भारतीय गांव और उपन्यास का नॉर्मेटिव स्पेस — डॉ. कविता राजन


भारतीय गांव और उपन्यास का नॉर्मेटिव स्पेस

— डॉ. कविता राजन


विषयप्रवेश:
डॉ कविता राजन 

सभी जानते हैं कि प्रेमचंद और रेणु के गांवों के समानान्तर (और उसके बाद भी) गांव में न्याय-व्यवस्था का क्रमिक संस्थागत क्षरण हुआ है। यह क्षरण भारतीय और समकालीन हिंदी उपन्यासों में कैसे दर्ज हुआ, प्रस्तुत आलेख यह लेख इसी का सजग आकलन करता है और यह दिखाने की कोशिश भी कि उपन्यासों में पल्लवित क्रिटीक एक आकांक्षा द्वीप, एक यूटोपिया के रूप में कैसे उभरता है! 

यहां हमने बांग्ला के ‘गणदेवता’ और ओड़िया के ‘माटी मटाल’ के बाद अपराधी जनजातियों पर केंद्रित ‘अल्मा कबूतरी’ का विश्लेषण किया है- इस उद्देश्य से कि समाज की बृहत्तर समस्याओं पर जब स्त्री-दृष्टि पड़ती है, उसका आकलन कितना अलग होता है, और यह भी कि उनकी ‘पोलिटिकल’ क्रिटीक में देहाधारित शोषण से मुक्ति का महास्वप्न कितनी गहराई से समाया है!

गणदेवता (1942- 1944)


महाकाव्यात्मक शैली में शिवकालीपुर गांव की सामूहिक गाथा। ताराशंकर बन्द्योपाध्याय का दो खंडों में (1942 तथा 1944) प्रकाशित उपन्यास, जिसका विषय है- औपनिवेशिक औद्योगीकरण के दबाव से विस्खलित ‘सर्वहारा वर्ग-विघटन’ तथा ‘सामाजिक न्याय-बोध। फोकस पर है आर्थिक इतिहास का चक्रवात में! लेखन का कुल प्रभाव ऐसा, मानो पूरा गांव बोल रहा हो। यहाँ अनावश्यक लेखकीय हस्तक्षेप नहीं, पूरी व्यग्रता और गंभीरता से नैतिक परिणतियों का विवेचन है।

भारत के इस गौरव-ग्रंथ को समझने के लिए पहले सौंदर्य-पक्ष की चर्चा आवश्यक है फिर विचार-तत्त्वों की! पौने छः सौ पृष्ठों का गठन छप्पन हिस्सों में है। यह गठन इस मल्टी-फोकल उपन्यास को संवारकर समग्र व्यक्तित्व देता है। कथात्मक और सौंदर्य-मूलक दीप्तियां इसे सानुपातिक बनाती हैं। आंचलिक आत्म का उद्दीपन प्रत्येक पृष्ठ में है, अभिव्यक्ति-स्तर अद्वितीय। बड़ी संख्या में चरित्र क्रमानुसार रचना के टेक्स्ट में प्रवेश करते हैं और लगता है कि हम उनसे वर्षों से परिचित हैं। अनुभव का इतना बड़ा जखीरा विश्व चरित्रों और संवादों के माध्यम से भारतीय उपन्यासों में अबतक नहीं आया है। वर्णन-विस्तार में कहीं शिथिलता नहीं है और सांस्कृतिक भाषा गहरे सामाजिक-संदर्भों से सिक्त है।

उपन्यास में वैचारिक तत्त्वों के अनेक आयाम हैं, पर सबसे बड़ी बात उपन्यास का ‘नार्मेटिक स्पेस’ है। ‘न्याय-बोध’ का ‘संस्थागत ह्रास’ गांव को हर स्तर पर कैसे असहाय बनाता है, यहां वर्णित है। इसे उपन्यास के प्रारंभ में हम ‘जजमानी व्यवस्था’ की टूटन में देखते हैं, फिर ‘भू-स्वामीत्व’ के तीव्र प्रश्नों में और ‘नई औपनिवेशिक व्यवस्था के व्यापन की कुटिलताओं में! छीरू पाल का उदय, परंपरागत सामंजस्य का संस्थागत अस्त है और ऐसे अनेक उदाहरण इस उपन्यास की जान हैं। यह उपन्यास ताराशंकर बन्द्योपाध्याय ने ‘गणदेवता’ के माध्यम से ‘गणदेवता’ के लिए पूरी चिंता में लिखा है। जिस युग का चित्रण उपन्यास में हुआ है, वह आंदोलनों और क्रांतियों का युग था। दुविधाग्रस्तता में भी ताराशंकर की शोध-वृत्ति मौलिक बनी रही है और विचारधाराओं के अप्रमाणिक मोहपाश से वे बचे हैं। उपन्यास में पीड़ा की व्याख्या है, मुक्ति का ‘विजन’ भी है जो उनका अपना है। वर्णनात्मक समस्यामूलक मात्र यह उपन्यास समस्यामूलक होकर नहीं रह जाता, समाधान की ओर भी जाता है। उद्देश्य है, यथार्थ का इतना गहरा चित्रण कि पाठक भी अपनी समझ बनाने में सक्षम हो सके! यह ‘नॉरमेटिव इंटीग्रेशन’ उपन्यास करता है। इस उपन्यास में लेखक ने जो गुरुतर उद्देश्य लिए थे, वे निश्चय ही दुर्लभ थे। बड़ी कुशलता से दायित्व-निर्वाह हुआ है और कृति अपने पूर्ण निखार के साथ पाठकों और समीक्षकों के समक्ष आई है।

माटी मटाल (1964)


अभिभूत कर देनेवाली रस-निष्पत्ति, सूक्ष्म-समग्र निरीक्षण, प्रशस्त फलक-विस्तार, उदात्त संवेदना-सान्निध्य तथा परिपक्व काल-चिंतन के कारण ओड़िया भाषा (गोपीनाथ महान्ती) का यह उपन्यास भारतीय औपन्यासिक शिल्प की एक पूर्णत्वप्राप्त पहचान है। गांव की मिट्टी की यह कथा इस मिट्टी पर अवस्थित प्राणवान जगत, उसकी आवश्यकताओं पर आधारित समाज-संरचना, इस संरचना में लिप्त सामाजिक यथार्थ और यथार्थ से निःसृत द्वंद्वों का चिंतामग्न आलेख है जिसे रवि नामक पात्र के कथा-सूत्रा में रखकर लेखक ने कहा है।

रवि का आदर्शवाद इस उपन्यास का वैचारिक आयाम है। रोजगार प्राप्त करने की योग्यता और संभावना तथा अतिसामान्य मध्य-वित्तीय माता-पिता की अपेक्षाओं के बाद भी जनहित में (मोह शांत करके) यह युवक अपने गांव के लोगों से समाज-सेवा से जुड़ता है, नई शुरूआत करता है। उपन्यास में बड़ी शालीनता से संवादों द्वारा ये द्वंद्व दिखाए गए हैं। एक आज्ञाकारी संस्कारी पुत्र के संवादों में रवि अपने समर्थन में भाषण नहीं देता, प्रेमसिक्त कुछ शब्द-भर कहता हैं। ग्रामजनों के जुड़ने पर सुंदर संस्कारों से रवि का साक्षात्कार होता है। साथ ही यह भी पता चलता है कि ‘दुर्दशा का क्रम कितना उग्र होता ह’ और चैतन्य व्यक्तियों का मनोजगत किस क्लिष्टता से एकाकी बनता है। वह जान पाता है कि क्यों ‘इस देश के जन-जन का चेहरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी सूखता’ सिकुड़ता, छोटा होता आया है।”

समग्रता इस उपन्यास का मूल गुण है। फलतः मानव को मिट्टी, निसर्ग, प्राणी-समूह तथा आकाश से जोड़कर देखा गया है। ‘माटी मटाल’ में निसर्ग-वर्णन समीक्षा का एक स्वतंत्र अध्याय है। उपन्यास में इस दृष्टि से अनेक प्रयोग लेखक ने किए हैं। मानवीकरण के उदाहरण हैं, दार्शनिक संकेतों के बिम्ब हैं, छोटी वनस्पतियों की सौंदर्यमयता है, जनश्रुतियों से चित्रात्मक उद्धरण हैं, आस-पास के प्राणियों की मुद्राएं हैं तथा मानव के मुख पर चढ़ते-चढ़ते रेखाचित्र तो हैं ही! महानता चित्रण की समानुपातिकता और प्रभाव के स्थायित्व में है।

उपन्यास में प्रयुक्त भाषा अपने समस्त सांस्कृतिक व्यक्तित्व के साथ अवतरित है। जन्म और विवाह उपन्यासों में अनेक प्रकार से दिखाए गए हैं, पर जो शालीनता, सांकेतिकता और कोमलता इस उपन्यास के पात्रों (रवि और छवि) के प्रेम-संबंध और विवाह-वर्णन में है, कहीं नहीं है। प्रगतिशील साहित्य में इस प्रकार के वर्णन की प्रेम शिल्पगत समस्या हमेशा रही है, पर महान लेखकों ने इस आह्वान को भी अपने अभिव्यक्ति - कौशल से सुलझाया है। ‘माटी मटाल’ में संस्कारों की अंतःसलिला जिस प्रकार सौंदर्य के धरातल को सूक्ष्मता से स्पर्श करते आगे बढ़ती है, वह साहित्य-कला का एक लक्षणीय मानदंड है।

अल्मा कबूतरी


इक्कीसवीं सदी के प्रथम वर्ष में तीन सौ नब्बे पृष्ठों की यह पुस्तक आई। (लेखिका: मैत्रेयी पुष्पा) यह उपन्यास भारत की एक अभूतपूर्व खोज है। कथा है नारी-अस्मिता के अध्याय से, जिसकी जड़े सदियों पुरानी है। इक्कीसवीं सदी के प्रथम वर्ष में खुला यह गवाक्ष मानवाधिकारों और मानवशास्त्र में आस्था रखनेवाले हर व्यक्ति के लिए आत्म-मंथन की अंतर्दृष्टि देता है।

आज की संवैधानिक स्थिति में ‘विमुक्त जाति’ कहा जाने वाला ‘कबूतरा’ समाज हमारे देश के ऊबड़-खाबड़ इतिहास में विषमता, गरीबी, उपेक्षा और लांछन की तपती जमीन पर जिंदा रहा, और मन से ‘वीर-भाव’ के मिथकों से जुड़ा हुआ भी। ‘अल्मा’ (अर्थ है- आत्मा) की कथा के माध्यम से उपन्याकार ने शरीर, श्रम और भयंकर असुरक्षा में घिरी कबूतरा स्त्रियों (उद्बोधन: कबूतरी) का मनोलोक उजागर किया है। 

पृष्ठ-113 पर उपन्यास में एक और प्रमुख-पात्र कदमबाई(कबूतरी) के अनुभवों का सारांश अंकित है:

“क्या समझूं? हमें तो बचपन से एक सच्चाई समझाई गई है कि कबूतरी के मर्द की कोई खेती-धरती नहीं होती। कुआं-तालाब पर उसका हक नहीं होता। फिर भी जिंदा रहना होता है। अन्न-पानी चुराओ और जुटाओ। बिना छत के सोने की आदत डालो। मौसमों को फतह करो।”

“माते, यहां लोग दारू पीने आते हैं। मौज-मजा करते हैं। मजबूरी सुनें न कहें। सुख की चाहना में कुछ कहेंगे भी तो जालसाजी निकलेगी। हमसे कुछ समझकर भी नासमझ बने रहते हैं। हमारी बिकरी ही हमारे लिए सब कुछ है। गाहकों का क्या मोह?”

“और मैं? मैं अपने मोह का क्या करूं?” मंसाराम ने टूटती आवाज में कहा।

कदमबाई मुस्कुराई कि अनचाहे ही होंठ फैलाए थे? फिर बोली, “कुछ मत करो। कबूतरियों को मोह रास नहीं आते। हम पियार पिरीतवाले छंद बंद कर के दारू ढालते बेचते हैं।”

“कदम, तूने पी है।”

“यह भी कोई पूछते की बाते है?” उसने आंखें मिलाकर कहा।

उपर्युक्त संवाद गांव के संस्कारी, (पृष्ठ-9) संपन्न गृहस्थ मंसाराम भ्राते (कज्जा: कबूतरा समाज का सामुदायिक संबोधन) और अवैध रिश्ते में फंसी गांव की सीमा से सटकर रहती सर्वहारा युवा सुंदरी कदमबाई (कबूतरी) के बीच है।

उपन्यास के पृष्ठ-113 के संदर्भित संवाद को ठीक से समझने के लिए औपनिवेशिक इतिहास और उसके पहले के मिथकों में जाना होगा।

मध्यकालीन मिथकों का उल्लेख उपन्यास में पृष्ठ 127 से 129 के बीच है, चितौड़ के राजा रत्नसिंह और उनकी पत्नी रानी पद्मिनी के संदर्भ में! यह ‘ओरल ट्रैडीशन ’ पर आधारित हैः

रामसिंह काका सुनाता है- हमारी मां कहती थी, पद्मिनी नहीं मरी। मां को उसकी दादी ने बाताया था और दादी को उसकी दादी ने। सो भूरी कबूतरी ने कथा कह - कहकर सुनाई-

--कि पद्मिनी अपनी बांदी सखियों और रानी रक्कासाओं को लेकर सैनिकों के साथ भाग छूटी थी। आनबान कहां रह गई, जिन्दगी ने सब छीन लिया। प्राण ही सबसे ज्यादा प्यारे लगे।

--रानी सरहदें पार कर गई। छोटा-सा कारवां नदी-पहाड़, घाटियां लांघता हुआ दिन-रात का भेद भुलाकर आगे बढ़ रहा था। रानी के कारवां की सुलतान को शायद भनक लग लग गई।

रानी ने मुरझाते सैनिकों को हुक्म दिया-बल नही तो छल। फौजें हमें खा जायेंगी। सुलतान के लिए जानेवाली रसद लूट लो! छावनियों में घुसकर हथियार चुराओ। सखियो, सुलतान के सिपाहियों को हंसकर रिझाओ और लहंगों में छिपी कटा चलाकर खसिया कर दो।

रसद लेने-ले जानेवाले कहाय बंजारे। नाचने-गानेवाले-कबूतरा। दवा रूखरियों के जानकार मोघिया। घाटियों को लांघने-नाखने में माहिर लोग-नट। औजार बनाने वाले-गड़िया लोहार। बंदर-भालुओं से रोजगार जुटाने वाले-कलंदर... (पृष्ठ-129)

मिथक सर्वहारा वर्गों को अस्तित्व की कठोर वास्तविकताओं से थोड़ी राहते देते हैं, पर आस्थाओं पर आधारित मान्यताओं के रूप में इन्हें देखना ज्यादा उचित है। इतिहास की कला वास्तविकताओं का साक्षात्कार भारत में हम औपनिवेशिक युग में 1871 से पाते है। जब खेती-धरती से वंचित (पृष्ठ-113) कुछ लोगों को ‘नस्ल’ के आधार पर ‘क्रिमिनल ट्राइब’ करार कर दिया गया। प्रशासनिक दमन की शुरूआत अंग्रेजी राज में भारत में रेग्यूलेटिंग एक्ट द्वारा 1793 में ही शुरू हो गयी थी, पर वैधानिक मान्यता के बाद इन पर, देशी-विदेशी, सभी पिल पड़े। उपन्यास के पृष्ठ-132 पर इसका उल्लेख हैः

1871 का साल। मुजरिमों ने साहबों के चाबुक तोड़ दिये, फांसी के फंदे काट डाले, समुद्र सोख लिया! अब आओ कलम के जरिए तुम्हारी गर्दन घसीटने के लिए फिर तुम्हारे ही भाई तैनात हैं।

अधिनियम लागू हो गया-कबूतरा, मोघिया, कलंदर, सांसी, पारदी, माम्पट जैसी जातियों के लोगों के धंधे अपराध माने जाते क्योंकि वे अपने रोजगार को कानूनी करार देते हैं और वारदातें करते हैं।

अंग्रेज हंस रहा था। जन्मजात अपराधी! वे बहादुर भी हंसे। आपस में कहने लगे- हम अब एक-एक लकड़ी नहीं, बंधे हुए गट्ठर हैं, तोड़े से न टूटेंगे। चितौड़ की महारानी से लेकर झांसी की रानी का साथ निभाने तक ही सजाएं भोगो। भोंगेगे। थाने के रजिस्टरों के बंधुआ हो गए, अंगूठा देने के बाद ही कहीं आ- जा सकेंगे। रात में खास निगरानी होगी, गांव का मुखिया और थाने का दरोगा अंतर्यामी भगवान के रूप में है। नाते-रिश्तेदारियों और ब्याह-शादियों के ब्योरे रखनेवाले देखते हैं तो क्या, चढावा तो कबूल करते ही हैं। दोनों अपनी एड़ियों के नीचे दबी हमारी चाटियों में नजराना पाकर ढील दे देंगे।

“गदर के सिपाही, सदर के कैदी’ राम सिंह काका जोर देकर कहते और फिर खोखली - सी हंसी हंस देते हैं।”

“बिना वारंट की सजाएं और सजायाफतओं से ईमानदारी की आशाएं...........”

इतिहास को समझने की नई अंतर्दृष्टि, मिथकों की ऊर्जा, प्रखर तर्क-शक्ति तथा भाषिक आवेग से संचरित यह उपन्यास एक चमत्कार ही है। शब्द संगठित हैं, नावक की तीर की तरह! सही विराम पर, औलिया की तरह, दृढ़तापूर्वक सहज-भाव से नियति पर उन्मुक्त हंसने की ताकत भी रचना के टेक्स्ट में है।

चरित्र-चित्रण की दृष्टि से ‘अल्मा कबूतरी’ उपन्यास में दो चरित्र लक्षणीय हैं- मां के रूप में कदमबाई और सामाजिक इयत्ता के रूप में अल्मा!
कदमबाई संकटापन्न मां है, हर प्रकार से! उसका पुत्र राणा भी एक विशिष्ट चरित्र है। यह बात अलग है कि अंततः नियति उन्हें सारे प्रयत्नों के बाद भी मंझदार में छोड़ देती है। इस अर्थ में माँ - बेटा उपन्यास में घोर करुणा के पात्र हैं। उपन्यासकार ने सहजानुभूति से इन दोनों का चित्रण किया है:

उसने बच्चे की आंखों में आंखें जुड़ा दी। तू जिस अंश से पैदा हुआ है, ऐसा कज्जा ही तो बनना चाहते थे तेरा बप्पा। होता तो तुझे तोते की तरह पालता, बेटा.... झपट्टा मारने वाले शैतानों और हमलेवाली हवाओं से छिपा-बचाकर।

...पर तू कज्जा है या कबूतरा? तेरी मां की छाती में एक पल पालने के रंग छन-छन कर गिरते हैं तो दूसरे पल जंगलिया के लहू की बूंदें टपकती हैं।(पृष्ठ-32)

राणा सात साल का हो गया। मां का मन बढ़ चला।

मंसूबे उथल - पुथल मचाने लगे।

राणा रे ........लाठी भांज, गुलेल चला। कुल्हाड़ी का वार करना सीख। मेरा बेटा बहादुरी से चोरी करेगा। सोने की मूर्ति किसी के जरिए नहीं, कज्जा लोगों पर मरघट की राख डाल कर लूट लाएगा। राणा को मैंने ऐसे ही गर्भ में नहीं रखा, लोग उसके करतबों से थर्राने लगेंगे। ऐसे दहल जायेंगे, जैसे में थर्रा गई थी जंगलिया की मौत पर।(पृष्ठ-37)

इस मुठभेड़ ने कदमबाई का दिल दहला दिया। कहां है मंसाराम? मरते दम तक यही सकून रहेगा कि उसने उनसे कोई मदद नहीं ली। उनके बच्चे की मां बनी थी, भिखारिन नहीं हुई कि पालन-पोषण का मुआवजा मांगती और मां के हक को छोटा करती। बच्चे को दूध पिला सकती थी, रोटी नहीं दे पाई! न सही............(पृष्ठ-44)

“काका, पाठशाला का संस्कार डालकर अपने धंधे से हाथ धोना है। देख नहीं रहे राणा ने दो पोथी क्या पढ़ ली, मुखिया के माथे पर जूता मार दिया। यह नहीं सोचा कि यह मार उसकी मां की कमर तोड़ देगी।” (पृष्ठ-71)

आज राणा को पढ़ने का अधिकार मिल गया

कदमबाई का डेरा इतनी खुशी के लिए छोटा पड़ गया। (पृष्ठ-77)

स्कूल में खिलते फूलों के रंगों में उतरने वाला राणा बदरंग हो गया। मां को कैसे बताए, वह पीपल पर चढ़ने लगा था। मास्टर जी ने आकर कमर पर कोड़ा मारा-साले, यह नहीं देखते कि पीपल पर देवताओं का वास होता है। स्कूल जैसी पवित्र जगह में बैठ जाने दिया तो तू हमारे देवताओं के मुंड पर नाचेगा?

वह आधे दिन स्कूल की चैहद्दी के बाहर मुर्गा बना रहा। मास्टर जी ने संतोष के साथ कहा था- स्कूल में घुस ही आया है तो सजा भुगत। बस्ता उतरवाना ही था तो किसी ब्राह्मण के लड़के से कह देता, पर वही चोरी से ही सब कुछ करने की आदत! (पृष्ठ-81)

पात्र के रूप में अल्मा कबूतरी का प्रथम उल्लेख उपन्यास में पृष्ठ-103 पर होता है। उपन्यास में पहले फोकस कदमबाई कबूतरी पर है, फिर अल्मा कबूतरी पर! पहली निरक्षर है, दूसरी (नई पीढ़ी) शिक्षित! शिक्षा प्रजातंत्र और मानवाधिकारों का विकासात्मक आधार माना जाता है। ऐसी स्थिति में अल्मा की नियति कदमबाई की नियति से किन आयामों में भिन्न हैं? पृष्ठ संख्या- 103 से विमर्श इस बात पर केन्द्रित है।

रामसिंह कबूतरा-अल्मा का पिता, अपने समाज के आस-पास की जानकारी में पहला शिक्षित व्यक्ति, स्कूल में शिक्षक तथा प्रबुद्ध व्यक्ति-उपन्यास का एक महत्त्वपूर्ण पात्र है। कदमबाई के होनहार बेटे राणा का अल्मा के साथ लेकर शिक्षा और समाज-सुधार करने का उसका संकल्प है पर होता क्या है?

रामसिंह को सच्चाई की पहला घूंट तो नई नौकरी के पहले पगार के दिन ही मिली थी ।

पगार मिलने का दिन था। सफेद कुर्ता-पायजामा पहने लकदक चाल में लहराता हुआ कबूतरा का बेटा रामसिंह विकास के दफ्तर चला जा रहा था। विकास के पहले आता है थाना। थाने के सिपाही ने पुकार लिया।

उसने थाने का नजरंदाज किया- लौटते में आ जाऊंगा। आगे बढ़ा मगर बीच में ख्याल आया-पहले थाने से ही निपट लूं। नौ जवान-उमंगों को रोक नहीं पाया रामसिंह। नई तरफ की बराबरी और अनुछुआ-सा हौसला मिलकर बदन में ताकत भरने लगे। थाने में पड़ी चार कुर्सियों में से एक पर जा बैठा। दीवान जी भीतर था। इंतजार करना था।

दीवानजी बाहर आए। माथे पर कई बल पड़े थे। नार तन आई और जरा क्रूर हो गए। रामसिंह तपाक से उठ खड़ा हुआ। हाथ जोड़ लिए। सिपाहियों के सामने भी माथा झुकाया। ताकत लगाकर जो आवाज निकली, वह बस इतनी- मालिक हुकुम!

भाई तू तो पद पाए, मद में आ गया। थाने के आगे से हाथी-सा झूमता निकल जाता है।

रामसिंह का मुंह खुल आया। दीवान जी क्या कह रहे हैं?

तूने सोच लिया कि तेरा धंधा बदल गया तो हम भी बदल गए? हमारा महंगाई भत्ता बढ़ना बाकी है अभी। समझे?

छीवनाजी, यह नहीं समझेगा, हिंदी में समझाओ। थाने की हिंदी में यह सिपाही था। (पृष्ठ-100)

पृष्ठ-संख्या-103 पर अंकित स्मृतियां भी थीं:

डेरे पर चार सिपाही आए। बोले-अबके महीने क्या हुआ?

बच्ची बीमार थी। पत्नी गर्भ से है।

हरामी, हमारा हक मारने के लिए जोरू ग्याभन की थी?

हवलदार साहब!

अरे! जुबान लड़ाता है? हमारी ताकत भूल गया? इस औरत को अभी नंगी कर दूं, बोल! (पृष्ठ-103)

रामसिहं की ये स्मृतियाँ स्वतंत्र भारत की थीं, जिसमें बेटी अल्मा का जन्म हुआ था और उसने शिक्षक की आदरणीय नौकरी ईमानदारी से निभाने के लिए शुरू की थी। उपन्यास के नए विमर्श की यही उचित और सशक्त शुरूआत है। आगे पृष्ठ- 239 तक आते - आते पता चलता है कि शिक्षक रामसिहं का आदर्श, परिस्थितिवश निभ नहीं पाया। वह रैडिकल बनने की पूरी कोशिश करता है, पर परंपरा की कड़ियां उसे अपमानित करके मार डालती हैं। तथापि, इस क्रम में अल्मा शिक्षित और सभ्य समाज के योग्य बन जाती है। राणा भी काफी हद तक शिक्षित हो जाता है, रामसिंह और अल्मा के सान्निध्य में। रामसिंह के बाद अल्मा का दुर्भाग्य क्रूर और सबल हो जाता है।

पिता रामसिंह की धोखे में मृत्यु और राणा द्वारा छोड़े जाने पर अल्मा के जीवन का नारकीय दौर शुरू होता है। उसका अतिसुंदर रूप और राजनैतिक हिंसा से पूर्णतः असुरक्षित जीवन, उसे सूरजभान नामक राक्षस के शिकंजे में पहुंचा देता है। राणा से स्वेच्छापूर्वक गर्भवती अल्मा सूरजभान से एक बंदी जैसी अवस्था में लंबे समय तक बारंबार बलात्कार का शिकार होती है। उसे भागने का मौका मिलता है, पर आगे समाज कल्याण मंत्री श्रीराम शास्त्री से बेमेल विवाह करने की खाई भी उसके नसीब में है। कथा के आवेग के विकास को समझने के लिए ‘अल्मा कबूतरी’ उपन्यास के निम्नलिखित अंश महत्त्वपूर्ण हैं। संवादों की ऊर्जा, कम शब्दों में, कथानक को आगे बढ़ाता है।

“अम्मा, मोघिया ने छल किया। रामसिंह की मौत की जो साजिश हुई, उसे पता था। अल्मा की चिट्ठियां छिपाए रहा। देखा कि राणा आ पहुंचा है तो भला बन गया। अहसान किया। मेरे लिए दुख के पहाड़ खड़े कर दिये। चाहता तो अल्मा का अपने पास रख सकता था।”

कदमबाई अब इस सच से दूर नहीं कि राणा अपनी नाकामयाबी को दूसरों पर डालकर चैन पाना चाहता है।(पृष्ठ-249)

 वह सीढ़ी पर बैठा था। सारे लोग झुक आए। समझ रहे थे कि खबर अच्छी नहीं, फिर भी सुनना चाहते थे। सुन- कदमबाई, अब कहीं जाने की जरूरत नहीं अल्मा दुर्जन के पास नहीं...

-तो किसके पास है? मखिया की तरह पूछा सरमन ने।

-जिसके भी पास हो। जो ले गया, ताकत के बल पर ले गया या किस हक से

-राणा से ज्यादा किसका हक था?

-उसका जिसने रकम भरी।(पृष्ठ-259)

अल्मा का आंख तक न उठाना इस उपन्यास का वह वाक्य है जिससे अल्मा का नैतिक चरित्र प्रमाणित होता है, नाम सार्थक होता है ‘आत्मा’ के अर्थ मे! ‘अल्मा कबूतरी’ के उपन्यास के शीर्षक पर आने का कारण भी यही निष्कर्ष है।

अल्मा! पास आने पर तसवीर और भी साफ हुई। एकदम ही बदल गई! फिल्मी पोस्टर में छपी लड़की। लाल छींटदार रेशमी साड़ी और सफेद ब्लाउज। चिकना मुंह-माथा। पहले के मुकाबले रंग निखरा हुआ। देह भरी-सी। बाल कटे हुए!

धीरज की आंखें उठ नहीं रहीं कि पहचान नहीं पा रहा?

-बाबूजी!-अल्मा उदासी की छाया में मुस्कुराती है।(पृष्ठ-338)

वह सोच में डूबी खड़ी रही। भीतर संवाद चल रहा था- आप जानते हैं, मैं यहा क्यों रुकी हुई हूं? आप समझते हैं कि मैं जिंदा भी क्यों हूं, बड़ी सीधी बात है, आपलोगों ने हमारी दुनिया उजाड़ी है, मैं आपको उजाड़े बिना नहीं मरूंगी। मैं सबको बता दूंगी कि पाप कहां पलता है? अपराध कौन लोग करते हैं? सताने और मारनेवाले ठेकदार कौन हैं? मेरे पिता ने इन्हीं बातों से समझौता नहीं करना चाहा था, यही उनका गुनाह रहा। मैं बहुत समझदार नहीं, पर इतना तो समझती हूं कि हमारे लिए क्या गलत है, क्या सही। (पृष्ठ-370)

इस उपन्यास का पढ़ना गवाक्ष के बाहर की एक नई दुनिया का बोध मात्र नहीं है। यह क्षितिज से उगते हए सूरज को आंकने का स्फुरण भी है। समकालीन भारत की अव्यक्त पीड़ा को इसके द्वारा समझा जा सकता है तथा चिंतन के ऊर्ध्वमुखी क्षण निर्मित किए जा सकते हैं। भाषा, रूप और शैली के आधार पर तो यह श्रेष्ठ कृति है ही! भारतीय गांव की स्त्री-लेंस समस्याओं का फलक कितना विस्तृत कर गयी है, इसका प्रमाण है यह कृति !

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
कोरोना से पहले भी संक्रामक बीमारी से जूझी है ब्रिटिश दिल्ली —  नलिन चौहान
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
चित्तकोबरा क्या है? पढ़िए मृदुला गर्ग के उपन्यास का अंश - कुछ क्षण अँधेरा और पल सकता है | Chitkobra Upanyas - Mridula Garg
मन्नू भंडारी की कहानी — 'रानी माँ का चबूतरा' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Rani Maa ka Chabutra'
मन्नू भंडारी: कहानी - एक कहानी यह भी (आत्मकथ्य)  Manu Bhandari - Hindi Kahani - Atmakathy
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل
समीक्षा: अँधेरा : सांप्रदायिक दंगे का ब्लैकआउट - विनोद तिवारी | Review of writer Akhilesh's Hindi story by Vinod Tiwari
अखिलेश की कहानी 'अँधेरा' | Hindi Kahani 'Andhera' by Akhilesh
मन्नू भंडारी की कहानी  — 'नई नौकरी' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Nayi Naukri' मन्नू भंडारी जी का जाना हिन्दी और उसके साहित्य के उपन्यास-जगत, कहानी-संसार का विराट नुकसान है