विनोद जी लेखन में इतने बहुत वरिष्ठ हैं, उन्होंने इतना देखा लिखा है, इसलिए, यह तो नहीं कह सकता कि उनके संस्मरणों में निखार आ रहा है. लेकिन, यह कह सकता हूँ कि यादों को लिखने की अपनी इस नई शैली में विनोदजी ने 'लेनिनग्राद की लीना की यादें' में मर्म को लगातार छूए हुए कविता, कहानी, दृश्य और ट्रेजडी को बेमिसाल पिरोया है. शुक्रिया विनोद जी... सादर भरत एस तिवारी/शब्दांकन संपादक
मास्को से लेनिनग्राद की रात भर की ट्रेन यात्रा मेरे जीवन की सबसे ख़ूबसूरत ट्रेन जर्नी थी। सफ़ेद बर्फ़ का दूर तक नज़र आ रहा लैंडस्केप , दो लोगों का कूपा, सब कुछ स्वर्ग की तरह था।
लेनिनग्राद की लीना की यादें
— विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा
पहले ही बता दूँ, लेनिनग्राद की लीना की यादों को ले कर मेरे मन में थोड़ी बहुत अपराध भावना भी है। वह मुझे दोस्तोयवस्की की सफ़ेद रातों के शहर में मिली थी, अद्भुत लड़की थी वह। आज न तो वो इस दुनिया में है, न ही लेनिनग्राद नाम बचा रह गया है। बची तो है तो मेरी सिर्फ़ एक कविता, लेनिनग्राद की लीना। और वह कविता एक पीड़ाजनक समय में उसने माँगी थी, और मैं उसे भेज न सका। आज सोचता हूँ, क्या वह बहुत मुश्किल काम था?
या मैं बहुत घबरा गया था उसके असाध्य रोग की ख़बर से?
अतीत कई तरह के होते हैं, सुख देनेवाले भी और दुख देनेवाले भी। एक कवयित्री मित्र ने एक बार अतीत के बारे में कहा था, विनोद जी, सोए हुए साँपों को सोए रहने दिया जाए, यह मेरी प्रार्थना है।
पर कई बार ये साँप सपने में जाग जाते हैं। ज़रूरी नहीं हैं कि वे साँप हों, वे मीठी उदासी की तितलियाँ भी तो हो सकती हैं।
वर्ष 1988 के अंत में मुझे एक फ़ोन आया, आपको प्रथम लेनिनग्राद अंतरराष्ट्रीय ग़ैर कथा फ़िल्म महोत्सव की ज्यूरी का एक सदस्य बनने का न्योता मिला या नहीं। कोई यूरी फ़ोन पर थे।
मुझे यह फ़ोन एक मज़ाक़ लगा। उन दिनों हमारे वरिष्ठ लेखक मित्र गुलशेर अली ख़ान शानी कुछ आवाज़ बदल कर ऐसे मज़ाक़ करते थे। मुझे लगा अपने दफ़्तर के साथी विष्णु खरे के साथ मिल कर दोनों ने मुझे मुर्ग़ा बनाने की सोची है।
मुझे यूरी कोरचागोव से रूसी सांस्कृतिक केंद्र में मिलना था, पर मैं गया नहीं।
कुछ दिन बाद यूरी का फिर फ़ोन आया, मैं कल सुबह नेपाल जा रहा हूँ। आप सोवियत फ़िल्म केंद्र से संपर्क करें, समय बहुत कम है। अगले साल जनवरी के अंत में यह महोत्सव होगा।
आप ठहरे कहाँ हैं, क्या रूम नम्बर है आपका?मैं थोड़ी देर में आपको फ़ोन करता हूँ। मैंने कहा।
मैंने अशोक होटेल के रिसेप्शन में फ़ोन कर के यूरी से संपर्क किया। तब मुझे तसल्ली हुई।
निमंत्रण मुझे मिल गया, पत्नी को भी टिकट दिया जा रहा था। रशियन विंटर भी मशहूर था, माइनस बीस डिग्री तापमान में हमें जाना था। मित्र त्रिनेत्र जोशी और उनकी पत्नी चीन से लौटे थे, उनसे इस तरह के बर्फ़ के मौसम के लिए कपड़े उधार लिए। एक हफ़्ते के लिए इतने महँगे कपड़े कौन बनवाता।
हम मास्को हवाई अड्डे पर उतरे, तो बग़ल में शशि कपूर दिखाई दिए, अजूबा फ़िल्म की शूटिंग के लिए मास्को आए थे। रूस होगा, तो कपूर परिवार भी होगा ही।
मास्को से लेनिनग्राद की रात भर की ट्रेन यात्रा मेरे जीवन की सबसे ख़ूबसूरत ट्रेन जर्नी थी। सफ़ेद बर्फ़ का दूर तक नज़र आ रहा लैंडस्केप , दो लोगों का कूपा, सब कुछ स्वर्ग की तरह था। सुबह नौ बजे हम लेनिनग्राद पहुँचे, घुप अँधेरा था। दिन छोटे थे तब। एक शानदार होटेल में हमारे नाम कमरा नहीं, पियानो सहित एक बड़ा सुइट था। और इलीना नाम की हिंदी बोलनेवाली एक ख़ूबसूरत लड़की हमारी दुभाषिया थी। उसे सुबह से शाम तक हमारे साथ रहना था। पार्टियों की वजह से इलीना यानी लीना को रात ग्यारह बजे घर वापस जाने में दिक़्क़त थी, मेरी पत्नी देवप्रिया ने उससे कहा, हमारे पास बहुत जगह है, यहीं रुक जाया करो। वह हैरान थी इस सुझाव से, पर उसे बहुत ख़ुशी हुई।
सफ़ेद बर्फ़ के दिव्य लैंडस्केप में अपने फ़र कोट में वह एक सुन्दर बिल्ली की तरह भागती थी। ऐसा लग रहा था, वह हमारी बहुत पुरानी दोस्त है।
एक दिन वह हमें अपने छोटे से फ़्लैट में भी ले गयी, माता पिता से मिलवाया। जिस दिन हम वापस देर रात मास्को की ट्रेन पकड़ रहे थे, तो उसने ज़िद करी कि मेरे पिता आप दोनों को गुडबाई करने आएँगे, बस ट्रेन के चलने से पहले खिड़की का पर्दा दो मिनट के लिए खोल दीजिएगा। मैंने मना किया, इतनी ठंड में वह क्यूँ आएँगे। उन्हें तो हमारी भाषा भी नहीं आती है।
मुझे उम्मीद नहीं थी, वे आएँगे। पर पर्दा खोला, तो दाढ़ीवाला उनका ख़ास रूसी चेहरा दिखा, सिर्फ़ एक मिनट की विदा में अपना हाथ हिलाने वे आए थे।
बाद में वह लीना के साथ हमारे दिल्ली के घर भी कुछ दिन रुके थे। मेरी पत्नी शाकाहारी थी, इसलिए वह डिब्बाबंद रूसी मछली खाने के लिए बाहर लॉन में चले जाते थे।
लीना तो देवप्रिया की प्यारी बहन ही बन गयी थी। मंगलेश जी ने जनसत्ता में देवप्रिया से रूसी स्त्रियों और लीना पर एक लेख भी लिखवाया था।
मैंने लेनिनग्राद की लीना नाम से एक कविता भी लिखी थी, उसे भेजी भी थी। वह कविता पढ़ कर बहुत ख़ुश हुई थी। उसने एक भारतीय लड़के से शादी भी कराई, एक बच्चा भी हुआ।
कुछ साल बाद उसका एक पत्र मेरे पास आया। बुरी ख़बर का समय आ गया था। वह कैन्सर से पीड़ित थी, आख़िरी समय तक पहुँच चुकी थी। उसने लिखा था, मुझसे आपकी कविता कहीं खो गयी है। उसे दुबारा भेज दीजिए। मैं ज़्यादा दिन बचूँगी नहीं।
हम लोग स्तब्ध रह गए। हमें उसका ख़त काफ़ी देर से मिला था। मुझे लगा, अब कविता किसे और क्यूँ भेजूँ?
आज महसूस होता है उसे मुझे कविता भेज देनी चाहिए थी। शायद वो तब जीवित होती।
एक तस्वीर है मेरे कमरे में देवप्रिया और लीना की। अजीब बात थी कि कुछ ही साल में प्रिया भी कैन्सर का शिकार बनी।
लेनिनग्राद ने अपना पुराना नाम सेंट पीटर्सबर्ग अपना लिया था, नए रूस में।
कभी कभी सफ़ेद बर्फ़ के विराट लैंडस्केप में शैंपेन और केवियार के साथ मेरे साथ नाचती लीना दिख जाती है, पूछती हुई, कि कवि महोदय मुझे मेरी कविता नहीं दे पाए आप।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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