उषाकिरण खान का जाना हिन्दी जगत को स्तब्ध कर गया है। हिन्दी वाला चाहे जहां का भी हो उनसे प्यार पाता था। ऐसे ही प्यार को युवा लेखिका अणु शक्ति सिंह साझा कर रही हैं अपनी 'शोक -स्मृति' में! ~ सं०
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उषाकिरण खान वाया वंदना राग 'हमारे बीच उषा की एक किरण' | Ushakiran Khan Via Vandana Rag
किसी एक व्यक्ति के सुख से न तो खेतों में हरियाली छा जाती है, न उसके दुख के ताप से खेत, नदियां तालाब सूख जाते हैं। जब मन में पीड़ा का आलोड़न हिलोरें लेने लगता है तब भी चेहरे पर मुस्कान रखना पड़ता है, सामने की पौध के लिए।
उषाकिरण खान वाया वंदना राग
हमारे बीच उषा की एक किरण
उषाकिरण खान जी को साहित्य से जुड़े लोग कितना कितना तो जानते हैं लेकिन, मैं यह कह सकता हूँ कि बगैर कभी बिहार गए, सिर्फ फेसबुक, व्हाट्सअप, फोन से जुड़ाव और मात्र एक छोटी-सी मुलाक़ात जो मेरे झोले आयी है के बावजूद उन्होंने कब मुझे अपना बना लिया पता ही नहीं, वह सच में मेरी उषा “दीदी” हैं। उनके जन्मदिन 24, अक्टूबर, 2021 पर हज़ार शुभकामनाओं के साथ, दोस्त गीताश्री के सम्पादन में आ रही पुस्तक ‘हमारे बीच उषा की एक किरण’ से वंदना राग का संस्मरण पढ़िए। जिसकी की भूमिका में गीताश्री लिखती हैं –
“उषादी से बातचीत उठौना (रोज़ का) है। उनसे बात करना एक काम है जीने की तरह... जिसे गंभीरता से करती हूँ। नहीं तो, कुछ खोया-खोया सा लगता है। आप इसे “समथिंग मिसिंग” कह सकते हैं। कोई इंसान आपकी आदत बन जाता है। ये लत सबसे प्यारी होती है। कोई संबंध उस प्रार्थना की तरह होता है जिससे आप अपने दिन की शुरुआत करते हैं।”
बहुत हुआ, अब आप पढ़ना शुरु कीजिएउषाकिरण खान वाया वंदना राग वाया गीताश्री संपादित 'हमारे बीच उषा की एक किरण' ~ सं०
लोक ही तो इहलोक है
~ वंदना राग
सबसे पहले उनकी किताब जलाधार हाथ में आई थी। उनकी बड़ी बेटी अनुराधा शंकर, जो मेरे पति की नौकरी में साथ थी, बैचमैट हुआ करती थी, उसी ने दोस्ताने में मुझे एक प्रति पकड़ा दी थी। उस समय मैंने नया–नया लिखना शुरू किया था और अनुराधा और हम शहर भोपाल के चौहत्तर बंगले मोहल्ले में पड़ोसी हुआ करते थे। आज ठीक-ठीक गणना करने पर यह बात बहुत पुरानी लगती है।
किताब के पहले पन्ने पर लिखा था, प्रिय अंशु के लिए — माँ 9.12.01 — पटना पुस्तक मेले से। अंशु यानि अनुराधा शंकर। उषाकिरण खान की वही बड़ी बेटी, मेरे पति पंकज राग की दोस्त, मेरी सहेली।
“माँ को नहीं पढ़ा है, तो ये लो पढ़ो।“ उसने यूँ ही मुझसे कहा था।
मैंने बहुत चाव से किताब को पढ़ डाला था और मन में एक जाने पहचाने लेकिन वक्त की मार से विस्मृत होते लोक से दोबारा संबंध जोड़ा था। पुनर्नवा-सा लगा था। जानने सीखने और समझने के दिन थे वे । धीरे–धीरे अपने पुरोधाओं को जान रही थी, समझ रही थी, उनकी किताबों के ज़रिये । फिर पता नहीं कब और कैसे यह हुआ कि अनुराधा शंकर से ज्यादा उषाकिरण खान से उनकी किताबों के मार्फत मुलाकातें होने लगीं, फोन पर गप्प होने लगी और मैंने साहित्यिक गर्भनाल का जो सिरा मिला उसे मज़बूती से पकड़ लिया।
अनुराधा के घर के पास रहने की वजह से जब भी उषाजी भोपाल आती जाती उनसे मुलाकातें होती रहतीं। हम टहलते हुए दिन के किसी भी पहर अनुराधा के घर चल पड़ते, और उससे बातें करते-करते कब उषाजी से मुखातिब हो जाते पता ही नहीं चलता। उनकी बातें सुनना बड़ा अच्छा लगता। बेहद दिलचस्प ढंग से अपने बचपन, अज्ञेय और बाबा की कहानियाँ सुनातीं। पटना की साहित्यिक महफिलों की बातें सुनातीं। कैसे रिक्शे में बैठ आयोजनों में चल देतीं और लोग चकित रह जाते उनके गैर पारंपरिक तेवर से। एक आईपीएस् अफसर की पत्नी कितनी जुझारू और साहित्य जुनूनी हो सकती है, सारे सामाजिक दबावों के बावजूद अपनी स्वतंत्र हस्ती निर्मित कर उसे सहेज समेट सकती है, ऐसी अनेक बातें उनसे सीखीं और जानीं। ज़िंदगी में कुछ रचने, गढ़ने और लोगों तक पहुँचाने के लिए आप अपने आप ही कितने सक्षम और प्रतिष्ठित हो सकते हैं, उनका जीवन इसकी तस्दीक करता है।
उनके बारे में सुधि आलोचक करमेंदू शिशिर की एक टिप्पणी पढ़ी — उषाजी बिहार की उन महिला कथाकारों में हैं, जिन्होंने हिन्दी-परिदृश्य के शोर और कलरव से अलग रहकर अपनी मूक रचनाशीलता से प्रतिष्ठा अर्जित की है। प्रबुद्ध होने के कारण उनमें स्त्रियों के सवालों और समस्याओं के प्रति सहज संवेदना और जागरूकता है।
टिप्पणी कई बरस पहले की गयी थी और आज जब मेरे सामने आई तो मैं यह सोच हैरान रह गयी कि कैसे कुछ बातें और मूल्यांकन हरदम समीचीन बने रहते हैं। कैसे इतने दिनों पहले कही हुई बात आज भी इतनी मौजूं है। कैसे उषाकिरण खान ने अपनी साहित्यिक जीवन यात्रा शुरू की चुपचाप, धीरे–धीरे! पटना जाने पर कुछ तस्वीरें देखीं उनकी युवावस्था की जिसमें वे शर्मीली सी खड़ी हैं, प्रिय शिष्य की मुद्रा में — एक ओर बाबा नागार्जुन हैं तो दूसरी ओर अज्ञेय। इन श्वेत–श्याम तस्वीरों का जादू गजब का है। मुझ जैसे नवजात लेखकों के लिए यह एक अभूतपूर्व सौगात है, जिसकी सूक्ष्मताओं कोचाक्षुक ढंग से बताने के लिए उषाजी हमारे पास अनमोल पुरोधा-सी मौजूद हैं। पीढ़ियों की साहित्यिक यात्रा को मुकम्मल करती एक निश्चल सहयात्री समान वे हमें उस गुज़रे ज़माने की अनगिनत कहानियाँ सुनाती हैं।
“बाबा कहते थे धीरज नहीं तो कुछ भी नहीं। साहित्यिक यात्रा बच्चों को पालने–पोसने के कर्म जैसी निस्वार्थ और धैर्य भरी होनी चाहिए।“ वही हमने सीखा — वे बहुत गंभीर हो कहती हैं।
उनके अनोखे कमरे में उनकी किताबें रखी रहती हैं। मैं जब भी जाती हूँ उन्हें टटोलती हूँ। हर बरस किताबों की संख्या बढ़ती जाती है। उनके घर में मनुष्यों के उठने बैठने की जगह से अधिक सभी स्थानों पर किताबें विराजती हैं। अनुकरणीय धीरज से, प्रेरणादायी जिजीविषा से वे हमेशा लिखने में निमग्न दिखलाई पड़ती हैं। उनके पलंग पर उनके कलम और कागज, हमेशा काम चल रहा है इसका आभास देते हैं।
अनुराधा कभी भोपाल जाने पर शिकायत करती है — “अब तुम माँ की ज्यादा दोस्त हो गयी हो!”
मन होता है कहूँ — हाँ, कोई कैसे ना हो उनका दोस्त? स्नेह से जिस कदर सबको अपना बना लेती हैं, यह उनके जीवन मर्म, आत्मविश्वास और उदारता को ही तो दर्शाता है। विभिन्न मतों के लोग बसते हैं पटना के साहित्यिक समाज में, लेकिन मेरे जानने में सब उनका नाम कितने आदर से लेते हैं, खुशदिली से उन्हें याद करते हैं।
मैं जानती हूँ अनुराधा यह सुन खुशी से भर जाती है। उनके बच्चे जानते हैं कि उनकी माँ क्या हैं। वे उसका अधिक प्रचार नहीं करते लेकिन मन ही मन माँ की खूबियों का जश्न मनाते हैं। गाहे बगाहे अपने खास दोस्तों से उसकी चर्चा कर देते हैं और बस — नियमित जीवन जीते है! यह बात मुझे बड़ी आकर्षक लगती है। उनकी सभी बेटियों ने एक सघन साहित्यिक संस्कार विरासत में पाया है और वे उसे अगली पीढ़ी तक ले जा रही हैं। मैं उन बच्चों की रचनात्मकता से भी परिचित हूँ। सभी बच्चों के मन के गवाक्ष खुले हैं। वहाँ आधुनिकता की हवा के साथ-साथ जड़ों से उठती खुशबू भी तिरती है। जैसे तनुजा उनकी दूसरी बेटी ने सामा–चकेवा पर जब फिल्म बनाई तो माँ ही नेरैटर हो गईं। लोक से जुड़ी कहानियां जुबानी याद जो हैं उन्हें। एक मनमोहक तस्वीर याद आ रही है उनकी — बैलगाड़ी पर अपने बच्चों के संग बैठ गाँव जा रही हैं। जैसे सहेज रही हैं कुटुंब को लोक के साथ। प्रकृति का सहचर बन रचनाकार रचना का अंग हो जाए जैसे वैसी छवियाँ कौंधती हैं उनको लेकर। कोसी नदी और बाढ़ से उपजे कितने संस्मरण हैं उनके पास। उनकी कहानियों में नदी दुलारती है, तो डराती भी है और संघर्ष के नए मायने भी सिखलाती है। बहुत प्रेम है उनको उससे। जैसे प्रेम है उनको भाषाओं से, क्षेत्र से भी। दरभंगा के राजघराने से लेकर मखान निकालने वाले जन मानस की कहानियाँ हैं उनके पास। लागि नाही छूटे राम की तर्ज़ पर लोक छूटता नहीं उनसे। उसकी बोली-बानी, भाषा और जन जीवन। कहाँ गए मेरे उगना और हीरा डोम नाटकों के अंशों का पाठ उनके मुँह से सुना पहले, फिर उन नाटकों को देखा भी। सिर्फ नाटकों में नहीं, उनकी कहानियों और उपन्यासों में भी कस्बाई और ग्रामीण जीवन दिप-दिप करता है। एक साइड हीरो की तरह नहीं, प्रशस्त नायकत्व की तरह हुंकार भरता हुआ, वृहतर साहित्यिक परिदृश्य में अपनी ज़बरदस्त उपस्थिति दर्ज करता हुआ। बहुत पहले रामचन्द्र सिंह ने दैनिक आज में एक टिप्पणी की थी जिसकी प्रासंगिकता से मैं भी इत्तेफाक़ रखती हूँ — “उषा किरण खान अपनी कहानियों के माध्यम से जनसाधारण अथवा आम लोगों के दुख दर्द का मार्मिक चित्रण करती हैं। आज़ादी के बाद के गाँवों में क्या परिवर्तन हुआ है इसकी झलक इनकी ग्रामीण कथाओं में मिलती है। प्रकृति चित्रण और सौन्दर्य वर्णन इनकी कथाओं में समान रूप से मिलता है।“ इसी आलोक में मैं उनके आगामी जीवन की साहित्यिक यात्रा का अवलोकन करती हूँ और उनके नवीन उपन्यासों को एक गतिशील यात्रा के जरूरी पड़ाव मानती हूँ। 2018 में उनका उपन्यास गयी झूलनी टूट शाया हुआ। उसके ब्लर्ब की यह पंक्तियाँ जैसे उनके जीवन के सत को पाठकों के समक्ष साफ़गोई से रख देती है — “किसी एक व्यक्ति के सुख से न तो खेतों में हरियाली छा जाती है, न उसके दुख के ताप से खेत, नदियां तालाब सूख जाते हैं। जब मन में पीड़ा का आलोड़न हिलोरें लेने लगता है तब भी चेहरे पर मुस्कान रखना पड़ता है, सामने की पौध के लिए।“ यह उसी यात्रा की धमक है जिसकी जिजीविषा सफल लंबी दूरी के बावजूद मद्धिम नहीं पड़ी है और मुझे खूब–खूब प्रेरित करती है।
इसी तरह स्त्रीमन की बातें उनके लेखन में बहुत अदृश्य और चुपचाप होकर अपना वाजिब हक़ रखती हैं। अत्यंत सादे और सीधे सच्चे ढंग से । गयी झूलनी टूट का अंतिम प्रसंग इस संदर्भ में याद आ रहा है — एक आजीवन संघर्षरत स्त्री की कथा का अंत कितना मार्मिक बन पड़ा है — “बढ़िए आखरी नाव जा रही है। बस भी मिल जाएगी।“ मैया को थामे चल जा रहा है छोटकू सिंह। यहाँ का सब कुछ याद आने लगा, नाच भी। कमलमुखी के मन में नाच के गीत की आवृत्ती हो रही थी।
दगा दे गए बालम, गयी झूलनी टूट।
सागरों सोनरवाँ से गयी यारी छूट ।
दगा दे गए बालम, गयी झूलनी टूट।
उनकी कई कहानियाँ विवाह व्यवस्था और स्त्री अस्मिता के व्यापक मायनों पर सवाल उठती हैं और इन्हें वे अपने अनुभव जगत से उपजाती और सींचती हैं। मैंने उन्हें इतने वर्षों के जानने के दौर में कभी किसी के प्रति जजमेंटल होते नहीं देखा। वे फतवे जारी करती नहीं दिखतीं। मुझे याद है जब उन्होंने आयाम संस्था बनाने के बारे में सोचा था, तो मुझसे अनेक चर्चाएं हुई थीं, जिसमें संस्था के उद्देश्य और उसकी प्रासंगिकता पर भी खूब सोचने की प्रक्रिया से भी वे गुज़री थीं। स्त्रियों के लिए, खासतौर से ऐसी स्त्रियों के लिए जो पटना शहर में रहकर साहित्य रचना चाहती हैं, उसकी प्रक्रिया से गुजरना चाहती हैं, उनके लिए एक साझा मंच उपलब्ध करवाना उनकी आंतरिक बुनावट का ही ताना बाना बन उभरा है। लेखन के साथ ऐक्टिविज़म के रेशे गुँथे हुए हैं उनके संसार में। उन्हें चीख-चीख कर दिखलाना नहीं आता उन्हें। शायद कभी आएगा भी नहीं। लेकिन मैंने देखा है उन्हें अनेक स्त्रियों का अवलंब बनते हुए, उन्हें प्रोत्साहित करते हुए उनके रचना संसार को पंख देते हुए। स्त्री अस्मिता को ज़मीनी और प्रासंगिक बनाते हुए।
कम उम्र में शादी और फिर उसके बाद कॉलेज की पढ़ाई के भी अनगिन किस्से हैं उनके पास। पटना में जब पढ़ने आईं तो नए सिरे से जीवन को देखा और जाना। कहतीं हैं — इतिहास पढ़ा और उससे प्रेम हो गया। उनकी अनेक रचनाओं में इतिहास की धमक मिलती है। मुझे उनका हालिया प्रकाशित उपन्यास-–अगन हिंडोला बहुत रोचक और दिल के करीब लगता है। मैंने भी इतिहास की पढ़ाई की है, इसलिए उनसे मन भर बातें कर पाती हूँ — इतिहास पर, इतिहास से जुड़े साहित्य पर। अगन हिंडोला पर भी खूब बातें हुई। वे शेरशाह के किरदार से बहुत प्रभावित रही हैं। वे कहती हैं — खालिस हिन्दुस्तानी बादशाह था वह। दिल्ली के तख्त पर सिर्फ 5 साल काबिज होने वाले सुल्तान ने जितने प्रशासनिक एवं लोक हित के कार्य किये कोई दूसरा सालों साल हुकूमत करके भी नहीं कर सकता। उसकी ज़िंदगी में इश्क हकीकी भी है, इसी वजह से मलिक मोहम्मद जायसी सरीखे कवि से इतना अधिक लगाव भी है उसे।
शेरशाह की ज़िंदगी का कोई हिस्सा अछूता नहीं छूटता है उनसे इस उपन्यास में। आज के किसान की दुर्दशा का प्रतिबिंब हमें शेरशाह के काल में भी दिखला देती हैं वे और हुक्मरान को उसके प्रति कैसा बर्ताव करना चाहिए उसकी मिसाल भी मिल जाती है पाठक को इन पंक्तियों में — “तुमने इस किसान को क्यों मारा ?” कड़ककर पूछा सुल्तान ने।
“माई बाप यह जल्दी से पानी नहीं पिला रहा था।“ सिपाही ने कहा।
“हुज़ूर रहट जब आकर रुकता तभी तो पानी देते।“ किसान ने जवाब दिया।
“सुना तुमने। किसानों के काम में खलल डाला तो अंजाम भुगतने को तैयार रहना। उसकी ओर से मैं माफी माँगता हूँ।“ किसान को कहा सुल्तान ने। यह संवेदनशीलता लेखक की आंतरिक न्याय की पुकार को भी प्रतिबिंबित करती है, इसीलिए इतनी अपनी और सघन लगती है।
जायसी और पद्मावत के रचने के रोचक किस्सों से भरा उपन्यास भी है यह। खूब पसंद किया गया है। दो ही तो बरस हुए है इसको आए हुए। इसको सेलीब्रेट करने का समय है अब। लेकिन दुर्योगवश पिछले डेढ़ बरसों से हम कोरोना महामारी के चंगुल में बुरी तरह फंसे हुए और निराशा में डूबे हुए हैं। ऐसे में जब सबकी रचनात्मकता का सोता लगभग सूख सा रहा है — तब ये स्नेहिल रचनाकार फिर अपने चाहने वालों को चौंका देती हैं।
मुझे हाल ही में पटना जाने पर अपनी नई किताब का कवर दिखलाती है।
मैं खुश हो जाती हूँ — ये कितनी ऊर्जा से भर देती हैं अपने मिलने वालों को।
कब पूरा हुआ।
अभी! और अब तो कवर भी तैयार है।
वात वक्षा उनके इसी नए उपन्यास का नाम है जो शीघ्र आने वाला है। स्त्री संघर्ष की कथा उसमें भी है। मुझे कहना होगा तो कहूँगी जीवन जगत की कथा होगी जरूर उसमें भी। एक समग्र भरे-पूरे जीवन की कथा। वे खुद जैसी हैं। एक छायादार, हरदम हरा रहने वाले बरगद की तरह। इस बात का ऐतबार रहता है कि जब भी जाऊँ उनके यहाँ, चाय नाश्ता मिल ही जाएगा। कई कप चाय के साथ गप्पों का सिलसिला भी। कभी बासी नहीं होती उनकी बातें। उनका व्यक्तित्व ही ऐसा है हर वक़्त माँजती रहती हैं अपने आप को। मोबाईल की नई संचार तकनीक को कितनी जल्दी अपना लिया उन्होंने। कितनी शालीनता से सोशल मीडिया हैंडल्स पर अपने विचार रखती हैं वे। लोगों की गाली गुफ्तार के बीच भी सहज और प्यार भरी बनी रहती हैं।
नए लोगों को यह सब सीखने की ज़रूरत है।
मुझे याद है एक बार मैं इंदौर गयी थी किसी कार्यक्रम में। उन दिनों वे भी वहीं थीं। अनुराधा की पोस्टिंग वहीं थी। वे अनुराधा समेत पूरे परिवार को ले मुझे सुनने आईं। अगले दिन सुबह मैं अनुराधा के घर चाय पीने गयी। अनुराधा तो जल्दी से नाश्ता कर ऑफिस चली गयी लेकिन मैं और उषाजी देर तक साहित्य चर्चा करते रहे। उस दिन अनुराधा के बगीचे में मोर नाचते हुए चले आए थे और सुहानी सुबह की अमिट छाप हृदय में रह गयी थी दिलकश अंदाज़ में, जो आज तक ज़िंदा है।
और जब उन्हें पद्मश्री मिला और उस पुरस्कार की खुशी को उनके कुछ चाहने वालों ने दिल्ली में सेलीब्रेट करने का निर्णय लिया तो मैं भी उस आयोजन में शामिल हुई थी। मुझे याद है उस दिन मेज़बान ने अचानक ही मुझे उनके लिए दो शब्द कहने को कह दिया था। वहाँ बहुत नामचीन लोग बैठे थे, सबके बीच औचक धरे जाने पर मैं क्या कहती? दूसरे उपस्थित लोगों की तरह मैं भी तो अभिभूत हो बैठी थी। चंद मिनिट लगे मुझे अपने को व्यवस्थित करने में। आखिर वे मेरी सहेली की माँ भी तो थीं, मैं उन्हें आँटी ही तो कहकर पुकारती हूँ... लेकिन उस वक़्त वे एक पुरस्कृत रचनाकार थीं और बहुत सारे प्रेम के साथ बहुत सारी इज्जत की हकदार भी। मैंने एक रचनाकार की तरह ही उनके सम्मान में दो शब्द कहे। फिर जब भीड़ उनके आस-पास से हट गयी तब मैं उनके पास जाकर बैठ गयी। वे मेरी आँटी हो गईं फिर से। मैं स्नेहाकांक्षी और वे दुलार करने वाली मेरी अभिभावक। वह अद्भुत एहसास था।
अपने शहर से अटूट प्रेम है उनको। कहती हैं — देखो न, सारा जीवन यहीं बीत गया। कहानियाँ भी तो यहीं से आएंगी न? रतनारे नयन पटन देवी के नयन हैं। उनका यह उपन्यास पटना के लिए है। पटना ही इसका हीरो है। वही पटना जिसने मुझे उषाकिरण खान बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है।
नौवीं शतब्दी के कवि राजशेखर ने अपनी पुस्तक काव्य मीमांसा में लिखा है-–
श्रुयते च पाटलीपुत्रे शास्त्रकार परी
अत्रो पवर्ष वर्ष विह पाणिनि पिंगलविह न्याडी :
वरुची –पतंजलि इह परीक्षित :ख्याति मुप जज्ञमु:
जिस तरह इन महानुभावों को पटना ने बनाया। उन्हें ख्याति प्रदान की उसी तरह पटना का आधुनिक इतिहास उषाकिरण खान के बिना पूरा नहीं होगा। ख्याति बड़ी अजीब शै है!
अपनी आगामी पीढ़ियों को राह बताने वाली उनको बेटन थामने वाली उषाकिरण खान पर सिर्फ मैं ही नहीं, जो भी लिख रहा है या लिखेगा वह सोचेगा ज़रूर उनके किस-किस आयाम पर लिखा जाए? इतनी विविध आयामी स्त्री हैं वे। इतना काम किया है उन्होंने।
रही बात मेरी — तो मैं बस बहुत प्यार से याद रखना चाहूँगी उन्हें और उनकी तर्ज़ पर खूब–खूब लिखना चाहूँगी। वे यूँही बनी रहें सदा के लिए!
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स्त्री विमर्श: 'मौसम का दर्द' — कहानी — डॉ. उषाकिरण खान
स्त्री विमर्श
उस रोज़ प्रख्यात हिंदी व मैथिली कथाकार उषाकिरण खान जी साहित्य अकादमी के 'कथासंधि' कार्यक्रम में भाई कुमार अनुपम से बातचीत कर रही थीं। उन्होंने अपनी कहानी 'मौसम का दर्द' पर जो बोला उसे सुनकर लगा कि यह कहानी पढ़नी होगी। बाद में उन्होंने बताया कि यह उनकी चौथी कहानी है।
मैंने कहा,
"सोच रहा हूँ कि आप आज से (जैसा आज बना जा रहा है से) मीलों आगे रही हैं, और हैं ।"
दीदी ने जवाब दिया,
"और हमसे हमारी पूर्व पीढ़ी कम न थी। आज बच्चों को हम दकियानूस लगते हैं।"
मैंने कहा, "इसका जवाब तो मैं 'मौसम का दर्द' पढ़ने के बाद दूँगा।"
अब मैं क्या कहूँ? 'मौसम का दर्द' कहानी उषादीदी से मांग कर, पढ़कर यहाँ आप पाठकों के लिए रख दी है। आप लोग पढ़ें और आप ही जवाब दें! — सं०
उषाकिरण खान — मैथिली कथा — 'नींबू का स्वाद' | #Kahani #Shabdankan
दादी का बागीचा समृद्ध था। केला, पपीता, नींबू और आँवले के पेड़ थे। नींबू खूब फलता। चोरी होने के भय से नींबू काँटों की बाड़ से घिरे थे। भोजन के वक्त जितने पुरुष थे उतना ही फाँक के हिसाब से तोड़कर रसोई में पहुँचाये जाते। दोनों किनारे वाले तीनों पुरुषों को और बीच वाले भाग लड़कों को दिये जाते। शंखद्राव नींबू की सुगंध स्त्रियों के मुँह में पानी लाने को काफी होता। जमीरी नींबू का चटकार पागल बना देता। स्त्रियाँ नींबू चुराने को फेरा लगाती रहतीं....
यह पता चलना कि वह सामाजिक सच, जो हद बुरा हो, और जिसे अब ख़त्म हो गए माना जा रहा हो, आज भी अपनी पूरी विभत्सता लिए बिलबिला रहा है... अगर हम मध्यवर्गियों की आँखों को खोले(?) तो साहित्य अकादमी सम्मानित मैथिल कथाकार आ० उषाकिरण खान की लेखनी का कुछ क़र्ज़ उतरे। न जाने कब से लेखक इस पीड़ा को अपने भीतर छुपाये रहा, और कैसे छुपाये रख सका ऐसी पीड़ा जिसकी कहानी भर पढ़ पाठक ‘अब कहाँ ऐसा होता है ‘ सोच, सच को झुठलाने लगे? मगर यह सच है हज़रात!
मैथिली से हिंदी अनुवाद स्वयं उषाकिरण खान दीदी द्वारा...कहानी पढ़िए!
भरत तिवारी

नींबू का स्वाद
— उषाकिरण खान
मैथिली कथाबिना कोई रचना किये इस धरती से विदा होने वाली स्त्री भी तो होती है। समझदार और मनस्वी लोगों का कहना है कि विधाता पृथ्वी पर प्रत्येक मनुष्य को कुछ न कुछ करने के लिए ही भेजते हैं। लेकिन खुजली वाली दादी को इस धरती पर कौन सा काम सम्पन्न करने भेजा पता नहीं। मेरी समझ से कोई तो नहीं। खुजली वाली दादी ने किसी प्रकार का सृजन न तो किया न वो उसकी माध्यम बनी।
उनका नाम क्या था हमें पता नहीं। होगा जगतारिणी या मन्दाकिनी। चिन्ता या मनतोरी भी हो सकता है। पर हम बच्चे उन्हें खुजली दादी कहा करते। कारण कि वे सदा अपने हाथ पैर देह खुजलाती रहती। वो एक बड़े आंगन की सबसे बड़ी बहू थीं। उनके विशाल आंगन के तीन बड़े—बड़े भाग थे। बीच वाले आंगन में चौका चूल्हा था, चौका की खिड़की मेरे आंगन में खुलती थी। उसी खिड़की से हम उन्हें देखते। दादी सुबह—सुबह सूप डगरा में चावल लेकर चुनतीं फटकतीं। आंगन में सुबह से ही हलचल शुरू हो जाती। स्कूल से लेकर काॅलेज तक पढ़ने जाने वाले लड़के थे उस घर में। बहुत से लोगों का परिवार था उनका। खेत खलिहान से लेकर कोर्ट कचहरी जाने वाला प्राणी भी था घर में। गाँव के नामी गिरामी परिवार की सबसे बड़ी बहू थीं खुजली दादी।
उस नामी गिरामी परिवार की जो अमीर भी था और अति व्यस्त भी उसकी फालतू वस्तु थीं दादी। दादी विधवा थीं, दादी निपुत्तर थीं। उनकी कोई सन्तान नहीं थी। देखने में काली और कुरूप कही जाने योग्य थीं। कौआलोल जैसी नाक और पौआ भर ओठ। नेवले की आंख और दिया जैसा कपाल, यही था जिसे कह कर दादी की सास उन्हें चिढ़ाती रहतीं। पर मजाल था कि कभी दादी ने अपनी सास को कोई जबाव दिया हो, नः; कभी नहीं।
गाँव में अनेकानेक वृद्धा से लेकर युवती विधवायें थीं। उन्हें कोई दुख है यह हमें कहाँ मालूम था? खुजली दादी को अक्सर देखती कि गरम गरम भात, झोलवाली सब्जी और तेल भीजे आम के अॅंचार सबसे पहले लेकर खाने बैठ जातीं। एक मुट्ठी भात बचा रहता तभी मॅंझली देवरानी कहती — “जरा रूकिये बहिनदाई, थोड़ा दही का पानी दूँ।“ इधर—उधर देखकर चुपके से मोटी मलाई वाली दही परोस देतीं पानी के नाम पर। खुजली दादी तृप्त होकर खातीं। जिस दिन छोटी देवरानी की पारी होती उस दिन ऐसा नहीं होता। दादी स्नान कर तुलसी चौरा के पास आकर पैर के नीचे खढ़ दबा, दोनों हाथ सूर्य की ओर उठा ओठ पटपटा कुछ बुदबुदातीं और अपने गोल फूल के चमकते पानी भरे लोटे के साथ आकर बरामदे पर बैठ जातीं। छोटी देवरानी थाली परोसती बुदबुदातीं — “बहे बैल और हकमे कुकुर, जैसे सबसे बड़ी कमउआ ये ही हैं, इन्हें ही पहला ग्रास मिलना चाहिए; हुंह।“ — बोलती जरूर पर थाली में सबकुछ परोसकर देती। भोजनान्त में दही जरूर देतीं। सो, किसी प्रकार का दुःख कहाँ दीखता। गाँव में बोली—ठोली चलता रहता पर जबतक रगड़ा झगड़ा न हो किसी के विषय में अधिक नहीं जान पाते हम बच्चे।
खुजली दादी बच्चों की बेहद प्रिय थीं। क्योंकि उनके पास कथा का सागर था। शाम होते ही दादी को घेर कर बच्चे बैठने लगते। दादी के पास कथारस होता, नायाब प्रस्तुतिकरण से हम मुग्ध रहते। जैसे बरहकेसी रानी की कहानी कहने लगतीं तो कहतीं — “बरहकेसी रानी गोरी चिट्टी थीं बिल्कुल गंगा की माँ सी, उसके केश बेहद लंबे थे, नवादा वाली जैसे।“ — बच्चों को उनका तरीका पसन्द था। वयस्क होने तक मैं भी उनकी चौपाल में बैठती।
धीरे—धीरे मैं उनकी पीड़ा समझने लगी। उन्हीं का नहीं सारे गाँव की स्त्रियों की पीड़ा समझने लगी। वयस्क होने पर ही पता चला सवर्ण बड़े घरों की स्त्रियाँ कूटना पीसना और खाना बनाना मात्र करतीं जबतक पुरूष खेत जाते, कोर्ट कचहरी करते। पति समागम की शारीरिक और आर्थिक विवशता, सन्तानोत्पत्ति की विवशता समझने लगी थी फिर भी खुजली दादी की विवशता का भान नहीं हुआ था।
लोगों से सुना था कि खुजली दादी हरमुराही हैं अर्थात् वंचिता, माता—पिता नहीं थे, भाई बहन नहीं थे विवाहोपरान्त जल्दी ही विधवा भी हो गईं। विधाता के इस विधान में निश्चित रूप से इनका कोई हाथ नहीं था। किसी कारण से खुजली की बीमारी हुई होगी सो ठीक नहीं हुई। कब से यह बीमारी है यह मुझे जरूर याद है। दादी को खाँसी हो गई थी। कहानी नहीं सुना पाती थीं। उनकी कहानी सिर्फ बच्चे ही नहीं सुनते, मकई की डंठल की आग में कटहल के बीज की सब्जी पकाती मॅंझली काकी और फुल्के उतारती छोटकी काकी भी सुनतीं। खाँसती बेहाल होती दादी को देखकर मॅंझली ने कहा था
“बहिनदाई, ये क्या, काढ़ा आज ही औंटती हूँ, देखिये तो क्या हालत बना रखी हैं आपने अपनी?“
“एक मुट्टी धान ले कर परमेसर की दूकान से लौंग खरीद लाइये, भुना और कच्चा लौंग साथ दाँत बीच दबाकर रखने से आराम होगा।“ — छोटी काकी ने अपना ज्ञान दिया।
पिछले बड़े आँगन में पचास—साठ मन धान का ढेर लगा था। खुजली वाली दादी ने लगभग आधा सेर उसमें से उठा लिया था। उसी वक्त छोटे देवर पहुंच गये थे। देवर ने उन्हें लात से मार मार कर लगभग बेहोश कर दिया, भांति—भांति की गालियों से अलग छलनी कर दिया। धान के ढेर के निकट मृतप्राय पड़ी रहीं देर तक। उनके आंगन की किसी स्त्री की औकात नहीं थी कि सामने से जाकर उन्हें होश में ला कर उठा लाये। कोई स्त्री किसी मामले में टिप्पणी दे यह भी संभव नहीं था। शाम ढले जब बच्चे कहानी सुनने आने लगे तब मंझली काकी ने कहा — “आज दादी की तबियत अधिक खराब है, कहानी नहीं सुना सकेंगी, जाओ तुमलोग, ठीक होंगी तब आना।“
चुपचाप दोनों देवरानी उनके पैरों में गरम तेल की मालिश कर देंती। पर उस दिन स्वयं होश आने पर घिसटकर अपने बिस्तरे तक आना पड़ा था। याद है मुझे, हफ्ते भर कथा कहानी बंद रहा, फिर वैसे ही शुरू हो गया। दादी की गोष्ठी के पात्र बदलते रहते। बच्चे थोड़े बड़े होते तो आवासीय विद्यालय में पढ़ने चले जाते। नये बच्चों की जमात जुटती रहती। यह एक कारण था कि लड़कों से अधिक—लड़कियों की संख्या उनकी श्रोताओं में थीं। मैं भी अपनी बड़ी बहन के पास शहर पढ़ने चली गई थी। मेरे बहनोई शहर में नौकरी से लग गये थे, बहन समझदार थीं। उनके मन में स्वयं न पढ़ पाने की कसक थी, तो मुझे ले गईं।
दादी इन दिनों बहुत कमजोर हो गई थीं। दादी अब पहले जैसी मानिनी नहीं रहीं। लौंग इलायची मिश्री खरीदने के लिए धान नहीं चावल ही चढ़ा आतीं दूकान पर। देह में लगाने के लिए नारियल तेल और कपूर की गिट्टी खरीद लातीं। देवर लोगों की डांट फटक और गालियों का तनिक भी बुरा नहीं मानतीं। दूसरे घर के लोग उनकी दुरवस्था पर सहानुभूति दिखाते तो यह कहतीं —
“जाने दो जिसे जो मिलना है प्राप्त होगा ही, जिसे भुगतना है वह भुगतेगा ही।“
दादी इन दिनों कहानी में ही बहुत बातें कह जातीं सो हम समझ रहे थे अब, हो सकता है पहले भी कहती रही हों मैं ही नादान थी। इधर देखती कि गुड़फॅंकनी मौसी और गौरैया की कहानी कहती वे सिर्फ दीवार की ओर ताकती और आत्मालाप सी करतीं — “गुड़फॅंकनी मौसी ने मन ही मन विचार किया कि बूढ़ी हुई अब कितने दिन जीयेगी, क्या इस जाड़े की मुलायम धूप में अपनी केथरी ओढ़ झोपड़ी की ओलती में सोने का आनन्द ले सकेगी? तो क्यों न इस नन्हीं गौरैया को इस चांडाल किसान से मुक्त कराने की चेष्टा करूँ? धर्म भी होगा।“ — मैं समझने लगी थी कि गुड़फॅंकनी के माध्यम से दादी अपनी व्यथा कह रही है; अपना मनोभाव व्यक्त कर रही हैं। गांव घर के लोग स्वयं जो करे, दूसरे की गलतियाँ खूब निकालते हैं। सो वे लोग दादी के देवरों की जमकर शिकायत बतियाते। यह सब उनके परोक्ष में होता। वे लोग तो न सुनते परन्तु हमारे सरीखे बच्चों के मन को क्षुब्ध जरूर करता। ओढ़ना बिछौना नहीं देते, साबुन तेल की उन्हें क्या जरूरत है, ऐसा सोचते। देवर लोग उनकी जरूरतों के विषय में बिल्कुल नहीं सोचते। यदि वे नहीं सोचते तो न सोचे पर उस विशाल सम्पत्ति के चतुर्थांश की मालकिन को यह हक नहीं था कि वे स्वयं खरीदारी कर सकें ? — यह मेरा कैशोर्य मन सोचने लगा था। मैं अपनी दादी, काकी और माँ से जब पूछती तो यह कह कर चुप कर देती — “तुम्हें क्या पड़ी है यह सब सोचने की; उनकी तकदीर ही खराब है।“ — बहुत बाद में मुझे ज्ञान हुआ कि उनका टुअर — बे माँ बाप की होना — उनका विधवा होना और उनका सन्तानहीन होना तकदीर की खराबी ही तो थी। उस गाँव में तथा किसी भी सवर्ण गाँव में विधि की सतायी स्त्रियों के साथ ऐसा ही तो व्यवहार होता। अब मैं कारण समझ सकती हूँ। गाँव की स्त्रियों को उनसे कोई भय नहीं था, पुरुष उनकी ओर देखते ही नहीं थे। देवरानी सब प्रसन्न कि शाम को जब वो लोग लकड़ी के धुंएँमें रसोई में व्यस्त रहतीं तब बच्चों को कहानी में दादी उलझाये रहतीं। एक और बात गौरतलब है कि उस पुरुष प्रधान घर में स्त्रियों का एक अघोषित-सा संगठन था। आपस में खटपट होती पर मामूली। स्त्रियाँ एक दूसरे के लिए एकजुट थीं।
दादी का बागीचा समृद्ध था। केला, पपीता, नींबू और आँवले के पेड़ थे। नींबू खूब फलता। चोरी होने के भय से नींबू काँटों की बाड़ से घिरे थे। भोजन के वक्त जितने पुरुष थे उतना ही फाँक के हिसाब से तोड़कर रसोई में पहुँचाये जाते। दोनों किनारे वाले तीनों पुरुषों को और बीच वाले भाग लड़कों को दिये जाते। शंखद्राव नींबू की सुगंध स्त्रियों के मुँह में पानी लाने को काफी होता। जमीरी नींबू का चटकार पागल बना देता। स्त्रियाँ नींबू चुराने को फेरा लगाती रहतीं। एक दिन मॅंझली ने हाथ में कपड़ा लपेटकर काँटों के बीच नींबू तोड़ने का उपक्रम किया ही था कि एक लाठी कहीं से उड़ता हुआ आया और कलाई चोटिल करता गिर गया। बिना कुछ तोड़े हाथ थामे दूसरे हाथ से गाली देती आंगन लौटीं। उनकी कलाईयों को गरम पानी में सेंकती मालिश करती दादी गाली देतीं — “जवानी नहीं रहेगी सब दिन, कहो तो नींबू इतना अनूप है कि हाथ तोड़ दिया। अब भात का उतना बड़ा हंडा कौन उतारेगा? रहे भूखें।“ — आक्रोश में दादी कह रही थीं, एक तरह से मॅंझली छोटकी को ढाढस दे रही थीं पर वे जानती थीं कि इसी रूप में काम करती रहेंगी ये। छोटकी को आठवाँ महीना लगा था, इनसे रसोई के पाक का काम कभी नहीं होता।
दादी के अनुशासनप्रिय एकबग्गे घर का भी बँटवारा हुआ। परन्तु उससे दादी को कोई नफा नुकसान नहीं हुआ। पहले की तरह वो शाम ढलते ही बरामदे की बड़ी सी चौकी पर बैठ जातीं और नये बढ़ते बच्चों को कहानी सुनातीं। उसी प्रकार एक माह मझली और एक माह छोटकी के बरामदे पर गोल पेंदी वाला फूल का लोटा लेकर बैठ जातीं और गरम गरम दाल भात तरकारी, एक छौ दही खाती। उनके व्यवहार में कोई परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता। गाँव में जैसे कोसी कमला बलान की बाढ़ हर साल आने का रूटीन था वैसे ही नयी नयी खेप कथा रसिक बालकों के हुजूम का भी सिलसिला था। अभी भी गाँव में कोई स्कूल नहीं दिखता, एक अदृश्य स्कूल जरूर था। किन्हीं का दालान स्कूल नाम से अमिहित था और एक सज्जन मास्साब नाम से पुकारे भी जाते थे। बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था नहीं थी। इसमें गाँव में पूरा समाजवाद था माने सामाजिक न्याय। ब्राह्मण से लेकर मल्लाह तक, कलवार से लेकर मुसहर तक सभी निरक्षर। जिनके सम्बंधी गाँव से बाहर नौकरी पा गये थे वे पढ़ते जिनके पास मास्टर दालान पर रखकर पढ़ाने की औकात थी वे खानगी—पढ़ाई करते। यह 1990 तक का अपना अनुभव साझा कर रही हूँ। सालों पहले खुजली वाली दादी अपने जीवन का छिहत्तर शरद देख पूस माह में मर गईं। गाँव की स्त्रियों ने सरके आँचल को दाँत ओठ तक खींच दबी जुबान से कहा — “कितनी खोटी तकदीर थी, मरीं भी तो पूस माह में सुगति भी नहीं होगी, आत्मा भटकती रहेगी।“
गति यदि सर्वाई श्राद्ध होने से होता हो, गति यदि साँढ़ दागकर छोड़ने से होता है तो अवश्य हुआ होगा क्योंकि उनका श्राद्ध दोनों देवरों ने अलग—अलग तामझाम के साथ किया। जिन्हें लौंग के नाम पर लात लगता था उनके नाम का भोज खा तृप्त होते ब्राह्मणगण लौंग खोंसा हुआ बंगाली बीड़ा पान गाल के नीचे दबाते प्रस्थान कर रहे थे। सब कुछ बेमिसाल। मैं खुजली दादी की कथा कहने को क्यों व्याकुल थी सो तो भूली जा रही थी। श्राद्ध में महापात्र सपत्नीक घर बनाकर रखे गये थे। जाते समय टायर गाड़ी पर सारा असबान लादा गया था, घर का छप्पर खंभा वहीं किसी को कीमत वसूल कर दे गये।
“पंडितगण, आप संतुष्ट होकर जा रहे हैं न? “ — छोटे देवर ने हाथ जोड़कर विनम्र भाव से पूछा। — मूड़ डोला।
“पंडिताइन प्रसन्न हैं न?“ — पुनः पूछा छोटे देवर ने
“पंडिताइन को एक वस्तु की लालसा है ...।“ — महापात्र ने कहा
“किस वस्तु का कृपया कहा जाये ..............।“
“आपके बगान के शंखद्राव नींबू की मैं अक्सर इनके पास प्रशंसा किया करता था, इस समारोह के हलचल में ये चख न सकीं, यही लालसा है, यदि गाछ में हो तो एकाध देते।“
छोटे देवर खुलकर हॅंसे — पर नींबू तोड़कर उन्हें दिया और पुनः पूछा
“प्रस्थान से पहले कहें प्रसन्न हुए? हमारी माता समान भौजी की आत्मा संतुष्ट हुई न?“
“अहा हा, उसमें क्या कोई सन्देह बाकी है? आपने जयजय कर दिया” — आभार से दुहरा होता महापात्र दाँत निपोर कर बोला। अपना पात्र दुपट्टा संभालता टैरगाड़ी पर चढ़कर चला गया।
एक दिन की बात मुझे याद है। दोनों भाईयों की जूठी थाली उठाकर मॅंझली धोने जा रही थीं कि दादी ने नींबू का छिल्का उठा लिया। अपनी फूलवाली गोलपेंदे का लोटा से पानी लेकर छिलकों को धोकर हाथ में दबाया। छोटकी ने भात परोसकर थाली सामने रखी — दादी ने नींबू छिलके का एक टुकड़ा गरम भात में दबा दिया और दूसरा गरम दाल में हेला दिया। थोड़ी देर बैठी रहीं; मैं अचम्भित हो खिड़की से सबकुछ देखती रही। छोटकी पंखा लेकर पास बैठीं। उन्हें और स्वयं को झलने लगीं।
“सीताराम सीताराम बहिनदाई, यह आपने अच्छा नहीं किया। कहाँ से नींबू तोड़ लाई? हाथी जैसा मतवाला आपका देवर देख लेगा तो पिट जायेंगी। जीभ के कारण हाड़ टूटेगी।“— छोटी ने नींबू के छिल्कों को देखकर कहा। तब तक मॅंझली थाली धो मांज कर आ चुकी थीं। उन्होंने कहा —
“कहाँ हो तुम ? दोनों भाईयों की जूठी थाली से बहिन दाई ने नींबू का छिल्का उठा लिया था, उसी को धोकर सॅंजोये थीं। पता नहीं कैसे इनका मन मानता है।“
“सीताराम सीताराम, हे भगवान!“ — भावुक छोटकी की आँखे भर आईं। दादी के लिए मानो कुछ हुआ ही नहीं।
“ऐजी, आपलोग कुछ न बोलें; मेरे देवर लोग मेरे बच्चे हैं। उनका जूठा खा ही लिया तो क्या हुआ ? हाथ तो उनलोगों का बचपन से ही छूटा हुआ है। जाने दीजिऐ। आंह—आह करके मेरे मुंह का स्वाद न बिगाड़िये।“— दादी सचमुच परितृप्त भाव से भात दाल खा रही थीं। उनके श्राद्ध में नींबू का दान कर छोटे देवर ने महादान कर दिया। पूस माह में जीर्णशीर्ण सुजनी के नीचे देह नोंचती नोचती चली गई दादी। उनके नाम पर मंझले देवर ने रेशमी रजाई, लाल इमली का कम्बल दान दे इलाके में नाम कमाया। विधवा निपुत्र भौजाई के लिए कौन करता है इतना, पूरा इलाका गुण गा रहा है।
गाँव अब भी वैसा ही है। गाँव है, गाँव में हैं तकदीर की मारी स्त्रियाँ। ये न समझें कि गाँव गाँव रेडियो ट्रांजिस्टर और बैटरी वाला टेलीविजन चला गया है तो दादी का अस्तित्व समाप्त हो गया है। नः सो नहीं हुआ है।
उषाकिरण खान की कहानी 'गाँव को गाँव ही रहने दो'
Gaanv Ko Gaanv Hi Rahne Do
Usha Kiran Khan Ki Kahani
राजेन्द्र बाबू के पास खड़े होते ही नीरो देवी ने धरती पर तीन बार माथा टेका, धीमें स्वर में कहा — ‘‘गोर लागऽतानी भइया’’
वरिष्ठ कथाकार उषाकिरण खान कहानी 'गाँव को गाँव ही रहने दो'

गाँव को गाँव ही रहने दो: एक अतीन्द्रिय कहानी
— उषाकिरण खान
चाँदनी छिटकी है चहुँ ओर दो दिनों से मेघ उमड़—घुमड़ रहा है पर जेठ की पूनो तिमिर का सीना चाक कर अपनी उपस्थिति दर्ज कर रही थी। उमा बहू लाठी टेकती तालाब के मुहाने पर पहुँच गई थी। नीरो देवी एक अपेक्षाकृत जवान स्त्री के कंधों पर हाथ रखे चली आ रही थी। उमा बहू ने स्मित हास्य से उन्हें देखा। चाँदनी इतनी शफ्फाक है कि उनकी सफेद झुर्रियों की एक एक रेखा साफ दीख रही है। मुस्कुराहट से खिले ओठ और पोपले मुख के भीतर छटपटाती जीभ तक साफ दीखती। तालाब की पक्की सीढ़ी तक पहुँच कर लाठी हौले से रखा और साड़ी समेट कर बैठ गई। घूंघट पहले ही सरका लिया था अब पूरा कपाल अनावृत्त था। नीरो देवी और रीता भी पास आकर बैठ गई थी। दोनों वृद्धाओं की हॅंफनी कम हुई।
‘‘आज नहीं लगता था कि हम मिल पायेंगे।’’ — नीरो देवी ने कहा।
‘‘मेघ तो आकाश को घुड़दौड़ का मैदान बनाकर अभी भी दौड़ रहे हैं।
देखो। ‘‘—उमा बहू ने कहा।
‘‘हाँ ठकुराइन, कब बरस पड़े कौन जाने। अगली पूनो को मिल न पायें रास्ते सारे डूबे जायेंगे। तो लीजिये, हम अपना शौक पूरा करें।’’ — नीरो देवी ने कुरती की जेब से माचिस और ढोलक छाप बीड़ी का बन्डल निकाला। काले छींट की कुरती और सफेद छींटदार साड़ी पहन रखी थी नीरो देवी ने। रीता ने सलवार समीज पहना था। वह भी काले छींट का था। नीरो जीरादेई की बेटी है। चौदह बरस की बाली उमर में उसकी शादी हुई थी। दूल्हा सत्रह साल का था। छपरा हाई स्कूल में पढ़ता था। बाइसी रोग में चल बसा। एक बार ससुराल गई थी नीरो। अभी दोड़ा नहीं हुआ था। बाल विधवा हो गई। गरीब कायस्थ की बेटी थी पिता राजेन्द्र बाबू के घर में एक प्रकार से मुंशी थे। हिसाब किताब रखते थे। नीरो भी उनके ही घर में रहती थी। उन दिनों अधिकतर स्त्रियाँ गांव में थीं, नीरो उन्हीं के घर में लिपटी रहती। सिलाई कढ़ाई और अन्य घरेलू कार्यो में मदद देती। उमाकान्त सिंह के शहीद होने के बाद जो जनसमुह नरेन्द्रपुर में उमड़ा था उसके साथ नीरो भी थी। अपनी पीड़ा से दुःखी नीरो उमा बहू के पास चली आई। वे बार-बार बेहोश हो जा रही थी, एक तो पन्द्रह साल की छोटी उम्र में माँ बनना दूसरे यह वज्राघात। उन्हें अपने पति के जाने को उत्सव समझ में नहीं आ रहा था — ‘‘जब तक सूरज चाँद रहेगा, उमाकान्त तेरा नाम रहेगा।’’
वे एक सामान्य विधवा नहीं थीं जिसकी चूड़ियाँ, तोड़ी जा रही थी, सिन्दूर मिटाये जा रहे थे। यह तो होता ही था, नीरो सब की गवाह थी, वह इस प्रक्रिया से गुजर चुकी थी। लेकिन जीरादेई की होने के नाते उसे पता था कि उसके पति की मृत्यु और शहीद हो जाने में बड़ा फर्क है। उमा बहू के प्रति आकर्षण था जो प्रतिदिन नीरो भागी-भागी आ जाती। धीरे-धीरे सहेलियापा बढ़ गया। वही सहेलियापा बरकरार है आजतक।
‘‘लाओ, सुलगाओ, महीने में एक दिन हम शौक पूरा करती हैं। घर में तो हुक्का चलता है।’’ — उमा बहू ने कहा।
‘‘हुक्का ? अभी भी चलता है ?’’ — यह रीता थी जो पहली बार कुहुकी। रीता नीरो के भाई की बेटी है। नीरो के छोटे भाई बब्बन की छः बेटियों में सबसे छोटी। पांच बहनों की जैसे तैसे शादी कर दी थी बब्बन ने, रीता की न कर सके। रीता ने बी.ए. तक पढ़ लिया था, गांव के सरकारी स्कूल में शिक्षिका हो गई थी। एक दुर्घटना में बब्बन और उसकी पत्नी गुजर गये। तब से नीरो और रीता एक दूसरे के सहारे है।
‘‘अरे नहीं रे, चलता था, हम छुपा के बीड़ी मंगाते और पीते। एक बार सासु मां ने देख लिया तब पूरा बन्द। छौ-महीने तक पेट फूल जाता फिर धीरे-धीरे सब ठीक हो गया। रीता ने माचिस जलाकर दो बीड़ियाँ सुलगाकर दोनों वृद्धाओं को थमा दिया।
‘‘सिगरेट का जमाना है चाची, ई बीड़ी काहे पीती हो ?’’
‘‘तुम तो दोनों में से कुछ नहीं पीती हो, तुम्हें क्या पता कि किसका स्वाद कैसा होता है, बीड़ी में सोंधी सुगंध होती है।’’ — नीरो देवी ने कहा। रीता हॅंस पड़ी।
‘‘ऐ छोकरी, ठहाके न लगा गांव के लोग सुनेंगे तो ? रात निसबद्द है दूर तक आवाज जायेगी। चुप बैठ।’’
‘‘क्या होगा, समझेंगे कोई चुड़ैल है।’’ — दोनों वृद्धा में इतमीनान से बीड़ी के कश लेकर धुँआ उड़ाने लगी। रीता चाँदनी में बौराई सी इधर-उधर फिरने लगी। एक छोटे से ढेले को उठाकर पानी में फेंका ‘छपाक’ — बॅूंदे उछली रूपहली होती हुई, पुनः समतल में विलीन हो गई, लहरें उठीं, जुम्बिश खाकर सतर हो गई। दोनों बूढ़ी रीता को कभी तालाब को देखती बीड़ी का आखिरी कश लेने लगीं।
‘‘ठकुराइन, अन्दर से सब कुछ खोखला सा लगता है, हौलाफ कब टपक जाउॅं नहीं पता। इस रिरिया का का होगा ? सोचती हूँ।’’
‘‘अपनी उमिर वैसी ही है मुंशियाइन, का करें।’’
‘‘मेरी छोड़ो दादी, अब जरा बैठो संभल के पश्चिम कोने से बाबूजी और नटवर काका चले आ रहे हैं।’’ — रीता ने धीमें से कहा। दोनों वृद्धायें संभलकर बैठ गई। मुंशियाइन ने आँचल कपाल तक खींच लिया, उमा ठाकुराइन ने लगभग घूंघट ही निकाल लिया। सामने पश्चिम कोने से सफेद बुर्राक धोती गोलगंजी में बाबूजी और सफेद पैन्ट शर्ट में नटवरलाल चले आ रहे हैं। रीता के शरीर में सिहरन व्याप गई, रोम रोम कंटकित हो उठा।
‘‘रीता, तुम्हारे बाबा नहीं आये इनके साथ।’’ उमा ठकुराइन का उदास स्वर सुनाई दिया।
‘‘मैं यहाँ आपसे पहले से आकर बैठा हूँ दुल्हिन।’’ — ठाकुर साहब की धीमी गंभीर आवाज सुन तीनों जनी इधर उधर देखने लगीं। ठाकुर साहब हौले से हॅंस पड़े। हॅंसी की आवाज का अनुसरण करने पर देखा कि इनसे थोड़ी दूर पर ठाकुर उमाकान्त सिंह आलती पालती मार कर बैठे हैं। उन्होंने सफेद कमीज और पाजामा पहन रखा था। उनके सर पर पगड़ी थी और गले में पड़ी शिवगेंदा की ताजा माला। वही माला जिसे आज ही डॉ. राजेन्द्र प्रसाद माध्यमिक विद्यालय के बच्चों ने पहनाया था। प्रत्येक ग्यारह अगस्त को स्कूली बच्चे तथा शिक्षक आते, कुछ भाषण इत्यादि होते और मालायें पहनाकर मानों शहीदों को याद करने की ड्यूटी पूरी करते। कुछ मालायें मनबढ़ू बच्चे उतारकर पहन लेते, एक जरूर छोड़ देते। वही माला सूखकर झरने तक इनके गले की शोभा बढ़ाती। ग्यारह अगस्त के बाद पन्द्रह अगस्त को भी भूले बिसरे नागरिक चले आते हैं। मुखिया सरपंच या ब्लॉक के अधिकारी माला पहनाने का अपना कर्तव्य पूरा कर जाते हैं। तब संगमर्मर की उनकी मूर्ति धो धाकर साफ शफ्फाक कर ली जाती है। घेरे में लगी फूलों की क्यारियाँ साफ कर दी जाती। क्यारियों में सदाबहार शिवगेंदा और तिउड़ा फूल लगा होता है जिसे हर साल लगाने की जरूरत भी नहीं होती। स्वयं उसके बीज झड़कर पुनर्जीवन प्राप्त कर लेते। घेरे में लगे अमलतास को गाय भैंस बाहर से चरने की कोशिश करता पर वह बढ़ता और फैलता ही रहा। अमल्तास की उपस्थिति जोरदार है। जब वह फूलता है तब मुर्तिवत् उमाकान्त सिंह को लगता है वे ही दूल्हा बन बैठे हैं। फूल की पीली लड़ियाँ बेहद कोमल सेहरा है जिसके स्पर्श को वे तरसते होते हैं। पत्थर की मूरत न हिल पाते न डोल।
राजेन्द्र बाबू के पास खड़े होते ही नीरो देवी ने धरती पर तीन बार माथा टेका, धीमें स्वर में कहा — ‘‘गोर लागऽतानी भइया’’
’’सभे ठीक बा नू?’’ — भइया ने आशीष दिया।
‘‘अपने के असीस बनल रहे, का कहें सब समझते ही हैं।’’ — नीरो देवी ने कहा। आजकल जीरादेई के घर की देखभाल सरकार कर रही है। सरकार में बहुतै महकमा है तो बिल्डिंग बचाने वाली महकमा ही देखभाल कर रही है। एक महकमा फूलपत्ती भी देखता है। कुल ठीके बा। नीरो सोचती है, बाबू भैया समझ जाते हैं।
‘‘तुम क्या चाहती हो नीरो, हम सब देख समझ रहे हैं, तुम लोगों की उदासी, तुम्हारी विपदा पर कुछ कर नहीं सकते हैं। जब किसी के मन को नहीं बदल सकते तो तन की कौन कहे।’’
‘‘बाबूजी आप चाहे तो जरूर बदल सकता है।’’ — नटवर लाल ने कहा
‘‘कैसे?’’ — बाबू जी थे।
‘‘हृदय में बसकर।’’
‘‘रहने दो नटवर, मेरे रहते तुमने स्थान को कलंकित किया, मैंने क्या कर लिया क्या तुम्हारे हृदय में थोड़ी देर के लिए भी मेरा ख्याल आया अब क्या कहते हो?’’ — बाबूजी ने गहरी, साँस ली।
‘‘बाबूजी, यह हमारा दुर्भाग्य कि बदल न सके या कि अपनी अक्ल का दुरूपयोग करते रहे।’’ — नटवर का स्वर डूब गया।
‘‘आपलोगों की बातें सुन मैं बुत एक बारगी घायल हो जाता हूँ। ऐसा क्या था कि बाबूजी के आह्वान पर हम शहीद हो गये आप कुचाल न छोड़ सके।’’ — उमाकान्त सिंह ने कहा
‘‘फितरत उमा, फितरत! नहीं बदलती। नटवर कहते हैं कि वे बड़े भावुक हैं। किसी की बेटी की शादी अटक रही हो, किसी का जनाजा उठ रहा हो इनसे देखा न जा रहा था क्या करते बैंक लूट लाते। तुम से कहा जाता तो तुम अपनी जमीन या दुलहिन का गहना रेहन रख देते, मैं अपनी कमाई दे देता या बेटी की ससुराल को समझा आता यह नहीं कर पाये। भावुक हैं।’’
‘‘तभी तो आपके साथ याद किये जाते हैं।’’ — नटवरलाल ने कहा।
‘‘आपने देखा है आपका घर मिट्टी में मिल गया है, बिल्ली भी वहाँ रोने नहीं जाती। कोई आपका नाम भी नहीं लेता। शुक्र है कि आपकी बेटी लौट कर नहीं आई वरना आपका गुस्सा उसपर उतारते लोग। बात करते हैं। अरे परलोक गये अब तो सुधरिये। यहाँ आपसे मिलने नहीं आते हैं लोग, काहे बाबूजी से लटक के चले आते हैं ?’’ — रीता ने आक्रोश में भरकर कहा। तीनों चौंक गये। एक दिन अचानक चाँदनी रात को बाबूजी की आत्मा गाँव सिमान भ्रमण करने आई। साथ में न जाने क्यों नटवरलाल लग गये। भोले भाले सीधे सज्जन बाबूजी कुछ न बोले। मुर्ति से गुजरकर आ रहे थे सो उमाकान्त सिंह भी साथ हो लिये। बाबूजी की आत्मा गांव में ही रहती थी। उमाकान्त सिंह की तो नॉल ही गड़ी थी और नटरवरलाल पिछलगू हो अपना पाप धो रहा था। तीनों के सपने आने शुरू हो गये उमा बहू और नीरो को फिर तो सभी पूनों को मिलने का वादा सा हो गया।
‘‘दरअसल हम भूल गये कि किससे मिलने आये थे? बताओ बेटा रीता तुम जिस स्कूल में पढ़ाती हो वह ठीक चलता तो है?’’ — स्निग्ध स्वर में पूछा बाबूजी ने।
’’स्कूल की कक्षाओं में नियमानुसार, सिलेबस अनुसार पढ़ाई होती है। मुझसे पूछ रहे हैं तो मैं कहूँगी कि इस गांव को इस स्कूल को मॉडल बनाना चाहिए, आखिर भारतरत्न का गांव है।’’
‘‘भारतरत्न के गांव के खेतों में सरसों फूल रही है, आम के पेड़ मंजरों से भरे हैं, कोयल कूक रही है, चहुँओर हरियाली है मेरा मन राष्ट्रपति भवन की चारदीवारी में बेचैन था, बिहार विद्यापीठ में सुकून था अब गांव में विश्रान्ति है।’’ — बाबूजी ने कहा।
‘‘हमारे यहाँ जड़कन टूट रही है, परिवर्तन तो है। दुलहिन, आपने लम्बा जीवन जीया मेरे बगैर, सच बताइयेगा कैसा है इन दिनों ? क्या मेरी शहादत व्यर्थ गई ?’’ — उमाकान्त बाबू ने पूछा।
उमा बहू ने पहलू बदला, घूंघट को थोड़ा और नीचे सरकाया और सॅंभल कर बोलने लगी।
‘‘मालिक, मुझे तो किसी ने बुक्का फाड़कर रोने भी न दिया। गरभ से जो थी। बबुआ घुटरून चलने लगे तभी से फूलमाला, शंख टीका लगाने, झंडा फहराने लगे आजाद जो हो गये थे। इत्ता बड़ा शामिल घर था कि कहाँ फुरसत थी ? ऊब जी अब गया है, ले चलिये।’’ — वे द्रवित हो चलीं।
‘‘सबका समय आता है दुलहिन। इस त्रिकोण को रीता बेटी ही मॉडल बनायेगी, परिवर्तन का माद्दा है। गांव को गांव रहने देना इसे नगर न बनाना वरना यह खो जायेगा तो ढूँढें न मिलेगा।’’ — बाबूजी ने समझाया।
‘‘क्या अब हमें लौटना चाहिए?’’ — उमाकान्त सिंह ने कहा। सब कहीं अनायास लुप्त हो गये। रीता ने ठकुराइन को सहारा दिया, नीरो देवी को लाठी पकड़ाई और तालाब की सीढ़ियाँ उतरने लगीं हौले हौले। स्थिर जल में अपना चेहरा उन्हें साफ नजर आता फिर हौले से चुल्लू भरकर पानी चेहरे पर मारतीं तरो ताजा हो उठतीं। अपने अपने ठिकाने पर लौटतीं सबों के दिलो—दिमाग में एक ही आवाज गूँजती रही —
‘‘परिवर्तन हो पर गांव को गांव ही रहने देना।’’
▲▲लाइक कीजिये अपडेट रहिये
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