शोक -स्मृति: उषा किरण खान - रास्ता गुम गया अम्मा! ~ अणु शक्ति सिंह | Anu Shakti Singh on UshaKiran Khan

उषाकिरण खान का जाना हिन्दी जगत को स्तब्ध कर गया है। हिन्दी वाला चाहे जहां का भी हो उनसे प्यार पाता था। ऐसे ही प्यार को युवा लेखिका अणु शक्ति सिंह साझा कर रही हैं अपनी 'शोक -स्मृति' में! ~ सं० 

Anu Shakti Singh on UshaKiran Khan ( Photo: Geetashree)


शोक -स्मृति


अम्मा उर्फ उषाकिरण खान उर्फ मैथिली-हिन्दी की जगमगाती पहचान उर्फ धवल दंत पंक्ति पर लहकती चौड़ी मुस्कुराहट

~ अणु शक्ति सिंह



उन्हें गये हुए एक दिन से अधिक हो गया है। पुस्तकों के मेले में रेले थे। लोगों की भीड़ थी। हँसी-मज़ाक था। बहुत सारी जानकारियाँ थीं। कई सूचनाएं भी। उसी दौरान फोन के निस्संग कोने में एक तस्वीर चमकी। उस ओर अपार दु:ख था। उषा किरण खान नहीं रहीं, यह सूचना बस सूचना नहीं थी। एक पूरे संसार के गुम हो जाने की ख़बर थी।
 
मन बोझिल हुआ। खोने के दर्द से आकुल घर लौटा। एक खट्टे-मीठे रिश्ते को फिर-फिर जीने की कोशिश की गई। हम शब्दों के दौर में जी रहे हैं। लिखित शब्दों के... मेरे और उनके दरमियान बहुत सारे लिखे हुए शब्द थे।
 
कुछ साल पहले उनसे पहचान हुई थी। शब्दों के मार्फत ही। गीताश्री ने उनसे वाबस्ता करवाया था। इसी उहा-पोह में कि उन्हें किस नाम से पुकारूँ, एक साथी कवि से उनकी ख़ातिर उसका सम्बोधन उधार ले लिया था। वह उन्हें अम्मा बुलाती थी। मैंने भी उन्हें अम्मा बुलाना शुरु किया।
 
अम्मा उर्फ उषा किरण खान उर्फ मैथिली-हिन्दी की जगमगाती पहचान उर्फ धवल दंत पंक्ति पर लहकती चौड़ी मुस्कुराहट। उस मुस्कुराहट जितना ही मीठा एक रिश्ता।
 
मैं उनकी ही ज़ुबान की एक बिगड़ी हुई लड़की जिसे छेड़ना उन्हें खूब पसंद था। मेरी अजीबो-गरीब तस्वीर पर उनकी लाजवाब कर देने वाली टिप्पणियाँ।
 
भाषा की उस मलिका ने नेह का सरापा पहन रखा था। मुझे याद है उनसे हुई पहली मुलाक़ात... वह भी किसी और साल में किताबों का ही मेला था। वे व्हील चेयर पर थीं। शायद बहुत चलते हुए थक गई थीं। मैं उनके पाँव के पास बैठी। उन्हें किसी ने बताया था कि मैं जगह और भाषा की वही थाती लेकर इस दुनिया में चली आई हूँ, जो उनकी ज़मीन रही है। उन्होंने बड़े स्नेह से सिर पर हाथ फेरा था। वही हाथ जो कल अचानक सिर से उठ गया।
 
यादों के सिरे एक बार खुलते हैं तो कुछ रुकता है क्या? अपनी ही ज़ुबान से झिझकती रहने वाली मैं, पहली बार मैथिली में संवाद का एक मौक़ा मिला था। अपने आप को संक्रमण काल की पीढ़ी कहती हूँ मैं। वह पीढ़ी जिसे मैथिली सही-सही नहीं आती। ऑनलाइन चल रहे उस कार्यक्रम में उस ओर वे थीं। मिलते ही उन्होंने कहा, बोलो जैसे बोल रही हो, खूब हो।
 
कोई बड़ा हो हाथ पकड़ने को, बच्चे चलना खुद सीख जाते हैं। वे मेरी बुज़ुर्ग थीं, अपनी बुज़ुर्ग। मेरे शराब के साथ अपनी कोल्ड ड्रिंक का ग्लास खनकाने वाली। जन्मदिन के मौके पर मुझे अपनी वैचारिकी की मौलिकता को संभाल कर रखने की सलाह देने वाली, बाज़ दफा मैथिली में न लिखने की वजह से मुझे झिड़कने वाली भी। उनका अक्सर यह कहना कि अपनी ज़मीन लिखो, अपना गाँव लिखो। राजधानी की रंगीनियों में गुम मैं हर बार भूल जाती।
 
हर बार वे पूछतीं और मैं कहती, अगली बार पक्का... अब यह लिखते हुए सोच रही हूँ, कौन पूछेगा ‘कब लिखोगी?’
किस्से कहूँगी मैं, अगली बार पक्का!
 
यह ठीक नहीं हुआ अम्मा... आपकी इस बलुआ प्रस्तर खंड अभी अपनी ज़मीन ही तो तलाश रही थी। कैसे मुमकिन हो पाएगा आपके बिना?

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