त्रिशंकु - चित्रा मुद्गल की कहानियां | TRISHANKU - Hindi Shortstories of Chitra Mudgal

चलो, जो भी हो। मगजपच्ची से फायदा? करना है, तो करना है। आम बिना गुठली के आम नहीं। साथ उसको भी चाटना पड़ता है। आम खाना है, गुठली नहीं चाटनी, कैसे चलेगा? उधेड़-बुन खत्म हुई। 

कथा तब सम्पूर्ण होती है जब कथाकार उसके ज़रिए जिस कहानी को बयां करना चाह रहा है -- वह बयान हो जाए और उसके पाठक को समझ आ जाए। 'त्रिशंकु' में चित्रा मुद्गलजी जिस तरह अनाम किशोर, मुंबई (तब का बंबई) का  एक तबका, या फ़िर शायद हमारे आसपास ही कहीं घट रही कहानी की कहानी सुनाती जाती हैं और फिर पूरी करती हुई उसे एक सम्पूर्ण अंत देती हैं - यह सब मेरे लिए अनपढ़ा था। पूरी तरह रोमांचित और बहुत हद्द तक भावुक हो गया 'त्रिशंकु' पढ़कर।  

जिन्होंने 'त्रिशंकु' पढ़ी हुई है उनके पुनरपाठ और बाक़ी पाठकों के पहली बार पढ़ने के लिए, प्रिय चित्रा मुद्गलजी को ढेरों प्रणाम के साथ इस कहानी को शब्दांकन पर लगाना 'ज़रूरी' समझता हूँ - सं० 

चित्रा मुद्गल 


त्रिशंकु

- चित्रा मुद्गल

स्कूल से छूटा, तब माँ की हिदायत बराबर याद थी, सिद्दा घर कू आना बंडू। दोन वाजता मेरे कू पंजाबन सेठानी के साथ मारकेट खरीदी को जाना हय... पर गली के मोड़ में घुसते ही छोकरों को हूऽ तूऽऽ तूऽऽऽ खेलते पा कबड्डी में शामिल होने का लोभ संवरण नहीं कर पाया।

बस्ता और कमीज़ एक किनारे फेंक, अपनी झूल आई निकर को तोंदी पर खींचकर वह चीते की-सी फुरती ओढ़ तूऽऽ तूऽऽऽ करता हुआ पारी खेल रहे मोहल्ले के गोल में शामिल हो गया। और लम्बी दम साधकर उसने पैंतरे बदल-बदलकर तीन को तो पहले ही झपाटे में मैदान से बाहर कर दिया। दूसरी पारी में दो मुस्तैद छोकरों ने उसकी मामूली-सी असावधानी के चलते उसे कुत्तों की तरह घेरकर धर दबोचा।

अचानक हुए हमले से वह सँभल नहीं पाया। मुँह के बल गिरा तो लम्बी दम साधने के बावजूद सीधा खड़ा नहीं हो पाया। छोकरों ने पकड़कर उठाया तो छिली ठुड्डी की जलन भूलकर वह पाठशाला की खाकी वरदी की इकलौती निकर के फट जाने से घबरा गया। आँखों के सामने माँ का रौद्र रूप साकार हो उठा।

घर कैसे जाएगा इस हालत में? अचानक उसे याद हो आया, सुबह पाठशाला के लिए घर से निकलते समय माँ ने उसे बार-बार चेतावनी दी थी कि शाला छूटते ही वह सीधा घर आए, मोहल्ले के लोफरों के साथ आवारागर्दी करने न बैठ जाए। उसके लच्छनों से परिचित जो है। जानती है कि शाला नियमित डेढ़ बजे छूटती है और वह दो-ढाई बजे से पहले कभी घर नहीं लौटता। इसलिए जब कभी उसे किसी काम से बाहर जाना होता है वह उसे सिद्दा घर आने की चेतावनी देती। चेतावनी वह हरगिज़ न भूलता।

घर खाली न छोड़ने के पीछे कुछ ठोस कारण थे। माँ को सदैव अन्देशा बना रहता कि कहीं उसका बाप घर अकेला पाकर गृहस्थी के बरतन-भाँडे न उठाकर ले जाए। कितने हण्डे-बट्वे उसने बेच खाए। माँ के लड़ने पर उन्हें चराने की कोशिश करने लगता कि किसी अड़ोसी-पड़ोसी ने मौका ताड़कर हाथ सफाई दिखा दी होगी, वह तो कुण्डी लगाकर फकत संडास तक गया था।

उसकी राह देखती माँ पंजाबन सेठानी के संग अगर नहीं गई होगी तो घर पर तोप-सी भरी बैठी होगी। खैर नहीं उसकी, हाथ-पाँव साबुत बच रहे तो समझो गनीमत! तिस पर फटी निकर! आग में तूप (घी)। माँ के प्रकोप से बचने की कोई तरकीब? तरकीब है। देर में देर! कुछ देर कहीं और सुस्ता ले। घर में हुई तब भी घण्टे-आध घण्टे में साँझ की भाँडी करने निकल लेगी। लौटेगी तो ठीक दीया-बाती के समय। तब तक जूठे बरतनों के साथ मगज की तेज़ी भी मँज-पुछ गई होगी। पटाने की खातिर वह झोंपड़ी का झाडूपोंछा कर लेगा। साफ-सुथरा घर माँ की कमजोरी है। देखते ही खिल जाएगी।

लेकिन तरकीब उसे विशेष अभय नहीं दे पाई। दोनों ही बातें सम्भव थीं। कुछ देर बाद माँ का क्रोध शान्त हो जाए या फिर दुगुने-तिगुने वेग से नथुने फड़काता उसे ताव खाता मिले। ऐसे में उनका सामना करना ही उचित! देह पर कमीज़ चढ़ाकर वह खोपड़ी से बस्ता लटकाए घर की ओर बढ़ दिया।

माँ नहीं गई थी।

जैसे ही वह घर में दाखिल हुआ, प्रतीक्षा में उबली बैठी माँ तमतमाई हुई-सी उस पर झपटी "हलकट, मेलया, कुत्तरा, हरामखोर...बोला न तेरे कू सुबू? विसरलास (भूल गया)? पन कईसा...कईसा तेरे को याद नईं हुआ कि मेरे को सेठानी के साथ खरीदी को जाना है...चढ़ी तेरे को चरबी? अब्भी, सेठानी का बूमा-बूम कौन सुनेगा! तू?"

फर्श पर छटपटाता हुआ वह हाय-हाय करता, हाथ-पैरों से तीखे प्रहारों को झेलता माफी माँगने लगा। मगर माँ पर न उसके माफी माँगने का कोई असर हुआ, न विश्वास दिलाने का कि अब की वह उसे छोड़ दे, आइन्दा उससे ऐसी लापरवाही हरगिज़ नहीं होगी। उलटा माँ के क्रोध ने तपे तेल-पुते तवे पर अचानक पड़ी पानी के छींटे-सी लपट धर ली। मारते-मारते जब वह स्वयं निढाल हो उठी, तब कहीं जाकर उसके हाथपाँव रुके।

"वो हरामखोर आए, तो चौक्कस रैना...किसी वस्तु को हाथ-बीथ नईं लगाने को देना। जाती मैं। आइकलास (सुना)?" माँ गुर्राती-सी दरवाज़ा भड़ाक से भेड़कर खोली से बाहर हो गई।

'वो हरामखोर...?
यानी उसका बाप...

पंड्या गली में घोंडू के दारू के अड्डे पर वह तब तक बैठा घड़ियाल-सा नौसादार की पीता रहता जब तक टुन्न होकर अपनी गली में अगल-बगल की दो-चार झोंपड़ियों के दरवाज़े अपनी खोली के भ्रम में न खटखटा लेता। फैक्टरी से छूटकर बाप सीधा कभी घर न आता, चाहे उसके काम की पहली पाली हो या दूसरी। अक्सर माँ जान ही नहीं पाती कि बाप कौन-सी पाली कर रहा है। समय-असमय आने पर जब कभी वह सशंकित होकर बाप को टोकती तो उलटा बाप उसी पर चढ़ बैठता कि वह ओवरटैम करता है, फिर टैम से कैसे घर पहुँचे? ।

इतना वह भी समझने लगा था कि जो कामगार ओवरटैम करता है उसे पगार के अलावा अतिरिक्त आमदनी होती है। फिर तो माँ को बाप की ऊपरी कमाई से खुशी होनी चाहिए थी; पर समझ में न आता कि ओवरटैम की बात सुनकर माँ क्यों असहज हो उठती है! उन दोनों की झाँय-झाँय में कुछ गोलमाल लगता है। दिमाग पर बहुत ज़ोर डालता पर हाथ कुछ न लगता! किशोर बुद्धि चकरा जाती।

छोटी बहन कमला जब घर पर ही रह रही थी, अक्सर आधी रात में उसकी और कमला की नींद माँ की हृदयविदारक चीखों और धमाधम कुटती देह की दहलाती कराहों से उचट जाती। आतंक से सहमे अपनी दरी पर पड़े हुए, घुमड़ती छाती में फूटने को व्याकुल हिचकियों को होठों में भींच, विवश, दोनों मोम-से टपकते रहते! कुछ देर बाद वह पाता कि बेसुध-सी होती कमला उसकी पीठ से दुबकी, उसकी थर्राती रीढ़ में अपना चेहरा गड़ा लेती। पल-पल किसी अनहोनी की दहशत नुचे लहूलुहान पंखों-सी उन पर टूटने लगती। वह सोचना शुरू कर देता। बिना स्वयं से सवाल किए कि यह उम्र उसकी सोचने की नहीं है।

क्षुब्ध माँ जब भी उसे कूटती, अपनी चोटों से न वह उस कदर आतंकित होता, न आहत, न अवमानित! उलटा जल्लादी बाप के प्रति उसके हृदय में प्रतिहिंसित आक्रोश सिर उठाने लगता। यहाँ तक कि वह रात से खौफ खाने लगा। रात से शायद माँ भी खौफ खाती। शायद इसीलिए वह उन्हें जल्दी खिला-पिलाकर सुला देती कि उनकी चैन की रात तभी तक है जब तक घर की कुण्डी नहीं खड़कती। कुण्डी खड़कने से उसकी नींद नहीं उचटती; नींद उचटती माँ की कलपती चीखों से! इधर कुछ दिनों से उसमें परिवर्तन आया है। माँ की भाँति उसकी भी नींद कच्ची हो गई है। कुण्डी के खड़कते ही आँखें झप्प से खुलकर किवाड़ों की ओर घूम जातीं। मगर वह खुली आँखों को किसी तेज़ाबी आँधी के भय से आशंकित हो करवट-भर भींच लेता, और साँस साधे चिर-परिचित अगले दृश्य की प्रतीक्षा करने लगता।

उस रात बाप की दरिन्दगी की पराकाष्ठा ही हो गई। आवेश में काँपते हुए बाप ने मोरी की दीवार से टिका कपड़ा कूटनेवाला धोक्का उठा लिया और उसे पूरी ताकत से माँ के माथे पर दे मारा। माँ का माथा फट गया। उसका खून से तर चेहरा और मूर्छा से मुँदती आँखें देख भय से काँपती कमला ने बाप की टाँगें जकड़ लीं और दोबारा माँ पर हाथ न उठाने की चिरौरी करने लगी। किन्तु पगलाए साँड़-से उन्मादी बाप ने उसे टाँग से एक ओर उछाल दिया और औंधी अचेत माँ की कमर पर एक लात हुमककर खोली से उड़न-छू हो गया। तब तक आस-पास के लोग जाग चुके थे। भागते बाप को उन्होंने धर पकड़ने की कोशिश भी की, पर जाने कहाँ की ताकत उसमें आ समाई थी कि वह छह-सात लोगों के सँभाले न सँभला। छटपटाकर जो छूट भागा तो अब तक लौटकर शक्ल नहीं दिखाई उसने। माँ के माथे पर सात टाँके लगे थे।

आठ साल की कमला को बाप द्वारा टाँग से उछालकर फेंकना, माँ को जवान छोकरी पर हाथ उठाना लगा और यह भी लगा कि अगर उसका दुस्साहस इस सीमा तक बढ़ गया है तो क्या भरोसा, किसी रोज़ निर्दयी माँ के हिमायती बच्चों का गला ही घोंट दे! द्वन्द्व में फँसी माँ इससे-उससे सलाह करती अन्त में इसी नतीजे पर पहुँची कि कमला को अब वह घर में नहीं रखेगी। इसी दुश्चिन्ता में उसने आशियाना बिल्डिंगवाली जोशी बाई का पुराना प्रस्ताव मान लिया कि कमला जोशी बाई के पास रहेगी तो चिड़िया की-सी जान छोकरी इस नरक-कुण्ड से दूर और सुरक्षित रहेगी।

जोशी बाई काफी दिनों से माँ के पीछे पड़ी हुई थीं कि वह कमला को टहल के लिए उनके घर रख दे। भाँडी-कटका के लिए उनके पास अलग से बाई है। उसे फकत ऊपर का काम करना होगा, मसलन, मिंकू का खयाल रखना, उसे प्रेम में नीचे घुमाना-फिराना। साग-सब्ज़ी कटवा लेना। मेहमानों को पानी आदि पूछ लेना। ज़रूरत की छोटी-मोटी चीजें दौड़कर ला देना।

सुबह ग्यारह से लेकर शाम साढ़े चार बजे तक जोशी बाई की पाठशाला होती है। घर लौटते वह खूब थक जाती हैं। कमला से उन्हें बड़ी मदद हो जाएगी। खाना, कपड़ा, साबुन, तेल सब उनका। ऊपर से महीने के तीस रुपये नकद। ज़्यादा पगार भी वे दे सकती हैं, लेकिन तब जब कमला ढंग से काम-धाम सीख जाएगी और ज़िम्मेदारी स्वयं उठाने लायक हो जाएगी। अभी तो वह बच्ची है। उलटा, उन्हें ही लगातार उसके साथ लगकर उसे सब सिखाना-समझाना होगा। रखेंगी वह उसे अपनी बेटी की तरह। कोई भेदभाव नहीं। जोशी बाई ने यह भी विश्वास दिलाया कि समय निकालकर वह उसे कुछ पढ़ा-लिखा दिया करेंगी और कोशिश करेंगी कि उसे रातवाली किसी पाठशाला में दाखिल करा दें। "मेरे लिए यह मुश्किल थोड़े ही है...झोपड़पट्टी के दूषित वातावरण में रहकर तो लड़की सलीकेदार होने से रही।"

जोशी बाई के इन तर्कों से माँ के उलझे, हताश मन में उत्साह का बीज अंकुआ आया था।

कमला को अपने संग आशियाना बिल्डिंग में ले जाने से पहले जोशी बाई उसके लिए दो नई फ्रॉकें सिलवा लाईं। उन्हीं में से एक पहनाकर उसे अपने साथ ले गईं। उसने सुना, जाते-जाते वे माँ को चेतावनी भी दे गईं कि पैसों की खातिर घड़ी-घड़ी दरवाज़ा पकड़कर मत खड़ी होना। बीस वह उसके हाथ में देंगी। दस वह कमला के नाम पोस्ट ऑफिस में खाता खुलवाकर, उसके खाते में डलवा दिया करेंगी, जो उसके और कमला के दोनों के हक में उचित है। किन्तु माँ इसके लिए राज़ी नहीं हुई। कड़की का रोना रोकर उसने उनसे आग्रह किया कि फिलहाल कमला की पूरी पगार वह उसके हाथ में ही दें।

साफ-सुथरे कपड़े पहने जोशी बाई के साथ जाती हुई कमला अचानक उसे अजनबी-सी हो उठी लगी, ठीक बिल्डिंग में रहनेवालों की तरह सुन्दर और अजनबी!

कमला की अनुपस्थिति उसे बहुत खली और अब तक खलती है। कमला होती तो हमेशा की तरह आज भी उसे पहले डपटती। बड़ी-बूढ़ी की तरह समझाती-मनाती, "काय को तू माँ की बात नईं सुनता, बंडू? गली के छोकरे पक्के मवाली, उनको घर से मतलब नईं, पन तू क्यों उनका चक्कर में पड़ता? मार खाने की आदत पड़ गई तेरे को, चल उठ...धो मूं-हाथ। खाना निकालती मैं तेरे वास्ते।" ।

दुखते हाथ-पैरों को सिकोड़ता-फैलाता, माँ के ऊपर कुढ़ता वह उठ खड़ा हुआ। भूख से अंतड़ियाँ कल्ला रही थीं। पतीले का ढक्कन खोलकर भीतर झाँका। माँ ने खिचड़ी बनाई थी। खिचड़ी में करछुल नहीं लगी। इसका मतलब है, माँ भूखी ही चली गई। मन खिन्न हो आया। सचमुच वह माँ को बहुत तंग करता है। दिन-दिन-भर माँ घरों में खटती है। किसके लिए? उसने मन-ही-मन निश्चय किया, आइन्दा वह माँ को परेशान नहीं करेगा। पाठशाला से सीधा घर आएगा। घर के काम में उसका हाथ बँटाएगा। पढ़ाई में मेहनत करेगा।

और सचमुच अगले ही रोज़ से वह अपने निश्चय के मुताबिक पढ़ाई में मन लगाने लगा। माँ उसे पुस्तकें खोले बैठे देखती तो प्रसन्न हो उठती। सब ठीक-ठाक चलने लगा।

एक दोपहर वह खाना खाकर अपनी थाली उठा ही रहा था कि खोली का दरवाज़ा अचानक भड़भड़ाया। भड़भड़ाहट की ताल ने क्षण-भर को उसकी देह से खून निचोड़ लिया। उसने भीतर से चढ़ी कमज़ोर किवाड़ों की कुण्डी को अविश्वास से देखा। समझ नहीं पाया कि क्या करे। तभी किवाड़ दोबारा भड़भड़ाए। अब की बार भड़भड़ाहट में बेसब्री थी। तुरन्त न खुलने पर तोड़ देने की उद्दण्ड बेसब्री! घर पर माँ का न होना खला। उठकर घबराए हुए मन से जूठी थाली उसने मोरी में खिसकाई और कमीज़ की नाखूनी से हाथ पोंछता कुण्डी खोलने लपका। किवाड़ खोलते ही नशे में धुत्त यमदूत-से बाप को खोली में दाखिल होते...नहीं, देसी का भभका छोड़ते हुए लगभग अपने ऊपर गिरते पाया। उसे सीधा करते हुए वह सहम उठा। बाप की अनुपस्थिति में बड़ी शान्ति थी। जब भी उसके बारे में सोचता, यही लगता कि अच्छा हो, बाप फिर कभी घर न लौटे। मगर उसके सोचने से क्या होता है? बाप साक्षात् मुसीबत बना उसके सामने मौजूद था।

खड़े न रह पाने की स्थिति में वह डगमगाता, धम्म-से लोहेवाले पलंग पर ढहकर पसर गया! वैसे माँ के लौटने का समय हो रहा था। किसी भी क्षण वह घर लौट सकती है। घर पर माँ का होना बहुत ज़रूरी लग रहा था। बाप की मौजूदगी सँभालना उसके वश की नहीं। दूसरी ओर, आशंका से मन डर भी रहा था कि कहीं उन दोनों का आमना-सामना किसी जंग को आमन्त्रण न दे बैठे!

अचानक भिड़े किवाड़ों पर लौटी माँ की चिर-परिचित हलकी थाप ने उसे जैसे मगरमच्छ के मुँह से छीन लिया। किवाड़ों पर कुण्डी नहीं चढ़ी थी। पर माँ को इसकी जानकारी नहीं थी। वह लादी से उछली गेंद की भाँति उछलकर किवाड़ों के पास पहुँचा

और माँ के भीतर पाँव देने से पहले उसने लोहे के पलंग पर पसरे बाप की प्रतिक्रिया माँ के चेहरे पर पढ़नी चाही। किन्तु माँ का चेहरा उसे अनलिखी तख्ती-सा सपाट, शून्य लगा।

बाप मुँह पर भिनकती मक्खियों से तनिक परेशान हुआ। सिर झटकते हुए नशे में बड़बड़ाया, “कमली...पानी दे तो..."

अनिच्छा से हण्डे से गिलास-भर पानी लेकर वह बाप के निकट पहुँचा, “पानी...।"

बाप ने उसकी आवाज़ पर लाल आँखें खोलकर उसे गौर से देखा, "कमली किदर हैय?"

"जोशी बाई के घर काम पर रख दिया।" उसकी बजाय माँ ने गुर्राकर जवाब दिया।

"कितने देगी?" बाप एकदम चैतन्य हो उठा।

"खाना-कपडा, ऊपर से तीस।"

"वो अँधेरीवाली मंगलोरियन बाई उसको माँगती होती...खाना-कपड़ा, ऊपर से साठ रुपया पगार, तभी न क्यों पाड़ा?"

"पहले उससे नौकरी नईं करानी होती, तू औकात में रेता तो कभी नईं... उप्पर उस घर में मैं अपना छोकरी काम करने को भेजती? उसका मरद समन्दर (स्मगलिंग) का धन्धा करता...अक्खा दिन उदर दारू चलती। मालूम नईं कइसा-कइसा लोग आते उसके घर कू? भरोसेवाली होती क्या वो?"

"ये तेरी भड़वी मास्टरनी भरोसेवाली है क्या?" पलंग से उठते हुए दहाड़ा।

"जबान सँभाल, हाँ।” प्रत्युत्तर में क्षुब्ध माँ को जैसे चिनगारी लग गई, “पोरगी की (बेटी) फिकिर नईं, पगार की बोत फिकिर हय तेरे को? हाँ! अपना कमाई में दारू के वास्ते नईं पुरता! बोल तो खटिया डलवा दूँ तेरे वास्ते...फिर खा पोरगी की कमाई।"

"साआली राँड, तू मेरे को गाली देती, भँड्वी! अबी ठिकाने करता तेरे को..." बाप ताव खा झपट पड़ा माँ पर।

माँ की ज़बान नहीं रुकी। वह गले तक अघा आई सारी तिलमिलाहट और भंडास जैसे एकबारगी खाली कर देना चाहती थी।

वह आशंकित हो काँप उठा। क्या हो रहा माँ को? बाप का स्वभाव जानती नहीं? चुप्पी मार लेती तो क्या था...उसे लगा, वह कमला के पास भाग जाए अभी, इसी क्षण। अच्छा ही हुआ जो जोशी बाई कमला को ले गईं। उसे भी माँ किसी के घर काम के लिए क्यों नहीं रख देती?

बाप की धौंस से बेअसर माँ अब भी चुप नहीं हो रही, "भडुवा...एक पैसा नई देता...मैं खून पिला-पिला के बच्चे पालती और तू हरामखोर वो राँड़ के साथ मस्ती मारता...साआला, हाथ लगा के देख अभी मेरे को? देख?"

'राँड़ के साथ? माँ क्या बोल रही है! उसके माथे से जैसे अचानक गरम सलाख छू गई। तभी नज़र बाप की ओर उठी। तमतमाया बाप बरतनों में से लपककर लोटा उठाता हुआ दिखा। लोटा छीनने के लिए वह उसकी ओर झपटे, तब तक तो माँ के सिर से खून का फव्वारा फूट पड़ा। माँ देवाऽऽ कहकर ईश्वर को गुहारती फर्श पर ढेर हो गई और तट पर पड़ी मछली-सी तड़फड़ाने लगी।

माँ के माथे पर टाँके लगे अभी ढाई-तीन महीने नहीं गुज़रे थे कि जल्लाद बाप ने फिर उसका सिर फोड़ दिया।

उसका सिर घूमने लगा। बजाय माँ को सँभालने के वह विवश-अवश घुटनों में मुँह गड़ा, साँसें खींचता फफक पड़ा। उसके घर में तेज़ धारवाला रामपुरी चाकू क्यों नहीं? होता तो आज वह सीधा बाप की छाती में भोंक देता। एक बार, दो बार, तीन बार...'खच'...'खच'! ऐसे जानवर को ज़िन्दा छोड़ना खतरनाक है। छोड़ दिया तो वह कभी भी, किसी रोज़ पलटकर माँ की जान ले लेगा। माँ को मारकर उसकी...उसके बाद कमला की...कमला शायद उसके हाथ न लगे।

माँ का आर्तनाद सुनकर पड़ोसन लक्ष्मी अम्मा और सामनेवाले हसन काका घुस आए खोली में। बाप हमेशा की तरह मुँह छिपा, तीर-सा निकलकर भाग खड़ा हुआ।

हसन काका ने छटपटाती माँ को ही डाँटा, "बंडू की माँ, क्यों इस बदज़ात के मुँह लगती है? जानती नहीं! कमबख्त का मुँह नहीं, हाथ चलता है, हाथ..."

लक्ष्मी अम्मा लपककर अपनी खोली से हल्दी-चूना गरम कर लाई और घाव के आस-पास के बाल कतरकर घाव पर लेप लगाने लगी। पट्टी बाँधने के लिए लक्ष्मी अम्मा ने उससे पुराना कपड़ा माँगा। वह कमला की पुरानी छोड़ी हुई फ्रॉक उठा लाया। हड़बड़ाहट में उसे कोई अन्य कपड़ा सूझा ही नहीं कि जिससे माँ के फटे सिर पर पट्टी बाँधी जा सके। वैसे भी कमला की यह फ्रॉक अब उसके किस काम की? जब से जोशी बाई के घर गई है, खोली के बीचोंबीच बँधे तार पर कपड़ों के ढेर में फ्रॉक ज्यों-की-त्यों टॅगी हुई है।

“अइयो, बंडू! सुन..." लक्ष्मी अम्मा ने घाव पर पट्टी बाँधकर टेंट से एक अठन्नी निकालकर उसकी ओर बढ़ा दी, "फटाफट दौड़ के एक सेरीडून (सेरीडॉन) तो ले के आ...वो नुक्कड़वाली पान की दुकान पर मिलेगी। सेरीडून नईं होना तो पिच्छू एनासिन का गोली ला। मैं तब्बी तलक माँ के लिए हल्दी डाल के चाय बनाती हो, बोत बच गई रे माँ... बोलेंगे तो वो टाँके का जागा पे नईं लगा, नईं तो जान जाती...जा, तू जल्दी जा..."

वह आज्ञाकारी बालक की भाँति खोली के बाहर हो गया। पर मन में माँ की चोट की पीड़ा से ज़्यादा माँ के कहे वाक्य कोंचते, मँडराने लगे राँड़ के साथ मस्ती... कहने का क्या तात्पर्य था माँ का? विचित्र लगा माँ का ताना। उससे भी अधिक विचित्र लगा, माँ का आज का व्यवहार! दूसरे दिनों की अपेक्षा इस बार बाप अपनी इच्छा के विरुद्ध कमला को जोशी बाई के यहाँ रखने से भड़का अवश्य, लेकिन उसके क्रोध को लगातार फूंक दी माँ ने। बाप से हमेशा डरनेवाली और उसके डर से मुँहज़ोरी करने से मुँह चुरानेवाली माँ का यह रूप निराला लगा! कहीं गड़बड़ ज़रूर है। बाप इधर रहता नहीं तो आखिर भागकर जाता किधर है? एकाध रोज़ की बात हो तो वह सोच भी ले कि हो सकता है, बाप पी-पा दारू के अड्डे पर ही पड़ा रहता हो या किसी दोस्त के घर! महीनों कोई कैसे रख सकता है पियक्कड़ बाप को अपने पास?

पान की दुकान पर पहुँचकर उसने राहत की साँस ली। जैसे माँ के लिए संजीवनी बूटी पा लेने का आश्वासन पा लिया हो उसने...माँ से पूछे वो राँड़ के बारे में?

सुबह वह बड़ी मुश्किल से जागता। आवाजें-पर-आवाजें लगाती माँ धमकाती रहती। अन्त में खीझकर हाथ पकड़ दरी पर उठाकर बैठा देती, शाले को नईं जाने, बंडू? पर, पर आज माँ की पहली ही पुकार पर चौकन्ना हो उठ बैठा।

"तू ठीक न?"

"ठीक मैं..." माँ ने उसे चिन्तित न होने के लिए आश्वस्त किया। बोली, “जा, भइया जी की दुकान से पावली (चवन्नी) का दूध ले आ, चाय के वास्ते।"

वह बिना हील-हुज्जत किए गिलास और पावली लेकर झोपड़े से बाहर निकल आया। गली में अभी सुबह नहीं हुई थी। माँ ने कुछ जल्दी ही उठा दिया उसे। हो सकता है, वह दर्द के मारे सोई ही न हो रात-भर! झूठ-मूठ उसे बहलाने के लिए कह दिया कि मैं ठीक हूँ।

अगल-बगल की सारी दुकानों के शटर गिरे हुए थे। खाली भइया जी की दुकान खुली थी। दूध से भरा कड़ाह अधसूलगी बड़ी सिगड़ी की बगल में ही धरा हुआ था। करीब पहुँचा तो कोयले सुलगाने के उद्देश्य से उड़ेले गए मिट्टी के तेल का भभका लपटों के बावजूद नथूनों में दमघोंट बदबू भर गया। जी मितला उठा। उसे देख भइया जी ऐंठी हुई मूंछों से कटाक्ष करते हुए मुस्कराए, "तू कैसे आ गया रे, बंडू!...कहीं बाप ने कुटम्मस तो नहीं कर दी महतारी (माँ) की?" ।

वह भइयाजी के कटाक्ष से कटकर रह गया। झूठ बोला, “ताप आ गया माँ को।"

"ताप?" भइया जी हो-हो करते हुए हँसे।

उसने लपककर उनके हाथ से दूध का गिलास ले लिया और तेज़ी से दुकान के बरामदे की सीढ़ियाँ उतरने लगा।

क्षोभ से मुँह कडुवा आया। उसके घर के तमाशे किसी से छिपे नहीं! घोर अपमानजनक स्थिति है। महसूस हुआ, जैसे सुबह-सुबह भइया जी ने उसके किशोर गालों पर प्रश्न नहीं, तमाचे जड़ दिए। उपहास उड़ाते तमाचे! उसने सुना, वे अपने नौकरों को सुनाकर बोले, "अक्खा झोपड़पट्टी का ऐसन हाल बा...जोरू चार घरि चौकाबासन करति हय और इनके मरदुआ घाटी साले...दारू पी-पा के मेहरारू के हाड़-गोड़ तोरत हैं, राम-राम, कैसी जबराई!" उसका वश चलता तो वह हाथ में पकड़े दूध के गिलास को गोटी (कंचे) के अचूक निशाने-सा साधकर भइयाजी पर फेंक मारता। उनकी चटचटाती सहानुभूति की उसको और उसकी माँ को कतई ज़रूरत नहीं। बापू उसका नकारा, बेईमान, दारुड़िया, जल्लाद सही, पर वह अपनी माँ को घर-घर भाँडी नहीं धोने देगा।

"मैं पढ़ाई छोड़ देगा" उसके भीतर के किशोर बंडू ने अचानक परिस्थितियों से लड़ने का फैसला किया।

पढ़कर करेगा भी क्या? जब तक पढ़-लिखकर हवलदार के माफिक कमाने-धमाने के काबिल बनेगा, चौबीसों घण्टे मेहनत करती, बूंद-बूंद निचुड़ती माँ ज़िन्दा बचेगी? पीली, कमज़ोर, चलती है तो मन डरता है कि अगले ही डग ठोकर खाकर ढेर न हो जाए। वह माँ को ज़िन्दा रखेगा। कमाएगा; कमाएगा तो आराम करने के लिए माँ को घर बैठा देगा। पैसा जोड़कर कहीं अलग खोली ले लेगा, जहाँ दुष्ट बाप की परछाईं भी न पहुँच सके। माँ काम पर से लौटती है तो कटे वृक्ष-सी लोहेवाले पलंग पर ढेर हो जाती है। कुछ रौनक चेहरे पर आई है, जब से कमला की पगार हाथ में आने लगी है। वह भी कुछ करने लगेगा तो उनके चेहरे की गुम रौनक पूरी लौट आएगी।

सवाल उठता है—माँ सुख-चैन के दिन देख सकेगी? कैसे? वह करेगा क्या? क्यों... कोई छोटा-मोटा धन्धा। रफीक करता है न! उसके जैसा ही कोई काम! दोस्तों के बीच रफीक का धाँसू रौब है। दोस्तों को बीड़ी भी वही पिलाता है अपनी कमाई से। कभी-कभी तो निःसंकोच पूरा बण्डल थमा देता उन्हें।

उससे मिलेगा फौरन...नक्कीच!

दरवाजे पर पहुँचा ही था कि लक्ष्मी अम्मा ने पुकारा अपने ओटले (बरामदे) से, "माँ को कइसा है, बंडू...उठने को सकी?"

"नईं, अम्मा।" उसने उदास होकर जवाब दिया।

"मार जास्ती लगी, बेटा! हल्दी-चूना से घाव नईं पुरेगा। डाकदर के पास ले जाके सूई देना माँ को। और सुन, दो-तीन दिन घर में बैठने कू बोल उसको।"

"मेरा किदर सुनेगी, अम्मा!" उसने विवशता प्रकट की।

"अच्छा जा, मैं आती पिच्छु। मैं समझाएगी सीताबाई को। दो-तीन दिन के वास्ते अपना काम पर किसी को बदली में भेजेगी तो ठीक।"

चोट तो गहरी आई ही है। नहीं तो पाँच बजे बिस्तर छोड़ देनेवाली माँ आज जगी हुई मिली, मगर उठकर दूध लाने की उसकी हिम्मत नहीं हुई।

बड़ी मुश्किल हुई चाय बनाने में। स्टोव जलाने की आदत जो नहीं। एक बार को मन में आया कि माँ से ही कहे कि वही स्टोव जला दे उठकर। फिर उसे तंग करना उचित नहीं लगा। वह जागती हुई होने के बावजूद बिल्कुल मरणासन्न मुद्रा में निश्चेष्ट पड़ी दिखी, उसकी अनगढ़ खटर-पटर के बावजूद।

चाय की कप-बसी उठाए उसने आहिस्ता-से माँ से उठने और चाय पी लेने का आग्रह किया। उसे लगा, माँ चाय लेकर उसकी चुस्ती-फुरती पर चकित-सी प्रसन्न हुए बिना नहीं रहेगी, लेकिन माँ के चेहरे पर कोई भाव नहीं उपजा। कहीं कुछ था तो पीड़ा की कराह-भरी सलवटें। वह उदास हो आया। माँ कुछ तो कहती, कुछ भी। प्रशंसा न सही, एक सहज निहार ही। पर चाय खत्म कर कहा भी तो इतना, "दो-चार बाल्टी पानी भर ले, बंडू, नईं तो अक्खा दिन पानी पीने का वादा होएंगा।" कहते-कहते वह तुरन्त औंधी हो गई पलंग पर।

दोनों हाथों में बाल्टी लटकाए हुए वह नल पर पहुँचा तो वहाँ का सारा दृश्य देख अबूझ-सा ठिठक गया। लाइन में खड़ी दो औरतों में बेहयाई से ठनी हुई थी..

"ये लम्बर तो मेरा होता, भरने तू लगी?" ।

"जबान सँभाल! चौबीस लम्बरवाली के पिच्छू लम्बर मेरा होता। वो भर चुकी, मैं भर रही। मँगता तो पूछ उसको! पूछ न!"

"मैं भर रई...राँड! सब चार बजे उठकर मैं लाइन लगाई, तेरी खपसूरती देखने का वास्ते?"

"काय के वास्ते उठी वो तू जान, पन गाली मत दे। समझी...नईं तो थोबड़े पर लात दूंगी।"

"चल री समझी की बच्ची! किसको समझाती तू? तीन-तीन खसम छोड़ के आई मेरे थोबड़े पर लात देने? आईना देख, कुतरी, आईना!"

"हज्जाम की...तू बिन ब्याही बैठी मोहल्ला खराब करे। बोल तो तुझे भी करवा दूँ एक? बूता है सँभालने का?"

"ये ये...! सुबू-सुबू एइसा भांडण (झगड़ा)? रात पाली करके आया मैं। खालीपीली भंकस नईं मँगता।" अचानक अपनी खोली का दरवाज़ा खोलकर पाठक दादा शेर-सा दहाड़ा, "गुपचुप पानी भरो, नईं तो सब साली का हण्डा उठाकर फेंक दूंगा। एकदम बोमड़ी (शोर) नईं। सोने का है मेरे को। समझा?"

नल पर सन्नाटा छा गया। सिर्फ पानी की पतली धार की आवाज़ खामोशी तोड़ने लगी।

पाठक दादा के बारे में झोपड़पट्टी में तमाम नई-पुरानी अफवाहें हैं। जेब में नोट की गड्डी डालो और किसी की भी गरदन रेतवा लो। पाठक दादा की रात पाली का मतलब है --कहीं किसी के दिन पूरे हुए!

पाठक दादा की खोली का दरवाज़ा बन्द होते ही उसे लाइन में लगने की हिम्मत आई। औरतों की चख-चख ने उसे सहमा ही दिया था।

उसे खड़े हए दो-चार पल भी नहीं बीते होंगे कि अचानक रफीक की अम्मी की नज़र उस पर पड़ी। अम्मी वहीं से चिल्लाई, "बंडू, आ तू भर ले पहले।"

वह दुविधा में पड़ गया कि लाइन तोड़कर आगे बढ़े या अम्मी को मना कर दे। कहीं ऐसा न हो कि कुछ देर पहले खत्म हुई चख-चख पलटकर उस पर पिल पड़े!

पानी-वानी सब माँ ही भरती है। यहाँ के कायदे-कानून उसकी समझ से परे हैं। अम्मी ने शायद उसके संकोच को ताड़ लिया। उन्होंने उसे आगे बढ़ आने के लिए दोबारा पुकारा। उनके दोबारा पुकारने के बावजूद लाइन में लगी औरतों से किसी ने आपत्ति नहीं प्रकट की तो उसका साहस बँधा। लाइन में लग के उसका नम्बर आने का मतलब है--पूरे आधे घण्टे का कुंडा। संकोच छोड़कर वह अपनी दोनों बाल्टियाँ उठाए अम्मी के निकट जा पहुँचा। रफीक की माँ ने अपनी बाल्टी सरकाकर तत्काल उसकी बाल्टी नल के नीचे कर दी।

“पक्का ढाई महीने के बाद घर आया था खड़ईस। जालिम ने बहुत मारा सीताबाई को। सिर फट गया बेचारी का।" रफीक की माँ पार्वती चाची को उसके घर की खबर दे रही थीं, "उसी छिनाल के पीछे..."

"अच्छा, कमबख्त रेती किदर वो?"

"वहीं सफेद पुल के झोपड़पट्टी में। उसको भी पहले मरद से दो बच्चे हैं।"

माँ भी तो कल दोपहर...तो माँ के चिड़चिड़ाने की वजह सिर्फ बाप का पीना ही नहीं! बाल्टी अभी आधी भी नहीं भरी थी, पर उसका मन हुआ कि वह बाल्टियाँ छोड़छाड़कर वहाँ से भाग ले! है कोई ठौर-ठिकाना जहाँ उसके घर की चर्चा न हो?

राँड़ माने कोई औरत।... राँड़ माने गाली, अब तक यही जानता था वो।...

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चार रोज़ बाद माँ आज भली-चंगी लग रही थी।

सिर में लगी चोट की दूसरी दोपहर डॉ. जोगलेकर माँ के एकाएक तेज़ हो गए बुखार से घबरा गए थे। उन्होंने उससे कहा कि हो सकता है, माँ के सिर का एक्स-रे निकलवाना पड़े। एक्स-रे विले पार्ले नानावटी में होगा। वे डॉ. दीक्षित के नाम पर चिट्ठी लिखकर दे देंगे। वह माँ को लेकर सुबह नौ बजे एक्स-रे विभाग में पहुँच जाए। लेकिन तीसरी सुबह बुखार के एकदम नीचे आ जाने से उसने उनके चेहरे पर राहत देखी। राहत डॉ. जोगलेकर के चेहरे से होती हुई उसके दिमाग को भी सहज कर गई, वरना माँ की खोपड़ी में पहुँची चोट के भय से उसके प्राण सूखने लगे थे। सिर की पट्टी डॉ. जोगलेकर अलबत्ता रोज़ ही बदलते रहे। अन्नाबाई ने माँ के आग्रह पर चार रोज के लिए उनके पाँचों घरों में एक वक्त काम करने का जिम्मा ले लिया। न कोई मिलता तो उसने माँ को आश्वस्त कर दिया था कि वह उनके घर बता दे। जैसा भी उससे बन पड़ेगा, वह अपने अनाड़ी हाथों से भाँडी-कटका निपटा आएगा, मगर अन्नाबाई की सहानुभूति के चलते इसकी नौबत नहीं आई।

मौका ताड़कर उसने माँ के सामने फौरन अपने धन्धे का प्रस्ताव रख दिया।

पिछले चार दिनों से वह पाठशाला भी नहीं गया। माँ की अस्वस्थता की वजह से नागा हुआ। पर आज सुबह आँखें खुलते ही माँ हाथ धोकर उसके पीछे पड़ गई कि अब वह ठीक है, वह उठे और नहा-धो के अपनी पाठशाला जाए। उसकी बीमारी के चलते उसकी पढ़ाई की कसकर उपेक्षा हुई। अब नुकसान नहीं होगा। लेकिन उसने माँ को अकेला छोड़कर पाठशाला जाने से साफ मना कर दिया।

धन्धे की बात सुनकर माँ उखड़ गई। दुखी होते हुए बोली, "मैं सोचती कि तू लिखपढ़के बड़ा आदमी बने..."

"धन्धेवाले पढ़े-लिखे से जास्ती कमाते।" समझ के अनुसार उसने तुनककर अपना तर्क प्रस्तुत किया, "तू फकत मेरे को पाँच रुपया दे, शाम को परत ले लेना। मैं केले की फेरी लगाएगा।"

"मेरे पास पईसा नईं।” माँ ने खीझकर साफ मना कर दिया।

"तेरे पास नईं तो पीछे एक काम कर। अपनी पंजाबन सेठानी से माँग कर दे न।" उसने लगभग चिरौरी-सी की।

"कइसा देगी सेठानी? उससे तो मैं अक्खा मेना का पगार एडवांस लिया।" ।

माँ की रुखाई के बावजूद उसने हिम्मत नहीं हारी। "आशियानेवाली जोशी बाई से माँगकर दे।"

"कमली को इंसल्ट लगता, दो-तीन दफे जरूरत पड़ने पर मैं उधर माँगने को गई होती। एक दफा तो कारड पे राशन छुड़ाने को होता। बोली, ऐसा बीच में भीख माँगने को नईं आना, माँ..."

समझ गया।

माँ की लगातार बहानेबाज़ी ने उसे झुंझला दिया। पढ़ाई के लिए छोड़कर अन्य किसी काम की खातिर वह उसे पैसे नहीं देगी। खैर, निरुत्साहित होने की ज़रूरत नहीं। जोड़ लेगा पैसे। एक तरकीब है उसके हाथ में। तीन बजे सोसाइटी वाली राशन की दुकान खुलती है। कार्ड पर भराए सामान को उठवाने के लिए लोग उधर हमाल खोजते हैं। कुछेक छोकरों को उसने वहाँ खड़े हुए देखा है हमाली के लिए। वह भी उनके बीच जाकर खड़ा हो जाएगा। राशन की दुकान बन्द होने तक उसके पास केले की फेरी के लायक पैसे जुड़ ही जाएँगे।

दोपहर उतरनी शुरू भी नहीं हुई थी कि वह बन्द शटर के सामने चक्कर काटने लगा। कार्डधारियों की लाइन पहले से ही लग गई थी, जो उसके देखते-न-देखते हनुमान की पूँछ हो चली। तकरीबन घण्टे-भर बाद दुकान का शटर उठा। फुरती से परचियाँ कटने लगीं...चावल, गेहूँ, शक्कर...वह मुस्तैदी से एक भद्र महिला के पास जा खड़ा हुआ, जो थैलों में सामान भरवा रही थी।

"किदर ले चलना है बाई?"

वह चौकन्नी हुईं। उसने उसकी पतली हुलिया तौली। अपने झोलों पर सतर्क दृष्टि डाली। फिर तड़ाक से पूछा, "कितना लोगे? एक सौ बीस नम्बर में जाना है साहित्य सहवास'। लिफ्ट है नहीं।"

"जो जी में आए, दे देना।" वह विनम्र हो आया।

"जो जी में आए नहीं, साफ-साफ बता दो। बाद में बहुत टण्टा करते हो तुम लोग। कौन दस घण्टे चिक-चिक करता बैठेगा?"

"चलो, एक रुपया दे देना बाई।" उसने हँसकर झोलों की तरफ हाथ बढ़ाया।

"क्या? क्या बकते हो? खैरात बाँटने के लिए खड़ी हुई हूँ क्या मैं राशन की दुकान पर? चालीस पैसे में ले जाते हैं छोकरे। चालीस पैसे में ही ले चलना है तो उठा झोले, नहीं तो छोड़ दे। किसी और से उठवा लूँगी मैं।"

"पच्चीस किलो वजन है, मेम सा'ब, कुछ तो सोचिए!"

"है तो क्या?" भद्र महिला की भृकुटियाँ चढ़ गईं।

बहस फिजूल है, उसने सोचा। यह भी देखा कि तीन-चार छोकरे आम की गुठली पर लपकती मक्खियों-से झोलों के करीब उसके हटने की ताक में आ खड़े हुए हैं। बिना चूँ-चपड़ किए उसने झोले उठाकर पीठ पर लाद लिये। हालाँकि मन प्रतिवाद करने को उबलने लगा—दोस्त फरीद ने कहा था, कुछ नहीं मिलेगा इधर। कहने को साले अपने को फिक्स्ड रेट वाले बताते हैं और सच भी है कि बड़ी-बड़ी दुकानों में बिल पर लिखी रकम बड़ी शान से दे आएँगे, मगर गरीबों की मज़दूरी में मोल-भाव किए बिना इन्हें खाना नहीं पचने का। दस पैसे भी कम करा लिये नहीं कि ऐसे प्रसन्न होंगे ये बिल्डिंगवाले, जैसे बैंक उठकर ससुरों के घर आ गई हो।

वज़न बहुत है! पीठ और कन्धे टूटे जा रहे हैं। कन्धे उसके इतने नाजुक हैं कि पाठशाला की कॉपी-किताबें उठाते दुखते हैं। अपनी कॉपी-किताबों को दोगुना-तिगुना कर ले तब भी वे इतनी भारी नहीं होने की।

शाम तक पौने तीन रुपये इकट्ठे हो गए। चवन्नी बीड़ी के लिए छिपाकर बाकी रेज़गारी उसने माँ की हथेली पर रख दी। बीड़ी की आदत नहीं। कभी रफीक उसे मिलने पर पकड़ा देता है तो एकाध सुट्टा वह नज़र बचाकर खींच-खाँच लेता है।

उसकी पहली कमाई माँ ने मुट्ठी में कस, आँखें मूंद, माथे से लगाई, फिर फल्ली के एक कोने में विराजे गणपति बप्पा के सामने ले जाकर रख आई। उसके झाईं खाए ताम्बई चेहरे पर क्षण-भर को रोशनी की लपट-सी भभकी, सिर्फ क्षण-भर को। उसने देखा तो वह एक अव्यक्त किस्म की स्फूर्ति से भर उठा। राशन के झोलों का बोझ अचानक उसकी कॉपी-किताबों-सा हल्का हो आया।

सुबह पाठशाला के लिए नहीं उठ पाया। बदन पके फोड़े-सा टीस रहा था। किसी हालत में आज दुकान पर खड़े हो हमाली नहीं होने की। ज़बरदस्ती खड़ा हुआ भी तो ज़रूर किसी सेठ-सेठानी का राशन गिरा देगा।

माँ उसकी हालत पर तरस उठी, "नईं मँगता मेरे को ऐसा पइसा।"

उसने माँ के चेहरे की ओर गौर से देखा। उसका ताम्बई बैंगन-सा गोल चेहरा अचानक चूल्हे में भुना हुआ-सा, झुर्रियों-पटा महसूस हुआ।

देह के साथ उसके दिमाग की नसें भी टीस रहीं। पहली बार उसे अनुभव हो रहा, देह ही नहीं दुखती, दिमाग भी दुखता है। खोपड़ी के अन्दर बैठा दिमाग रफीक के शब्दों में भेजा'। अब भेजे से काम ले रफीक का आम जुमला है। इसी जुमले से वह उसे लताड़ता रहता है। उसे ही नहीं, गली के बाकी छोकरों को भी आतंकित किए रहता है।

उन सबको लगने लगा है कि निश्चित ही रफीक की खोपड़ी में उन सबकी बनिस्बत ज़्यादा बड़ा और तेज़ भेजा है। उसके बड़े और तेज़ भेजे ने उन्हें अपने भेजे से काम लेने की टिरेनिंग दी है। मगर रफीक ने यह नहीं बताया कि भेजा दुखता भी है और दुखता है तो कोई भी गोली घुटक लो, नहीं शान्त होता!

[]

झोंपड़ी की छत से उमस टपक रही है।

दोपहर में उसे सोने की आदत नहीं। सोने की कोशिश कर रहा है, मगर नींद नहीं आ रही। उसे अन्दाज़ा-भर था कि माँ आज बाप को ढूँढ़ने सफेद पुलवाली झोपड़पट्टी में उस औरत के घर भी गई है। बाप के पीछे माँ का इस तरह हैरान होना उसे तनिक नहीं पचा। क्यों गई? घबराकर? हारकर या कोई और बात है, जो उसे नहीं पता? इधर माँ के भाँडी-कटका के दो घर छूट गए। एक सेठानी का तो तबादला हो गया, दूसरे ने तीन साल पुराना काम छीनकर नई बाई रख ली। माँ ने खोदने पर बताया कि चिकनाई के चलते हाथ से सेठानी के कीमती डिनर सेट के दो डोंगे रपटकर चूर हो गए।

'बाप के पास गई थी क्या?
पूछने पर माँ साफ मुकर गई।

वह खुद भी परेशान है। हमाली वाकई उसके वश की नहीं। पिछले छह रोज़ से वह रफीक के घर के चक्कर लगा रहा है। रफीक न जाने कहाँ बिलाया हुआ है। भेंट ही नहीं हो पा रही। रफीक से उसे बड़ी उम्मीदें हैं। पिछले हफ्ते रफीक ने कहा था, "एरी-फेरी लगाने का चक्कर छोड़, मेरे साथ धन्धे पर खप। माँ कसम, खीसे पत्थर के सिलवाने पड़ेंगे, पत्थर के।"

रफीक का धन्धा क्या है, उसे खबर नहीं।

चलो, जो भी हो। मगजपच्ची से फायदा? करना है, तो करना है। आम बिना गुठली के आम नहीं। साथ उसको भी चाटना पड़ता है। आम खाना है, गुठली नहीं चाटनी, कैसे चलेगा? उधेड़-बुन खत्म हुई। अब रफीक गधे के सिर से सींग-सा गायब है। हसन चाचा से भी कह रखा है कि उसके लायक कोई भी काम हो तो बेझिझक बताएँ। संगी-साथी भी जानते हैं। परसों बहराम पाड़ावाले चन्द्र ने उसे घर आकर खबर दी थी कि उसके लायक एक नौकरी है। बान्द्रा स्टेशन के तीन नम्बर प्लेटफॉर्म पर जो चा-पानी की कैण्टीन है, उसमें एक छोकरे की सख्त ज़रूरत है। उसके मिलते ही नौकरी पक्की। वह फौरन मिलने गया। लेकिन कैण्टीनवाला बेईमान लगा। पगार बीस से ऊपर एक पाई नहीं। खाना-नाश्ते के नाम पर सिर्फ चाय-पाव! ड्यूटी सुबह सात बजे से रात नौ बजे तक। उसे नहीं जमा। चाय-पाव पर दिन कैसे कटेगा?

घर की कुण्डी खड़की। माँ, बाप, लक्ष्मी अम्मा, हसन चाचा,...कौन हो सकता है?

"कौनऽऽऽ?" वह किवाड़ों की ओर लपका। खोलते ही सामने रफीक को खड़ा देख खुशी से उछल पड़ा। उछलकर लिपट गया।

"अम्मा ने खबर दी कि तूने रोज चक्कर मारे...”

"मारे न!...पन तू किधर?"

"अपुन हफ्ता-भर के वास्ते अहमदाबाद होता।"

"अहमदाबाद?"

"तू नईं समझेगा। वो छोड़ तू...काम की बोल?"

"क्या बोल? बात हुई थी न तेरे से?"

"हूँऽऽ, हुई।"

"मैं धन्धा करने को माँगता, पढ़ाई-वढ़ाई छोड़ दिया।"

"वारे मेरे राजाऽऽ, आया न लाइन पे। अबे, पहले नक्शा क्यों मारा? चल देर से आया, दुरुस्त आया...केले की फेरी करेगा। टिरेन में रूमाल, कंघी, आरसी बेचेगा। तो साऽऽला बेच कंघी, आरसी!" रफीक ने मखौल उड़ाते हुए गरमजोशी से उसकी पीठ पर धौल जमाई। रफीक की धौल से यारी टपकी।

वह खिसियाया, "केले की फेरी मारी न दो दिन लोकल में।"

"खुद खाया कि बेचा?"

"बेचा, पन..." जवाब में हँस पड़ा।

"देखो, धन्धा तो बोत धाँसू है, पन तू लल्लू के माफिक रहेगा तो नईं चलेगा।"

"तू बोल तो!" उसने चुनौती स्वीकारी।

"हिम्मत करेगा?"

"हिम्मत की मत पूछ।" उसे ताव चढ़ आया।

"तो सुन।" रफीक उसका हाथ अपने हाथ में आत्मीयता से दबाकर कान में फुसफुसाया।

सुनते ही वह करेण्ट खाया-सा छिटककर अलग हो गया।

"पन पोलिस का लफड़ा?"

"हो गया, राजा तेरे से धन्धा..." रफीक ने खिल्ली उड़ाई, "फिर तो बबुआ, मुँह में चुसनी डाल के बइठ...चुसनी! क्या?"

"काय को मेरी फिरकी लेता...कभी किया नईं न, तो जरा लफड़ा-विफड़ा से डर लगता। पन, करेगा मैं। जो बोलेगा, वो करेगा।"

"ये हई न मरदवाली बात।" प्रसन्नता से उसके हाथ पर अपना हाथ पटकता हुआ रफीक खिल आया। समझाता हुआ बोला, "रिसक तो है, पर तू ठहरा अपना पुराना यार! जमाएगा तुझको। ये सौ का पत्ता रख, खर्च-बिरच को।"

दसरे रोज वह परी तरह हिम्मत बटोरकर, बताए हए थिएटर की बुकिंग खिडकी पर ठीक साढ़े नौ बजे जा खड़ा हुआ। काफी भीड़ थी। रफीक ने कहा था कि खिड़की पर पहुँचकर वह बुकिंग क्लर्क के सामने तीन उँगलियाँ उठा दे। बीस टिकट उसके खीसे में होंगे। सब कुछ गुपचुप व होशियारी से होना चाहिए। बगलवाले को भनक न हो। चौकस सतर्कता बरती उसने। पलक झपकते बीस टिकट उसकी जेब में थे। दस तीन से छ: के शो के, बाकी छ: से नौ के। रफीक ने यह भी कहा कि अभी इतनी ही टिकटों से उसे बेचने का गुर सीखना होगा। गिराक को शेंडी लगाने का गुर सीखते ही उसे ज़्यादा टिकटें निकालने की ज़िम्मेवारी उठानी होगी।

टिकटें लेकर सिनेमा हॉल का बरामदा उतरते ही एक काले-से गट्टे छोकरे ने उँगली के इशारे से उसे अपनी ओर बुलाया।

"मैं?" उसने सकपकाकर अपनी अगल-बगल देखा।

"तू ही, आ इधर!"

"चल उदर बेकरी के पिच्छू चल...थिएटर में तेरा आज पहला दिन है न? यार लोग ने तेरे को दावत दिया!"

उसे लगा, रफीक ने इनसे भी उसके बारे में कुछ कह रखा होगा, मगर इस कल्लू ने उसे तीन उँगली क्यों नहीं दिखाई? फिर भी, वह बिना हील-हुज्जत के सहज भाव से उसके पीछे चल दिया। मगर सँकरी गली में पहुँचकर सनका। छह-सात छोकरे उसे चीलझपट्टावाली मुद्रा में तने खड़े दिखे। उनकी मंशा भाँपते देर नहीं लगी। वह भाग निकलने की सोचे-न सोचे, तब तक उनमें से एक ने झपटकर उसकी गरदन माप ली, "बीस टिकट काय के वास्ते खरीदा, तेरे बाप की बारात आती पिक्चर कूँ?"

वह चुप रहा। खीझ हुई अपने पर। भयंकर असावधानी हो गई उससे।

"मूँ में जबान नईं?"

"खोल के देख!" दूसरे ने पहले को उकसाया।

"नया न, शरमाता। खोलेगा, अपने-आप खोलेगा।"

झूठ नहीं चलेगा। सब-के-सब दाढ़ी-मूंछवाले। उससे तगड़े, मज़बूत। उसकी मसेंभर भीगी हैं। बोला, "बिलैक के वास्ते..."

"बिलैक के वास्ते?" उसका ही वाक्य दोहराने के साथ उसे एक ने कॉलर पकड़कर उठाया और तड़ से ज़मीन पर पटक दिया। उसके ज़मीन पर औंधे होते ही लात-घूसों की बौछार होने लगी। वे उसकी देह से गेंद की तरह खेलने लगे। कंकड़ियों और तीखे डगढ़ों (पत्थरों के छोड़े टुकड़ों) से होंठ कट गए। कुहनियाँ छिल गईं। खून से भर उठा। दाएँ घुटने की हड्डी उतर गई-सी लगी।

उसे शिथिल हो लुढ़कते-लुढ़कते, प्रतिवाद न करते देख उनके क्रोध पर छींटे पड़े। उन्होंने हाथ-पाँव चलाने बन्द कर दिए। एक ने उसकी बुश्शर्ट में से टिकट निकाल लिये। दूसरे ने हुमककर आखिरी लात जमाई।



"फूट...कल से कम्पाउण्ड में नहीं दिखना। दिखा तो एकच टाँग पे घूमता दिखेगा। रफीक के बाप का थिएटर नईं।" चेतावनी देकर सातों फुर्र हो गए।

दूसरे रोज़ खासा हंगामा हुआ। रफीक ने उनके गैंग लीडर नारायना से बात की। दोनों तरफ के छोकरों की भिड़न्त होते-होते बची। किसी तरह मामला रफा-दफा हुआ। पैसे वापस मिल गए। मुनाफे के साथ टिकट तो उन्होंने बेच ही लिये थे। यह भी समझौता हो गया कि वह फिलहाल उसी सिनेमा हॉल पर खड़ा होगा। नारायना को कमाई में से उसका हिस्सा देना होगा, रफीक को नहीं। नारायना को क्यों, रफीक को क्यों नहीं? रफीक ने उसके खरोंच खाए कन्धे को थपकाया, "वो सब पचड़े में मत पड़। तू फकत अपना काम देख।"

वह भी उनकी तरह चूहे को टोहती बिल्ली-सा भीड़ में चक्कर काटने लगा, "तीन का छः, तीन का छ:...बालकनी दस, बालकनी दस..."

पचीस-तीस रुपये रोज़ रात को उसके हाथ में आने लगे, नारायना और खिड़कीवाले क्लर्क श्रीवास्तव बाबू का हिस्सा पहुँचाकर। इतवार की बात कुछ और होती। चारों शो में कहीं हाउस फुल का पाटिया टॅग जाए तो पौ बारह। प्रेम में पड़े छोकरे-छोकरियाँ पचास तक देने को राजी हो जाते। औरों का भी यही हाल। टैक्सी में पैसे फूंककर आनेवाले बिना फिल्म देखे लौटें कैसे?

लेकिन ऐसे हाउस फुल और पेशल संडे हफ्तों से ठण्डे चल रहे। कोई धाँसू पिक्चर ही थिएटर पर नहीं चढ़ रही।

बुकिंग खिड़की के लिए निकलने से पहले, वह माँ के हाथ में बीस रुपये रख देता। शुरू में अविश्वास और संकोच से घिरी माँ उससे पैसे के विषय में बार-बार पूछती कि आखिर इतने पैसे कहाँ से और कैसे आए उसके पास? वह झूठ बोलता कि कन्ट्राज़ पर काम कर रहा है। ट्रक लोड करने के उसे पच्चीस रुपये रोज़ मिलते हैं।

माँ को उसके पैसों की आदत पड़ने लगी है! कभी दस-पाँच कम देता है तो उसे सँभालकर खर्च करने का उपदेश पिलाने लगी है। आगाह करती कि काम से जी न चुराए, आज नियमित काम मिल रहा है, कल मिले, न मिले! एक बात और। अपनी फिजूल चाट-चूट की आदत से भी बाज़ आए। जो खाना है, उसे घर में बनवाकर खाए।





दूसरी बीड़ी खत्म कर, टोंटे को पाँव से रगड़कर वह दबे पाँव खोली में घुसा। सिटकनी चढ़ाई और चटाई पर पड़ गया।

[]

अचरज हुआ सिटकनी न चढ़ी होने पर। भूल गई शायद माँ? वैसे भूलती नहीं कभी। हाथ बढ़ाकर धीमी कर दी लालटेन की धीमी लौ दीवारों पर लुपलुपाती, भूरी उजास लिये थर्राने लगी। माँ को आज जल्दी नींद लग भी गई। जल्दी नींद आती नहीं उसे इधर। इस बात का भी विस्मय हुआ। हो सकता है, आज अधिक थक गई हो। अचानक महसूस हुआ, वह जो समझ रहा है कि माँ गहरी नींद में पड़ी सो रही है, उसका भ्रम है। लोहे के पलंग की चरमराहट में उसे किसी तड़फड़ाती बेचैनी की आहट मिली। क्या बात हो सकती है?

उसने करवट भर गरदन उचकाई। स्तब्ध रह गया। अनुमान सही था। पलंग पर उठकर बैठी माँ घुटनों पर ठुड्डी टिकाए, टाँगों को बाँहों से घेरे, झोंपड़ी की दीवार को एकटक ताकती मिली। माँ की आँखों की पनीली उदासी आँखों में सीधी न देख पाने के बावजूद उसे साफ दिखाई दी। माँ उसे लेकर तो परेशान नहीं? हो सकता है, उसके धन्धे की खबर कहीं से लग गई हो उसे। आजकल उसका इलाका बदला हुआ है। वह गेइटी, गैलेक्सी छोड़कर मलाड के एक नए थियेटर पर धन्धा करने लगा है। याद नहीं पड़ता कि वह कभी किसी परिचित से टकराया हो।

हाथ बढ़ाकर उसने लालटेन की बत्ती उकसाई।

रोशनी कुछ ज़्यादा हो जाने से माँ पर कोई असर नहीं हुआ। माँ पूर्ववत बैठी रही। यह भी हो सकता है कि बाप घर आया हो? बाप घर आया होता तो माँ साबुत बैठी नहीं दिखाई देती। उसने भेदती नज़र से माँ की देह को टोहने की कोशिश की। कोशिश व्यर्थ गई। बाप के घर आने का कोई अवशेष ज़ख्म के रूप में माँ की देह पर मौजूद नहीं। ओह, कैसी अनाप-शनाप अटकलें लगा रहा है। भूल गया कि कल माँ ने ही उसे बताया था कि आज दोपहर वह कमली के घर जाएगी। जोशी बाई सपरिवार तीन-चार रोज़ के लिए अपनी ननद के घर पुणे जाने वाली हैं। उनके ननदोई की मौत हो गई है। जोशी बाई के वापस लौटने तक कमली उनके पास ही आकर रहेगी। कमली कहाँ है? कमली को घर पर ही होना चाहिए। माँ कल कितनी खुश थी, उमंग से भरी हुई कि वह कमली के सूने पाँवों के लिए चाँदी की तोड़ियाँ खरीदकर लाना चाहती है। सयानी हो रही है पोरगी। अब तक कुछ कान-गले नहीं डाला। निर्धन-से-निर्धन अपनी बेटी को छूँछा नहीं रखता।

उसे माँ की उमंग से खुशी हुई। कमली के आने की खबर सुनकर तो और भी।

"हमेशा के जैसा देर नहीं करना।" हिदायत नहीं, इसरार किया था माँ ने। चलते-फिरते यह सूचना भी दे दी थी उसे कि सीपी और कोलमी (चावल की किस्म) भात पकाएगी–-कमला की पसन्द का खाना। बस, भागा-दौड़ी के चक्कर में याद नहीं रहा कि वह सुबह माँ से जल्दी आने की हामी भर गया था। पुरानी हिट फिल्म लगी हुई है थिएटर में संगम। राजकपूर, वैजयन्तीमाला, राजेन्द्र कुमार को देखने के लिए टूटे पड़ रहे हैं लोग। माँ की लम्बी निःश्वास की दस्तक से उसकी सोच का तार टूटा।

"कमला आनेवाली थी न?"

माँ ने कोई उत्तर नहीं दिया, जैसे उसका प्रश्न कानों में पड़ा ही न हो। उसने संकोच के साथ अपना प्रश्न दोहराया।

"नहीं आई।"

"काय को?"

उत्तर में चुप्पी।

"काय को नईं आई?" उसके स्वर में उतावली थी।

"उसको इदर नईं आने का है!" माँ का स्वर काँपा।

"क्या?"

माँ सचमुच रो रही थी। अवरुद्ध कण्ठ से बोली, "कमलाच इदर रैने को तैयार नईं। जिद्द करके वो उनके साथ पूने को गई। मैं लेने को गई तो बोली, "मैं बाई के साथ जाएगी। मेरे कू झोपड़ी में नहीं आने का। पंखा नईं न उदर। ऊपर से संडास में लाइन लगाने का लफड़ा...तुमको आदत पड़ गई मोरी में पिशाब करने की, मेरी आदत छूट गई। उसी में पिशाब करना, उसी में बरतन घिसना, उसी में नहाना, हमको नईं चलता..."

हमको सुनकर वह चौंका। यह माँ का शब्द नहीं। यह अपनी औकात भूल बिल्डिंगवालों की बिरादरी में स्वयं को शामिल कर लेने के मुगालते की छूट है। सुख-सुविधाएँ खैर उसे क्या मिलनीं। सुख-सुविधाओं से अटे घर के पाखाने के सामने, शतरंजी बिछाकर सो रहने की छूट ही कमली के लिए घी के स्वाद की बनिस्बत, उसकी तेज़ महक पीकर स्वाद पाने की सन्तुष्टि है, और कुछ नहीं। आम दिखा और गुठली चुसाकर कुत्ता बनाने की कला कोई इनसे सीखे! साआल्ली नाटकबाज मास्टरनी जोशी बाई! घी सुँघा-सुंघाकर उल्लू की पट्टी कमली को ऐसी कुतिया बना देगी कि कमली जीवन-भर ऊँची इमारतोंवालियों की देहरी पर उनकी भाँडी घिस, जूठन चाट-चूट, कुतिया-सी परकी रहेगी।

मामला समझ में आ गया।

माँ की पीड़ा बड़ी विदारक है--कुछ छूट जाने, कुछ खो जाने की। दारुडिए पति के घोर तिरस्कार से बित्ता-बित्ता छलनी हई माँ अपनी चहेती औलाद की अप्रत्याशित उपेक्षा बरदाश्त नहीं कर पा रही।

"दिमाग ठिकाने नईं कमली का, हरामखोर को चरबी चढ़ गई...झापड़ क्यों नई चढ़ा के दिया जोशी बाई के सामनेच? स्टैंडर्ड मारती माँ के सामने?" वह क्षुब्ध हो उठा। उसे लगा, कमली ने उसके मुँह पर भी थूक दिया। हर समय दादा, दादा करनेवाली कमली के दिल में उससे मिलने की कोई ललक शेष नहीं?

तू कुछ भी बोल, ये मास्टरनी पर अपने को खातरी नईं। आने दे लौट के पुने से, मैं देखता।" उसके स्वर में आग थी।

माँ ने गरदन घुमाई, “फायदा नईं, अपना सिक्काच खोटा।"

"अब्बी तू रोने का नईं, तेरे को मेरा शपथ! सो जा! कल सुबू मेरे को अपने साथेच उठाना, जल्दी बुलाया सेठ।” कहकर उसने अपने चेहरे को कोहनी से ढक लिया।

काफी देर बाद माँ के लेटने की आहट हुई। उनके करवट भर लेने के बावजूद उसने महसूस किया कि माँ सो नहीं पा रही। घुमड़-घुमड़कर सिसकियाँ भरने लगती है। उसे परेशानी हुई। उठकर उसे मनाए? मनाए कैसे? कहे क्या? जो थोड़ा-बहुत दुःख का आवेग कम हुआ है, फिर न पलट पड़े! अपने बिस्तर पर उठ बैठा। कुछ देर बैठा रहा। माँ की सिसकियों का अन्तराल बढ़ रहा है। बड़ी देर तक कोई सिसकी नहीं आई तो बिस्तर पर ढीला हो गया।

कल बड़ी धाँधल है। अमिताभ बच्चन की फिलिम का रिलीज है। खिड़की पर टूटनेवाली भीड़ को होशियारी से सँभालना है। रात का रोना-धोना सुबू पनवती साबित होता है धन्धे में। माँ क्या समझेगी? मलाड के लिए निकलने से पहले वह हनुमान जी के मन्दिर में सिर झुकाना नहीं भूलता। धन्धे पर कृपा होनी चाहिए न। उसके टेंशन की खबर नहीं माँ को। टिकट मुफ्त में भी लेनेवाला नहीं मिलता कभी-कभी, ऊपर से आपसी मारामारी। सभी चाहते हैं कि उनको उसी थियेटर पर धन्धा करने का चानस मिले जिसमें अमिताभ बच्चन की फिलिम लगनेवाली है। थियेटर की अदला-बदली के कायदे-कानून भी भूल जाते। छुरा-चाकू निकाल लेते। माँ का क्या! चार घण्टों का भाँडी-कटका निबटाया और चल दी मावसी (मौसी) के घर तफरीह करने। आजकल मावसी से बहुत पटने लगी है। पहले दोनों एक-दूसरे का मुँह देखना तक बरदाश्त नहीं कर पाते थे। चलो, ठीक है। जहाँ भी माँ का मन लगे, चैन मिले। बारह से पहले वह भी घर नहीं लौट पाता।

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"तीन का तीस...तीन का तीस...बालकनी, पचास, बालकनी पचास..."

लोगों के चेहरों पर बुदबुदाता हुआ वह चक्कर-पर-चक्कर मार रहा है। पसीने छूट रहे हैं। पब्लिक एकदम ठण्डी है। अमिताभ की फिलिम है, टिकट-खिड़की बन्द है, फिर भी लोग टिकट बिलैक में लेने को तैयार नहीं। चिन्ता की बात यह है कि बरामदे में हाउस फुल का पटिया लगा हुआ है, मगर भीतर हॉल खाली है। वैसे यह धन्धे की पोल है, पर आज दाना फिट नहीं बैठ रहा। पब्लिक झाँसे में नहीं आ रही है। घूम-फिरकर लौट रही है। शो शुरू हुए भी दस मिनट हो चुके हैं।

जबरदस्त फटका लगनेवाला है।

उसके पास इस शो के पचास टिकट हैं, माथा घूम रहा है उसका। होगा क्या? इसीलिए चिढ़ रहा था रात माँ के रोने पर। कलह से कभी कुछ अच्छा हुआ है? काम बना किसी का?

एक युवक उसके करीब आया, "टिकट है?"

"कितना माँगता?" उसके चेहरे पर चमक दौड़ी।

"तीस टिकट! बालकनी के छः का तीन के भाव से दे दो तो ले लूँ।"

वह दुविधा में पड़ गया। आधे दाम में? अमिताभ की फिलिम के टिकट आधे दाम में! कैसा अंधेर है? ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। अमिताभ की फिलिम माने जैक पाट!

आँख मूंदकर लगा दो पैसा! महीने-भर की कमाई हफ्ते-भर में! टिकट रद्दी में जानेवाले हैं, यह तो तय है। पर बुद्धिमानी इसी में है कि भागे भूत की लँगोटी भली। जो भी निकल आए। दिमाग में कौंधा कि एक साथी से मशविरा कर ले।

"जरा मिनट इदरीच ठैरना" कहकर वह भीड़ में गुम हो गया। अपने एक साथी के पूछा, “एक गिराक बालकनी का तीस टिकट आधी कीमत में माँगता। दे दूँ?”

"थोड़ा रास्ता देख।"

"रास्ता क्या देखू? पब्लिक साऽऽली वापस जा रही है। मुद्दल भी नईं निकलने का।"

साथी उसकी बेसब्री से चिढ़ गया, “अबे, धन्धे का कुछ उसूल होता..."

"चुप बे, उसूल गया तेल लगाने। इतना खोट! मैं जो निकलेगा, वो निकलता।" वह स्वयं निर्णय लेता हुआ-सा उसके पास से हट आया और उसी युवक के करीब पहुँचा। उसने इशारा किया कि वह टिकट देने को तैयार है, पर यहाँ नहीं, वह पैसे निकालकर सामनेवाली मटन शॉप के पीछे आ जाए।

फुरती से उसने हिप पॉकेट से टिकट निकाले, गिने और युवक की ओर बढ़ा दिए। युवक के हाथ से पैसे लेकर जेब में रख ही रहा था कि अचानक एक अजनबी उस पर पीछे से आकर टूट पड़ा। उसने अजनबी के चंगुल से छूटने की जानमार कोशिश की, खूब छटपटाया, पर तब तक उसे कई अन्य लोगों ने घेरकर दबोच लिया। समझ गया, छूट भागने की कोशिश करना बेकार है। आज चढ़ गया सी आई डी के हत्थे।

थियेटर पर भी ज़बरदस्त छापा पड़ा। अन्दर सीटें खाली और बाहर हाउस फुल का पटिया। उसके तीन अन्य साथी छोकरे पकड़े गए। बाकी सात छिटक गए।

हवा थी कि सी आई डी ने घूम-घूमकर पब्लिक को टिकट न खरीदने के लिए दबाव डाला, ताकि वह थिएटर के कर्मचारियों और काला धन्धा करने वालों की मिली भगत को रंगे हाथों पकड़ सके।

वह बन्द हो गया।

मलाड पुलिस चौकी में रात-भर उनकी खाल उधेड़ी गई। इंस्पेक्टर सामन्त लगातार पूछता रहा कि वह भकुर दे कि वास्तव में उनका सरगना कौन है और किस-किस सिनेमा हॉल पर उनके गुर्गे सिनेमा टिकटों की कालाबाजारी करते हैं। दूसरे रोज़ कुछ साथियों ने ज़बानें खोल दीं। नारायना पकड़ा गया। रफीक फरार हो गया। गिरगाँव का पाटिल और साकीनाका का फिलिप्स भी पकड़े गए।

माँ को खबर भेजी गई। माँ जामिन (ज़मानत) के लिए नहीं आई। रफीक के दोस्तों ने छुड़ाने की पूरी कोशिश की, पर ऊपर से बात आई थी, नीचेवालों ने छोड़ने में मजबूरी ज़ाहिर की। बस इतना हुआ, उम्र छोटी थी, अतः उसे डोंगरी बाल-सुधारगृह भेज दिया गया। तीन दिन खोपड़ी के पीछे टमाटर-भर गुम्मा लिये वह कराहता चटाई पर बिलबिलाता पड़ा रहा। एक बाई डॉक्टर ने आकर जाँच की। सूई लगाई तब कहीं जाकर चौथी रात ठीक से सो पाया। इस दुर्गति और नरक की कल्पना सपने में भी नहीं की थी। बस, आँखों के सामने क्षुब्ध माँ का चेहरा डोलता रहा। सच्चाई कैसे पचा पा रही होगी? कैसे चला रही होगी उसके पीछे घर?

रफीक का छोटा भाई एक शाम अचानक डोंगरी बाल-सुधारगृह में उससे मिलने आया। उसी ने माँ के बारे में खबर दी कि वह उसकी अम्मी से लड़ने आई थी। ज़बरदस्त गाली-गलौज किया अम्मी से कि रफीक की गलत सोहबत ने उसके सीधे छोकरे को बरगला दिया। तबाह कर दिया। उसका बंडू ऐसा नहीं था, खूब पढ़ता था। अच्छे नम्बर लाता था। कहना मानता था।

सुनकर वह फीकी हँसी हँस दिया।

माँ उससे मिलने तो आई नहीं। तीन महीने की सज़ा हुई उसे। रहना उसे बाल-सुधारगृह के नरक में ही था। ऊँचे अहाते के किनारे लगे गुलाब के फूलोंवाला नरक! उस नरक में एक नहीं, बे-सींग सैकड़ों यमराज घूमते-टहलते नज़र आते। उन दैत्यों के बीच एक लम्बे स्कर्टवाली भली-सी रेखा ताई भी उनसे मिलने आतीं। उससे उसके अपराधी होने के कारणों तथा दबावों के बारे में पूछतीं। साथ-साथ कॉपी में कुछ लिखती भी जातीं। उसे समझाती भी। साथ के कादर ने रेखा ताई का वास्तविक परिचय दिया। "डॉक्टर नई रेखा ताई, कुंसीलर हैं, कुंसीलर! (काउंसिलर) खोपड़ी का डॉक्टर! हम लोगों का साऽऽला खोपड़ी पढ़ने को आती है।"

"ऐसी तफरी तो इस धन्धे में चलती रेती है, यार! कभी-कभी मलाई में मक्खी भी गिरती, तू घबराना नईं। जरूरत का सामान मैं पोंचाऊँगा..." रफीक के भाई का संकेत उसकी बीड़ी-पानी के खर्चे से था। कुछ नोट दिए भी उसे, "इदर का सुपरिटेंडेंट द्विवेदी अपुन को बोत मानता है।"

चटाई की झिरझिरी तीखी तीलियाँ पीठ पर कुँच रहीं।

नींद नहीं आ रही। ऊपर से मच्छर खून पी रहे। नींद आ जाए तो यही चटाई उसके लिए डनलप का गद्दा साबित हो। पर हो तो हो कैसे! उस लम्बोतरे कमरे में उसे मिलाकर कुल इक्कीस लड़के हैं। कुछेक नाटे, कुछ बड़े। ठसे-मुसे। एक-दूसरे की टाँग-पर-टाँग चढ़ाए। उन्हें सोता हुआ पाकर उसे विस्मय होता। घर की चटाई और इस नरक की चटाई में उन्हें कोई अन्तर महसूस नहीं हो रहा? क्यों? क्या वे सब जानवाले मुर्दे हैं? और वह जानवाले मुर्दो के कब्रिस्तान में रह रहा? कब्रिस्तान की सफेद दीवारें देखकर उसे कितना डर लगता था! और यहाँ कब्रिस्तान में ही रहने को मजबूर है वह। उसे अपने रोंगटे खड़े होते महसूस हुए।

अचानक एक छोकरा नींद में चीखा। उसकी देह भय से एकबारगी काँप उठी! ठण्डे पसीने से नहाती। नींद में क्या देखा होगा उस छोकरे ने? क्यों चीखा वह? शायद चीखें ही शेष हैं उनके पास जागते-सोते। चीखें-ही-चीखें, किस्म-किस्म की। सभी इतने खौफनाक माहौल से आए हैं कि नींद में भी वे उन चीखों के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाते। उन्हीं में दलते-पिसते! कादर ने कल दोपहर अपना किस्सा सुनाया था। सुनकर वह अविश्वास से पलकें पटपटाता, माथे पर बल डाले घूरता रहा।

"बाप मेरा सिद्दा था। गऊ सरीखा। माँ का इश्क हो गया साऽऽला बनिये से। उसके संग भाग के उसके घर बैठ गई। बोत समझाया बाप ने। हाथ-पाँव जोड़ा। पन माँ के मगज में कुछ नईं चढ़ा, मेरा हवाला भी नईं। इज्जत-आबरू मिट्टी हुई। बाप का भेजा घूम गया। एक रोज माँ को अपना सामान उठाके ले जाने के बहाने घर कू लाया और पिलान के मुताबिक घासलेट डालकर फूंक दिया! पन वो मरी नईं। हस्पताल में उसने पोलिस को बयान दिया कि स्टोव नईं फटा। बाप-बेटे ने मिलकर मेरे को फूंक दिया।"

"पिच्छू...?" भय से उसकी आँखें फट गईं।

"पिच्छू क्या?" कादर ने लापरवाही से सिर झटका, “बाप यरवदा जेल में और मैं इदर..."

उसे अचरज हुआ। कादर अपनी सगी माँ के बारे में कितने निर्मम भाव से बातें कर रहा था मानो वह अपनी माँ की करुण आपबीती नहीं, मोहल्ले के किसी घर में हुई दुर्घटना का बयान कर रहा हो-निष्ठुर, लगावहीन, बदले से भरा! क्यों घृणा से भर उठा कादर माँ के प्रति? क्यों नहीं हो सकता? अत्याचार दिल और आँखों का पानी मार देता है। मर गया कादर की आँखों का पानी? मिट्टी हो गई माया-ममता।

कनपटियाँ पसीने से चहचहाने लगीं। क्यों याद करता है कादर का किस्सा! जब से कादर ने सुनाया, भूल नहीं पा रहा। त्रस्त माँ याद आ रही है, जल्लाद बाप याद आ रहा है। किस्सा सुना सभी ने, पर सब बेखबर खर्राटे भर रहे हैं। एक वही...

अन्तर्द्वन्द्व चकिया में अँजरी-अँजरी अनाज-सा पीस रहा है...कादर ने ठीक किया? ठीक नहीं किया...नहीं, ठीक किया...उसे यही करना चाहिए था। बाप की इज़्ज़त-आबरू भी तो कोई चीज़ थी। बच्चे की माया-ममता सब झटक...

अपनी माँ की यातना बिच्छू के विष-सी दिमाग में लहरें भरने लगी।

उसे भी बाप से नफरत है। बाप को माफ नहीं करेगा वह। उसी के चलते माँ और गुड़िया-सी कमली को गुड़िया खेलने की उम्र में मास्टरनी के घर चाकरी करनी पड़ी। उसे बिलैक के धन्धे में मुंह काला करना पड़ा। कम कमाता है बाप?

कादर की माँ की तरह उसके बाप के ऊपर भी इश्क का भूत सवार है... रेखा और अमिताभ बच्चन सरीखा। इस नरक से छूटते ही वह सीधा सफेद पुलवाली झोपड़पट्टी का रास्ता पकड़ेगा। रफीक की अम्मी ने बताया था उसे कि कोई पुन्नपा की चाली है। तय है कि बाप उसी के घर मिलेगा। खलास करके छोड़ेगा उसको। टण्टा खत्म। माँ का क्या? जब से उसने आँखें खोली हैं, उसे भाँडी-कटका करके पेट पालते पाया। आगे भी पेट भर लेगी। मर्द का वजूद उसके लिए है ही कहाँ?

नसें तनाव से तड़कने लगीं।

[]

छूटा तो पूर्व-निर्णय मुताबिक घर न जाकर सीधा सफेद पुल पर आया। परली तरफवाली झोपड़पट्टी पुल पर से स्पष्ट दिखाई दे रही थी। वहीं कहीं है पुन्नपा की चाली। चाली की एक खोली में वह राँड और उसका बाप! अभी नहीं भी मिला, तो वह उससे निबटे बगैर माँ के पास नहीं जाएगा। निबटने का सामान है उसकी कमीज़ के नीचे!

रेलिंग छोड़कर वह भीड़ में शामिल हो गया। तभी अचानक, भीड़ में उसे पड़ोसन लक्ष्मी अम्मा दिखाई दे गईं। वह अनायास उनकी ओर लपका। माँ के हाल-चाल जान लेने की उत्सुकता दबा नहीं पाया। पीछे से पुकारा, "लक्ष्मी अम्मा! लक्ष्मी अम्मा!"

लक्ष्मी अम्मा उसकी गुहार सुन चौंककर पलटी। उसे सामने खड़ा पा प्रसन्नता से पुलकी, “अइयो बंडू! तू? कब छूटा? दुबला बोत हो गया। खाने को नईं देते होते जेल में?" वे एक साथ तमाम प्रश्न कर बैठीं।

उसने अपने बारे में जवाब न देते हुए, अधीर हो, माँ के बारे में जानना चाहा, “माँ... माँ कैसी है, अम्मा?"

"माँ?" लक्ष्मी अम्मा की भौंहों में बल सिमट आए। पल-भर वह उसे खामोशी से ताकती रहीं, फिर विस्मय से भरकर बोली, "तेरे को नईं पत्ता? मिली नईं तेरे को वो?"

अनिष्ट की आशंका से उसका जी धड़का, “क्या हुआ माँ को? बोल अम्मा!"

"सीताबाई ने नया नौरा (दूल्हा) बनाया! वो तेरी मावसी का देवर होता न, नारायण शिन्दे...उसी के साथ...मेरे को लगता, आज उसका रात पाली होएगा, तेरे कू घरमेच मिलेगा।"

सुनकर वह जड़ हो उठा।

लक्ष्मी अम्मा उसकी बाँह पकड़कर झकझोरती हुई कुछ पूछ रही थीं उससे, पर उसे कुछ सुनाई नहीं दिया। वह एकाएक मुड़ा और पलटकर भीड़ को धकियाता हुआ तेज़ी से पुल उतरने लगा...


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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