अमृता प्रीतम की कहानियां: करमांवाली | Amrita Pritam Short Stories: Karmawali

और सचमुच लड़की की श्रृंगारपुरी नत्थ में जो मुस्कराहट का मोती चमक रहा था, उसका रंग झलना कोई आसान नहीं था।

मैंने एक रुपया उसकी हथेली पर रखा। और जब लौटी, तो मेरे साथी कह रहे थे, 'क्षणभर पहले जब तुमने कविता पढ़ी थी, कॉलेज की कितनी लड़कियों ने रुपए-रुपए के नोट पर तुम्हारे हस्ताक्षर करवाए थे।'

कितना लिख देना है । कितना छुपा लेना है। कितना जो नहीं जाना - जान  तो लेना  ही है , नापतौल के बयान  भी कर देना है। कितने दुखों और उनके बीच के कितने सुखों को अमृता प्रीतम लिख देती हैं। करमांवाली की कहानी पढ़िए ... 
~ सं० 

करमांवाली

अमृता प्रीतम की कहानियां


Amrita Pritam Short Stories: Karmawali




बड़ी ही सुन्दर तन्दूर की रोटी थी, पर सब्जी की तरी से छुआ कौर मुँह को नहीं लगता था।

“इतनी मिर्चे...” मैं और मेरे दोनों बच्चे सी-सी कर उठे थे।

“यहाँ बीबी, जाटों की आवाजाही बहुत है। शराब की दुकान भी यहाँ कोसों में एक ही है। जाट जब घूंट पी लेते हैं, फिर अच्छी मसालेदार सब्ज़ी माँगते हैं।” तन्दूर वाला कह रहा था।

“यहाँ...जाट...शराब...”

"हाँ, बीबी, घूंट शराब का तो सब ही पीते हैं, पर जब किसी आदमी का खून करके आएँ, तब ज़रा ज़्यादा ही पी जाते हैं।"

“अभी तो परसों-तरसों कोई पाँच-छ: आ गए। एक आदमी मार आए थे। खूब चढ़ा रखी थी। लगे शरारतें करने। वह देखो, मेरी तीन कुर्सियाँ टूटी पड़ी हैं। परमात्मा भला करे पुलिस वालों का, वह जल्दी पकड़कर ले गए उन्हें, नहीं तो मेरे चूल्हे की ईटें भी न मिलतीं...पर कमाई भी तो हम उन्हीं की खाते हैं...।"

कोशलिया नदी देखने की सनक मुझे उस दिन चण्डीगढ़ से फिर एक गाँव में ले गई थी। पर मित्रों से चली बात शराब तक पहुँच गई थी। और शराब से खून-खराबे तक। मैं उस गाँव से जल्दी-जल्दी बच्चों को लेकर लौटने को हो गई थी।

तन्दूर अच्छा लिपा-पुता और अन्दर से खुला था। और भीतर की ओर एक तरफ कोई छ:-सात खाली बोरियाँ तानकर जो पदा कर रखा था, उसके पीछे पड़ी तीन खाटों के पाए बताते थे कि तन्दूर वाले के बाल-बच्चे और औरत भी वहीं रहते थे...। मुझे लगा, इतना बड़ा खतरा नहीं था। वहाँ पर औरत की रिहायश थी, इज़्ज़त की रिहायश थी।

किसी औरत ने टाट का कांटा मोड़ा। बाहर की ओर झाँककर देखा, और फिर बाहर आकर मेरे पास आ खड़ी हो गई।

“बीबी, तूने मुझे पेहचाना नहीं?" 

"नहीं तो...”

वह एक सादी-सी जवान औरत थी। मैं उसके मुँह की ओर देखती रही--पर मुझे कोई भूली-बिसरी बात भी याद नहीं आई।

“मैंने तो तुझे पहचान लिया है बीबी! पिछले साल, न सच, उससे भी पिछले साल तू यहाँ आई थी न!”

“आई तो थी।" 

"सामने मैदान में एक बरात उतरी थी।" 

"हाँ, मुझे यह याद है।"

"वहाँ तूने मुझे डोली में बैठी हई को रुपया दिया था।"

बात याद आई। दो साल पहले में चण्डीगढ़ गई थी। वहाँ पर नया रेडियो स्टेशन खुलना था। और पहले दिन के समागम के लिए, मेरे दिल्ली के दफ्तर ने मुझे वहाँ एक कविता पढ़ने के लिए भेजा था। मोहनसिंह तथा एक हिन्दी कवि जालन्धर स्टेशन की तरफ से आए थे। समागम जल्दी ही खत्म हो गया था। और हम तीन-चार लेखक कोशलिया नदी देखने के लिए चण्डीगढ़ से इस गाँव में आए थे।

नदी कोई मील--डेढ़ मील ढलान पर थी, और वापसी चढ़ाई चढ़ते हुए हम सब चाय के एक-एक गर्म प्याले को तरस गए थे। सबसे साफ और खुली दुकान यही लगी थी। यहीं से चाय का एक-एक गर्म प्याला पिया था। उस दिन इस दुकान पर पक रहे माँस और तन्दूरी रोटियों के साथ-साथ मिठाई भी काफी थी। तन्दूर वाला कह रहा था। “आज यहाँ से मेरी भानजी की डोली गुज़रेगी। मेरा भी तो कुछ करना बनता है न...”

और फिर सामने मैदान में डोली उतरी। डोली किसी पिछले गाँव से आई थी। उसे आगे जाना था। रास्ते में मामा ने स्वागत किया था।

“रुको, मैं नई दुल्हन का मुँह देख आऊँ। भला उसके मुँह पर आज कैसा रंग है...” मुझे याद है मैंने कहा था और आगे से मेरे साथियों ने जवाब दिया था, “हमें तो कोई डोली के पास नहीं जाने देगा, तुम ही देख आओ--पर खाली हाथों न देखना...”

मैं एक मुस्कराहट लिए डोली के पास चली गई थी। डोली का पर्दा एक तरफ से उठा हुआ था। मैंने पास में बैठी नाइन से पूछा था, “मैं दुल्हन का मुँह देख लूं?" 

“बीबी, जी सदके देख--हमारी लड़की तो हाथ लगाए मैली होती है."



और सचमुच लड़की की श्रृंगारपुरी नत्थ में जो मुस्कराहट का मोती चमक रहा था, उसका रंग झलना कोई आसान नहीं था।

मैंने एक रुपया उसकी हथेली पर रखा। और जब लौटी, तो मेरे साथी कह रहे थे, 'क्षणभर पहले जब तुमने कविता पढ़ी थी, कॉलेज की कितनी लड़कियों ने रुपए-रुपए के नोट पर तुम्हारे हस्ताक्षर करवाए थे।'

उस बेचारी को क्या मालूम होगा कि वह रुपया उसे किसने दिया था--कहीं जानती होती, हस्ताक्षर ही करवा लेती...।

दो साल पहले की बात थी। मुझे पूरी की पूरी याद आ गई। 

"तू-वह डोली वाली लड़की?" 

"हाँ बीबी!"

जाने किस घटना ने उसे दो बरसों में लड़की से औरत बना दिया था। घटना के चिह्न उसके मुँह पर दृष्टिगोचर होते थे, पर फिर भी मुझे सूझता नहीं था कि मैं उसे कैसे पूछ?

"बीबी, मैंने तेरी तस्वीर अखबार में देखी थी, एक बार नहीं, दो बार। यहाँ भी कितने ही लोग आते हैं, जिनके पास अखबार होता है, कई तो रोटी खाते-खाते यहीं पर छोड़ जाते। 

“सच, और फिर तूने पहचान ली थी?"

"मैंने उसी वक्त पहचान ली थी--पर बीबी, वे तेरी तस्वीर क्यों छापते हैं?" मुझसे जल्दी कोई जवाब न बन पड़ा। ऐसा सवाल पहले कभी किसी ने नहीं किया था। कुछ लजाते हुए मैंने कहा, “मैं कविताएँ-कहानियाँ लिखती हूँ न।"

"कहानियाँ? बीबी, क्या वे कहानियाँ सच्ची होती हैं, या झूठी?" 

“कहानियाँ तो सच्ची होती हैं, वैसे नाम झूठे होते हैं, ताकि पहचानी न जाए।" 

“तू मेरी कहानी भी लिख सकती है बीबी?" 

“अगर तू कहे, तो मैं ज़रूर लिखेंगी।”

“मेरा नाम करमांवाली (सौभाग्यशालिनी) है। मेरा तो चाहे नाम भी झूठा न लिखना। मैं कोई झूठ थोड़े ही बोलूंगी, मैं तो सच कहती हूँ--पर मेरी कोई सुने भी ती। कोई नहीं सुनता...।“

वह मेरा हाथ पकड़कर मुझे टाट के पीछे पड़ी खाट पर ले गई।

“जब मेरी शादी होनी थी न, मेरे ससुराल से दो जनी मेरा नाप लेने आई। उनमें से एक लड़की मेरी उम्र की थी। बिलकुल मेरे जितनी। वह किसी दूर के रिश्ते से मेरी ननद लगती थी। मेरी सलवार-कमीज नापकर कहने लगी, 'बिलकुल मेरी ही नाप हैं। भाभी, तू चिन्ता न कर, जो कपड़े सीऊँगी, तुझे बिलकुल पूरे आएँगे।'

"और सचमुच वरी के जितने भी कपड़े थे मुझे खूब अच्छी तरह से आते थे। वही ननद मेरे पास कितने महीने रही, और बाद में भी मेरे कपड़े वही सीती रही। मेरा चाव भी बहुत करती थी। मुझे कहा करती थी, “भाभी, चाहे मैं दो महीने के बाद आऊँ, चाहे छः महीने के बाद, पर तू किसी और से कपड़ा मत सिलाना।...” 

'मुझे भी वह अच्छी लगती थी। सिर्फ उसकी एक बात मुझे बुरी लगती थी, मेरा जो भी कपड़ा सीती थी, पहले स्वयं पहनकर देखती थी। कहती थी, 'तेरा-मेरा नाप एक है। देख, मुझे कैसे पूरा है। तुझे भी पूरा आएगा।' 

"और सारे कपड़े पहनते समय मेरे मन में आता था, कपड़े भले ही नए हों, पर हैं तो उसके उतारे हुए ही न?”

रस्सी के साथ टंगे हुए टाट का पर्दा था, बान की ढीली-सी खाट थी। खेस भी खस्ता था, लड़की भी अल्हड़ और अपढ़ थी--पर यह ख्याल, इतना नाजुक, इतना मुलायम...मैं चौंक उठी।

“पर बीबी, मैंने अपने मन की बात कभी नहीं कही। जाने बेचारी का मन छोटा हो जाए।”

"फिर?”

"फिर मुझे कोई बरस डेढ़-बरस--बाद पता चला, किसी ने बता दिया। उसकी और मेरे घरवाले की लगी हुई थी। यह उसका दादा-पीता के रिश्ते से भाई लगता था। पर एक उसके सगे भाई को यह बात बहुत बुरी लगती थी। वह तो एक बार अपनी बहिन की गर्दन उतार देने लगा था। 

“किसी ने मुझे यह भी बताया कि थोड़े समय जब वह बाग गोदने लगी थी, तो उसे फिट आ गया था।” आँसुओं से भीगी करमांवाली ने मेरा हाथ पकड़ लिया। ‘बीबी, तू मेरी मन की बात समझ ले। मुझसे उतार नहीं पहना जाता--मेरी गोटाकिनारीवाली शलवारें, मेरी तारों जड़ी चुनरियाँ और मेरी सिलमोंवाली कमीज़े--सब उसका ‘उतार' (पहले पहने हुए कपड़े) थे। और मेरे कपड़ों की भाँति मेरा घरवाला भी..."

करमांवाली की आवाज़ के आगे मेरी कलम झुक गई। कौन लेखक ऐसा फिकरा लिख देता। 

"अब बीबी, मैं वे सारे कपड़े उतार आई हूँ। अपना घरवाला भी। यहाँ मामा-मामी के पास आ गई हैं। इनका घर लीपती हूँ, मेज़ धोती हूँ। और मैंने एक मशीन भी रख छोड़ी है। चार कपड़े सी लेती हूँ, और रोटी खा लेती हूँ। भले ही खद्दर जुड़े, चाहे लट्ठा। मैं किसी का उतार नहीं पहनती।“

"मेरा मामा सुलह कराने को फिर रहा है। मेरे मन की बात नहीं समझता। मैं जैसे जी रही हूँ, वैसे ही जी लूँगी। और कुछ नहीं चाहती, तू सिर्फ एक बार मेरे मन की बात लिख दें!”

करमांवाली के जिस जिस्म के साथ कहानी घटी थी उसे मैंने एक बार अपनी बाँहों में भींचा, कितनी मज़बूत देह थी--कितना मज़बूत मन। यह चौगिदा, यहाँ मैं पल-भर पहले मिर्चों से शराब और शराब से खून खराबे पर पहुँचती बात से घबरा गई थी--वहाँ पर करमांवाली कितनी दिलेरी से जी रही थी। 

बाहर सड़क पर शिमले से आती मोटरें गुज़रती थीं, और जिनकी सवारियाँ रेशमी कपड़ों में लिपटी हुई, कई बार पल-भर के लिए इस दुकान पर चाय के प्याले के लिए रुक जाती थीं, या सिगरेट की डिब्बी के लिए, या गर्म तन्दूरी रोटी के लिए। वे, जिनके पहन रखे रेशमी कपड़े, जाने किस-किसकी उतार थे। और करमांवाली उनकी मेज़ पोंछती थी, कुर्सियाँ झाड़ती थी--वह करमांवाली जिसने एक खद्दर की कमीज़ पहन रखी थी, जो अपने जिस्म पर किसी का उतार नहीं पहन सकती थी।

"बीबी, मैंने तेरा वह रुपया सम्भालकर हुआ रखा हुआ है। 

"सचमुच? अब तक?"

"हाँ बीबी! वह रुपया मैंने उस समय अपनी नाइन को पकड़ा दिया था और फिर उसके दूसरे दिन की ही बात थी, जब मैंने तेरी तस्वीर देखी थी। मैंने नाइन से वह रुपया लेकर सम्भाल लिया था। तू बीबी, मुझे उस रुपए पर अपना नाम लिख दे। फिर तू जब मेरी कहानी लिखेगी, मुझे ज़रूर भेजना।”

और करमांवाली ने उठकर खाट के नीचे रखा ट्रक खोला। ट्रक में एक लकड़ी की सन्दूकची थी। उसने रुपए का तह किया हुआ नोट निकाला। 

“मैं अपना नाम लिख देती हूँ करमावालिए, मैंने जाने कितनी लड़कियों के नोटों पर अपना नाम लिखा होगा, पर आज मेरा दिल चाहता है, तू मेरे नोट पर अपना नाम लिख दे।"

“कहानी लिखनेवाला बड़ा नहीं होता, बड़ा वह है जिसने कहानी अपने जिसम पर झेली है।"

"मुझे अच्छी तरह से लिखना नहीं आता।” करमांवाली लजा-सी गई और फिर बोली — “मेरा नाम कहानी में ज़रूर लिखना।"

” मैंने पर्स से नोट भी निकाल लिया और कलम भी।

करमांवालिए! आज तेरी कहानी लिख रही हूँ। वही रुपए के नोट पर लिखा हुआ तेरा नाम, आज इस कहानी के माथे पर पवित्र टीके की भाँति लगा हुआ है।

यह कहानी तेरा कुछ नहीं सँवारेगी। पर यह भरोसा रखना, वे दिल भी इस तेरे टीके को प्रणाम करते हैं, जिनके खून का रंग इस तेरे टीके के रंग से मिलता है। और वे माथे भी एक लज्जा से इसके आगे झुकते हैं, जिन्होंने अपने गलों में जाने किस-किसके 'उतार' पहन रखे हैं।

००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story: कोई रिश्ता ना होगा तब — नीलिमा शर्मा की कहानी
विडियो में कविता: कौन जो बतलाये सच  — गिरधर राठी
इरफ़ान ख़ान, गहरी आंखों और समंदर-सी प्रतिभा वाला कलाकार  — यूनुस ख़ान
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
परिन्दों का लौटना: उर्मिला शिरीष की भावुक प्रेम कहानी 2025
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل
रेणु हुसैन की 5 गज़लें और परिचय: प्रेम और संवेदना की शायरी | Shabdankan
एक पेड़ की मौत: अलका सरावगी की हिंदी कहानी | 2025 पर्यावरण चेतना
द ग्रेट कंचना सर्कस: मृदुला गर्ग की भूमिका - विश्वास पाटील की साहसिक कथा