स्त्री यौनिकता की कहानी — महुआ मदन रस टपके रे — विभा रानी


स्त्री यौनिकता की कहानी — महुआ मदन रस टपके रे — विभा रानी

‘हमारी कोई इच्‍छा ही नहीं? बस, उनकी तृप्ति तक ही अपनी यात्रा? अधूरी यात्रा छोड़ने का दर्द तुम क्‍या जानो मदन बाबू?’ एक फिल्‍मी डायलॉग की तर्ज पर यह वाक्‍य महुआ के मन में आया। इस तनाव में भी महुआ मुस्‍करा पड़ी।



स्त्री यौनिकता की महत्ता को साहित्य ने भी कम नहीं दबाया है. क्या लैंगिक समानता की बात स्त्री कामेच्छा के विषय को दरी के नीचे सरका देने से सफल हो पायेगी? विभा रानी की कहानी पढ़ते हुए उसमें सबसे सुखद कहानीपन होता है; यह उनके लेखन को उनके समकालीनों में अलग से चमकाता है...यही 'शब्दांकन' में उनकी कहानी रंडागिरी को बहुपठित बनाये रखता है. 'महुआ मदन रस टपके रे' में उन्होंने स्त्री यौनिकता को संतुलित कहानी का साथ देकर खूबसूरती से समझाया है. विभा रानी को बधाई! 

भरत एस तिवारी



स्त्री कामेच्छा

महुआ मदन रस टपके रे


महुआ का मन मस-मस कर रहा था। देह की सारी नसें अनकहे दर्द से खिंच रही थीं। हाथों की हड्डियां कनकना रही थी। पूरी देह अजब तरीके से तनकर लाल चींटी कटे सी बिसबिसा रही थी।

महुआ के लिए यह नया नहीं था। हर मास में तीन-चार दिन, या यूं समझो, सप्‍ताह भर उसका मन यूं ही कबकबाता रहता है, जैसे गला काटनेवाला ओल खा लिया हो। डॉक्‍टर कहते हैं– ‘हॉर्मोनल चेंज। बॉयोलॉजिकल नीड। इट्ज ए टाइम फॉर क्रिएशन ऑफ एग्‍स! ओवुलेशन पीरियड! नैचुरल! नेचर्स कॉल!

स्त्री कामेच्छा की कहानी — महुआ मदन रस टपके रे — विभा रानी
विभा रानी
नेचर, यानी प्रकृति। मनमौजी प्रकृति सबकुछ अपने समय से तैयार करके दे देती है धरती के सभी जीवों को। सभी जीव प्रकृति की दी नेमत पर अपनी-अपनी प्रकृति से चलते हैं। मगर मनुष्य-रूपी जीव इन सबसे ऊपर है। वह हमेशा प्रकृति के संग ‘तू डाल-डाल, मैं पात-पात’ की फिराक में रहता है – अपने नियम-कायदे-कानून में बांधने की वैध-अवैध कोशिश के संग! मनुष्य और मनुष्य का बनाया समाज कहता है – पहले ब्‍याह फिर कुछ और। मनुष्य न प्रकृति की प्रकृति को समझना चाहता है, न नर-नारी की प्रकृति को। महुआ चिढ़ती है- ‘दुनिया क्‍यों नहीं समझती यह सब? ये क्या बात हुई पहले शादी फिर बॉयोलॉजिकल नीड उम्र और इच्छाओं से इस भरे तन- मन को लटका आओ बेल के पेड पर!


संस्कारों के गजगज बंधन से बजबजाता महुआ का मन। अकुलाई महुआ नेचर कॉल की पूर्ति कैसे करे? नेट पर वह सबकुछ पढ़ गई है। अपने डॉक्‍टर दोस्‍त से सारा मामला भी समझ लिया है, लेकिन इसके आगे? प्रकृति की मांग पर मनुष्‍य के बनाए नियम-कायदे-कानून इतने भारी क्‍यों? चौदह साल की उम्र से बदलाव आया है बदन में। जाहिर है मन में भी। देह दिखती है, देह का विकास दिखता है। देह पर लौंडे-लपाड़ों के कमेंट्स सुनती है– बीएचएमएच। माने? बड़ी होगी, माल होगा। छोकरे दाँत निपोरते हैं, उसकी उभरती जगहों को देखते हैं, उन्हें छूते- छेड़ते हैं, हा- हा, हू-हू करते निकल जाते हैं। महुआ कसमसाकर रह जाती है।

अगले पल का ठिकाना नहीं और बीती उम्र की बात! राजीव गांधी को पता था, अगले पल क्या होनेवाला है? बेनज़ीर भुट्टो जानती थी, अगले पल वह कहाँ पहुंचनेवाली है? और तुम्‍हें ही पता है, अगले पल क्‍या होनेवाला है तुम्हारे साथ?’ महुआ कसकर मदन के दोनों गाल मसल देती है और अपने ओठों से उसके ओठ पीने लगती है –‘ये है अगला पल! सोचा था कभी?

मगर मन? नहीं दिखता। मन की बातें नहीं दिखतीं। किससे बताए इन छोकरों की ये निर्लज्ज बातें और हरकतें। लेकिन ये ही बातें उसे अकेले में अपनी देह देखने पर मजबूर कर देती हैं। देह के रास्ते मन में इच्छाओं की कुंडली साँप बनकर पैठती चली जाती है। इसी कुंडली के घेरे में कैद चौदह से एक-एक कदम बढ़ाती आज वह चौंतीस की चौखट पर चढी खड़ी है- तन-मन, इच्छा और सामर्थ्य से भरी- एकदम चाक-चौबस्त। 

यस! आई लाइक पॉर्न! हैव यू एनी प्रॉब्‍लम?’ प्रॉब्‍लम बस इतनी है कि खुद ला नहीं सकती। दुकानदार ऐसे घूरने लगता है, जैसे वही पॉर्न स्टार हो। महुआ कहती- ‘जब मैं मार्क्‍स, धूमिल, गोरख पांडे, राजेन्‍द्र यादव, अमितावा कुमार, देवदत्त पटनाईक को पढ़ती हूं, निशांत, अंकुर, चक दे इंडिया, थ्री इडियट्स, गुलाल, इंग्लिश-विंगलिश देखती हूं, एट द सेम टाइम, मेरी इच्‍छा होती है पॉर्न पढ़ने की, ब्‍ल्‍यू फिल्‍म देखने की। गलत क्या है इसमें? बोलो?’

मदन ला देता है। महुआ का मन राजेन्द्र यादव को पढ़ते हुए उनके विचारों की सटीकता में खोता है, उदय-प्रकाश की ‘पीली छतरीवाली लडकी’ में घूमता है, रणेन्द्र कुमार के ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ में भटकता है, अनामिका की कविताओं में खोता है, वहीं पॉर्न देख-पढ़कर उसका मन सहरा की धूल भरी हवा की तरह हुहुआता है। मदन उसकी सनसनाती देह को समेट लेता है। महुआ के बदन का रेशा-रेशा सेमल की रूई बनकर हवा में उड़ने लगता है। मन का सेमल उससे भी ऊपर उड़ता है, ऊपर।  और ऊपर! मन ऊपर उड़कर बादलों में मिल जाता है। महुआ नहीं पहचान पाती कि यह मन का सेमल है या बादल। ठीक वैसे ही कि यह मदन की संगत है या पॉर्न फिल्‍म या किताब का असर। यह मार्क्‍स है या उदय प्रकाश, आमिर खान या अनुराग कश्यप!

महुआ को स्कूल में पढ़ी कविता- पंक्ति याद आती है –
      ‘तुमुल कोलाहल कलह में
      मैं हृदय की बात रे मन!

हृदय बसता है देह में और देह ही कहती है हृदय की बात! यह देह न रहे तो मन, मस्तिष्‍क, हृदय, दिल, फेफड़ा, प्राण– सब बेकार! किसका –किससे आलाप-वार्तालाप-संलाप!!
महुआ ने देह को पहचानना शुरू किया, जब वह नौंवी कक्षा में गई। डर से भरकर रोते- रोते मां को बताया –‘मां, बहुत सारा खून... !’ पढ़ी-लिखी मां भारतीय हिचक और संकोच की शॉल ओढ़े महुआ को डग-डग बढ़ता देखती रही थी। लेकिन, नहीं बताया था महुआ को उम्र की स्वाभाविकता– नॉर्मल...  नैचुरल... !

बट!’ महुआ भड़कती है।

बट व्‍हॉट!’ मदन समझने की कोशिश करता है।

अरे यार! नॉर्मल या नैचुरल है तो इसे इतना गलीज और शर्मनाक क्‍यों समझा जाता है! तुम्‍हारे दाढ़ी-मूंछ निकलने को तो कोई शर्म नहीं घेरती? शुक्र था कि मैं उस दिन घर पर थी, छुट्टी थी। स्‍कूल में होती तो? को-एड में पढ़ती थी।

तो क्‍या? बॉएज आ’ नाऊ ए डेज वेरी सेंसिबल एंड सेंसिटिव। वे तुम्‍हें किसी लेडी टीचर के पास ले जाते।

नाऊ ए डेज ना! इन आवर डेज... !

उन दिनों भी कोई ना कोई मिल जाता अच्छा –सा!

हाऊ कूल यू आ’!’ प्‍यार में भर महुआ मदन के नंगे सीने को सहलाती उसके वक्ष को दबोच लेती है।

यू नॉटी गर्ल।’ मदन उछलता है। उसे थपथपाता है। वे दोनों धीरे-धीरे एक-दूसरे की ऊंचाइयों को पार करने लगते हैं। दोनों की हंसी, खिलखिलाहट, कसमसाहट, सिसकारियां और अंतिम सीत्‍कारों की बूंदें दरवाजे और खिडकियों पर फूलदार पर्दे और झालरें बनकर चमक उठते हैं- ओस की भीगी बून्दों सी!

महुआ कहती है -‘मेरी समझ में नहीं आता कि इस नॉर्मल और नैचुरल नीड को पूरा करने के लिए शादी क्‍यों की जाए? नो मॉरल-वॉरल। ……..बु‍लशिट! ………..आई डोंट बिलीव।’ संस्कार को पुराने कपडे सी चर्र-चर्र फाड रही है महुआ।

संस्‍कारों की चाशनी में पगे घरों के बच्‍चे उस चाशनी में चींटी की तरह डूब जाते हैं या उससे जान छुड़ाकर भाग खड़े होते हैं। महुआ ने इस चाशनी पर चींटी की तरह लिसड़े-लिथड़े बहन और भाई को देखा, मम्‍मी-पापा, चाचा-चाची को देखा– पीढियों का कोई फर्क़ नहीं! एक ही क्रिया-‍प्रक्रिया! शादी से पहले अधर्म और शादी के बाद धर्म! शादी से पहले करो तो उपदेशों की बौछार, शादी के बाद न करो तो भाषण की धुरझाड़!

कौन सा सींग जुड़ जाता है शादी करके?

मदन बेहयाई से महुआ का सर नीचे कर देता है! महुआ तिलमिलाकर उसके ऊपर मुक्‍के की बरसात कर देती है।

हम साथ-साथ रहेंगे। बस! अपनी नीड और मॉरल सपोर्ट के लिए। न तुम मुझसे हस्‍बैंड जैसा बिहेव करोगे न मैं वाइफ बनकर तुम्‍हें कोसूंगी।

तो क्‍या हम कभी शादी-वादी…………?

करेंगे, यदि लगा तो………… पर जरूरी नहीं कि तुम्‍हारे साथ ही …………

क्‍या कहोगी उसे?

सबकुछ! …………होना, रोना, सोना, खोना …………फिर उसकी मर्जी!

स्‍वीकार कर लेगा?

मैं कोई चेक या ड्राफ्ट हूं या भीख के ठीकरे कि स्‍वीकारे-अस्‍वीकारेगा?'

उम्र बीतने पर?

हेहेहे! अगले पल का ठिकाना नहीं और बीती उम्र की बात! राजीव गांधी को पता था, अगले पल क्या होनेवाला है? बेनज़ीर भुट्टो जानती थी, अगले पल वह कहाँ पहुंचनेवाली है? और तुम्‍हें ही पता है, अगले पल क्‍या होनेवाला है तुम्हारे साथ?’ महुआ कसकर मदन के दोनों गाल मसल देती है और अपने ओठों से उसके ओठ पीने लगती है –‘ये है अगला पल! सोचा था कभी?

विद्यापति की विपरीत रति से रत-विरत महुआ विपरीत विमर्श में है। पुरुष और स्‍त्री विमर्श से अलग! ‘धार में मत बहो- धार को अपनी ओर मोड़ लो।’ यही जीवटता है। यही बहादुरी है। महुआ इस जीवट भरी नाव को खेती है, कभी धीरे-धीरे, कभी तेज-तेज। कभी चप्पू एकदम छोड़ देती है, कभी सख्ती से थाम लेती है।

मदन आतंकित हो जाता है। वह महुआ को ऊपर से नीचे तक देखता है– कभी पूरे कपड़ों के साथ तो कभी केवल पूरी देह के साथ! महुआ में उसे गजब का आकर्षण दिखता है। भरे यौवन से उत्तुंग हिमालयवाली देह नहीं, विचारों से उजबुजाती नदी की उत्ताल तरंगें। हड़ीली, इकहरी काया! उभारोंवाली जगह पर भी उभार नहीं। लेकिन मन में भावनाओं के प्रति जबरदस्‍त उभार और उछाह। मदन को यकीन है– महुआ एक दिन उससे जरूर कहेगी- ‘आई नीड यू! फॉरएवर!’ उसके फेफड़ों में शहनाई और सांस में महुआ की गंध भरती जाती है। 

महुआ खुश है, पर तृप्‍त नहीं। सारे समय बड़-बड़ करती महुआ इस मोड़ पर अचानक चुप हो जाती है। पूरे बदन में कांटे उगने लगते हैं। उसका मन करता है, इन कांटों को अपने बदन से निकाल कर मदन की देह में रोप दे, ताकि ये काँटे मदन को नोच-नोचकर खा जाए। उसे लहु-लुहान कर दे। इतना कि उसका वीर्य भी लहू बनकर बहने लगे।
महुआ और मदन घंटो वोदका की सिप के साथ बतियाते। कभी कपड़ों के साथ, कभी कपड़ों से दूर। वोदका की सिप के साथ–साथ वे शरीर से अलग होते चले जाते। दीन-दुनिया की बातों, विचारों, खयालातों में खो जाते। कोई तय विषय नहीं– कभी वोदका पर ही बहस छिड़ जाती तो कभी तॉल्‍सटॉय पर! कभी सोशलिज्‍म पर तो कभी परवर्जन पर। कभी धर्म पर तो कभी जंग पर। कभी राजनीति पर तो कभी साहित्य पर। महुआ मदन में विचारों की सुलगती आग देखती। मदन को महुआ में विचारों और भावनाओं का उत्तेजित ताप दिखता। धीरे-धीरे यह आग और ताप एक- दूसरे में घुलने-मिलने की प्रक्रिया शुरू करते। मदन उसे कसता जाता, महुआ कसमसाती जाती – ‘और! और!’

और मदन अपनी आग बहाकर पिघल जाता। पिघलते-पिघलते वह महुआ को जकड़ता जाता। जकड़ते-जकड़ते लंबी-लंबी सांसों के साथ, हांफते हुए महुआ में खुद को छोड़ता चला जाता। एक मिनट, दो मिनट! मदन पसीने से नहा उठता। महुआ किसी शाप-ग्रस्‍त अप्‍सरा सी रूआंसी हो उठती– ‘ओ सुन्‍दरी! जिस कामाभिभूत तुम सब छोड़कर यहां आई हो, कामपूर्ति की तुम्‍हारी वह इच्‍छा कभी पूर्ण नहीं होगी।

मदन, मदन! डोंट स्‍लीप! आ एम अवेकेन!’ महुआ का रोम-रोम चीखता-चिल्‍लाता और गला खामोश रह जाता। मदन कब उसके ऊपर से बूंद की नाई ढुलककर अलग गिर जाता, मदन को पता नहीं चल पाता। प्‍यासी महुआ इंतज़ार करती रहती कि मदन अब उसे सीप की तरह अपने में समेटेगा और सीप की तरह ही उसके खुलने और उसके मोती बनने की पूरी प्रक्रिया तक उसके साथ रहेगा। लेकिन, ऐसा कुछ हो नहीं पाता। हर बात पर तनाक से जवाब देने और बहस करनेवाली महुआ इस मोड़ पर अनायास खामोश हो जाती। तो क्या यह उसकी संस्कारगत भावना थी या यह डर कि मदन उसे अपनी मर्दानगी पर आक्षेप न मान ले? या यह ना समझ बैठे कि बड़ी खाई-खेलाई हुई है?

मदन के खर्राटे से असहनीय दर्द झेलती महुआ बाथरूम में समा जाती। फुल शॉवर उसे चिढ़ाता। हैंड शॉवर लेकर वह बैठ जाती। हैंड शॉवर उसके मन के अधूरेपन के साथ-साथ उसकी पूरी देह की यात्रा करता। उसकी सांस तेज होती, रुकती और अंत में फक्‍क से छूटती। …………अपनी स्खलित साँसों को सामान्य और शॉवर को बंद करते हुए वह फफक पड़ती। मदन के अधूरे प्‍यार के बाद वह शॉवर से और उसके बाद अपने आंसुओं से नहाती।

महुआ के मन के स्टोव में अधूरी इच्छा की हवा भरती रही और एक दिन स्टोव बर्स्ट हो गया- ‘मदन! इतनी सी बात तुम क्‍यों नहीं समझते? फिनिश मी फर्स्‍ट!

मदन तीखा दर तीखा होता गया- ‘व्‍हाट? क्‍या बक रही हो? क्‍या कहना चाहती हो? आजतक तुम्‍हें संतुष्‍ट नहीं कर पाया? तो इतने दिन तक रही क्‍यों मेरे साथ? न मैं तुम्‍हारा हस्‍बैंड हूं न तुम मेरी वाइफ।

यह रिश्‍ता तो दोनों ने जोड़ा ही नहीं था। न ही एक-दूसरे की जिम्‍मेदारी ही ओढ़ी थी। फिर क्‍यों इसके लिए महुआ की मदन पर निर्भरता? महुआ हंसी। उसका अनुमान गलत नहीं था। मर्द सबकुछ बर्दाश्‍त कर लेता है, अपनी मर्दानगी पर आंच नहीं। लेकिन मर्दानगी की अधूरी आंच में झुलस‍ती जा रही महुआ। वह क्या करे? शास्त्रों ने जो शब्द दिया है- संभोग, याने सम+भोग, माने बराबर का भोग, बराबर का दायित्व, बराबर की पुष्टि, बराबर की तुष्टि। …………उससे इंकार कर दे? कैसे हो तुम सब, जो अपने ही शास्त्र की बातें मानने से इंकार करते हो?

मदन शिव के गले का सर्प बन अपना जहर उगलने लगा- ‘कभी खुद को देखा है? छंटाक भर मांस नहीं बदन में। वहां भी नहीं, जहां होना चाहिए। सूखी लकड़ी के साथ सोता रहा हूं मैं और तुम मुझे कह रही हो कि मैं...

मर्द अगर अपनी मर्दानगी पर आंच नहीं सह पाता तो औरत ही कहां सह पाती है अपनी देह पर चले तानों के तीर को? मदन की एक-एक लाइन पर महुआ की चीख ऊंची दर ऊंची होती गई। अपने एक-एक वाक्‍य पर मदन चिंगारी से ज्‍वाला, ज्‍वाला से बारूद, बारूद से बम बनता गया।

फोड़ दिया बम महुआ ने -‘निकल जाओ, अभी, इसी वक्‍त मेरे घर से!

घर से नहीं, जीवन से जा रहा हूं – यू ब्‍लडी बिच!
आधी रात के सन्‍नाटे में धड़ाक से बंद होता दरवाजा आरडीएक्‍स जैसा बिल्डिंग में बजा। बिल्डिंग तनिक कुनमुनाई, फिर पंखों और एसी की ठंढ में डूब गई। महुआ रोकना चाहती थी। मदन रुकना चाहता था। लेकिन बात जब औरतपन और मर्दानगी पर आ जाए तो कौन किसको रोके?

महुआ का आक्रोश आंखों से फूट पड़ा – ‘हमारी कोई इच्‍छा ही नहीं? बस, उनकी तृप्ति तक ही अपनी यात्रा? अधूरी यात्रा छोड़ने का दर्द तुम क्‍या जानो मदन बाबू?’ एक फिल्‍मी डायलॉग की तर्ज पर यह वाक्‍य महुआ के मन में आया। इस तनाव में भी महुआ मुस्‍करा पड़ी।

भाड़ में जाओ।’ कह गई महुआ। मगर मन मदन की महक से मदमा रहा था– सदमे की हद तक। उसने मेसेज करना शुरू किया– ‘ओके।’ ‘आम सॉरी।’ ‘प्‍लीज कम बैक।’ ‘आई कांट लिव विदाउट यू।’ ‘कम ऑन! किस मी।’ ‘हग मी प्‍लीज!’ ‘ओ माई डियर! आ’म योर्स एंड यू आ’ माइन यार!’

अंतिम मैसेज करते-करते वह चौंक गई। उसी ने तो कहा था कि वे दोनों किसी रिश्‍ते में नहीं बंधेंगे। किसी भावना की नाव पर सवार नहीं होंगे। और अब? उसने चाहा कि यह मेसेज वह डिलीट कर दे। पर तबतक अंगूठा सेंट पर दब चुका था। वह कुछ पल रुकी। शायद उसे लग रहा था कि इतने संदेशों का कुछ तो असर मदन पर पड़ेगा। वह उसे या तो रिप्लाई करेगा या फिर कॉल बैक। एक घंटा बीत गया, दो घंटे, तीन। …….. उसने अंतिम मैसेज किया –‘गो टू हेल यू यूञ्च!

हेल में महुआ थी और उसका अधसोया-अधजगा बदन। रोम-रोम सुलगता, मन का रेशा-रेशा ज्‍वाला से भड़कता। वह बाथरूम में घुस गई। शॉवर खोल दिया। हैंड शॉवर से पूरी देह खेलने लगी। वह ऊपर उठने लगी। उठते-उठते हिमालय तक पहुंच गई। बादलों के पार। आसमान से ऊंचा। उसकी सांसें रुक गई। शॉवर हाथ से छूट गया। स्खलित सांसें नियंत्रित होतीं फिर से बहकने लगी, फिर बरसने लगी – आंखों की धार।

मोबाइल पर अबतक न कोई मेसेज था न ही कोई मिस कॉल। महुआ मसमसाई –‘मर जाओ, कमीने, कुत्‍ते, दोगले, हरामी के जने!’ महुआ सन्‍न रह गई। इत्‍ती भद्दी जबान! एक अपूर्ण चाहत की भद्दी, मटमैली धार उसके पूरे मन को अपने गर्त में लेकर गहरी खाई में उतार गई?

महुआ तड़ाक से उठी। बार खोला– देसी-विदेशी हर ब्रांड! ना, वोदका नहीं। लार्ज व्हिस्की बनाया। खाली कर दिया। कपड़े बदले, गाड़ी निकाली।

यह सब क्षणांश में हुआ। जैसे कोई प्रेत उससे यह सब करवा रहा हो। जैसे उसकी जगह कोई डाकिनी-पिशाचिनी गाड़ी चला रही हो– भुतहा सीरियल के किसी किरदार की मा‍फिक– लाल आंखें, सुलगते होठ, तिनकती देह, चिनकती चाहत!

मदन के साथ गुजरती रही थी उस इलाके से। मदन ने कहा था- ‘नाऊ ए डेज, बोथ आ’ अवेलेबल।

माने? मेल-फ़ीमेल बोथ? वाऊ!’ उसकी आँखें विपरीत जेंडर को तलाशने लगी। मदन ने कोहनी मारी- ‘ऐ! क्या इरादा है?

जिस दिन तुम नहीं मिलोगे, उस दिन यहाँ आया जा सकता है।‘ महुआ की आँखों में मदहोश लाली और होठों पर शरारती मुस्कान थी, जिसे मदन के होठों ने गाड़ी चलाते-चलाते ही सोख लिया था।

गाड़ी की स्पीड धीमी होती जाती है। ना! आज महुआ किसी सुदर्शन को नहीं पकड़ेगी। खोजेगी अपने जैसे किसी सुखड़े को और मारेगी तमाचा झन्‍नाटेदार।

महुआ को नही मालूम कि इस लाइन में सुखड़ा-सुखड़ी की दरकार नहीं। यह मद का व्यापार है। घड़ा सजा, भरा, चिकना, सुंदर दिखना चाहिए। मदन-रस उसमें कितना है, यह तो पीते समय पता चलेगा। लिफाफा अच्छा होना चाहिए। मान लिया जाता है कि अंदर का मजमून भी उतना ही सुरीला और सुखकर होगा।

महुआ हाइवे की ओर मुड़ जाती है। दो घंटे से ज़्यादा हो गए उसे बेमतलब भटकते हुए। महुआ वापस मुड़ती है। हाइवे से सबवे, सबवे से सी-बीच! पुलिसवाले मामू घूम रहे हैं। किसी पुलिसवाले को ही। …………वह फाहश हंसी से भर उठी। …………‘महुआ! इज दिस यो’ स्‍टैंडर्ड?’ वह खीझती है- ‘मदन! यू बायसन…………!

क्‍या करूं मैं? व्‍हाई आ’म नॉट गेटिंग एनीवन?

महुआ! क्‍या सचमुच तुम्‍हें कोई चाहिए? या ओनली…………’ कार का रियर व्‍यू मिरर बोल उठा - ‘मदन?

नो, नो! आई डोंट वांट हिम। …….. पक्का! ही इज ए रास्कल। येस, येस! आई नीड वन। …….. एनीवन! …….. आई नीड ए टाइट फकिंग। …….. आई वांट टू बी फक्‍ड।  ……..नो, आई वांट टू फक! …….. वांट टू फक हिम!

विद्यापति की विपरीत रति! विद्यापति की नायिका कसमसाती है। बहुत दिन बाद उसे अपनी विपरीत रति की सुध आई है। उसकी आत्मा महुआ में समा जाती है। महुआ के होठों पर एक लोकगीत तरंगित होने लगता है-
  माथे पे ले के मऊनिया रे, महुआ बीछे जाए
  महुआ मदन रस टपके रे, रस चुई चुई जाए।

महुआ भारी पड़ती जाती है रति पर, विपरीत रति पर। वह पूरी ताकत से भिड़ जाती है अपना जनानपन दिखाने-जताने में। जैसे वह महुआ नही, एक निरंकुश तानाशाह हो, जैसे वह ….. वह मदन हो, जिसपर वह अपना सारा आक्रोश उतार कर उसे जख्मी शेर बना देना चाह रही थी और खुद को गौरैये से भी हल्की। किसी आतताई की तरह वह उसे रौंदती रही, रौंदती रही...! मन में व्यापार बैठ गया- ‘आखिर, पैसे दिए हैं।‘ पर पूरी तरह नही- ‘नहीं भी देती, तो भी रौंदती।‘ हर बार की रौंद में उसे मदन दिखता –‘सी! मैं सूखी हूं? मांस नहीं है बदन पर? देह में उभार नहीं है? अरे, मन में उभार तो है ना! देखो, इस उभार के नीचे कैसे दबे जा रहे हो तुम?

महुआ चौंकी– इस शारी‍रिक-मानसिक समागम से। एक साथ दो-दो से! सामने इस अपरिचित व्‍यक्ति से और मन में मदन के साथ। क्‍या यह सचमुच में दो समागम था या एक पर दूसरे की छाया? एक का प्रतिशोध दूसरे से? सचमुच कहा गया है, औरतें प्रतिशोध में मर्दों को भी जमीन सुंघा देती हैं।

महुआ चौंकी। किसी कम्‍प्‍यूटर मास्‍टर की तरह एक-एक बटन का उपयोग उसे सिखा रही थी। सिखाते-सिखाते वह फर्क भूल जाती है। मदन को याद करते-करते वह खुद मदन बन जाती है– विद्यापति के ‘अनखन माधव-माधव सुमिरत सुंदरी भेल मधाई’ की तरह। आवेग के रथ से उतरकर वह उत्‍तेजना के झूले पर सवार हो जाती है – मेरी गो राउंड। ……..राउंड एंड राउंड। ……..एंड राउंड एंड राउंड। ……..आह। ……..उसने फक्‍क से सांस छोड़ी– और कसकर उसे जकड़ लिया। महुआ उसे जकड़ती जा रही थी, जैसे मदन उसपर पिघलने के बाद उसे जकड़ लेता था। उसकी आँखें बंद हो रही थीं।

ओह! यही तो! इसी चरम की तो उसे तलाश थी। यही है चरम! काम का, मोक्ष का, संतोष का, सुख का। ……..उसकी देह हल्‍की होने लगी– फूल से भी। ……..मदन उस फूल की सुगंध बन गया। महुआ बुदबुदाई –‘थैंक यू मदन! जाकर तुमने यह मदन- सुख मुझे दिया है। अब यह मदन- सुख मैं तुम्‍हें सिखाऊंगी।

मैम! मेरे लिए क्‍या आदेश है?’ वह होटल के वेटर की तरह नत-विनत था।

अपना नंबर दो। बताऊंगी।’ हवा के ताज़ादम झोंके सी मद में झूमती महुआ बोली।  

यस मैम! पर जरा जल्‍दी। बहुत से कस्‍टम्‍मर होते हैं।’ वह अपने बिजनेस में अटककर बोला।  

महुआ का मन कसका– ‘कस्‍टम्‍मर?’ तो वह अब कस्‍टमर हो गई है? जागो ग्राहक! जागो!

कहा न! कॉल कर दूंगी।

महुआ चल पड़ी। इतना तो कमाती ही है कि एक रात खुद पर पांच-सात हजार खर्च कर सके। उसने गाड़ी मोड़ दी– खुशी और संतुष्टि के नशे से वह बोझल और उन्मत्त– ‘देखा मदन डियर! पा लिया, जो अबतक खोज रही थी।

महुआ के घर से निकलकर मदन डियर अबतक अपने घर नहीं घुसा था। गेट पर ही टहल रहा था। अपमान की उत्तेजना से कसमसाता। भीतर की आग को सिगरेट पर उतारता। सिगरेट के छल्ले में उसके विचार घूमने लगे- ‘तो क्या महुआ गलत थी? उसकी मांग नाजायज है? यदि उसे महुआ से संतुष्टि नहीं मिलती तो क्या वह अपनी खीझ उसपर नहीं उतारता?‘ उसे सिगरेट के छल्ले में कभी महुआ दिखती, कभी अपने ही घर के अन्य लोग– कभी माँ, कभी चाचा, कभी फूफा, कभी मौसी। उत्तेजित मौसा, समझ का काढ़ा पीती बुआ, तना चेहरा लिए काम करती चाची! मदन का माथा घूमने लगा। मन किसी को नही दिखता। यह मन भी साली बड़ी कुत्ती चीज है यार! यही मन उसे इतना विचलित किए हुए है। यही मन उसे महुआ के पास ले गया और यही मन उसे उसके पास से भगा ले गया। पूरी डब्‍बी सिगरेट खतम हो गई। अंतिम सिगरेट जलाई ही कि महुआ की गाड़ी देख हड़बड़ा गया। जलती सिगरेट हाथ से छूट गई। ओह! यह मन!!

गाड़ी आई। गाड़ी रुकी। महुआ उतरी। मदन का हाथ पकड़ा। लिफ्ट का इंतजार नहीं किया। दनादन सीढि़यां चढ़ गई। अंदर पहुंचकर मदन पर मुक्कियां बरसाने लगी –आ नहीं सकते थे? मेसेज नहीं कर सकते थे? तुमसे तो अच्‍छा साला वो महुआ रुक गई। लेकिन, मदन के सेल पर टाइप करके रखा मेसेज नहीं रुक सका। इस खींचतान में वह ‘सेंट’ बटन का शिकार हो गया।

महुआ का सेल चमका। ‘टुनुन’ की हल्‍की आवाज हुई। मदन को झकझोरती वह कांपी– .....मैंने तो उसको अपना नंबर दिया नहीं था। फिर किसका मेसेज? 

मेसेज पढ़कर महुआ मुस्‍काई। महुआ को मुस्‍काते देख मदन मुस्‍काया। महुआ और मदन-- दोनों पर एक-दूसरे की मुसुक–रस-धार बरसने लगी। उस रस-धार की बरसात में मदन का मेसेज महुआ के मोबाइल पर मटक- मटककर आँखें मार रहा था –‘आ एम सॉरी।


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1 टिप्पणियाँ

  1. अब तक मैंने ऐसे कहानी नहीं पढ़ी थी...वह भी एक लेखिका की कलम से स्त्री के संबंध में बिना किसी लाग-लपेट के,बेबाक ढंग से। औरत-मर्द दोनों की मनःस्थिति व कामेच्छा का सटीक वर्णन किया है।संभोग शब्द को जहाँ जनसाधारण काम-क्रीड़ा या रति क्रीड़ा के साधारण अर्थ में परिभाषित करते हैं वहीं लेखिका ने इस शब्द का विशेष अर्थ समझाने में भी सफल रही हैं। कहानी पर ओशो के विचारों का भी प्रभाव देखने को मिलता है,ओशो कहते हैं कि विवाह समाज ने तय किया है प्रकृति ने नहीं,यह बंधन समाज ने बनाया है। संभोग के लिए शादी-विवाह की अनिवार्यता समाज ने तय की है। वाकई यह कहानी स्त्री की कामनाओं व इच्छाओं की खुली किताब है।

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