डॉ शशि थरूर का लेख: किसी परीकथा से भी आगे है सोनिया गांधी की जीवनकथा, जो गुजरी है बेहद दुरूह रास्तों से!
सोनिया गांधी की असंभव कहानी!
साभार नवजीवन | मूल अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद भरत तिवारीकोई उपन्यासकार यदि सोनिया गांधी की कहानी लिखना चाह रहा हो तो उसे उसमें पारियों की कहानी तलाशने के लिए माफ किया जा सकता है। एक ख़ूबसूरत विदेशी एक अनजाने राज्य में आती है और सुंदर-से राजकुमार से शादी करती है। वे दोनों वर्षों तक साथ में आनंदपूर्वक रहते हैं, फिर एक दिन राजकुमार को दर्दनाक हालात के चलते, मजबूरी वश राज्य का कार्यभार सम्हालना पड़ता है। वह उन भयावह हालातों से दो-चार होता है जिन्हें कठिनाइयों से गुज़र रहा राज्य झेल रहा होता है, जिसकी परिणति, शब्दों में बयान न की जा सकने वाली त्रासदी में छल से किए गए उसके वध से होती है। रानी चुप्पी ओड़कर शोक में डूब जाती है। मगर दरबार के लोग उससे लगातार मिन्नतें करते हैं कि वह वापस आए और एक बार फिर राज्य के भाग्य को अपने हाथों से सम्हाले। पहले खुशियां फिर जीत फिर त्रासदी और फिर जीत — पूरी तरह कहानी: मुझे अपने इस लेख की शुरुआत “एक समय की बात है …” से करनी चाहिए थी।
और फिर — कहानी में एक मोड़ है। रानी को जब जरी से सजे थाल में राजमुकुट दिया जाता है, वह उसे पहनने से इनकार कर देती है। वह सिंहासन के पीछे रहना चाहती है, आम इंसानों के साथ चलती है, लोगों को इकट्ठा करती है लेकिन सत्ता की शक्ति को अपने अनुभवी वज़ीरों के पास छोड़ देती है। पारियों की ऐसी कहानी वे नहीं लिखते, उस महिला के लिए भी नहीं जिसे कभी एक द्वेषपूर्ण आलोचक ने "ऑरबासानो की सिंड्रेला" बतलाया था।
सोनिया गांधी की कहानी हर स्तर पर उत्कृष्ट है, परी-कथा वाली बात, यह रूपक इसकी असाधारणता की बमुश्किल सतह कुरेद पाती है। लेकिन हमें कौन सी कहानी सुनानी है? उस इतालवी की जो करोड़ों हिंदुस्तानियों के देश की सबसे शक्तिशाली इंसान बन गई? या उसकी जो राजनीति में आना ही नहीं चाहती थीं जिसने अपने दल को ऐसी अद्भुत चुनावी जीत दिलायी जिसकी भविष्यवाणी उसके चाहनेवाले भी नहीं कर सके थे? सुविधाओं की आदी उस राजकुमारी की जो देश के लिए त्याग का प्रतीक बन गई? उस संसदीय नेता की जिसने अपने ग्रहण किए देश के उस सर्वोच्च पद को लेने से इनकार कर दिया, जिसे उसने अपनी मेहनत और राजनीतिक हिम्मत से हासिल किया था ? उस सिद्धांतवादी महिला की जिसने दिखा दिया कि निराशावाद और असभ्यता से क्षरित पेशे में रहते हुए भी किस तरह सही मूल्यों के साथ खड़े रहा जा सकता है? राजनीति में पहले-पहल आयी उस इंसान की जो राजनीति की कला में सिद्धहस्त हुई, खुद की प्रवृत्ति पर भरोसा करते हुए यह पाया कि बहुधा वह अपने थके-हारे प्रतिद्वंदीयों की सोच से परे सही हो सकती है?
उनके रहस्य को खोलने की कोशिशों में शामिल किताबों: स्पेनी उपन्यासकार जेवीयर मोरो की सनसनीखेज “द रेड साड़ी” से लेकर कांग्रेस नेता केवी थॉमस की “सोनिया प्रियंकारी” तक — सोनिया गांधी की कहानी यह सब और और भी बहुत कहानियाँ हैं। 1991 में अपने पति की हत्या के बाद उनकी जगह लेने से किए गए शुरुआती इनकार, 1996 में पार्टी के लिए कैम्पैन करने का निर्णय और 2004 की उनकी चुनावी विजय और पद लेने से मना करने वाला आश्चर्यजनक त्याग, और फिर दल का नेतृत्व सम्हालते हुए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की एक के बाद एक दो सरकार बनाना — उनके असाधारण राजनीतिक जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों को सूचीबद्ध करना आसान है।
उनके विदेशी मूल के होने से उठे विवादों को किसी भी हाल में अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए, जिस पर मूलनिवासवादी बहुत हल्ला करते हैं, जबकि उनके चाहनेवाले यह बतलाते हैं कि सोनिया गांधी “जन्म से इतालवी और कर्म से भारतीय” हैं। भारतीय राष्ट्रीयता की क्षेत्रवादिता का उनके खिलाफ़ 1990 के दशक के मध्य से अंत तक और 2004 में पुनः बढ़ना कई मानों में और खासकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से संबंधित होने पर और अजीब हो जाता है, क्योंकि इस दल की स्थापना 1885 में एक स्कॉटिश मूल के अध्यक्ष एलन ऑक्टेवियन ह्यूम के नेतृत्व में हुई थी और जिसके सबसे प्रख्यात नेताओं (और चुने गए अध्यक्षों में) मक्का में जन्मे मौलाना अबुल कलाम आजाद, ब्रिटेन में जन्मे नेल्ली सेनगुप्ता और आयरिश महिला एनी बेसेंट शामिल हैं। इससे भी अजीब बात कांग्रेस के सबसे महान नेता, महात्मा गांधी के विचारों का परोक्ष अस्वीकरण किया जाना है, क्योंकि उन्होंने इस दल को उस भारत का लघुरूप बनाने की कोशिश की जिसे वह उदार, संपिंडित, और विविध देखते थे।
दल की मुखिया के पद की तरफ बढ़ते समय सोनिया गांधी ने अपने बारे में खुद कहा था — “ हालांकि मेरा जन्म विदेशी धरती पर हुआ है, लेकिन मैंने भारत को अपना देश चुना है। मैं भारतीय हूँ और आखिरी सांस तक भारतीय ही रहूँगी। भारत मेरी मातृभूमि है, मुझे अपनी जान से भी ज्यादा प्रिय है।” लेकिन यहाँ मुद्दा सिर्फ सोनिया गांधी नहीं हैं। असली मुद्दा यह है कि क्या हमें दलों के नेताओं, या फिर मतदाताओं को यह तय करने देना चाहिए कि कौन प्रामाणिक भारतीय होने के लायक है। मैंने कई दफ़ा यह कहा है कि “हम” और “वे” का दावा राष्ट्रीय मानसिकता में ज़हर भरने वाली सबसे खराब सोच है। कांग्रेस के नेतृत्व वाले भारत ने हमेशा “अनेकता में एकता” की बात कही है, बहुतों को गले लगाती एक भूमि वाली सोच। यह भूमि अपने निवासियों पर कोई संकीर्ण अनुरूपता नहीं लादती: आप बहुत कुछ होते हुए भी एक हो सकते हैं। आप एकसाथ एक अच्छे मुसलमान, एक अच्छे केरलवासी और एक अच्छे भारतीय हो सकते हैं। आप गोरी-काया वाली, साड़ी पहनने वाली, और इतालवी बोलनेवाली हो सकती हैं, और आप पालक्काड़ की मेरी आमम्मा से या फिर पंजाबी बोलने वाली, शलवार-कमीज़ पहनने वाली गेहूएं रंग की महिला से अधिक परदेशी नहीं हैं। हमारा देश इन दोनों तरह के इंसानों वाला देश है; दोनों ही हममें से कुछ के लिए समान रूप से “परदेशी” हैं, लेकिन हम सबके लिए समान रूप से भारतीय हैं।
हमारे संस्थापकों, संविधान निर्माताओं ने जिस भारत का सपना देखा था, हमने उन सपनों को पंख दिए हैं। भारतीय नागरिकों को — चाहे वे जन्म से भारतीय हों या देशीयकरण से — भारतीयता के विशेषाधिकारों के लिए अयोग्य घोषित शुरू किए जाना सिर्फ गहरा आघात नहीं है; यह भारतीय राष्ट्रवाद की मूल प्रतिज्ञा की प्रत्यक्ष अवज्ञा है। वह भारत जो हममें से कुछ को देश से अलग करेगा वह अंततः हमसब को उस भारत से अलग कर देगा।
लेकिन यह मुद्दे अब सिर्फ इतिहासिक दिलचस्पी के हैं, क्योंकि एक के बाद एक हुए अनेक चुनावों में हुई बहसों ने इस मसले को खत्म कर दिया है, और सोनिया गांधी के राजनीतिक नेतृत्व को दल व गठबंधन स्वीकार कर चुके हैं। वह 2014 में हुए आम चुनावों की हार के बावजूद कांग्रेस तथा यूपीए दोनों की तब तक निर्विवाद नेता रहीं, जबतक कि उन्होंने 2017 में स्वेच्छा से कांग्रेस अध्यक्ष पद को त्यागने की घोषणा नहीं की, जिसे 2019 में उन्हें पुनः सम्हालना पड़ा।
विचारों के राष्ट्रीय मुकाबले में सोनिया गांधी ने कांग्रेस पार्टी को सफलतापूर्वक पुनर्परिभाषित किया है। भारत के समृद्ध अनेकवाद और विविधता के प्रति उनकी अटल प्रतिबद्धता उनके दल को पहचान की विभाजक राजनीति करते, जाति व स्वाग्रही धर्म के नाम पर वोट मांगते दलों से अलग रखती है; कांग्रेस समावेशी राष्ट्र दृष्टि रखने वाला इकलौता दल बना रहता है। समाज के निचले हिस्से के लोगों के प्रति उनकी सहज सहानुभूति ने यूपीए को विकाशसील देशों के इतिहास में पहली बार दूरगामी और कल्याणकारी योजनाओं पर अमल करने के लिए प्रेरित किया, जिससे उन्हे भोजन का अधिकार, रोज़गार का अधिकार, शिक्षा का अधिकार प्राप्त हुआ साथ ही यह भी तय हुआ कि शहरी विकास और सार्वजनिक स्वास्थ्य राज्य की जिम्मेदारी हैं। बेहद ज़रूरी मनरेगा, जिसे नरेंद्र मोदी भी नहीं तोड़ सके, सोनिया गांधी की दृष्टि और करुणा का स्मारक है। अधिनियम सूचना का अधिकार लोकतंत्र और सरकार की जवाबदेही के प्रति उनके समर्पण को दिखलाता है। इस अधिनियम ने भारत सरकार की कार्यशैली में अभूतपूर्व स्तर की पारदर्शिता समावेशित की है। जहां एनडीए बगैर खुद से पूछे की भारत किसके लिए शाइन किया “इंडिया शाइनिंग” की बात करता रहा, और वामपंथ हर उस प्रगतिशील उपाय का विरोध जिससे आर्थिक प्रगति को शायद बढ़त मिलती, सोनिया गांधी के नेतृत्व में यूपीए दृढ़ता के साथ, विकास और सामाजिक न्याय दोनों के लिए काम करता रहा है, जिसे कांग्रेस ने समावेशी विकास नाम दिया है। इस सारी प्रक्रिया में उन्होंने एक मजबूत मध्यमार्गी, जिसे कुछ लोग केंद्र-से-वाम कह सकते हैं, नीव स्थापित की है जिस पर आने वाली पीढ़ियाँ एक नए भारत का निर्माण कर सकती हैं।
2014 में, सोनिया गांधी ने एक पत्रकार से कहाँ था कि उनकी ज़िंदगी की सच्ची कहानी को उनकी उस किताब का इंतज़ार करना पड़ेगा जिसे वह एक दिन लिखेंगी। मुझे विश्वास है कि मैं लाखों लोगों की बात कह रहा हूँ कि अब और इंतज़ार नहीं किया जाता।
[डॉ शशि थरूर के अंग्रेज़ी लेख “The Improbable Story of Sonia Gandhi” का हिन्दी अनुवाद: भरत तिवारी ]
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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