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Love Poems in Hindi | मृदुला गर्ग: सुमन केशरी की उदात्त प्रेम कविताएं


Love Poems in Hindi


हम जानते हैं, जिसका अतीत नहीं होता, उसका भविष्य भी नहीं होता। जो केवल वर्तमान में रहता है, वह किसी प्रकार का रचनात्मक कर्म नहीं संवार सकता। इसलिए सुमन की कविताएं अतीत विरह की नहीं, अतीत अहसास की कविताएं हैं। — मृदुला गर्ग







मृदुला गर्गजी का गद्य पढ़ना साहित्य का सुखद अहसास है जब वह सुमन केशरी की कविताओं को पढ़ने से पैदा हुए अपने अहसासों को लिखती हैं तो प्रेम कविता पढ़ रसमय हुई उनकी क़लम कहती है:  'इससे पहले एक कविता में वे प्रेमी को अनन्तकाल में महसूसने के लिए, इन्हीं सब को उसे लौटा देने की बात भी करती हैं। फिर वही जाने अनजाने कही एक प्रेम कविता ! वाह!"

सुमन केशरी जी के राजकमल से प्रकाशित कविता संग्रह 'मोनालिसा की आँखें' की कवितायेँ आपने शब्दांकन पर पढ़ी होंगी अब पढ़िए उनके इस संग्रह पर वरिष्ठ साहित्यकार मृदुला गर्ग का आलोचनात्मक पाठ

भरत एस तिवारी



मृदुला गर्ग: सुमन केशरी की उदात्त प्रेम कविताएं 


अमरत्व को सहेजती, मन के कण कण को झंकृत करती, सुमन केशरी की रसीली और उदात्त प्रेम कविताएं पढ़ पढ़ कर मेरा हाल यह हो गया है कि लगता है कि मुझे प्रेम उपन्यासों का एक बार फिर सृजन करना पड़ेगा। क्या प्रेम का भी? सुमन को शिक़ायत है और वाजिब है कि मैं कहानी पर तो लिख मारती हूँ पर उनकी कविताओं पर अब तक विस्तार से नहीं लिखा। अब भई लिखूं तो तब, जब उनके मोहपाश से मुक्त हूँ ।

आँखें, मुस्कान नहीं, समझे आप

तो मैंने तय किया कि उनकी प्रेम कविताओं पर नहीं लिखूंगी। लिखूंगी उन कविताओं पर जो औरत के अनगिन पहलुओं पर हैं। औरत जो आधुनिक-पुरातन, हर तरह से औरत है, माँ है, बेटी है, मोनालिसा है, जो सपने देखती है, चिड़िया सी उड़ती है, पूर्वजों को याद करती है और मणिकर्णिका में स्तब्ध रह जाती है। यानी मैं उनके कविता संग्रह "मोनालिसा की आँखें" पर लिखूंगी। आँखें, मुस्कान नहीं, समझे आप! मोनालिसा की मुस्कान का राज़ जानने की कोशिश सदियों से हो रही है पर उसकी आँखें? उनकी वीरानी को पकड़ा है सुमन ने। एक औरत कवि ही उसका आंतरिकरण कर सकती थी। मोनालिसा पर उन्होंने 4 कविताएं लिखी हैं, लियोनार्दो के सिरजते दर्द को भी समझा है, जिस के कारण वे दे पाये अपनी कृति को पीड़ा, दर्द और असमंजस मुस्कान। पर जो सुमन को बेचैन करती है, वह है, मोनालिसा की आँखों की वीरानी। बार-बार वे पूछती हैं, क्यों इतनी वीरान हैं वे आँखें, क्या खोज रही हैं? फिर उससे सखी भाव या पूर्वज भाव जोड़ लेती हैं। कहती हैः
    मोनालिसा की वीरान आँखें
    न जाने क्या खोजतीं
    लगातार पिछुआ रही हैं
    मुस्काती
    आख़िर उसी का अंश तो हूँ मैं भी
    यहाँ से वहाँ तक निगाहों से पृथ्वी नापती
    मुझे देखती हैं
    मोनालिसा की आँखें।
कितना सार गर्भित पर्याय है अंग्रेज़ी "हान्ट" का, पिछुआ रही हैं।

मैं कवि नहीं हूँ। काव्य को केवल कविता मानें तो उसका आलोच्य ज्ञान नहीं है। पर काव्य में तो तमाम विधाएं शामिल हैं। फिर एक कवि हृदय तो है मेरे पास। कविता को गद्य में ढालने या गद्य को कविता मय बनाने का शऊर भी है। तो क्षमा याचना के साथ,अपनी सीमित सामर्थ्य से लिख रही हूँ।

इस संग्रह की कविताएं, औरत को हर कोण से, हर रूप में, हर संघर्ष से गुज़रते और विजय पाते देखती हैं। फ़्लैप पर लिखा है, यह एक आधुनिक स्त्री की कविताएं हैं। नहीं, अशोक जी, मैं ठहरी स्त्री, तो मुझे कहना पड़ेगा कि यह समय से परे या शाश्वत स्त्री की कविताएं हैं। अब की, तब की, हमेशा की स्त्री।

पहली कविता "उसके मन में उतरना" मेरे मन में गहरे उतर मुझे समझा गई कि सुमन केशरी, हर औरत के मन में उतरने की संवेदना और काव्य कौशल रखती हैं। कविता की शुरुआती पंक्तियाँ हैः
    उसके मन में उतरना
    मानों कुएँ में उतरना था
    सीलन भरी/ अँधेरी सुरंग में...
    और अंतिम पंक्तियाँ हैः
    तब मैंने जाना कि/
    उसके मन में
    उतरना
    मानों किसी गहरे कुएँ में उतरना था
    जिसके तल में
    मीठा जल भरा था।
सीलन भरी अँधेरी सुरंग, मीठे जल में कैसे परिवर्तित हुई, उसके पीछे दारुण पीड़ा और भयावह मार की आयुपर्यन्त यंत्रणा पर, मन की अबाध शक्ति द्वारा, एक औरत की विजय पाने की कथा है। सहनशीलता की नहीं, निर्भीकता की।



गहरे मर्म की बात

    स्तब्ध देख
    उसने मुझे हौले से छुआ...
    जानती हो?
    बेबस की जीत आँख की कोर में बने बाँध में होती है
    बाँध टूटा नहीं कि बेबस हारा
    आँसुओं के नमक से सिंझा कर
    मैंने यह मुस्कान पकाई है।
वह आधुनिक नहीं गाँव की गँवई औरत है, हमारी पूर्वज।

आपने देखा, जब वह औरत गहरे मर्म की बात कहती है, जिसे दार्शनिक भी कह सकते हैं तो गद्य में बोलती है — बेबस की जीत आँख की कोर में बने बाँध में होती है — ऐसा काफ़ी  कविताओं में होता है, ग़ौर से पढ़ेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा।

पुस्तक में सुमन ने पूर्वजों पर 4 कविताएं लिखी हैं, अपने पूर्वजों से मिलने की ललक के साथ। पर वह ललक तो पहली कविता में ही पूरी हो गई होगी, जब उन्होंने अपनी असली पूर्वज स्त्री को आंका और सराहा।

"सुनो भर्तृहरि" कविता में यह पूर्वज पुरुष है, ऊपर से धुरंधर विद्वान और कवि, इसलिए वहाँ मन की निर्भीकता से कमाई जीत नहीं, स्त्री सुलभ आशंका है, अपना रास्ता तलाश करती स्त्री की।
    सुनो भर्तृहरि
    तुम्हारी कही जाने वाली गुफ़ा के निपट एकान्त में उतर
    बस खड़ी हुई थी पल भर
    तुम्हारा नाम
    अपने मन में पुकारती हुई...
    तुमसे नाता जोड़ती हुई
    कि याद आ गया
    कि अन्ततः मैं एक औरत हूँ
    औरत भर...
गद्य रूप में प्रस्तुत यह मर्म की  पंक्ति, तुम्हारी कही जाने वाली गुफ़ा के निपट एकान्त में उतर।

संवेदना-करुणा-संतुलन-संयम

पूर्वजों और अतीत से मुखर मोह के बावजूद, मैं कहना चाहती हूँ कि ये कविताएं नॉस्टाल्जिया या अतीत विरह की नहीं हैं। उनमें एक स्त्री द्वारा अपनी जड़ों की तलाश है, पीढ़ी-दर पीढ़ी औरत में, इस तरह कि एक कड़ी चली आए, आदिम औरत से आज की औरत तक। ऐसी कड़ी जो उलझी भले हो, टूटी कभी नहीं। अनेक स्त्रियों को सर्जित करके वह अपना अतीत मुकम्मल करना चाहती है। हम जानते हैं, जिसका अतीत नहीं होता, उसका भविष्य भी नहीं होता। जो केवल वर्तमान में रहता है, वह किसी प्रकार का रचनात्मक कर्म नहीं संवार सकता। इसलिए सुमन की कविताएं अतीत विरह की नहीं, अतीत अहसास की कविताएं हैं। इसलिए जितनी माँ की स्मृति में हैं, उतनी ही बेटी की शख्सियत पर फ़ख्र और उसके मुस्तकबिल पर यक़ीन की भी हैं।

सुमन के पास गहन संवेदना और करुणा भाव है और शब्द गढ़न में संतुलन और संयम। प्रचलित मुहावरों के बजाय मौलिक और मार्मिक बिम्ब।

कितनी सहजता से वे माँ से कहती हैः
    पर एक दिन माँ
    हम बचपन की बगिया में वापस चलेंगे
    तुम वहाँ रहना माँ
    मैं आती हूँ किसी दिन
    लुका छिपी खेलने
    खेलेंगे हम तुम हिल-मिल
    बचपन की बगिया में... 
उसी भीगे अन्तर्मन से बेटी को सम्बोधित करती हैः
    सुनो बिटिया मैं उड़ती हूँ
    खिड़की के पार
    चिड़िया बन
    तुम आना...

एक जगह बिम्ब बगिया का है तो दूसरी जगह चिड़िया का। कवि हृदय खेलना चाहता है अतीत की बगिया में और बतला रहा है भविष्य को कि वह चिड़िया बन उड़ेगा, वह देखे उसका बनना।

अगर ये अतीत विरह की कविताएं होतीं तो सुमन "यह जो अतीत है" कविता न लिखतीं:
    यह जो अतीत है
    जब तब तिर आता है पानी पर तेल-सा
    दम घोंटता
    आदमी भले ही बदल जाए
    उसकी छवि नहीं बदलती
    टँकी रहती है वह
    देह पर
    मन पर
    आत्मा पर...

वे न देह को नकारती हैं,न आत्मा को; तन मन आत्मा मिल कर रचते हैं स्त्री को,उसके अतीत को। अतीत को महिमा मंडित नहीं करना, बस सही सही जानना–समझना है, अहसास से, चिन्तन से। माँ ही नहीं, वे पिता को भी याद करती हैं पर आते वे सपने में हैं।
    पिता
    अगर तुम अचानक ही न आ जाते होते
    कभी-कभार
    तो मुझे सपने कभी अच्छे न लगते...



सजग,  संयम  कभी भावुक

सुमन ने सपनों पर भी 5 कविताएं कही हैं। उनमें फिर कोई रोमानियत या भावुकता नहीं है, है बस सजगता और संयम। कभी भावुक हो जाएं जैसे यहाँ
    मुझे सपने अच्छे लगते हैं
    खोजती रहती हूँ
    उनमें मैं अपना सत्व
    जाने किस दिन किस ठौर मिल जाए
    वो औचक ही...
तो फ़ौरन सम्भल जाती हैं और हमें दूसरी कविता में ये पंक्तियाँ देती हैः
    मगरमच्छ को नाव
    पर रास्ता नहीं मिलता
    मैं सपनों में भटकती रहती हूँ
    अतृप्त आत्मा-सी।

एक लम्बी कविता के पद

एक बात ज़रूर लगती रही। जिन विषयों पर कवि ने 4 या पाँच कविताएं लिखी हैं जैसे पूर्वज, माँ, सपने, मोनालिसा, धमाके के बाद या मणिकर्णिका, वे दरअसल एक लम्बी कविता के पद हैं, अलग कविताएं नहीं। उन्हें अलग करके कविता को कड़ी रूप में लिखना, शिल्प की माँग है, कथ्य की नहीं। मुझे नहीं लगा कि उन्हें अलग करके लिखने से उनका प्रभाव बढ़ा है, हाँ, अपेक्षा ज़रूर बढ़ती है। पर यह मेरी निजी अनुभूति हो सकती है। अन्य पाठकों का रसास्वादन भिन्न हो सकता है। 

जिस औरत का मैं ज़िक्र कर रही थी, उसके बारे में मुझे सबसे हृदयग्राही कविता लगी, "आह! क्या यह मैं ही हूँ..." बिना उद्वेग, विद्वेश या हीनभाव, यह स्त्री के अन्तर्मन के सहज भावना को शब्दों में पिरोती है।
    आह क्या यह मैं ही हूँ
    मैं अदना औरत
    तुम्हारी उकेरी इन रेखाओं में
    पत्थरों में जान डालती इन मूर्तियों में
    कागज़ के पन्नों में छिपीं गाथाओं में...    
    कितने भाव हैं इन चित्रों में
    और कितनी कोमलता तुम्हारे स्पर्श में
    एक छुअन भर में/प्रस्फुटित हो जाता है तन-मन
    लाज डर के पर्दे हट जाते हैं
    और मैं अनावृत भी तुम्हारे वलय में
    सुरक्षित कालातीत तक...

हर माँ का अनुभव

जो कविता अनकहे बहुत कुछ कह जाती है, और हृदय को भीतर तक चीर जाती है, वह है, बा...  शीर्षक तक तो अनकहा छोड़ दिया गया है। जो अनकहा रह गया है, वही हर माँ की कहानी है। प्रत्येक स्त्री इस कविता को अपनी हड्डी, मंजा, रोम-रोम में महसूस करेगी। यह हर माँ का वह अनुभव है, जो जीवन में कभी न कभी उसने भुगता ही होगा।

फिर इतना अल्प, इतना संयमित निवेदन। शब्दों का ऐसा चयन, जो माँ के गर्भ को ईश्वर की सृष्टि के समकक्ष रख देता है। पर आत्मा है कि धीमे स्वर में रुदन करती है, धरती पर अपने  प्रिय पर पति के सामने।
    मैं देख रही हूँ
    उस तारे को अस्त होता-सा/
    जिसे पहली बार मैंने देखा था
    आकाश गर्भ में
    या कि महसूसा था
    अमृत झरने-सा
    अपने कुंड में....

    सुनो जी
    वह केवल तुम्हारा बेटा ही नहीं है
    मेरा भी वह कुछ होगा
    सुनो तो
    कुछ उसकी भी सुनो तो... अपने ही तारे को अस्त होता देखना
    मरने जैसा है धीरे- धीरे...
एक सपाटबयानी — वह केवल तुम्हारा बेटा ही नहीं है। इस वाक्य को पद्य की ज़रूरत नहीं है।

फिर वही जाने अनजाने कही एक प्रेम कविता ! वाह!

सुमन केशरी प्रकृति को क़रीब से, अन्तर्मन से, दिमाग़ से, देह की स्फ़ुरन से महसूस करती हैं और पूजती हैं। चिड़िया, पेड़,भोर, मोर, कोयल की कूक, सब उनकी कविताओं में ऐसे मौजूद रहते हैं जैसे निकटतम परिजन।

तभी वे बचाना —1  कविता में कहती हैः
    मैं
    बचा लेना चाहती हूँ
    ज़मीन का एक टुकड़ा
    जिस पर क़दम रखते ही
    सुनी जा सके
    स्मृतियों –विस्मृतियों से परे
    आत्मा की आदिम आवाज़
    जहाँ शेष रह गये हों
    क्षिति जल पावक गगन समीर
    अपने मूल रूप में।

इससे पहले एक कविता में वे प्रेमी को अनन्तकाल में महसूसने के लिए, इन्हीं सब को उसे लौटा देने की बात भी करती हैं। फिर वही जाने अनजाने कही एक प्रेम कविता ! वाह!

उनकी अंतिम कविता औरत, औरत के विराट सृजनात्मक रूप को चन्द शब्दों में प्रस्तुत कर देती है। उसे न किसी उपकरण की ज़रूरत है,न किसी दैवी या इंसानी संरक्षण की। वह अपने अंग प्रत्यंग का उपयोग कर महज़ एक लोटा पानी और रोटियों के सहारे तपते बियाबान की बसावट कर लेती है। कुछेक हों तो एक एक घर करके पूरी बस्ती ही बस जाए, बस जाती है। 
    रेगिस्तान की तपती रेत पर
    अपनी चुनरी बिछा
    उस पर लोटा भर पानी रख कर
    और उसी पर रोटियाँ रख कर
    हथेली से आँखों को छाया देते हुए
    औरत ने
    ऐन सूरज के नीचे एक घर बसा लिया।



अहसास की अन्तरंगता

और अब ज़रा एक निजी बात कर लें। एक कविता "कूक! नहीं" की पंक्तियाँ इसलिए, क्योंकि मैंने भी कुछ वैसा ही अपने लघु निबन्ध में लिखा था, 2011 में त्सुनामी के कारण फ़िकोशिमा परमाणु रियाक्टर से विकीरण होने के अगले महीने। "शिरीश, शापग्रस्त कोयल और चैरी का बौर।" उसका एक अंश था,
"तभी देखा, महकते हरियाये पेड़ों को नज़रअंदाज़ कर, बागीचे की इकलौती कोयल, सारे पत्ते झाड़ चुके कीकर की कांटेदार टहनी पर निस्पन्द, निश्चल, बैठी थी। समाधिस्थ। किसके ध्यान में लीन थी? क्यों बैठी थी गुंजान को छोड़ वीरान पर? किसका शोक कर रही थी? मुझे लगा वह मैं हूँ। एकटक उसे देखते, मैं अपने भीतर उस प्रदेश में पहुँच गई, जहाँ जो था वीरान था। पुष्पित शिरीष से मुँह फेर, वीरान कीकर पर बैठी एकाकी कोयल मनुष्य की करतूतों का ही शोक कर रही होगी..."

और सुमन ने लिखा हैः
    इतनी सुबह /कोयल की यह कूक कैसी
    आम के पत्तों-बौरों के बीच छिपी
    मदमदाती, लुभाती
    गूँजती कूक नहीं
    ... उस बियाबन में
    एकाकी खड़े पेड़ के पत्तों–बौरों में
    छिपी एक कोयल
    शायद
    और उसकी चीख़
    कूक नहीं...कूक नहीं...


कैसा संयोग है कि हम दो मित्रों के मन में एक ही भाव उभरा। क़रीब क़रीब एक साथ। मैंने लिखा अप्रेल 2011 में, सुमन ने 2012-13 में। नहीं यह संयोग नहीं है, अहसास की अन्तरंगता है।

और अन्त में मणिकर्णिका। अन्त में मणिकर्णिका नहीं तो क्या होगा। वही जो अन्त है और पुनर्जन्म? शायद हाँ। कलेजे को चींधती कविताएं हैं वे सब और वैराग्य को जगाती। उनमें से एक कविता और नम आँखों से पटाक्षेप।

    दो चटकती चिताओं के बीच
    महाब्राह्मण
    निसंग भाव से/गंगा में तिरती नावों को देखता
    पीठ किये एक चिता को
    धोती सुखाता
    दूसरी की आँच में/ प्रेत-सा खड़ा...



(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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