नंद चतुर्वेदी: एक समय सचेत कवि ~ प्रो. मलय पानेरी | Nand Chaturvedi: A time-conscious poet

पराजय कब नहीं थी
कब नहीं थे झूठ के वाहवाह करने वाले
लेकिन तभी दल-दल से
निकल आया था समय
करिश्में और भाग्य से नहीं
मनुष्य के उत्साह और संसर्ग से। 
   ~ नंद चतुर्वेदी

नंदबाबू पराधीन भारत के युवा कवि थे। उन्होंने आजादी से पहले के परिवेश में जीवन-मूल्यों के महत्व को समझा था, किंतु आजादी मिलने के बाद इनका महत्व कम होने लगा, इनकी ग्लानि कवि को हमेशा रही ; लेकिन अपनी रचनाओं में वे हमेशा मूल्यों और संस्कारों की अपेक्षित गरिमा को बनाये रखते थे। स्वाधीनता प्राप्ति के लगभग ढाई साल बाद नया संविधान हमारे यहाँ अस्तित्व में आया फिर भी लोकतंत्र की दृष्टि से हम अपूर्ण ही रहे, जिसे कवि ने गैर मामूली समय के तौर पर देखा था।

शायद हिन्दी से जुड़े एक वर्ग को कवि नंद चतुर्वेदी के बारे में अधिक जानकारी न हो, उनके लिए और जो नंदबाबू को जानते हों उनके लिए, हमसब के लिए प्रो. मलय पानेरी का यह आलेख पढ़ना आवश्यक है जिसमें उनके काव्य के महत्त्व का उल्लेख है और कुछ संस्मरण भी।  ~ सं० 

 
Nand Chaturvedi: a time-conscious poet

नंद चतुर्वेदी: एक समय सचेत कवि

प्रो. मलय पानेरी

आचार्य एवं विभागाध्यक्ष, जनार्दन राय नागर राज. विद्यापीठ , (डीम्ड टू बी विश्वविद्यालय), उदयपुर (राज.), मो.नं. 9413263428 


उदयपुर में साहित्य-जगत की रौनक माने जाने वाले प्रो. नंद चतुर्वेदी का जन्म राजस्थान की तत्कालीन मेवाड़ रियासत के गाँव रावजी पिपल्या में सन् 1923 में हुआ था। उसी गाँव में उनके बचपन का कुछ हिस्सा गुजरा था, उनका मकान भी वहाँ था। वहाँ की हालात-परिस्थितियों में जैसा जीवन मिलना संभव रहा होगा, वैसा ही उन्हें स्वीकारना पड़ा था। गाँव का जीवन कभी सुविधाओं वाला नहीं रहा है और फिर उस समय के घनघोर अभावों से सामना करते हुए जीना केवल बाध्यता की श्रेणी में आता है। सो नंदबाबू का जीवन शायद इन्हीं परिस्थितियों से आरंभ हुआ था। मेरे लिए यह संयोग ही माना जाना चाहिए कि मुझ से पहले की चार पीढ़ी के पारिवारिक पुरखे का गाँव भी यही रावजी पिपल्या रहा था, उसी वजह से मेरा आना-जाना भी यहाँ रहा, लेकिन तब यह नहीं पता था कि यह उन्हीं नंदबाबू का पुश्तैनी गाँव है, जो अब उदयपुर में 30, अहिंसापुरी, फतहपुरा का सुगंधी वृक्ष बन चुके हैं। अभी कुछ समय पहले पुनः रावजी पिपल्या जाना हुआ, तब स्थानीय रिश्तेदारों से उस मकान का पता पूछते-पूछते अन्ततः नंदबाबू के तत्कालीन आवास के सामने जा खड़ा हुआ। हल्के पीले रंग में पुता हुआ मकान और उसके पास ही सटा हुआ एक रामद्वारा भी है। गाँव की पुरानी बसावट और तंग गलियाँ, जीवन यापन मुख्य रूप से काश्तकारी पर आधारित, खेतों से थककर लौटते काश्तकारों को थोड़ा सुकून मिल सके इसके लिए कहीं-कहीं छोटे मंदिर, कबूतरों को दाना डालने का निश्चित स्थान, जो आसपास के लोगों के लिए सरकारी सेवा से आती डाक का स्थायी पता देता हुआ, गाँव की संरचना में सामन्ती आवास (रावला) गाँव के पास की छोटी पहाड़ी पर, जो सामान्य गाँव-वासियों से थोड़ा अलग परकोटे के अंदर है। इन सबके बीच में (स्थित कहना ठीक नहीं होगा) फंसा हुआ है नंदबाबू का मकान जिसके किवाड़ों के ऊपर बचे स्थान पर आज भी चौबे परिवार की एक इबारत लिखी हुई है, जिसमें कुछ ऐसा (पूज्य पिताजी श्री गोकुलचंद जी चौबे माताजी श्री गोविन्दी बाई के पावन स्मृति में सुपुत्र मुरलीधर चौबे ठि. पिपल्या रावजी) अंकित है, जिससे यह पता चलता है कि नंदबाबू के परिवार से संबंधित कोई वहाँ आज भी निवास कर रहा है। घर के मुख्य दरवाजे पर एक ताला लगा हुआ है एवं उस पर सूखी घास की चूड़ी बनाकर फंसा रखी है। पूछने पर पता चला कि यदि घर में कोई व्यक्ति नहीं मिलता है तो ताले या कुंडी पर घास फँसाकर यह संकेत किया जाता है कि आज गाँव में किसी के यहाँ भोजन/जीमण है एवं आपके परिवार को नूंता गया है। इस गाँव में आज भी परंपरा के रूप में पुरानी प्रथाएँ अपने पूरे देहातीपन के साथ जिंदा हैं। वरना मोबाईल और वाट्सअप के ज़माने में कौन ऐसे संकेतों के सहारे चलता है! खैर! गाँव की इस पारंपरिक व्यवस्था में ही यहाँ के बाशिंदों का विश्वास है। नंदबाबू के मकान के आगे खड़ा-खड़ा मैं यहाँ के लोगों के जीवन के बारे में सोच रहा हूँ, देख रहा हूँ, तरक्की पसंद ये लोग आज भी नहीं हैं; पर हाँ! जीवन तो चल ही रहा है। कुल मिलाकर यहाँ लोग सुखी हैं।

यहाँ जिस रोमांच का मैं अनुभव कर रहा हूँ, उसे किससे साझा करूँ? यहाँ के लोग चौबे परिवार को जानते हैं लेकिन नंदबाबू को नहीं जानते हैं। इसका मुझे तनिक भी मलाल नहीं हुआ, क्योंकि नंदबाबू की प्रसिद्धि का आधार यह गाँव नहीं है। फिर काश्तकारों का पढ़े-लिखे से नाता ही क्या? अपनी भावनाओं को यहाँ व्यक्त करने की किसी भी कोशिश में असफलता ही हाथ लगनी थी। सो मैंने भाई पल्लव (सह-आचार्य, हिंदी विभाग, हिंदू कालेज, दिल्ली) को उसी वक्त स्वयं के यहाँ होने की बात बताई और नंदबाबू के मकान की फोटो भी शेयर की। थोड़ी देर बाद पल्लव जी का वाणी संदेश मेरे मोबाईल पर आया। उन्होंने कहा “अरे सर, यात्रा का एक बहुत बढ़िया संस्मरण लिख दीजिए; अद्भुत काम होगा।” यह बात फरवरी 2021 की है। आवश्यक व्यस्तताओं से भी अधिक आलस्य के चलते यह संस्मरण तैयार नहीं हो सका और बाद में कोविड की बिगड़ी परिस्थितियों ने दो साल और अनुपयोगी कर दिये। खैर! कुछ अपना, कुछ पराया, किसे दोष दें ? अब लगभग दसेक दिन पहले भाई पल्ल्व का सदेंश मिला कि इस वर्ष “नंदबाबू के जन्म-शताब्दी वर्ष“ पर “उद्भावना” का एक अंक नंदबाबू पर तैयार हो रहा है, आप उसमें जरूर लिखिए। यह अवसर अब मेरे लिए दूसरी बार आ गया है। अपनी छवि सुधारने और आलस्य पर विजय पाने का यह मौका अब मैं गँवाना नहीं चाहता हूँ। अतः नंदबाबू के गद्यकार एवं कवि-रूप पर अपनी बात मैं कुछ यूँ व्यक्त कर लूँ....!

एक कवि, चिंतक और विचारक के रूप में नंदबाबू इस देश के प्रबुद्ध रचनाकारों में गिने जाते हैं। काव्य विधा के साथ-साथ नंदबाबू ने कथेतर गद्य विधा में खूब लिखा है। सिर्फ लिखने वाला रचनाकार नहीं होता है, लेखक होता है। रचनाकार तो विचार-मंथन के हर मंच पर अपनी सक्रिय उपस्थिति से सार्थक हस्तक्षेप की भूमिका-निर्माण करता है। सही और लोकपक्ष के लिए व्यक्ति को मानसिक रूप से तैयार करना भी रचना का एक प्रकार है। रचने के इस क्रम में नंदबाबू समता के पक्ष में विभिन्न आयोजनों में और यों भी लगातार बोलते रहे हैं। चाहे वे सामाजिक विषय हों अथवा राजनीतिक मुद्दे हों, उन्होंने मनुष्य के पक्ष को हमेशा मजबूती दी है। एक सामाजिक की व्यक्तिगत स्वाधीनता के प्रश्न को उन्होंने हमेशा जिलाये रखा। एक साधारण मनुष्य के संघर्ष में वे अपने कवि-कर्म से सम्मिलित होते हैं। मनुष्य के अस्तित्व के लिए वे अपना रचना-धर्म बखूबी निभाते रहे हैं। चाहे वे बुनियादी सरोकार हों या सांस्कृतिक सवाल नंदबाबू का लेखन पूरी क्षमता और संभावनाओं के साथ पाठकों के सामने होता है। यह सही है कि बदलते समय के साथ उनकी टिप्पणियाँ तल्ख होती गई और उनमें छिपा अर्थ अधिक वक्र हुआ है। अनेक आयोजनों में उन्हें निरंतर सुनने का मौका मुझे मिलता रहा है। मैं देख पाता हूँ कि उन्हें इस बात का मलाल अधिक है कि मनुष्य और समता की दुनिया की संबद्धता अभी भी नहीं बन पाई है। जिस समाज का सपना दुनिया के लिए नंदबाबू देखते हैं वह समाजवादी समाज है, किंतु उसकी स्थापना का अभाव उन्हें हमेशा खलता रहा है। अपनी एक कविता में वे द्वापर के कृष्ण की तुलना पूँजीवादी राष्ट्र के नायकों से कर समाजवाद और पूँजीवाद के गहरे अंतर को रेखांकित करते हैं—
कार के द्वार पर ठाड़ो रह्यौ जौ
वह गाँव को दीन मलीन सुदामा
द्वारिका में अब कृष्ण नहीं
रहते बिल क्लिंटन और ओबामा।
यहाँ व्यक्ति चरित्र प्रमुख नहीं है, बल्कि वैश्विक वर्तमान की विडंबना है कि साधारण मनुष्य भ्रष्ट और कुरूप समय से मुठभेड़ कर रहा; जिससे रचनाकार सवालिया लहजे में टकरा रहा है। इसका कारण स्पष्ट है कि उसे बीत चुके का अफसोस है और उससे अधिक चिंता आने वाले उस समय से है, जिससे रचनाकार ने और हमने मनुष्य की बेहतरी की अभिलाषा पाल रखी है।

नंदबाबू की रचनाएँ सामाजिक जड़ताओं और रूढियों पर पूरे दम से प्रहार करती हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि लक्ष्य का संधान साधारण और लुंज-पुंज प्रयासों से संभव नहीं है। उन्होंने बीसवीं शताब्दी का पूरा दौर देखा है एवं इक्कीसवीं शताब्दी के लगभग डेढ़ दशक के भी वे साक्षी रहे हैं— इसलिए उनकी कविताएँ आने वाले समय के लिए भी मनुष्य में आशा जगाती हैं। अपनी कविताओं में वे शिक्षित अभिजात्य को विशेष उम्मीद से देखते हैं। उनकी कविताएँ कहीं भी सपने नहीं दिखाती हैं, बल्कि जो संभव हो सकता है ; उसके लिए व्यक्ति को सचेत और सजग अवश्य करती हैं। “निष्फल वृक्ष” कविता का यह अंश देखिए—
समय सिर्फ भागदौड़ का है
सारे आने वाले दिन
श्मशान में बैठे औघड़ की तरह
डरावने हैं।
एक रचनाकार के रूप में भी और सामान्य व्यक्ति के रूप में भी नंदबाबू का यह मानना रहा कि कहीं भी कोई विकृति या अन्याय सामने आए तो उसका प्रतिवाद किया जाए या और कुछ न हो तो कम से कम विरोध तो दर्ज कराना ही चाहिए। ऐसा करना सिर्फ हक के लिए नहीं, बल्कि मनुष्य होने के लिए भी किया जाना चाहिए। सामाजिक वैषम्य के समय में ही समता के लिए लड़ना प्रासंगिक होता है, इसी कारण उनकी कविताएँ सार्थक प्रतिवाद करती हैं। उनका यह भी मानना है कि विरासत में मिली सामन्तशाही अचानक जनोन्मुखी नहीं हो जाती हैं। व्यवस्था को जनता के बीच लाना पड़ता है, लड़कर। नंदबाबू का रचनाकर्म मानवीय मूल्यों के लिए है, वे दुनिया के लिए ऐसी व्यवस्था देखना चाहते हैं जहाँ कभी ईमानदारों की तलाश में असफलता नहीं मिले। उनकी कविताएँ मनुष्य को इस तरह तैयार करती प्रतीत होती हैं कि कभी अवसर मिलने पर मनुष्यता के लिए उपलब्ध हुए निर्णायक मोड़ पर केवल द्रष्टा की तरह वह निरीह खड़ा न रहे। वह स्त्रष्टा होने के खतरे उठाना सीखे। वे मनुष्य को स्त्रष्टा होने के सुखों की बात नहीं करते हैं, बल्कि तमाम प्रकार की परेशानियों के बाद रूपायित होने वाली सृष्टि को स्वीकारने की बात करते हैं। नंदबाबू अपनी कविताओं के माध्यम से यह संदेश देते रहे हैं कि जब तक विषमतावादी समाज-रचना या किसी भी प्रकार की गैर बराबरी मौजूद है तब तक कविता सार्थक नहीं होगी। साहित्य की भूमिका सिर्फ विचार के माध्यम से शुरू होती है एवं चेतना-निर्माण पर पूरी होती है। इसके बाद सारी जिम्मेदारी उस मनुष्य की है जो समाज की बेहतरी चाहता है, न केवल चाहता है; बल्कि कुछ करना चाहता है। साहित्य कभी भी शस्त्र-क्रांति की बात नहीं करता है, वह तो युद्धरत आदमी से भी शस्त्र-त्याग का आह्वान करता है। उनकी “अजीब बात है” कविता का यह अंश उल्लेखनीय है – 
नाटक का पटाक्षेप होते-होते
दुनिया उन्हें सौंप देते हैं
जो हमेशा अपने पक्ष में सोचते हैं
संगठित तरीके से
संगठित होकर बेच देते हैं
ईश्वर की मर्जी, मुर्गी
राजतंत्र और बंदूकें
अजीब बात है
फल वे ही खाते हैं
जो ईमानदार नहीं हैं।
पाठक के मन में बेचैनी पैदा कर देना उनकी कविताओं का मुख्य लक्ष्य है। अपने आसपास की सामान्य घटना को वे इस तरह अभिव्यक्त करते हैं कि पाठक की आँखों के सामने वर्णित चरित्र का बिंब उभर आता है। इस तरह अभिव्यक्ति पायी घटना तब स्थानीय न रहकर एक ऐसे व्यापक सत्य के तौर पर पाठक-स्वीकार्य हो जाती है जैसे वह केवल उसके लिए ही लिखी गई है। नंदबाबू की कविताओं का ऐसा साधारणीकरण अतुलनीय है। नये-नये शब्द गढ़कर वे अपने भावों को आकृतियाँ देते थे। वे इसकी कतई परवाह नहीं करते थे कि उनकी कविता सरस हो बल्कि इसके लिए अधिक सचेत रहते थे कि कविता का रचना-लक्ष्य पूरा हो, चाहे कितना ही बीभत्स बिंब बन रहा हो। नंदबाबू पराधीन भारत के युवा कवि थे। उन्होंने आजादी से पहले के परिवेश में जीवन-मूल्यों के महत्व को समझा था, किंतु आजादी मिलने के बाद इनका महत्व कम होने लगा, इनकी ग्लानि कवि को हमेशा रही ; लेकिन अपनी रचनाओं में वे हमेशा मूल्यों और संस्कारों की अपेक्षित गरिमा को बनाये रखते थे। स्वाधीनता प्राप्ति के लगभग ढाई साल बाद नया संविधान हमारे यहाँ अस्तित्व में आया फिर भी लोकतंत्र की दृष्टि से हम अपूर्ण ही रहे, जिसे कवि ने गैर मामूली समय के तौर पर देखा था। वे अपने एक लेख में लिखते हैं- 
वस्तुतः स्वतंत्रता के बाद वाले पच्चीस वर्ष हमारी बेचैनी के वर्ष रहे हैं विशेषतया इसलिए कि हमने एक विशिष्ट आचरण वाले हिंदुस्तान की कल्पना की थी जो धीरे-धीरे मिटती रही और वहीं स्थिर, कट्टर और जाति-हितों में बैठा पुराना हिंदुस्तान बनने लगा।
ये रचनाकार की स्वाभाविक चिंता है। देश के लिए जिस नयी संरचना की उम्मीद थीं, उसके विपरीत जब यहाँ की व्यवस्थाएँ पश्चगामी दिखाई देने लगीं तो निश्चित ही अच्छे दिन नहीं आने वाले थे। गैर बराबरी को तोड़ने के क्रम में सत्ता के पुराने स्वभाव को बदलना जरूरी था। लेकिन ये अन्तर्विरोध कायम रहे इसलिए उस समय व्यवस्था में तब्दीली नहीं हो पाई। किंतु नंदबाबू व्यवस्था के पुनर्निर्माण के प्रति आशान्वित रहते हैं। क्योंकि उनकी यह दृढ़ मान्यता है कि चाहे जितना उथल-पुथल मच जाए किंतु अंत में समता और स्वाधीनता के प्राप्त हुए बिना मनुष्य का बचना मुश्किल है। उनकी कविता में बहुधा मनुष्य की तलाश दिखाई देती है क्योंकि कैसा भी समाज हो, वह मनुष्य विहीन तो नहीं हो सकता है। नंदबाबू अपनी रचनाओं का कथ्य हमारे बीच से उठाते हैं। उनकी ये पंक्तियाँ – 
हमारे पास लिखने को कुछ नहीं है
बाहर से ही आता है सब कुछ
दुनिया के दुर्दान्त क्लेशों, दुखों से
जन्मा, गला
इतना बेतरतीब ऊबड़ खाबड़
नुकीली घास की तरह उगा।
सिद्ध करती हैं कि कवि की रचना-प्रेरणा यही दिखता हुआ समाज है। वे जितने मनुष्य और मनुष्यता के कवि हैं उतने ही समाज और समाजवादी विचारधारा के चिंतक रचनाकार भी हैं। वे अपने रचनाकर्म में समता और स्वाधीनता के लिए किये जा रहे संघर्ष को निरन्तर अभिव्यक्ति देते रहे हैं। अपनी कविताओं में वे जनसंघर्ष की खरी अभिव्यक्ति करते हैं और साथ ही मौजूद सत्ता-व्यवस्था की जनविरोधी नीतियों के विरूद्ध प्रतिरोध का स्वर भी बुलंद करते हैं। इसीलिए वे लिख पाते हैं—
यह कविता हार की नहीं है
बल्कि फिर से उन संकल्पों को
दुहराने की है जिसके लिए हम सब इस क्रूर शताब्दी के सारे
मोर्चों पर युद्धरत हैं।
सबसे बड़ी बात यह कि उनकी कविताओं में कोई नामधारी नायक नहीं होता है, बल्कि समय ही एक चेहरा बन जाता है। इसका कारण भी स्पष्ट है कि वे अपने पाठक को समाज की जड़ व्यवस्था को बदलने के लिए चेतन करते हैं। नंदबाबू की कविता आरंभ से उत्तरोत्तर अंत तक मानवीय प्रतिबद्धताओं की मूल्यवत्ता सिद्ध करती है। उनकी कविताएँ एक बेहतरीन संसार और मनुष्य की उम्मीद हममें जिंदा रखती हैं। समय और परिस्थितियाँ कितनी भी प्रतिकूल क्यों न हों हताशा और निराशा का कोई स्थान उनके यहाँ नहीं होता है। हाँ! उनका उल्लेख अवश्य होता है, किंतु वह भी सकारात्मकता के अर्थ में ही होता है। जीवन की इन स्थितियों को वे अपने ही विरूद्ध लड़ने के अर्थ में व्यक्त करते हैं –
जिसे अपने ही विरूद्ध लड़ते हुए
हमने प्रेम के लिए बोया है
जब कभी उगे यह वृक्ष
शायद न भी उगे
तब भी वह फलहीन सार्थकता रहित नहीं होगा
कम से कम पृथ्वी को अनुर्वरा होने का
कलंक तो नहीं लगेगा।
यह कवितांश नंदबाबू की लेखकीय प्रतिबद्धता को बखूबी दर्शाता है। इससे वे अपनी कविता को मानवीय सृजन के बहुत समीप ले आते हैं। सतत् प्रयत्नशील रहने का भाव उनकी कविताओं में पाठकों के लिए हमेशा उपलब्ध रहता है। मनुष्य के लिए वे भाग्य के विरूद्ध संघर्ष और प्रयत्न को अधिक महत्व देते हैं। क्योंकि उनका यह मानना है कि भाग्य इंसान को केवल प्रतीक्षा देता है एवं उस प्रतीक्षा में समय गुजर जाने के बाद के पछतावे के अलावा कुछ नहीं मिलता है। इसलिए वे भाग्य को मानवीय जीवटता का विलोम मानते हैं।

नंदबाबू की कविताएँ पढ़कर कभी-कभी यह भी लगता है कि एक कवि अन्य व्यक्तियों की तुलना में अधिक संवेदनशील होता है, इसलिए उनकी भावनात्मक बुनावट उनकी रचनाओं का एक पक्ष बनाती है। राग-विराग के प्रसंग भी कहीं-कहीं उनकी कविताओं के ग्राह्य आधार होते हैं। नंदबाबू की काव्य-दृष्टि उनकी संवेदना का ही अंश होती है, और ये संवेदना उन्हें अपने ही समाज में रहते हुए अनुभव होती है। उनकी कविताओं में सामाजिक दृष्टि बराबर विद्यमान रहती है, क्यों समाज से भिन्न व्यक्ति कभी परिपूर्ण नहीं हो सकता है। समाज से व्यक्ति के अभिन्न संबंध ही उसे मनुष्य की श्रेणी में रखते हैं। नंदबाबू का यह मानना है कि जो समाज व्यक्ति को पग-पग पर विचलित कर सकता है, वही उसे मनोबल देता है और संवेदनाओं का विस्तार करता है। नंदबाबू उन कई घटनाओं के साक्षी रहे हैं, जहाँ उन्हें यह महसूस हुआ कि मनुष्य और मनुष्य के बीच विभाजन हुआ है; इससे हमारा समाज बहुत से हिस्सों में बँट गया। बँटा हुआ समाज फिर अनेक प्रकार की आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सकता है। समाज और मनुष्य का अन्तःसंबंध तब ही सार्थक होगा जब मनुष्य और मनुष्य में एक आपसदारी होगी। एक साधारण व्यक्ति जिस तरह अपने अधिकारों और आसपास घटने वाली घटनाओं के प्रति चौकन्ना रहता है, ठीक उसी तरह का स्वभाव रचनाकार का भी होना चाहिए। नंदबाबू रचनाकार की इस सैद्धान्तिकी पर एकदम खरे उतरते हैं। उनकी कविताएँ इस बात का प्रमाण हैं कि वे सिर्फ कविता लिखते वक्त के कवि नहीं हैं, बल्कि आठों पहर के कवि हैं; सोते भी और जागते भी। नंदबाबू की कविताएँ उनके अनुभव का सार्वजनीकरण का काम करती हैं इसीलिए कोई स्थान और काल उनके लिए सीमा नहीं बनते हैं।

नंदबाबू की कविता उपदेश नहीं देती है, संदेश देती है। उनका दैनंदिन स्वभाव रचनाओं में साफ झलकता है। जितनी सहजता और सरलता से वे बातपोशी करते हैं उतनी बोधगम्य उनकी काव्य-भाषा भी होती है। समाज और आम आदमी को लेकर उनकी जो चिंताएँ हैं, यथासंभव उन्हीं की अभिव्यक्ति के लिए वे भाषा के सर्जनात्मक पक्ष पर अधिक ध्यान देते-से लगते हैं, उदाहरण के तौर पर “कुछ काम और करने थे” कविता का अंश देखा जा सकता है—
बाजार जाना था
शाम होने के पहले
जो बच गया था उसमें से चुनने
जो किसी ने नहीं लिया
उसे लाना था घर तक
चुनने की जिंदगी जब न बची हो
और अज़ीब-अज़ीब वस्तुएँ हों
चुनने के लिए।
यहाँ कितनी सरल भाषा में साधारण व्यक्ति के जीवन में बाजार की बाध्यकारी शक्तियों के प्रभाव को रेखांकित किया है कवि ने। लगभग इस शैली में अभिव्यक्ति दी है कि मनुष्य और बाजार के खींचतान वाले रिश्तों की मजबूरी पाठक आसानी से समझ जाए। इसीलिए हम देखते हैं कि उनकी कविताएँ एक जनकवि के स्वर के रूप सामने आती हैं। किसी जटिल परिवेश की अभिव्यक्ति के लिए भी उनके पास सीधी और सरल भाषा है, उसमें किसी प्रकार का आडंबर नहीं है। वे अपनी कविताओं के जरिये ये बताना चाहते हैं कि एक रचनाकार के तौर पर वे किस समाज की कल्पना कर रहे हैं, वे स्पष्ट लिखते हैं कि 
हर प्रकार की संकीर्णता से मुक्त होने का उत्फुल्ल सपना सारी दुनिया के साहित्यकारों का एक काम्य सपना है।
वे मनुष्य की दीनता और पराजय, असहायता आदि को कम करने में रचनाकारों की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हैं। मनुष्य के जीवन में निराशा के सन्नाटे को कम करने एवं उत्साह-संचार उनका रचनात्मक लक्ष्य रहा है—
इस संशय, प्रश्न और अवसाद में डूबे
रोशनी की तलाश में निकले लोग
समुद्र को पार करेंगे, लेकिन हारेंगे नहीं।

उनकी कविता की ताकत शब्दों के सही इस्तेमाल पर निर्भर है, इस दृष्टि से नंदबाबू की रचनाएँ भाव-सम्पन्नता का ताप देती हैं।

नंदबाबू को तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी एक बेहतर भविष्य का अटूट विश्वास है। वे अपनी कविता को सभ्यता के अंतिम बिंदु तक जीवित रखना चाहते हैं—

मेरी कविता
सूर्य जब तक शेष है
तुम रोशनी का हिस्सा बनी रहो
मेरी कविता! इतिहास जब
निःशब्द होने लगे
तब तुम एक सार्थक शब्द बनो
चाहे हवा, चाहे आकाश, चाहे अग्नि।

 जब तक मनुष्य शब्द पहचानता रहे, तब तक उसके लिए कविता कल्याणकारी रहे; यही सार्थकता नंदबाबू चाहते हैं। जिस बेहतर भविष्य के लिए वे सोचते हैं वह हमारी व्यवस्था मे व्याप्त गैर बराबरी और अनादर भाव के उन्मूलन से जुड़ा हुआ है। जब तक मनुष्य को समता का महत्व नहीं पता चलेगा तब तक इस व्यवस्था की स्थापना संभव नहीं है। समाज से छोटे-बड़े का भेद मिटना चाहिए। उनके अनुसार छोटे वे हैं, जिन्हें शिक्षित होने और स्व-विवेक विकसित करने के कम अवसर मिलते हैं तथा बड़े वे हैं; जो किसी शारीरिक काम में निपुण नहीं होते हैं तथा वे कर्म-संस्कृति के आल्हाद को नहीं जानते हैं। फिर भी व्यवस्था के नियंत्रक ये बड़े ही होते हैं। नंदबाबू व्यवस्था के इस भेद को समानता के धरातल पर लाना चाहते हैं। अपने एक उद्बोधन में वे कहते हैं- 

कविता लिखने के सिलसिले में यह बात दुहरानी चाहिए कि वह “अंधेरे में छलांग लगाना नहीं है। अंधेरे से मुक्त होने की छलांग लगाना है।
 नंदबाबू की काव्य-रचना का यही आशय है। वे सदैव मनुष्य को बचाने की चिंता करते हैं और उसी के लिए कविता लिखते हैं। मनुष्य के लिए यदि किसी भी रूप में यह दुनिया अवांछित है तो उसके विरूद्ध लड़ने के पक्ष में उनकी कविता होती है; पढ़ते हुए पाठक निश्चित तौर पर एक मानसिक आश्वस्ति का अनुभव करता है जैसे— 
पराजय कब नहीं थी
कब नहीं थे झूठ के वाहवाह करने वाले
लेकिन तभी दल-दल से
निकल आया था समय
करिश्में और भाग्य से नहीं
मनुष्य के उत्साह और संसर्ग से।

 वे भाग्य और ईश्वर के भरोसे बैठकर अकर्मण्य होते लोगों को शिष्ट शब्दावली में प्यार से लताड़ते हुए आह्वान करते हैं कि स्वयं को जानिए, क्योंकि स्वयं को जानना ही इस दुनिया को जानने के समान है। हर व्यक्ति को अपनी रचनात्मक क्षमता और सामर्थ्य से परिचित होना चाहिए तब ही वह कुछ रचने का विचार कर सकता है। नंदबाबू की कविता “क्या थे!” और “क्या होंगे!” की बात कभी नहीं करती है, बल्कि अपने वर्तमान को बेहतर से बेहतर सजाने की प्रेरणा देती है।

श्रेष्ठ कवि, विचारक और चिंतक होने के साथ-साथ नंद चतुर्वेदी उस व्यक्ति का नाम भी है जो अपने समय की समाज-हित की गतिविधियों को स्वयं सक्रिय होकर आगे ले जाने का काम करता है। समाज की गैर बराबरी को समाप्त करने के लिए चलाये गए समाजवादी आंदोलन को गति देने वालों में राजस्थान से नंदबाबू अग्रणी थे, वे इस आंदोलन में इसलिए साथ थे कि उन्हें विश्वास था कि भारत के स्वभाव को देखते हुए यह कुछ सकारात्मक निर्माण समाज के लिए कर पाएगा। किंतु ऐसा नहीं हो सका और धीरे-धीरे वह आन्दोलन समाप्त ही हो गया, जिसका दुःख नंदबाबू को अपने जीवन के अंत तक रहा; लेकिन इसका विषाद या निराशा उनके लेखन में फिर भी कभी नहीं दिखी। उमंग, उत्साह और ऊर्जा उनके लेखन में हमेशा बनी रहीं। इस रूप में नंदबाबू सदैव स्मृतियों में रहेंगे—

तुम्हारे हाथ अभी थके नहीं हैं
यह कहने का सुख ही
इस कविता का कथ्य है। थोड़े से दिन और हैं सहने के
फैलाने के लिए ये हाथ नहीं है।

ये केवल कवि का आशावाद नहीं है बल्कि इस सदी के मनुष्य को बेहतर मनुष्य में रूपायित होने की बलवती आशा है। हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि जब तक नंदबाबू की कविता पढ़ी जाती रहेंगी, वे हमारी स्मृतियों में मूर्त होते रहेंगे।




(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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