सहायता भी कर देगा। यहाँ तो हाथ में हरवाही पैना (लाठी) थामकर अपने बाप की तरह बरवाद हो जायेगा।’’ मैंने जाते समय उससे कहा।

‘‘आपने मेरा भार हलका कर दिया। ले जाइये इसे। छोड़ा भारी हरहट्टी हो गया है।’’ आजिजी से कहा था उसने।

मैं उसके बेटे को लेकर शहर आ गयी। उसने जल्दी ही सब कुछ सीख लिया। दोपहर के खाली समय में मैं उसे पढ़ाने लगी थी। लिखना-पढ़ना भी सीख गया था। लेकिन मेरे बदमिजाज बेटे ने उसे रहने ही नहीं दिया। वह उससे वही रिश्ता रखता जो एक अफसर-पुत्र नौकर के साथ रखता है। मैं यह नहीं सह सकती थी। विपिन भी बेटे का ही पक्ष लेते थे।

मेरी जुबान से बार-बार वह भेद फिसलने को होता जो बरसों से सॅंभाल रखा था। मुझे लगने लगा, मैं अधिक दिनों तक यह सब बर्दाश्त नहीं कर सकती। फिर मेरा सुविधाजीवी मन भय से भर गया कि कहीं यह चिनगारी बनकर मेरे छोटे-से सुखी संसार को राख ही न बना डाले। मैंने यह कहकर उसे गांव लौटा दिया कि वह पढ़े-लिखे और बालिग होकर मेरे पास आये, तब मैं कहीं अच्छी स्थायी नौकरी का प्रबंध भी कर दूँगी।

गांव की ओर बहुत कम आना हो पाता है। इससे कुछ दिन पहले भतीजों के जनेऊ पर गांव आयी थी। रास्ते भर इजोतिया के विषय में सोचती आयी थी। आते ही देखा वह काम में जुटी है।

‘‘तू सब छोड़कर आ, घड़ी भर मेरे पास बैठ।’’ मैंने उसका हाथ पकड़कर बैठाया पास।

‘‘देख नहीं रही, बहुएं कैसी आयी है। कम से कम छुटपुटिया काम भी नहीं करेंगी। माँ चीख-चीख कर हलकान हो जायेगी। जनेऊ के बाद ठहरेगी न तू, तब बैठकर बातें करेंगे हम।’’

सारे घर का भार उठाये फिर रही थी इजोतिया। मुझे कुछ करने नहीं देती। मेरे मन में सुखद उपालंभ सिर उठा रहा था। मां दिन-पर-दिन आश्रित होती जा रही थी उस पर। विपिन थोड़ी देर के लिए ही अंदर आ पाते, पर इजोतिया की ओर देखने की उन्हें फुरसत कहां थी। भाभियों से घिरे होते। इकलौते ननदोई थे न । इजोतिया भी काम की जल्दी में एकाध फिकरा कसके चल देती। जनेऊ की रस्म समाप्त हुई। विपिन ने जाना चाहा था । मैं कुछ दिन रहना चाहती थी। वे अकेले ही चले गये।

बहुत दिन बाद इजोतिया के साथ कुछ दिन रहने का मौका मिला था। गर्मी की छुट्टियाँ थी सो बच्चे भी रह गये थे। अब कोई शैतानी तो नहीं कर सकती थी, पर हां, खेत-खलिहान घूम-फिर लेती। कास के झुरमुट से पास बैठकर घंटों बतियाती। इधर गांव की अन्य हवेली वाली महिलाएँ मुझसे मिलने आकर लौट जातीं। तभी पता चला था, इजोतिया का पाहुन और बेटा दोनों सुदूर मोरंग धन कमाने गये थे। मां के कहने पर पाहुन ने इजोतिया का गोहिया (घर) ढोढ़ाई के बास-गीत पर ही बांध दिया था।

‘‘क्या करूं बहिनियां, बच्चा जनती-जनती खखरी हो गयी। गरीब की जिनगी ठहरी और मरद मुरूख पड़ा पल्ले। कितनों ने अपरेसन करवा लिया, छुट्टी पायी।’’ उदास थी वो।

सच, क्या कुंदन-सी काया थी इजोतिया की। इसे संभालकर नहीं रख सका। मैं मन ही मन सोच उठी।

‘‘अच्छा, तो तू ही चल मेरे साथ। मैं आपरेशन करवा दूँगी।’’

‘‘कैसे जाऊं? ये छह-छह बच्चे किस पर छोडू़ं?

‘‘मैंने भी कहने को कह तो दिया था पर भीतर डर गयी थी। मेरे बड़े लड़के को तो उसकी सूरत सुहाती नही थी। दबी जुबान से कई बार कह चुका था - क्या मम्मी, आप भी उस लिच्चड़ आया के साथ लगी रहती हैं।’’

‘‘बेटे, वह मेरी खास सहेली है।’’ मैं समझाती।

‘‘खाक! आपकी आयाएं सहेली हो गयी। यूं तो मम्मी, आप भी एक्सट्रीम पार कर जाती हैं। उसके बेटे को ले गयी काम करने। सिर चढ़ाना स्टार्ट कर दिया था।’’

‘‘आपकी मां समता के सिद्धांत का पालन करती है बेटे।’’ बिपिन भी मुस्कराकर कह उठता। और मेरी जुबान निगोड़ी मुंह के अंदर ऐंठने लगती।


अबकी मैं मां के श्राद्ध पर गांव आयी हूं। इजोतिया, मैली-कुचैली इजोतिया, सूखी-सिकुड़ी इजोतिया, अब भी मेरे घर का सारा काम कर, अपने बछड़े के लिए नित्य सांझ ढलने से पहले एक बोझा घास लेकर आती है। उसका स्निग्ध सौंदर्य जाने कहां लुप्त हो गया है। सूखी चमड़ी झूलती है। स्वर्ण-कटोरा स्तन सूखकर पसलियों में समा गया है। वह असमय वृद्धा-सी हो गयी है। शरीर में बाकी है उसकी बोलती आंखे, तिरछे देखने की अदा।

बांध पर मजदूरी करता हुआ उसका पति एक दिन अपनी एक टांग मोटे लट्ठे के नीचे दबा बैठा। तब से वह अपाहिज बना घर में बैठा रहता है। गालियाँ सहती इजोतिया सब कुछ करती रहती है, मैं चाहकर भी उसके बड़े बेटे को नौकरी न दिलवा सकी अब तक। अब तो उससे आँखे भी चुराने लगी। उसकी तिरछी आंखों का भाव मुझे आहत कर जाता है। मां जब तक थी पत्र देती रहती थीं - इजोतिया के बेटे के के लिए कुछ करना रम्भा। पाहुन से कहकर कहीं ठिकाना लगवा देना।

मैंने कई बार विपिन से कहा। उसने सिगरेट के धुंए के साथ उड़ा दिया। जब-जब ऐसा हुआ, मैं डरती रही - कहीं मेरे होंठों से वह भेद फिसल न जाये। कहीं वह चिनगारी बनकर ....

देख रही हूँ, किसी ने उसका बोझा उठा लिया है। वह झमकती हुई चली आ रही है। कुछ ही मिनटों में बोझा पटकेगी और सीधी मेरे पास आयेगी। कहेगी - अरे बहिनियां, यहां अकेली बैठी हो। चलो चाय पीने सब बाट जोह रहे हैं तुम्हारी, निर्लिप्त, निर्विकार। मेरी ही चिंता करती रहेगी।

और अभिजात्य की काई लगी मैं उसके लिए कुछ नहीं कर सकती। गेहूँ के डंठल से बना पंखा झलती हुई बैठी हूँ । इजोतिया अपने सिर पर घास का बोझ उठाये कनखी से मेरी ओर ताकती गुजर रही है - पीठ पीछे चमकता हुआ चौथ के चांद सरीखा हॅंसिआ कमर में खोसे हुए। उसकी तेज धार भी मेरे व्यक्तित्व पर लगी पथरीली काई को नहीं काट सकती।

००००००००००००००००




एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story: कोई रिश्ता ना होगा तब — नीलिमा शर्मा की कहानी
विडियो में कविता: कौन जो बतलाये सच  — गिरधर राठी
इरफ़ान ख़ान, गहरी आंखों और समंदर-सी प्रतिभा वाला कलाकार  — यूनुस ख़ान
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
परिन्दों का लौटना: उर्मिला शिरीष की भावुक प्रेम कहानी 2025
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل
रेणु हुसैन की 5 गज़लें और परिचय: प्रेम और संवेदना की शायरी | Shabdankan
एक पेड़ की मौत: अलका सरावगी की हिंदी कहानी | 2025 पर्यावरण चेतना
द ग्रेट कंचना सर्कस: मृदुला गर्ग की भूमिका - विश्वास पाटील की साहसिक कथा