जैनेन्द्र कुमार की कहानी ‘ जनता ’ | लिंचिंग—झुकाव मानसिकता | Hindi Story




भला हो वरिष्ठ आलोचक रवीन्द्र त्रिपाठीजी का कि अपने शब्दांकन के फेसबुक लाइवएक पुस्तक पर पाँच मिनट’ श्रृंखला में जैनेन्द्र कुमार की जीवनी पर बात करते हुए उन्होंने जैनेन्द्रजी की लिखी ‘जनता’ कहानी का ज़िक्र किया कहानी की नेट पर न-मौजूदगी इसके कितना पढ़ी गई और रवीन्द्र त्रिपाठी जी ने हिंदी साहित्य को कितना और कितनी गंभीरता से पढ़ा है पर बहुत प्रकाश डाल रही है हिंदी साहित्य अपने इतिहास के प्रति ऐसा बरताव आख़िर कैसे कर सकता है? क्या हिंदी साहित्य को सिर्फ़ मैं—मैं—मैं, और वर्तमान—मैं के सिवा कुछ नहीं दीखता? वरना क्योंकर जैनेन्द्र की कहानी ‘जनता’, जिसमें कथाकार ने आज से कम—से—कम अर्धशती पहले कुछ भारतीयों की लिंचिंग—झुकाव मानसिकता को देख—समझ लिख दिया था? और हाँ, यदि आपको मेरी कही बातें नागवार गुज़र रही हों तो कहानी पढ़ने के बाद, मुझे ज़रूर बता दीजियेगा, क्या ग़लत कहा, क्या सही कहा... सादर भरत एस तिवारी/शब्दांकन संपादक

जनता

— जैनेन्द्र कुमार


बाबा भगीरथजी विचित्र पुरुष हैं। मन में आया, वैसे ही रहते हैं। अपने से बाहर भी कुछ है, जिसका असर व्यक्ति पर होना चाहिए, इसकी सूचना मानो उन्हें प्राप्त नहीं है। समाज अगर कुछ है, तो ठीक है, हो। सरकार अगर कुछ है, तो अवश्य हो। किन्तु इस कारण किसी के मन को कष्ट न हो, इसका पता वे रखेंगे। यही क्यों उनसे भरसक सबको आराम पहुँचे, इसका भी ख्याल वह रखेंगे, और बस। इसके आगे उनके नजदीक दुनिया जैसी है, वैसी ही नहीं है।


मैं कहता हूँ, यह ठीक नहीं है। दुनिया है, और इसमें निभकर चलना पहली बात है। इससे बाहर जाकर तो गुजारा है नहीं। इससे अगर विद्रोह भी करना हो, तो उससे मिलकर ही हो सकेगा। दुनिया से अजीब, अलग, रूठे हुए बनने से काम नहीं चलेगा। कुछ लोग हैं जो दाढ़ी रखते हैं, और कुछ लोग हैं जो दाढ़ी नहीं रखते। अपना—अपना तरीका है। जो दाढ़ी रखते हैं वे रखने के तरीके से रखते हैं। उन्हें मालूम होता है कि यह दाढ़ी है, कोई झाड़ी नहीं है, जिसके न कुछ अर्थ हैं, न प्रयोजन। और दाढ़ी नहीं रखते तो शेव किया कीजिए। 
और कपड़ों में पतलून है, पाजामा है, धोती है, कुर्ता, कमीज, कोट, बास्कट है। 
अब दाढ़ी रखना न—रखना, और कपड़ों में ऊपर गिनाई चीजों को छोड़कर कोई अपनी ही ईजाद करके पहनना, और सोलह में पन्द्रह आने उघारे बदन ही रहना—
मैं कहता हूँ यह भी कुछ समझदारी है ? 
लेकिन बाबा भगीरथ पर किसी का बस चले, तो बाबा भगीरथ कैसे?


मैंने एक दिन कहा, "देखिए बाबाजी! आदमी जो समझता है ठीक है, उसे फिर उसके साथ कसकर देखना होगा, जिसे दुनिया समझती है कि ठीक है। उनके समन्वय से जो मिले, वही तो व्यक्ति का मार्ग है। क्योंकि आदमी अपने में पूरा कहाँ है? पूर्ण होने के लिए उसे समाज की अपेक्षा नहीं है क्या?"

बात यह कि मैं अपने मन के ऊपर से बाबाजी को टालना चाहता हूँ। मन उन पर जाकर कुछ सुख नहीं पाता। उसमें कुछ विद्रोह, एक बेचैनी—सी होती है। बाबा को देखकर जी में होता है कि तेरी प्रतिष्ठा, तेरी दुनियादारी, तेरी कामयाबी झूठी है, झूठ है, छल है। चाहता हूँ, बाबा पर दया कर डालूँ, और इस तरह अपने बड़प्पन को स्थिर रखू; सँभाले रखू, पर यह होते होता नहीं। 
बाबा को सामने पाकर बड़प्पन हठात मुझ पर से खिसकने लगता है, उतरकर जैसे मुझे छोड़ जाने को उतारू हो जाता है। तब उस बाबा और उसकी सारी फिलासफी पर मुझे बड़ा गुस्सा आता है। 
लेकिन कभी वह साढ़े तीन—सौ मसिक पाता था, मेरा सीनियर था, गण्यमान्य था। 
और आज है कि मैं चार सौ पाता हूँ, और उसे ठौर का ठिकाना नहीं है, और मित्रों का कृपानुजीवी हो, समझिए, बनकर उसे रहना होता है। 
उसे मैं पागल कह सकूँ, बैरागी कह सकूँ, साधु—संन्यासी कह सकूँ, तो मुझे चैन पड़ जाए। क्योंकि समाज की रीति—नीति में इन लोगों के लिए जगह है, समाज उन्हें पहचान सकता है। कहा, पागल है और चलो छुट्टी हुई। इस बाबा से, लेकिन इस तरह की छुट्टी मुझे किसी भाँति नहीं मिलती। और वह सदा इतना खुश और इतना पक्का और इतना ताजा रहता है कि मन—ही—मन में कितना ही झुंझलाऊँ, उसके प्रति एक प्रकार की श्रद्धा से भी मुझसे बचा नहीं जाता है।

बाबा ने कहा, "देखो भाई, समाज से मैं इनकार नहीं करता। जिसको मैं सही कहूँ, मन हो तो क्यों न समाज उसे गलत माने। स्वतन्त्रता चाहने वाला मैं समाज को तो और भी स्वतन्त्र कर दूंगा। मैं तो कहता हूँ, जिसको अपने लिए सही समझें, उसी को समाज मेरे लिए निषिद्ध ठहरा सकता है। मैं यदि अपने समर्थन में उसका विरोध करूँ, तो उसका धर्म है कि अपने समर्थन में वह मेरा विरोध करे। यहाँ तक कि मैं चुप हो जाऊँ, नहीं तो मिट जाऊँ। समाज ने ईसा को सूली पर चढ़ाकर समाज धर्म की प्रतिष्ठा ही की। 

किन्तु ईसा को यदि ईसा बनना था तो सूली पर भी चढ़ना था। समाज को समाज में रहने के लिए, उसी तरह ईसा को जो ईसा बने बिना मानता न था, सूली दिये बिना न रहना था। सूली चढनेवाला ईसा समाज के इस दायित्व को जानता था। इसी से अपने कन्धों सलीब लेकर वह वधस्थल गया। कोई अडचन उसने वधिकों के काम में उपस्थित नहीं की। अब मैं यह कहता हूँ कि अपने ऊपर समाज को पूर्ण स्वतन्त्रता देकर या अपनी नियति को अपने ही रूप में सम्पन्न करने का अधिकार ईसा को नहीं हो जाता? समाज के हाथों जब वह खुशी से सूली चढ़ने को उद्यत है, तब ईसा ईसा बने बिना किस भाँति रह सकता है, इसलिए व्यक्ति अपने लिए समाज की ओर नहीं भी देख सकता है, बल्कि नहीं देखना चाहिए, अगर उसमें समाज के दण्ड से बचने की इच्छा नहीं है। और वह समाज का हितैषी ही बना रहकर उसके दण्ड का स्वागत कर सकता है। अगर दुनिया मुझे पागल कहेगी तब भी मैं उसका बुरा न सोचूंगा; मुझे पीड़ा देगी, तब भी उसकी कल्याण कामना करूंगा यह मानने के बाद क्या अपने मुताबिक चलने का हक मेरा न मानोगे?"

देखा आपने ! यह बाबा भगीरथ हैं। इस बाबा भगीरथ को, आप समझते हैं, कभी जीवन में आराम मिल सकेगा, सफलता मिल सकेगी? क्या नहीं समझते कि उमर भर उसे मोहताज और आवारा ही रहना होगा?
और आइए, मैं आपको सुनाऊँ बाबा के बाबापन का एक रोज क्या गुल खिला। किस्मत समझिए कि बाबा मौत से बाल—बाल बच गया, नहीं तो विधान की ओर से तैयारी में कमी न रखी गयी थी।
और आप जानते हैं क्या? उसके बाद भी बाबा को होश नहीं हुआ है, और वह वही हैं।


मास्टर दीनानाथ जी की ग्यारह बरस की लड़की सुखदा को पाँच—छ: रोज से उनके घर आए बाबा भगीरथजी से एक भेद की खबर मिली है, जिसने उसके चित्त को विभ्रम में डाल दिया है। बाबा ने उसे बताया है कि रामजी ने उसे एक जामुन के पेड़ के ऊपर लटका दिया था। 
वहाँ वह 
कीं—— कीं —— कीं खूब रो रही थी। 
दया करके बाबा ने वहाँ से उसे उतार लिया, और यहाँ आकर फिर उसकी माँ को पालने को दे दिया। समझी की नहीं, चाहे तो अपनी माँ से पूछ ले कि तू कहाँ से आयी थी। बाबा ही दे गया था कि नहीं?
लड़की ने कहा, 
"नहीं—नहीं—नहीं। 
झूठ, बिलकुल झूठ।"
और तभी वह सोचने लगी कि जामुन के पेड़ पे लटकी वह नन्हीं—सी कैसी लगती होगी?
भगीरथजी ने कहा, "इसमें क्या बात है। जाकर अपनी माँ से न पूछ आओ।"
माँ से पूछा, तो उसने भी बता दिया कि हाँ, ठीक तो है, पेड़ के ऊपर ही तो भगीरथ जी ने उसे पाया था।
लड़की ने आँख फाड़कर पूछा, 
"अच्छा!" 
माँ ने पूछा, 
"तो तू बाबाजी के संग जाएगी?" 
बेटी ने कहा, 
"हाँ बाबाजी के संग जाऊँगी। 
तू तो मुझे मारती है।"
इस तरह और जाने किस—किस तरह, बालकों को रिझा और हिला लेने में भगीरथजी—सा दूसरा आदमी न होगा। सुखदा बाबूजी और माँ को भूलकर सदा बाबाजी के ही सिर चढ़ी रहती है। या उसके सिर कहो, 'बाबाजी' चढ़े रहते हैं।
मास्टर दीनानाथ जी से उन्होंने कहा, 
"देखो मास्टरजी, यह स्कूल बिलकुल गलत बात है। जब तक हम रहें, लड़की किसी स्कूल में पढ़ने नहीं जाएगी। और, सबसे बड़ी शिक्षा खुली हवा में घुमाना है। आप छोड़िये सुखदा को मेरे ऊपर। अभी तो एक महीने मैं यहाँ हूँ।" ।
सो, लड़की अब स्कूल नहीं जाती, सुबह—दोपहर—शाम जाने कहाँ—कहाँ बाबाजी के साथ नई—नई चीजें देखने जाती है। एक—दो घण्टे बाबाजी ही उसे पढ़ा भी देते हैं।
जाड़े के दिन थे। दस बजे होंगे। मीठी—मीठी धूप फैली थी। और निकल्सन बाग में घास पर बैठे बाबा भगीरथजी और सुश्री सुखदाजी बातें कर रहे थे। और, उस बाग के बाहर भी दो—तीन आदमी घूम रहे थे।
यहाँ एक बात ख्याल चाहिए कि सुखदा सुन्दर है, गोरी है, देखने से अच्छे घर की मालूम होती है। अच्छी—सी साफ साड़ी है, पैरों में बढ़िया चप्पल। 
भगीरथजी नंगे पैर हैं, जिनमें बिवाइयाँ फट रही हैं, उघारे बदन, बस एक मटमैले रंग का जाँघिया है। 
छः महीने की दाढ़ी है। 
रंग धूप से पका ताम्बिया।
सुखदा ने पूछा, "बाबाजी, यह चौराहों पर आदमी क्यों खड़े रहते हैं ?" 
"अच्छा, बताओ, इस चौराहे पर जो खड़ा था, कौन था?" 
लड़की ने बताया, "सिपाही।"
भगीरथ ने कहा, "हाँ, सिपाही है। जानती हो, क्यों रहता है ? आते—जाते ताँगे मोटरों को वह रास्ता बताता है, नहीं तो वे लड़ जाएँ। इनका नाम पुलिस है। ये पुलिस के सिपाही हैं। इनसे डरना नहीं चाहिए, समझीं। ये लोगों को मदद देने के लिए हैं। तुम डरती तो नहीं?"
"नहीं।'
"हाँ, डरना कभी नहीं चाहिए। अच्छा, धोती यहीं उतार जाओ। जाँघिया तो है न? जाओ, जितनी तरह की कल घास बतायी थी, ढूँढ़कर उसके नमूने लाओ तो।"
लड़की चली गयी। इतने में एक आदमी आकर पूछने लगा, "आप कहाँ रहते हैं?"
"हम कहाँ रहते हैं? यहीं रहते हैं।" 
"यहीं क्या, देहली में ? किस मुहल्ले में?" 
बाबाजी ने कहा, 
"क्यों तुमको मेरे मुहल्ले से खास काम है क्या?" 
आदमी ने कहा, 
"हिन्दू हो या मुसलमान?"
बाबाजी को यह बड़ा विचित्र लगा। कहा, 
"भाई हम जो हैं, हैं। 
जहाँ रहते हैं, रहते हैं। 
तुम जाओ अपना काम देखो।"
इतने में लड़की आ गयी, और एक अजनबी को देखकर मनमारी वहाँ बैठ गयी। बाबाजी ने पूछा, "क्यों, बेटी?"
आदमी ने पूछा, "यह लड़की कौन है?"
बाबाजी को इस आदमी का यह सवाल बहुत बुरा मालूम हुआ। कहा, 
"तुमको इससे मतलब? जाओ, अपना रास्ता देखो।"
आदमी चला गया, और लड़की ने घास दिखानी शुरू की। 
इतने में एक आदमी और आया। बोला, 
"आप कितनी देर तक यहाँ बैठेंगे?" 
"हमारी तबीयत।"
"मैं पूछता हूँ, घण्टे, दो घण्टे, आखिर कितनी देर तक आप यहाँ हैं?"
"तुम सुनते नहीं हो।" बाबाजी ने कहा, "हमारी तबीयत है, तब तक हम यहाँ हैं।"
आदमी ने कहा, "अच्छी बात है।" और वह चला गया।
बाबाजी के मन पर किसी तरह की कोई जूं नहीं रेंगी। और देखा गया, बगीचे के बाहर टहलते हुए आदमियों की संख्या दो—तीन से छ:—सात हो गयी है। उसमें एक बावर्दी पुलिस का सिपाही भी है।
लड़की का उत्साह अकारण मन्द पड़ने लगा, और उसका जी बैठने लगा।
बाबाजी ने कहा, 
"देखो सुकी, मैंने छ: तरह की घास तुम्हें बतायी थी, और छहों इस बगीचे में है। तुम लायीं चार ही।"
लड़की ने कहा, 
"बाबाजी, घर चलो।" 
"क्यों?" बाबाजी की समझ में जैसे यह बात बिलकुल नहीं आयी। 
"नहीं, हम तो घर चलेंगे।" 
"अच्छी बात है, चलो।" दोनों उठकर चले।
बगीचे से बाहर निकले, तो वे छहों—सातों आदमी भी पीछे—पीछे चले। अब बाबाजी ने जाना कि दाल में कुछ काला है। पर उन्हें आशंका से अधिक कुतूहल हुआ, और वे दोनों चुपचाप चलते रहे।
फर्लांग भर गये होंगे कि पचास—साठ आदमी हो गये। एक बावर्दी घुड़सवार भी साथ दिखाई देने लगा। सब अपने—अपने अनुमानों से भरे थे। और पुलिस के लिए शीघ्र एक यह काम भी हो गया कि जनता के इन भरे हुए सदस्यों को मर्यादा से आगे बढ़ने से थामे रहे।
"जरूर मुसलमान गुण्डा है। 
बाबा बनकर लड़कियाँ भगाता है, 
बदमाश!" 
"मुसलमान नहीं है। 
है हिन्दू, पर गुण्डा है।" 
"लड़की किसकी है?" 
"देखते रहो, कहाँ जाता है?" 
"देखना, निकल न जाए।" 
"बदमाश आज पकड़ा गया।" 
पुलिस ने कहा, "पीछे रहो, पीछे रहो।"
खुशी से भरी जनता घुड़सवार पुलिसमैन के पीछे बाढ़—सी बढ़ती और उमड़ती हुई चलने लगी। यह क्या कम सौभाग्य की बात है कि साक्षात एक ऐसे पापी के दर्शन हो रहे हैं!
"क्या है? 
क्या है?"
"देखते नहीं, सामने क्या है?" 
"ओह, यह! पाजी।" 
कृतार्थ होकर अत्यन्त उत्साह के साथ पूछने वाला भीड़ के साथ हो लिया। 
"अपना नाम इसने मौलाबख्श बताया है, 
पर असली जैनुद्दीन यही है।" 
"जैनुद्दीन !" 
"सौ—सौ के छह नोट इसके जाँघिये की जेब में मिले हैं।" 
"अब ले जाकर लड़की बेच देता। 
अजी इनका गिरोह है, गिरोह।" 
"मुसलमान क्यों बढ़ रहे हैं? इसी से तो।"
"कौन कहता है लड़की मुसलमान खानदान की है, और यह शख्स हिन्दू गुण्डा है?"
"झूठ, मुसलमान है।" 
"हरगिज नहीं, काफिर है।" 
"वह जिन्दा क्यों है?" 
"तुम झूठे हो।" 
"तुम नालायक हो।" 
"कोई मर्द नहीं है, जो यहीं उसे करनी का मजा चखा दे।" 
पुलिस—
"पीछे रहो, पीछे रहो।"
भीड़ बढ़ती ही चली गयी। हिन्दू भी थे, मुसलमान भी। इसमें दो राय न थी कि यह शख्स जिन्दा न बचने पाए। और सचमच सबको यह बुरा मालम हो रहा था कि यह पुलिस कौन चीज है, जो सामने आकर उनके और उस बदमाश के बीच, यानी इन्साफ और जुर्म के बीच, हायल है।
रेल का पुल आते—आते 
तीन—चार हजार आदमी हो गये होंगे। 
जैसे समन्दर के बीच में बूंद—बूंद नहीं होती, 
वैसे ही भीड़ में आदमी नहीं रहता। 
भीड़ का अपने में एक अस्तित्व होता है, और एक व्यक्तित्व। वह अतर्क्य भी होता है।
"सीधे चलो, सीधे चलो!" 
"कोतवाली! कोतवाली!"
लड़की सहमी—सहमी चल रही थी। उसने जोर से भगीरथ जी का हाथ पकड़ रखा था। उसकी समझ में न आता था, यह क्या है। एक नि:शब्द त्रास उसके मन पर छा रहा था, और बाबाजी को भी बोध हो रहा था कि परिस्थिति साधारण नहीं रह गयी है। लोगों की भीरुता और मूर्खता पर उन्हें बड़ी झुंझलाहट हो रही थी।
घुड़सवार ने आगे बढ़कर बाबा से पूछा, 
"तुम कहाँ जा रहे हो?" 
"आप देख तो रहे हैं, मैं जिधर जा रहा हूँ।" 
"किस मुहल्ले में रहते हो?"
"जिसमें रहता हूँ, वहीं जा रहा हूँ।" 
"मैं घर जाऊँगी बाबाजी, घर।"
पुल के आगे उनका रास्ता मुड़ता था। मुड़ने लगे, तभी घुड़सवार ने उनके सामने आकर कहा, "सीधे चलना होगा।"
यह बाबा के लिए अप्रत्याशित था। पूछा, 
"कहाँ?"
"कोतवाली।" 
"क्यों?" 
"मैं कहता हूँ, इसलिए?" 
"आप कहते हैं, इसलिए? 
या भीड़ कहती है, इसलिए?"
सवार ने उत्तर न दिया। वह लौट गया, और उसने समझ लिया, यह आदमी वैसा नहीं है जैसा खयाल है।
दोनों चुपचाप सीधे कोतवाली की तरफ बढ़ चले।
जुलूस पीछे—पीछे आ रहा था। बात अब तक दूर—दूर तक फैल गयी थी। अब चौक से भी जुलूस को गुजरना हुआ। पाँच से दस, पन्द्रह—बीस हजार तक भीड़ पहुँच गयी। टेलीफोन से पुलिस के कई दस्ते आ गये थे, पर भीड़ को शान्त रखना मुश्किल हो रहा था। 
शोर बेहद था, और उसमें अब पक्ष भी पड़ने लगे थे। 
मुस्लिम पक्ष और हिन्दू पक्ष।
परिस्थिति भीषण होती जा रही थी, और लड़की के कारण बाबाजी को चिन्ता होने लगी थी। पर मालूम होता था, बात अब वश से बाहर हो गयी है। क्या मेरी बात सुनने योग्य इस जनस्थिति में कोई होगा?"
"अरे, यह लड़की तो दीनानाथ की है।" 
"दीनानाथ! हेड मास्टर दीनानाथ?" 
"ओह, दीनानाथ की?"
चुटकी बजाते बात फैल गयी कि 
दीनानाथ की लड़की को एक मुसलमान गुण्डा उड़ाकर ले आया है। 
हिन्दू पक्ष के क्रोध की सीमा न रही, और मुस्लिम पक्ष का उत्साह तनिक मन्द हो गया। तब दो—एक मुसलमानों को सूझा कि पुलिस से कहें कि मामले की जाँच भी पहले की या नहीं।

दो—एक शरीफ मुसलमान उस समय पुलिस इन्स्पेक्टर के पास गये। तभी बाबाजी ने इन्स्पेक्टर के पास पहुँचकर कहा, "आप यह क्या गजब कर रहे हैं; आप क्या चाहते हैं? आख्रिर इस बेचारी लड़की को तो बाप के पास जाने दीजिए। पता मैं बताता हूँ, सिपाही के साथ लड़की को घर भेज दीजिए। मैं आपके सामने ही हूँ।"

मुसलमान सज्जनों ने कहा, "जी हाँ, कोतवाल साहब, यह शरीफ आदमी मालूम होते हैं। पता तो लीजिए कि क्या बात है।" 

पुलिस भीड़ में से उन्हें एक खाली दुकान की तरफ ले गयी। वहाँ बाबाजी ने मकान का पता दिया। और तय हुआ कि एक सिपाही वहाँ जाए, पूरी बात मालूम करके आए, तब तक दोनों यहीं रहें।
इस बीच बात आग की तरह फैलती रही। 
महावीर दल, 
अर्जुन सेना, 
भीम सेना संगठन, 
हिन्दू रक्षा सभा 
और अखाड़ा बजरंगबली आदि सदल—बल मौके पर आ गये। 
इधर हुसैन गोल और 
रफीकाने इस्लाम तथा 
रजाकाराने दीन भी चौकन्ने हो गये।

इधर दीनानाथ जी चार मित्रों के साथ भोजन कर रहे थे। दीनानाथ जी की लडकी भगा ली गयी। यह इस सभा से उस सभा तक सब को मालूम हो गया था। दीनानाथ को ही बतलाने की या इनसे पूछने की जरूरत किसी को नहीं हुई थी। वह निश्चिन्त, प्रसन्न भोजन कर रहे थे। तभी नौकर ने खबर दी, "बाबूजी, एक सिपाही आपको पूछ रहा है।"

"क्या चाहता है?"
"पूछता है, आपकी कोई लड़की है?" 
"अबे, है तो उससे क्या है?" 
"कहता है, जरूरी काम से दरोगा साहब ने फौरन आपको बुलाया है।" 
"कह दो, मुझे फुर्सत नहीं है।"

नौकर गया और फिर लौटकर उसने खबर दी—
"जी, वह तो जाता ही नहीं। कहता है, आपकी लड़की वहाँ है और आपका वहाँ चलना बहुत जरूरी है।"
"होने दो लड़की वहाँ । मैं अभी नहीं जा सकता। और, वह आदमी अभी नहीं जाना चाहता, तो उसे खड़ा रहने दो वहीं।"
नौकर गया, और दोस्तों में फिर ठट्ठा होने लगा। 
"देखो! यह पुलिस है ! कोई गुलाम बैठा है कि फौरन हुक्म पर दौड़ा जाए!" 

"आखिर लड़की कहाँ है?"
"होती कहाँ? भगीरथ जी के साथ है। फिर उनके साथ कहीं भी हो। फिकर क्या है।"

उधर जनता में न्याय की भूख और हिंसा की प्यास खूब बढ़ रही थी। चौक में एक दुकान के भीतर बेंच पर भगीरथजी बैठे थे, उनसे चिपटी—सिमटी सुखदा, कुर्सी पर इन्सपेक्टर थे, आस—पास सिपाही। और चौक की चौड़ी सड़क एक फलांग तक नरमुण्डों से पटी थी। जो सिपाही भेजा गया था, उसके लौटने की प्रतीक्षा की जा रही थी। न्याय रुका हुआ था। 
जनता खाली थी, और उसका मद उत्तरोत्तर बढ़ रहा था। 
बातचीत से दरोगाजी को मालूम हो गया था कि यह बाबा शरीफ आदमी है। लेकिन इस भूखी और मतवाली जनता के बीच में अब इस बाबा को आजाद छोड़ना जानवरों के बीच में छोड़ना है, फिर उसकी बोटी बाकी न बचेगी।

सिपाही ने आकर खबर दी कि मास्टर दीनानाथ ने उसे घर से बेइज्जत करके निकाल दिया है, और कुछ जवाब नहीं दिया।

इस पर तय हुआ कि दोनों को कोतवाली ले चलना होगा। लेकिन पैदल ले चलना खतरे से खाली न था, इससे ताँगा मँगवाया गया। ताँगा चला, और भीड़ भी चली।
"देखो! पुलिस को चकमा देता था।" 
"अब जाएगा कहाँ?" 
"अब तो यहीं इसको बहिश्त दिखाई देगी।"
दारोगा ताँगे में आगे बैठे थे, लड़की के साथ बाबा पीछे। उस वक्त लड़के बाबा पर कंकड़ियाँ फेंक निकले थे, लोग बेंत चुभो रहे थे, कभी—कभी जूते भी पास आ गिरते थे, और लड़की बाबा की गोद में दुबकी जा रही थी।

ज्यों—त्यों दोनों कोतवाली के अन्दर ले जाए गये, और भीड़ बाहर तैनात हो गयी।
शहर भर में सनसनी फैल गयी थी। दल—के—दल कोतवाली के सामने पहुँच रहे थे। कोई खाली हाथ न था। लाठी, डण्डे, बल्लम, जिससे जो हुआ साथ ले आया था। सबको खबर थी—"मास्टर दीनानाथ की लड़की उड़ाई गयी, मास्टर दीनानाथ की!"
"अजी सोलह वर्ष की है। तुमने नहीं देखा? खूबसूरत, कि गजब की खूबसूरत!"
"अभी ब्याह नहीं हुआ।" 
"और पढ़ाओ लड़कियों को। जभी तो ब्याह जल्दी करना चाहिए।" 
"सगाई हो गयी थी, ब्याह बैसाख में हो जाता।"

"अजी, पहले से लाग—साख होगी। नहीं तो इतनी उमर की लड़की को कौन ले जा सकता है।"

इधर यह सब कुछ था, उधर मास्टर दीनानाथ के कानों भनक न थी। उन्हें अचरज अवश्य था कि अभी तक सुखदा और भगीरथजी घूमकर आये नहीं। पर सोच लेते थे. अब आते ही होंगे। चिन्ता की जरूरत हो सकती है, यह सम्भावना तक उनके पास न फटकती थी।

तभी पड़ोसी मनोहरलाल बाहर से ही चिल्लाते घर में दाखिल हुए
"मास्टर जी, मास्टर जी, लड़की मिल गयी!" 
"क्या—आ?"

"अजी, लड़की गायब हो गयी थी न, वह मिल गयी। और वह गुण्डा भी पकड़ लिया गया है। लाइए. मिठाई खिलाइए।"

"क्या कह रहे हैं आप!"

"मैं कहता हूँ, अब से होशियार रहना चाहिए। 
मुसलमानों को आप जानते ही नहीं है। जी हाँ, और बनिये काँग्रेसी! 
आस्तीन के साँप हैं, साहब, आस्तीन के।"

दीनानाथ जी ने कुछ हँसना भी चाहा, लेकिन बाँह पकड़कर उतावली से पूछा, "मनोहरलाल, क्या कह रहे हो?'

"अजी, मैं वहीं से आ रहा हूँ। लखूखा आदमी इकट्ठा है। उसकी बोटी भी बच जाए, तो मेरा नाम नहीं। साला।"
"कहाँ से आ रहे हो? कहाँ इकट्ठा है?"
"कहाँ से? जनाब वहाँ से जहाँ अब भी गुण्डा मौजूद है, और लड़की भी है। आप लड़की की शादी क्यों नहीं कर देते?"

"मनोहरलाल!" दोनों बाहों से मनोहरलाल को झकझोरकर दीनानाथ ने पूछा, "कहाँ हैं वे लोग?"
"कहाँ हैं ! क्यों क्या अब भी कोतवाली में वह नहीं बैठा है। लेकिन मैं कहता हूँ कुछ दम का और मेहमान है वह। फिर तो उसका बाल भी नहीं मिलेगा।"

दीनानाथ ने साइकिल सँभाली और भागे। भीड़ के पास पहुँचे तो किसी ने उन्हें पहचानकर बधाइयाँ दीं

"मास्टरजी, लड़की मिल गयी।" 
"यही मास्टर है? इसी की लड़की है? शर्म की बात है।" 
"जगह दो, जगह।" 
"लड़की की हिफाजत होती नहीं, पढ़ाने का शौक है। बुरा हो इस पढ़ाई का।"

भीड़ को चीरते हुए दीनानाथ कोतवाली में दाखिल हुए। लड़की के बाप के आने की बात पर भीड़ में नशे की एक और लहर आ गयी। अन्दर दारोगा साहब ने कहा, "आइए, मास्टर साहब, आइए।"

"यह आप क्या गजब कर रहे हैं। लड़की कहाँ है?" उस कमरे में पहुँचे, तो लड़की इनसे चिपट गयी। दारोगाजी ने पूछा, “यह आपकी लड़की है?" 
"जी हाँ, साहब! और यह मेरे दोस्त बाबा भगीरथ जी हैं।" 
"ओ हो! माफ कीजिए, इनको बड़ी तकलीफ उठानी पड़ी।" 
"लेकिन जनाब, आपने भी तो गजब किया। देखिए न, कितना हजूम जमा है। 

विचार होने लगा कि इस भीड़ में से कैसे बाबाजी को ले जाना होगा। आखिर, यह सोचा कि मास्टर जी साथ रहेंगे तब ज्यादा खतरा नहीं है।
पुलिस की मदद से ताँगे में सवार हुए, और मास्टर जी बराबर साइकिल लेकर चले।
"मास्टर जी, यह गुण्डा है?" 
"अरे, मास्टर की लड़की भगाने वाला यही है।" 
"साला, जाने न पाए।" 
मास्टर ने चिल्लाया, 
"अरे, क्या गजब करते हो?"

लेकिन साहसी व्यक्तियों ने बढ़—बढ़कर भगीरथजी के धौल—धप्पे जमाने शुरू किये।
ताँगा दौड़ा। 
पत्थर फिंके। 
दीनानाथ साइकिल उड़ाते जा रहे थे।
भीड़ एकाएक कुछ स्तब्ध रह गयी थी, और ताँगा इतने में निकल गया। यही कुशल हुई।
लेकिन रास्ते में स्वयंसेवकों के दल अभी चले आ रहे थे।
देखा, मास्टर दीनानाथ ताँगे के बराबर साइकिल पर जा रहे हैं, और ताँगे पर लड़की के साथ एक मुसलमान—सा बैठा है।
"मास्टरजी, यही है?"
—और दे डण्डा!

"मास्टरजी की लड़की यही तो है जी!"

—और पाँच—सात आदमी दौड़े ताँगे की तरफ लाठियाँ उठाए। कुछ लाठियाँ ताँगे की छत पर पड़ीं। एक—आध बाबा पर भी। पत्थर भी खासे बाबा को लगे। पर ज्यों—त्यों आखिर ताँगा घर पहुँच ही गया।

लेकिन बाबाजी ने न अपना जाँघिया बदला, न भले मानसों की तरह कुर्ताकमीज कुछ पहनना शुरू किया।

"ओ हो! बाबा जी आप थे। मैं मोटर पर जा रहा था, भीड़ मैंने भी देखी थी। क्या पता था, आप वहाँ घिरे थे। आप भी खूब ही हैं।"

"भीड़ तो हमने देखी थी। लेकिन बाबाजी, आप ठीक तरह क्यों नहीं रहते।"
बाबाजी को इसमें कुछ सुख या दुःख नहीं जान पड़ता कि वह मौत से बच गये। वह हँस देते हैं, और बाबा छोड़कर कुछ और बनना नहीं चाहते।



(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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1 टिप्पणियाँ

  1. कितनी प्रासंगिक कहानी। भीड़ के मनोविज्ञान और व्यवहार को बख़ूबी चित्रित किया है। आफने कहानी पढ़वाई। धन्यवाद।

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