स्त्री विमर्श: 'मौसम का दर्द' — कहानी — डॉ. उषाकिरण खान

स्त्री विमर्श




उस रोज़ प्रख्यात हिंदी व मैथिली कथाकार उषाकिरण खान जी  साहित्य अकादमी के 'कथासंधि' कार्यक्रम में भाई कुमार अनुपम से बातचीत कर रही थीं। उन्होंने अपनी कहानी 'मौसम का दर्द' पर जो बोला उसे सुनकर लगा कि यह कहानी पढ़नी होगी। बाद में उन्होंने बताया कि यह उनकी चौथी कहानी है। 

मैंने कहा, 
"सोच रहा हूँ कि आप आज से (जैसा आज बना जा रहा है से) मीलों आगे रही हैं, और हैं ।" 

दीदी ने जवाब दिया,
"और हमसे हमारी पूर्व पीढ़ी कम न थी। आज बच्चों को हम दकियानूस लगते हैं।" 

मैंने कहा, "इसका जवाब तो मैं 'मौसम का दर्द' पढ़ने के बाद दूँगा।"

अब मैं क्या कहूँ? 'मौसम का दर्द' कहानी उषादीदी से मांग कर, पढ़कर यहाँ आप पाठकों के लिए रख दी है। आप लोग पढ़ें और आप ही जवाब दें! — सं० 



मौसम का दर्द

डॉ. उषाकिरण खान

मौसम का यह असह्य दर्द मेरी रगों में परसता चला गया। यह दर्द यूँ ही नहीं मेरे पीछे पड़ गया। इसे मैंने स्वयं ओढ़ लिया है। मैं तब नहीं जानता था कि क्या कर रहा हूँ। न वह जानती है कि कब नामालूम ढंग से मेरे अस्तित्व में रच बस गई है। हाँ, यही सही है, है न अजीब दास्तान? बिल्कुल किसी पुराने किस्से-कहानियों-सी। वह है भी तो किस्से कहानियों की नायिका-सी। पहली बार जब मैं ओवरसियर होकर उसके इलाके में गया तो मेरा मन शंकित था। मैं सुदूर पूर्व के इस इलाके के लिये अपने आपको तैयार न कर पाया था। लेकिन नौकरी करनी थी क्योंकि पिताजी ने मुझे ओवरसियर बनाने में अपनी छोटी-सी हैसियत को दांव पर लगा दिया था। माँ ने एक ओर नौकरी लग जाने की खुशी पर मिठाइयाँ बंटवाई थीं दूसरी ओर आँसू भी बहाती रही थीं। मुझे विदा करते हुए पिता-चाचा हिदायतें देते नहीं थकते थे।

“देख बचवा, बिना मच्छड़दानी के न सोना।” — पिता थे। 

“और नुनुआ पानी उबाल के पीना।”  —  चाचा थे।

“सुनने में आया है कि कोसी कछार की लड़कियाँ बड़ी शेख होती हैं, कहीं उधरई उलझ मत जाना, हाँ।” — चाची का खिलखिलाता उपालम्भ था। जितना कुछ सुना था उससे अधिक भयावनी स्थिति का सामना करना पड़ा था। इंजीनियर के जिस ऑफिस में मुझे रिपोर्ट करना था वहाँ कोई सवारी नहीं जाती थी। नाव में बैठकर, थोड़ी दूर पैदल चलकर मैं वहाँ पहुँचा तो शाम हो चुकी थी। मुझे पाकर इंजीनियर साहब के दफ्तर का चपरासी हैरान रह गया। उसने पूछा था — 
“क्या आप सारा असबाब लेकर आये हैं सरकार?” 

“क्यों यहीं रहना है तो...” — मैंने कहा था। 

“ऐं ऽ ऽ?” वह बड़े आश्चर्य से देखता रहा। 

“सामान रखो भाई, कहाँ रखा जायेगा” — मेरे यह कहने पर उसके चेहरे पर और भी कई रंग आये, कई चले गये।

“हजूर, इहाँ तो अभी कुआटर बनबे न किया है, चलिये आपको मुखिया जी के दलान पर ले चलें।...”

“नहीं-नहीं, ऐसे कैसे किसी के दरवाजे पर...।”  — मेरे शहरी ‘व्यक्ति’ ने विरोध किया।

“तब सरकार, इहें एगो चौकी रखवा देते हैं। अकेल्लेन है?” — दरवान ने रास्ता सुझाया।

“हाँ-हाँ यही करो, कहीं से चाय की व्यवस्था करवाओ” — मैंने पास पड़ी कुर्सी खीच ली। रास्ते की भयानक थकान और ऊपर से यह अव्यवस्था मन ही मन झल्ला रहा था। दलान के आस-पास ग्रामीणों की भीड़ लग आई थी। उसने उन्हें भगाया और व्यवस्था में लग गया। 

“चाह” — महीन स्वर सुन मैंने आँखें खोली। अंधेरा घिर आया था, कुर्सी पर बैठे-बैठे मैं झपकियाँ ले रहा था। मच्छड़ घनर-घनर कर चारो ओर मंडरा रहे थे। पास ही कहीं धूरा लगा दिया गया था जिसका धुआँ बादल की तरह वातावरण को लपेटे हुए था। एक केतली से शीशे के गिलास में चाय ढालकर खामोश खड़ी एक लड़की थी। अँधेरे के कारण उसकी आकृति स्पष्ट नहीं थी। वह भी धुंआ-धुंआ सी लग रही थी। मैंने चुपचाप चाय का गिलास उठा लिया था। चाय जब तक पीता रहा वह नि:शब्द खड़ी रही। जैसे ही चाय खत्म कर गिलास नीचे रखा वह उसे पुनः भरने को आगे आ गई।

“अरे — अरे, क्या करती हो, चाय और नहीं लूँगा” मैंने कहा और जेब से एक का नोट निकालकर उसकी ओर बढ़ाया और पुनः कहा —  
“तुम अपने पैसे काट लेना, मेरे पास छुट्टे नहीं हैं।”

“धत” कहा उसने और गिलास उठा तेजी से एक ओर चली गई। मैंने तब समझा था कि वो चाय की दुकान चलाती है। फिर सोचने लगा, शायद यह दुकान वाले की लड़की है, पैसे इसका बाप ही लेगा ।

“दिसा फरागत हो लीजिये सरकार, तब असनान कर लीजियेगा ”
 — दरवान पुनः आकर मेरी तन्द्राभंग कर गया। नहा धोकर जब तक मैं आया मेरा सारा सामान करीने से सजा दिया गया था। कमरे के आधे भाग को मेरा सामान घेरे हुए था। एक बड़ी-सी चौकी पर मेरा बिस्तरा लगा दिया गया था। मच्छड़दानी बाँस की बत्तियों के सहारे लटका दी गई थी। एक ओर ईंटों की कतार थी जिसके ऊपर तख्ते डालकर मेरी अटैची और बक्से रखे गये थे। कमरे के कोने में एक नया चमचमाता हुआ लालटेन जल रहा था। अपनी नई आवास व्यवस्था को देख मैं विचित्र अनुभव कर रहा था। तभी दरवान लोटे में पानी लेकर आ गया। चमचमाता हुआ फूल का बड़ा-सा लोटा और फूल का ही गिलास लाकर उसने एक मेज पर रखा जिसे ऑफिस की ओर से लाया गया था।

“अड़हुल, आ यहाँ रख हाकिम का खाना।” — पीछे मुड़कर आवाज दिया दरवान ने। वही शाम वाली लड़की थी, एक बड़ा-सा थाल लेकर हाथों में थाल के ऊपर एक और थाल था। 

“अरे बाप रे, इतना सब खाना कौन खायेगा।” — मैं भोजन के विविध प्रकार देख बिना बोले न रह सका। थाल के बीचो बीच स्तूपाकार भात का ढेर, एक बड़े से कटोरे में दाल, दूसरे उतने ही बड़े कटोरे में बडियाँ, दो तीन रसेदार सब्जियाँ शीशे की गहरी प्लेटों में कई प्रकार की भुनी और तली हुई भोज्य सामग्री जिन्हें याद रखना भी नामुमकिन है, सब था।

“अरे यह क्या मुझे अकेले खाना है?” मैं घबड़ा गया था। शायद मेरी मुद्रा कुछ हास्यास्पद हो गई होगी तभी वह लड़की मुँह फेर कर मुस्कुराने लगी थी। मैं थोड़ा सँभल गया। दूसरी थाली में मैंने अपने खाने योग्य सामग्री निकाली और खाने लगा। जितना मैंने निकाला था वह भी शुद्ध घी के प्रचुर प्रयोग के कारण काफी गरिष्ट था। बड़ी कठिनाई से खा सका। जैसे ही उठने लगा, उस लड़की ने एक और कटोरा आगे कर दिया। मलाईदार दही का कटोरा देख कोई अपने को रोक सकता हो तो रोक ले। मैं उसका खास दीवाना हूँ, लेकिन मात्रा देख मैं भी डर गया, उसमें से थोड़ा लेकर खा लिया और उठ गया। दरवान गाल पर हाथ धरे बैठा अचरज से मेरी ओर देख रहा था।

“हाकिम, कहाँ कुछ खाये।” — उसने कहा।

“और कितना खाता मैं, इतना-इतना अगर परोसेगी यह लड़की तो गई उसकी दुकानदारी।” मैंने किंचित हास्य से कहा।

“कैसी दुकानदारी मालिक?” — दरवान चकित था।

“तो यह भोजन का थाल कहाँ से आया।” — अब अचरज की मेरी बारी थी।

“सरकार मुखिया जी के यहाँ से — आप वहाँ नहीं गये तो खाना यहीं भेज दिया। वे अपने ही आते हजूर लेकिन उनके समधी आये हुए हैं। एही से न छप्पन परकार का भोजन बना है।” — दरवान ने समझाया। पहले ही दिन इस स्थान पर ऐसा सुभोजन हुआ यह मेरे लिए हर्ष का विषय होना चाहिए था लेकिन मैं अपने कोड ऑफ कन्डक्ट को कैसे भूल जाता, तुरत दरवान को आड़े हाथों लिया।

“सरकार, तो यहाँ कोई होटल-फोटल है थोड़ों?” दरवान ने अपनी असमर्थता जाहिर की।

“और सरकार बड़ा साहब भी यहाँ आते हैं तो उन्हीं के यहाँ खाते पीते हैं... ”

“ठीक है, लेकिन मैं ऐसा कैसे करूँ, कोई दो-चार दिनों के लिए तो नहीं आया हूँ। कलसे कुछ व्यवस्था करनी पड़ेगी।”

“जी मालिक, मुदा जब तक कोनो इन्तिजाम नहीं होता है वहीं खाना होगा नहीं तो मुखिया जी को दुख होगा।”

गहरी थकान के कारण रात कैसे बीती जान भी न पाया। सूर्योदय अब तक हुआ नहीं था। चाँद झाड़ियों में फँसे खरगोश की तरह अटका हुआ था। सारा वातावरण कर्पूरी आभा से दीप्त था। चिड़ियों का कलरब इतने पास से कभी नहीं सुन सका था। उठ कर बरामदे में खड़ा ही हुआ था कि चाय का गिलास पकड़े दरवान हाजिर हो गया। सारा गाँव जग कर अपना काम कर रहा था। यह सब मेरे लिए अद्भुत था। चाय का गिलास हाथ में थामे हुए पीछे से जो व्यक्ति आये वे ही मुखिया जी थे। गोरे चिट्टे मुखिया जी बड़े भव्य लग रहे थे। उन्होंने आग्रह किया कि भले ही मैं उनके घर में न रहूँ खाना उन्हीं के घर का खाऊ। मैंने चुपचाप मान लिया। और कोई दूसरा उपाय भी तो न था।

दिन के बारह बजे इंजीनियर साहब जीप पर बैठ कर आये। वे बड़े ही सहृदय लगे। मुझे मेरा काम समझाया, शीघ्र क्वार्टर तैयार करवाने को कहा जिसके बाद वे उस स्थान पर रह कर बाँध का काम देख सकते थे। जाते-जाते मुझसे पूछते गये कि मुझे जिस वस्तु की आवश्यकता हो मैं नि:संकोच बता दूँ वे शहर से लेते आयेंगे। मैं उनकी दयानतदारी पर निछावर हो रहा था और वे मेरे वहीं रहने के राहत बोध से उत्फुल्ल थे। उस दिन साइट पर खड़े होकर निरीक्षण करते कब साँझ उतर आई, मैंने न जाना। सूरज ने मानो प्रकृति के आलते की शीशी उड़ेल दी थी। लाली ढरक गई थी। पटेर के झुँझ से कई बालायें माथे पर उसके फूलों का बोझा लिए निकल रही थी। साँवली चिकनी देह, एक वस्त्रा। सिर्फ साड़ी से सुडौल शरीर का उभार बलपूर्वक छुपाये हुए। इस प्रकार का वन-पीस-ड्रेस शो देखकर कहीं किसी क्लब में मजे से सिसकारियाँ भरी जा सकती हैं, किन्तु वहाँ ऐसा कुछ नहीं लगता था।

“राजा बेटा हँस लै हम मुसुके लियै हय, मोने मोन जोड़ लहयपिरीत।” गीत की एक टहकार सुनाई पड़ी और उसके बाद समवेत खिलखिलाहट।

“ऐ निर्लज्जी, चुपगे देखती नहीं...” किसी ने कहा और मुँह मानो बन्द कर दिया।

“ऐ हे ऽ ऽ गे अड़हुलिया, निर्लज्जीतो तुम है।” — दूसरा स्वर था। “बड़ा बाबू के साथ रंग रभस चल रहा था।”

“चुप रह, तू भी कर न जा के रंग-रभंस, उहाँ हवेली में काम करते-करते कोंढ़ करेज टूटता है इहाँ इनको रभस सूझता है।” — कहती हुई अड़हुल मारने दौड़ी। हँसी-मजाक में बोझा गिर गया। मेरा मन कुछ कहने को कर रहा था कि तभी विवेक ने रोक दिया। रोज मेरा खाना पहुँचाती हुई अड़हुल मुझसे खूब बातचीत करने लगी थी। साइट पर वहाँ एक भी औरत काम नहीं करती थी। वे खेत में ही लगी रहतीं। किसी प्रकार का परदा या बनावटीपन नहीं था। सब कुछ उन्मुक्त। मुझे धीरे-धीरे सब कुछ अच्छा लगने लगा। पसरी हुई बालुका राशि, क्षीणधारा कोसी, बबूल और झौए के वृक्ष, काले चिकने तराशे हुए जिस्म वाले मुसहर तरुण तरुणियाँ, गोरे चमकते रंगों वाली गहलौत कन्यायें। अपने पहले कार्यभार के कारण मैं सब कुछ सीख लेना चाहता था, सो इंजीनियर साहब के बार-बार कहने पर भी शहर की ओर जाने से जी चुराता था। बहाने थे ही मेरे पास। में कहता — “सर, क्वार्टर जल्दी बना देना चाहता हूँ ताकि मेरा अकेलापन कटे, आप लोग आ जायें।”

“अरे यार, हम वहीं ठीक हैं क्यों इस निपट जंगल में फँसाते हो।”  — इंजीनियर साहब खासे मजाकिया थे। काम लगभग पूरा हो गया था। 16-17 जून का दिन रहा होगा, हमें अपने बाढ़ नियंत्रण कक्ष से सूचना मिली कि सारे मवेशी और लोग सुरक्षित स्थानों पर ले जाये जायें, बाढ़ का भयानक रेला आ रहा है। बाँध का काम उत्तर से हो चुका था इसलिये सारी मशीनरी उधर ही रहती थी। मैंने मुखिया जी से कहा। वैसे कोई ऐसा ऊँचा स्थान तो था नहीं फिर भी लोग पुराने तिलयुगा बाँध के ऊपर आ गये थे। देखते न देखते सारा इलाका जलमग्न हो गया था। कुछ लोगों को नाव द्वारा इस ओर हमारे नवनिर्मित क्वार्टर में रखा गया था। मैं बीच गाँव में था, कई लोग अपने बच्चों और मवेशियों को पार कराना चाह रहे थे। मैंने वहीं रह कर अपनी नाव उन्हें दे दी, वे देर साँझ तक सब कुछ ढोते रहे। मैं सामान और बच्चों को चढ़ाने में उनकी मदद करता रहा है। अन्त में बच गया मैं और मात्र अड़हुल। वह भी जिद किये बैठी थी कि आखिरी बार मेरे साथ जायेगी, उसकी बूढ़ी अशक्त माँ भी छूटी हुई थी। और उधर अँधेरे में नाव किनारे में कहीं डूब गई थी चाँदनी रात थी चारो ओर चाँदी पिटा हुआ था। कल-कल निनादिनी यह क्षीण नदी प्रबल अट्टहास कर रही थी।

नदी सागर बन कर सारी फसल लील गई थी। झिंगुरों की झनकार से निस्तब्धता टूट रही थी। कभी-कभी गीदड़ों का हुआँ-हुआँ शोर मचा रहा था।

“हाकिम, हाकिम देखिये ऊ साँप कैसे पानी में भागा चला जा रहा है।” — अड़हुलने कहा। उसकी वाणी में भय का लेश भी नहीं था। मैंने देखा एक बड़ा-सा चमचमाता हुआ साँप जल चीरता हुआ पास के घर की ओर जा रहा था।

“तुम्हें डर नहीं लगता है अड़हुल?” — मैंने उससे पूछा।

“काहे का डर, इनका हमारा तो रोज का नाता है, यह नाग-डीह है सरकार नागडीह; कोसिका का बहन है सब, झौआ (एक वृक्ष) कौआ, मलेरिया जर (बुखार), साँप प्यादा है।” मुझे समझा रही थी।

“अड़हुलिया, गे छौंड़ी साँझ देदे घर में” — उसकी बूढ़ी माँ ने आवाज दी।

“कहाँ से आग लेबो जे साँझ देबो, चुपचाप रह, चनरमा भगवान का इजोत से मन भर।” — अड़हुलिया ने जवाब दिया।

“हाकिम से पूछ सलाई होगा, सिकरेट नै पीते हैं?” — बुढ़िया ने पुनः कहा।

“नहीं बुढ़ी अम्मा मेरे पास नहीं है दिया सलाई, मैं नहीं सिगरेट पीता।” — उस दिन मुझे अपने सिगरेट नहीं पीने पर बड़ा क्रोध आया।

“ओह...। हाकिम इहैं रह गया, बेचारा कैसे रात भर सोयगा क्या खायेगा। 

...बुढ़िया बड़बड़ाती रही। मैं गुमसुम ओसारे पर बैठा चाँद की ओर देख रहा था। अड़हुल धप्प से आकर मेरे पार्श्व में बैठ गई सटकर। सारा शरीर झनझना गया था। मुझ शहरी बाबू के मन में चोर था। पहले दिन से ही यह गहलौत कन्या कलेजे में आधे फँसे तीर की तरह अटक गई थी। उसने अपने पैर लटका लिये थे और पानी में छप-छप कर रही थी। गोरी, चिकनी, सुडौल पिंडलियाँ चाँदनी और घोर मट्ठाकोशी जल में चमक रही थी। मुझसे रहा नहीं गया। उसे खींच लिया पानी से, खींच कर ऊपर कर लिया था फिर भी मेरे हाथ वहीं थे, विद्युत स्पर्श पाते हुए, मैं बेसुध था।

“छि:छिः हाकिम, यह क्या कर रहे हैं, मेरा गोर (पैर) पकडे हैं” — खन-खनाती हुई हँसी और मेरा हाथ बलपूर्वक हटाती हुई वह मेरे सीने के पास आ गई। मैं सहम गया था, जाने यह क्या सोचे।

“सच पूछिये तो हाकिम हमको बड़ा सोहा रहा है यह सब?” 

“क्या सोहा रहा है?” — मेरा गला भर्रा आया था।

“यही सब, कोसी का बाढ़ सब साल आता है, मुदा इस साल का बाते कुछ गजब है।”

“क्या है?”

“उधर चलिये, बतायें-” फुसफुसाती हुई कह रही थी। मैं मन्त्रमुग्ध-सा पीछे चला जिधर वह उठ कर चली गई। आमंत्रण के उस ज्वार में मैं कुछ भी आगा पीछा न देख सका। भोरुकवा उगने पर नींद खुली। मेरे साथ अड़हुल चिपकी सोई थीं निश्चिंत। उसके घने काले बिखरे केश मुँह पर छितरा आये थे। भरे-भरे होंठ तृप्ति की मुस्कान से आवेष्ठित थे। अधखुली पलकें निद्रा निमग्नथीं। साड़ी का आँचल हटा था। आह। सौन्दर्य का भरपूर सागर ठाँठें मार रहा था। मुझे ममता हो आई, इसने मुझे सब कुछ समर्पित कर दिया, मुझ पर अनन्य विश्वास किया। मैं इसे निभाऊँगा जीवन भर।

छप-छप पतवार की आवाज सुनाई दी। सोचा कोई नाव है। थी भी। आँचल खींचकर उसे ढंक दिया, वह चटाई पर से आधी नीचे जमीन पर पड़ी थी। उसे छू कर हटाने का साहस नहीं कर सका। सोचा भोर का सपना देख रही होगी, कहीं टूट न जाये। उठ कर दूसरी ओर आया, देखा कुछ लोग आ गये हैं नाव लेकर।

“हाकिम आप देवता हैं, हम लोगों की खातिर बनवास ले लिया।”

 लोगों का मुँह पश्चात्ताप से सूखा हुआ था। “अरे नहीं भाई, यह सब तुम्हारे कारण थोड़े हुआ, समय ने किया है।” मैंने उनकी बात का जवाब ऊपरी मन से दिया, भीतर-ही- भीतर तो अपनी उपलब्धि पर प्रसन्न था। सोच रहा था अनायास कुछ क्रान्तिकारी कार्य करने का अवसर हाथ आ गया है। प्रेम-रस में आकंठ निमग्नथा। नाव पर काफी लोग थे जो अपने घरों को देखने आये थे। लौटती नाव पर चढ़कर मैं अपने क्वार्टर पर पहुँच गया। हफ्ते भर जब तक पानी चढ़कर उतरा मैं बड़ा बेचैन रहा। अड़हुल की शक्ल ही न दिखाई दी थी। किसी से पूछ भी न सका, अपने मन का चोर ही मुझे पूछने न देता। ऐसे में ही दरवान आया और कहने लगा।

आज तो आपको सहर जाना है न, एक सरिया (साड़ी) आँगी लेते आइयेगा, अड़हुलिया का मेहमान आया है, बिदागरी है।”

“क्या, मैं नहीं समझा?”

“ऊ छौड़ी अड़हुलिया है ने सरकार, जो मुखिया जी के हवेली में काम करती है आपको भी खाना चाह देने आती है वही सासुर जायगी।”

“उसकी शादी हो गई है?”

“जी हजूर, सादी गवना सभे कुछ, उ तो सरकार मसिमक मार (मौसम की मार) पड़ा था, खेत दहा जाता था सो दू बरिस से मेहमान (दूल्हा) मोरंग चला गया था। कुच्छो पता नहीं। हम सब समझे उहें कोनों नेपालिन से कर लिया है समध (शादी)। मुदा आया। अब हम लोग मिलकर बिदा कर देंगे। जुआन-जहान बेटी अपने घर जायगी।”

क्या वह जायगी? मैं भीतर-ही-भीतर छटपटा रहा था। ऊपर से चुप था।

“नहीं, मैं आज नहीं जाऊँगा तुम किसी और से मँगवा लो।” — मैंने समय टालना चाहा। सोचा अवश्य वह जबर्दस्ती जा रही होगी। उपाय कुछ सूझ नहीं रहा था कैसे परिस्थिति का सामना करूँगा कि वह आ गई। मेरी आशा के विपरीत वह आज अतिरिक्त खिली हुयी थी। उसका रंग निखरा हुआ था। उछाह समा नहीं रहा था।

“हाकिम, हम कल्ह भोरे चले जायेंगे। आपसे मिलने आये हैं।” 

“कहाँ?” बोल फूट ही नहीं रहे थे। 

“अपने आदमी के साथ, ससुराल।” 

“तुम्हें मैं याद नहीं आऊँगा?” 

“हाँ-हाँ आप हमारे गाँव के लिये देवता है आपको कौन भूलेगा?”

“बस? अड़हुल मैंने तुम्हें लेकर कई सपने देख डाले, तुम्हारा शरीर छुआ तुम्हें भोगा, यह सब भूल जाओगी? एक बार सोच लो मैं तुम्हें अपनाना चाहता हूँ अड़हुल” मेरा अतिरिक्त भावुक स्वर वह अचरज से सुन रही थी। मेरी ओर ऐसे देख रही थी मानो मैं अजूबा हूँ।

“हाय हाकिम, आप हमें जात बाहर करवाइयेगा? जब दो साल की थी तभी बियाह हुआ, गवना हुआ, मेरा कमाह मरद है। उसको छोड़कर...।

नहीं-नहीं आप अपने जात की लड़की से सादी कर लीजिए।” 

मैंने उसके पास आकर उसका हाथ पकड़ना चाहा। वह पीछे हट गई। 

“क्या तुम वह सब भूल जाओगी, जो उस रात...।”

“अरे, हा-हा-हा..., हाय राम, राह चलते पियास लगे बाट-घाट के कुएँ से पी नहीं ले आदमी पानी, की घर आकर पानी पीने के सोच में हलकान होवे। रात का मसिम था आग और खढ़ एक ठैंया हुआ लेस दिया। जाइये बाबू, आप मरद होकर तिरिया-चरित्तर दिखाते हैं। असीरबाद दीजिये।

“राजी खुशी जायें।” — नीचे झुक कर अपने आँचल से मेरा पैर छूकर आँखों से लगाया और चली गई। कोसी कछार की वह हिरनी अपने खुरों से मेरी छाती-रौंदती हुई चली गई। मैं पराजित सा उसे देखता रह गया।

तब से मैं इस मौसम का दर्द झेल रहा हूँ। वहाँ से इच्छा कर के बदली करवाई। उसका तर्क, दर्शन बार-बार रामायण की चौपाई की तरह मन-ही-मन दुहराता हूँ, चाँदनी-रात को मौसम का दर्द तब भी पीछा नहीं छोड़ता।

००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ