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जब यादें जेल के बन्द फाटक से रिहा होती हैं तो क़तार से नहीं, लस्टम पस्टम बाहर भागती हैं ~ मृदुला गर्ग | Mridula Garg — Memoire: Khushwant Singh — Part 4 (last)

खीसे निपोरते सरदारों को सीख देना मुझे बख़ूबी आता था। मैंने चुपचाप अपने पड़ोसी सरदार के सामने से (पता नहीं बल्ब वाले (खुशवंत सिंह) थे या बिना बल्ब वाले) प्लेट उठा कर, अपने सामने रखी; उसमें से बीफ़ का टुकड़ा उठा कर दूसरी प्लेट में रखा और प्लेटें अदल-बदल कर कहा, "बाक़ी सब मैं खा सकती हूँ, लेडीज़ फ़र्स्ट,” और खाना शुरु कर दिया। दोनों सरदारों का बुरा हाल! मैं प्लेट पर एकाग्र। अब जो अफ़रा-तफ़री मची! अदब-क़ायदा भूल, बिना बल्ब वाले सरदारजी ने चिल्ला कर अपने या बल्ब वाले सरदारजी के लिए, और खाना मँगवाया। मैंने खाने की रफ़्तार धीमी की और मस्त-मगन आवाज़ में कहा, "डिलिशियस।” सरदारनी जी ने भी हँस कर थैक्स कहा।



मृदुला गर्ग द्वारा लिखे जा रहे संस्मरण 

'वे नायाब औरतें' का फ़िलहाल अंतिम हिस्सा  


उनसे विदा ले कर बाहर निकले तो मोनिका ने कहा, "घण्टे भर में साथ डिनर ले लें? फिर उड़ान के लिए मुझे निकलना होगा।” जवाब देने के बजाय मैंने पूछा, "मोनिका हॉस नहीं आ रहीं?" 

वह अपने भीतर डूब गई। देर तक चुप रही। क्या हुआ...उसका नाम नहीं लेना चाहिए था...

पर क्यों? 

"उसके बारे में जानना चाहती हो?" अतल गहराई से सवाल आया। 

मैं चुप रही। हाँ कहने में संकोच हो रहा था और न कहना झूठ होता। 

"अब बतला सकती हूँ क्योंकि तुम उससे कभी मिलोगी नहीं....असल में...डिनर पर बतलाऊँगी..."

"नहीं, अभी कहो। डिनर के लिए मुझे भारतीय कोन्स्युलेट जाना है, सरदारजी के साथ; फ़ॉर्मल है, अब मना नहीं कर सकती...चलो उस बाग़ में बैठते हैं।” 

हम जा बैठे। "यह बेहतर है, डिनर नामुमकिन होता, "उसने एक लम्बी साँस खींच कर कहा। "उसने मुझे पहले दिन ही बतला दिया था। उसके पिता नात्ज़ी अफ़सर थे। दूसरों का हुक्म बजा भर लाने वाले नहीं, काफ़ी ऊँचे पद पर। वह ऐसा राज़ था, जिसकी उनके परिवार में कोई कल्पना नहीं कर सकता था। जब उन पर युद्ध अपराधी की तरह मुक़दमा चला तब जा कर उनका असली नाम और काम का राज़ खुला। तब तक उन्हें कैंसर हो चुका था। मोनिका के बड़े जवान भाई ने सुनते ही ख़ुद्कुशी कर ली। माँ ने तलाक ले लिया। उनकी संगीन हालत और उम्र को देखते हुए, उन्हें जेल से बरी कर दिया गया। मोनिका को फ़ैसला लेना था कि उन्हें मरने के लिए अकेला छोड़ दे या मौत होने तक उनकी देखभाल करे। उसने दूसरा रास्ता चुना...पर...वे कई बरसों से जीते जा रहे हैं और मोनिका उनके साथ है। मुझे उसे साथिन और सहेली की तरह क़ुबूल करने में, ख़ुद से काफ़ी लड़ाई करनी पड़ी...उस दिन जब हम कॉनसन्ट्रेशन कैम्प गये तो मैंने उसे साथ आने से मना कर दिया था। मैं...पता नहीं क्यों उससे नाराज़ नहीं रह पाई...बल्कि उसकी इज़्ज़त करने लगी। तुम्हें बतला रही हूँ क्योंकि..." मैंने उसे बाँहों में भर लिया और देर तक हम चुप बैठे रहे...ख़ुदा की मार, हम फिर कभी नहीं मिले। 

1976 में रचित उपन्यास "वंशज" को 1994 का बतला कर एक आलोचक, ललित कार्तिकेय, ने लिख मारा कि लगता है लेखिका ने, हाल में छपे, श्रीलाल शुक्ल का "बिसरामपुर का सन्त,” पढ़ने के बाद इसे लिखा है। जबकि मेरा उपन्यास, वंशज, उससे मात्र 28 साल पहले छपा था! बेचारों का क्या क़ुसूर!


उसके बाद दो हद से गुज़रे ख़ुशमिज़ाज सरदारों के साथ दावत खाना, ऐसा था जैसे ऊँचे बर्फ़ से ढके दिलक़श पहाड़ पर चढ़ने बाद, नीचे खाई में गिरना! कोन्स्युलेट से मेरे पास फ़ोन आया तो मैंने बतला दिया, मैं शाकाहारी हूँ। मैंने सोचा, काफ़ी था, आख़िर वह भारत का कोन्स्युलेट था, वे जानते होंगे शाकाहारी के लिए क्या-क्या उम्दा व्यंजन पकाये जाते हैं। पर...मैं भूल गई थी कि हद से गुज़रे लोगों की कोई हद नहीं होती। 

काफ़ी देर तक, जैसा अमूमन हिन्दुस्तानी मर्दों के साथ होता है, ड्रिंक्स के साथ खासा फ़ूहड़ हँसी-मज़ाक चलता रहा; भदेस चुटकलों के बघार और फटे बाँस से क़हक़हों के सालन के साथ। मेरा मन कहीं और भटक रहा था; कभी कारुणिक मनोभाव आँखें भिगोता तो कभी दिलफ़रेब जज़्बा मन में हिलोर उठाता। अट्टहास की चोटी पर पहुँचने के बाद हम खाने की मेज़ पर पहुँचे। पता नहीं क्यों, आँखों-आँखों में इशारे करते, बल्ब में क़ैद और कोन्स्युलर सरदारजी, मुझे, अहमक़ जन्तु से नज़र आये। मैंने उस बेमज़ा वहम से ख़ुद को बाहर खींचा कि तमाम राज़ अफ़्शां हो गया। 

बल्ब में क़ैद सरदारजी की ख़ास फ़रमाइश पर, दावत में बीफ़ बनाया गया था। चलो यहाँ तक तो ठीक था। पर जो नाक़ाबिले यक़ीन था, वह यह था कि जहाँ माँसाहारियों की प्लेट में बीफ़ के साथ, अनेक और व्यंजन थे; पुलाव, ब्रेड, पास्ता वगैरह, मेरी प्लेट में सिर्फ़ कुछ उबली सब्ज़ियाँ थीं। मेरे पति आनन्द के साथ ऐसा पहले एयर फ़्रांस में हो चुका था। इसीलिए विदेशी उड़ान में, मैं कभी ख़ुद को वेजिटेरियन नहीं लिखवाती। जानती हूँ, वे नहीं जानते कि वेजिटेरियन का मतलब यह नहीं होता कि, बन्दा सिर्फ़ वेजिटेब्ल्स खाएगा। पर यह तो भारतीय ज़मीन थी। विदेश में दूसरे मुल्क का दूतावास या कोन्स्युलेट, उसी मुल्क की ज़मीन मानी जाती है। 

कुछ देर पहले की मेरी खीज हवा हो गई। खीसे निपोरते सरदारों को सीख देना मुझे बख़ूबी आता था। मैंने चुपचाप अपने पड़ोसी सरदार के सामने से (पता नहीं बल्ब वाले थे या बिना बल्ब वाले) प्लेट उठा कर, अपने सामने रखी; उसमें से बीफ़ का टुकड़ा उठा कर दूसरी प्लेट में रखा और प्लेटें अदल-बदल कर कहा, "बाक़ी सब मैं खा सकती हूँ, लेडीज़ फ़र्स्ट,” और खाना शुरु कर दिया। दोनों सरदारों का बुरा हाल! मैं प्लेट पर एकाग्र। अब जो अफ़रा-तफ़री मची! अदब-क़ायदा भूल, बिना बल्ब वाले सरदारजी ने चिल्ला कर अपने या बल्ब वाले सरदारजी के लिए, और खाना मँगवाया। मैंने खाने की रफ़्तार धीमी की और मस्त-मगन आवाज़ में कहा, "डिलिशियस।” सरदारनी जी ने भी हँस कर थैक्स कहा। हो सकता है उन्हें उस अश्लील हरक़त का पता न हो। मेज़बान की बीवी ज़रूर थीं पर चूंकि वहाँ सारा काम नौकरों के हवाले था, इसलिए मर्द मानुस भी हुक्म दे सकता था। पर वहाँ मर्द था कौन? ढ़ंग की औरत भी न थी, वरना उन भदेस चुटकुलों पर एतराज़ ज़रूर करती। पर साहेबान, मेहरबान, बल्ब में क़ैद सरदारजी, पेंग्विन इंडिया के सलाहाकार थे। छपने की ख़ातिर, औरत क्या नहीं कर गुज़रतीं; वह तो ज़बानी दुत्कार थी। खाना सचमुच लज़ीज़ था। मीठा परोसे जाने से पहले मैंने शीरीं आवाज़ में सरदारनी जी से कहा, "शाकाहारी मान आप मुझे फल तो नहीं खिलाने वाली ना? बिना अंडे का डिज़र्ट भला जर्मनी में कौन खाता है!" और मस्त हो हँस दी। वे भी हँसी और कुछ देर बाद, डिज़र्ट की ट्रोली सबसे पहले मेरे सामने लाई गई। मैंने कम-कम मिक़दार में सभी डिशेज़ से अपनी प्लेट में परोसा और उनसे कहा, "ख़ुदा का शुक्र है, आपने यह काम अपने शौहर के ज़िम्मे नहीं किया वरना ज़बरदस्त बद्दुआ लगती मेरी। अरे खुशवन्त सिंह, आपने तो लिया ही नहीं; डाइबिटीज़ है क्या? च-च!" 

"नहीं," सरदारनी ने फ़रमाया, "ज़्यादा पीने के बाद मीठा नहीं खाते। पैक करवा दूँगी, कल प्लेन में खा लेंगे।” शायद उन्हें भी कुछ खुन्दक हो? या जो हुआ, उस पर शर्मिन्दा हों? कितना भी नौकरों के भरोसे रहें, थीं तो मेज़बान औरत! 



यूँ जर्मनी का क़िस्सा खत्म होने को आया। पर जो उस बदनुमा दावत में हुआ था, उसका बयौरा जब मैंने "द वायर" नाम की बुतशिकन मानी जाने वाली ख़बरी वेबसाइट पर डाला; उन दिनों जब, हमारे यहाँ बीफ़ खाने के लिए लोगों की हत्या की जा रही थी, तो अजब माजरा पेश आया। यह बतलाना ज़रूरी है कि उससे पहले, भारतीय संविधान और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसकी बदलती व्याख्या, और गान्धीजी की बीफ़ बैन की मुख़ालफ़त के बारे में, मैंने, एक छोटा सा लेख Gandhi made a really strong case against the ban on cow slaughter  “टाइम्स ऑफ़ इन्डिया” में लिखा था, ज़ाहिर है अंग्रेज़ी में, जिसे काफ़ी सराहा गया था। Modi Finally Broke His Silence But He Has Said Nothing At All  "द वायर" को  भेजा चटपटा संस्मरण उसी की अगली कड़ी थी। मुद्दा यह था कि बीफ़ खाने,न खाने का मसला, मज़हब से ही नहीं, जीभ के स्वाद से भी ताल्लुक रखता है। और उसे खाने वाले हिन्दू उतने ही कठमुल्ला हो सकते हैं, जितने न खाने वाले। हैरान करने वाली बात यह थी कि "द वायर" जैसी प्रगतिशील वेबसाइट ने, मुझसे बिना पूछे, आलेख में "बीफ़" को "मीट" कर दिया। Tolerance and Dissent are Anathema to Us यानी उसके निहितार्थ,भावार्थ या सतही अर्थ को बेमानी कर दिया। क्या वे यह कहने से डर गये कि भारतीय कोन्सुलेट में बीफ़ पकाया गया था?


अगले दिन मेरी कमसिन साथिन, मुझे पूर्वी बर्लिन के हवाई अड्डे पर पहुँचाने, होटल आ गई। उस लड़की ने मुझे जो दिया, वह उससे कहीं ज़्यादा था, जो मैं उसे दे पाई। उसने मेरा सामान वगैरह लदवाने में बहुत मदद की। उस काम की मैं निहायत चोर हूँ। जितने भी एथनिक आभूषण, मैं बतौर उपहार लोगों को देने, हिन्दुस्तान से लाई थी, सब उसे दे दिये; एक को छोड़ कर, जो मोनिका को दिया था। वह इतनी खुश हुई जैसे खज़ाना हाथ लग गया। बच्ची थी आख़िर। उनकी क़ीमत ख़ास नहीं थी पर थे बेतरह ख़ूबसूरत, उस की तरह। 

 
अब आपको कुछ और रंगों की विदेशी सहेलियों से मिलाती हूँ। उनमें सबसे पुरानी थीं, रूस की ग्युज़ेल सत्रेलकोवा हम पहलेपहल दिल्ली में एक गोष्ठी में यूँ ही मिले। उन्होंने बतलाया कि वे मॉस्को विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाती हैं और मेरी कुछ कहानियाँ छात्रों को पढ़ाई भी हैं। उसके बाद वे मुझे रूसी संस्कृति भवन में, रूस के दूतावास के डिनर में लिवा ले गईं। गाड़ी मेरी थी और मेरा ड्राइवर उनके हिन्दी बोलने से इतना चकित था कि बार-बार ग़लत रास्ता पकड़ लेता था। बाद में बढ़िया हिन्दी बोलने वाले विदेशियों की उसे आदत पड़ गई। 
पहली मुलाक़ात में ही उन्होंने मेरे उपन्यास "मैं और मैं" को पसन्द करने और उसका अनुवाद करने की इच्छा का ज़िक्र किया, जिससे मैं काफ़ी खुश हुई। मैं समझती हूँ कि वह मेरा सबसे बेहतर उपन्यास है पर हिन्दी साहित्य जगत में उसका ज़िक्र कम या नहीं होता। यह दीगर है कि जब बहुत बाद में उन्होंने अनुवाद किया तो "चित्तकोबरा" का। कई बार हमारी साहित्य अकादेमी से उनके अनुरोध करने के बावजूद कि, अपने किसी प्रतिनिधि मंडल में, जो रूस जाते ही रहते थे, मुझे भेज दें क्योंकि मेरा साहित्य वहाँ पढ़ाया जा रहा था, उस पर शोध कार्य हो रहा था और आलेख लिखे जा रहे थे; मुझे नहीं भेजा गया। 

अन्ततः अनेक वर्षों बाद, 2014 में, रूसियों ने आईकोसल के निमित्त, मुझे ख़ुद, मॉस्को बुला लिया। इस बीच, किसी न किसी सम्मेलन में, ग्युज़ेल बराबर हिन्दुस्तान आती रहीं और दिल्ली आने पर हमारी दोस्ताना या अनऔपचारिक मुलाक़ातें होती रहीं। 

एक मुलाक़ात जो अलग से याद है, वह तब की है, जब अपनी माँ के निधन के बाद, वे भारत आने पर हरिद्वार गई थीं। वहाँ से लौट कर रूस की उड़ान लेने से पहले, वे रूसी सांस्कृतिक भवन में ठहरी थीं। वहीं से उन्होंने मुझे फ़ोन किया तो मैंने उन्हें घर आने के लिए कहा। तब उन्होंने अपनी माँ के बारे में बतलाया और कहा, अभी कहीं जाने का मन नहीं है। मैं फ़ौरन स्कूटर पकड़ वहाँ पहुँच गई। तभी मैंने ठीक से समझा कि दरअसल, मैं उनकी माँ की उम्र की थी। हम उनकी माँ की बातें करते रहे तो मेरी समझ में आया कि उनके पारिवारिक रिश्ते, हम भारतीयों के पारिवारिक रिश्तों से भी ज़्यादा क़रीबी थे। कमअज़कम ग्यूज़ेल के थे। अपने दुख के बावजूद, वे नीचे सभागार में प्रदर्शित, रूस के विश्वविख्यात और दुनिया के दूसरे सबसे बड़े कला संग्राहलय, "द हेरिटेज म्यूज़िय्म,” से भारत आईं कुछ कलाकृतियाँ दिखलाने, मुझे नीचे हॉल में ले गईं। वहाँ तैनात खुर्राट गार्ड को मना लिया कि उन्हें, एक प्रख्यात कलाकृति के साथ मेरा चित्र खींचने की अनुमति दे दे; ज़ाहिर है, बिना फ़्लैश के। तभी यह भी कहा कि जब रूस आऊँ तो हेरिटेज संग्रहालय ज़रूर जाऊँ। मेरे लिए वह एक सपने जैसा था। 

उनका स्नेह वैसा ही बना रहा। उन्हीं के प्रयासों से मैं मॉस्को गई। और वहाँ उन्होंने मेरी हर ख्वाहिश पूरी की। मुझे सेंट पीटर्सबर्ग भी ले गईं। रूस जाना वाक़ई बरसों से मेरा सपना रहा था। आख़िर नौ बरस की उम्र से मैंने रूसी साहित्य चाट रखा था। जब नब्बे के दशक में, मेरे दोस्त और उर्मिल के पति, राजगोपाल, केबिनेट सचिव थे तो अपने उसूल ताक पर रख कर, मैंने उनसे एक बार कहा था कि मैं रूस जाना चाहती हूँ। उसमें क्या है, वहाँ तो रोज़ाना दसियों लेखक जाते हैं जी, बेहतर है। पर यह कैसे कहूँ कि मेरे पास इतना पैसा नहीं है कि अपने खर्च पर जा सकूँ। उन बेचारों को कैसे मालूम होता कि आनन्द, तमाम पैसे को गन्दे पानी की तरह, नाली में बहा चुके हैं। व्यवस्था की हाँ में हाँ मिलाने वाली भी मैं नहीं थी कि वह, बख़ुशी, बिना दबाव, मुझे भेजती। ख़ैर, इस मसले पर, न मैंने न उन्होंने दुबारा बात की। 

पर हम वाक़ई दोस्त थे। उन्हें एक बार दिल का दौरा पड़ चुका था। तो जिन लोगों के नाम उन्होंने दफ़्तर में दिये थे, जिन्हें आपात स्थिति में इत्तिला दी जानी थी, उनकी माँ और बहन के साथ, मेरा नाम भी था। अपने लड़के की शादी में उर्मिल से सलाह किये बिना जनेऊ समारोह में मुझे बुला लिया था, जहाँ सिर्फ़ उनके ख़ुद के परिवार के सदस्य मौजूद थे। बल्कि मुझे देख उर्मिल ने चौंक कर कहा था, "तुम आज कैसे आ गईं!" जैसे मैं भूल से ग़लत तारीख़ पर आ गई हूँ। तब राज ने कहा था, मैंने आमंत्रित किया है। मतलब यह कि सिर्फ़ उर्मिल की वजह से नहीं, अपने रिश्ते से भी हम दोस्त थे। 

मज़े की बात यह थी कि 2013 में, साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिलने के बाद भी साहित्य अकादेमी ने, बतौर लेखक मुझे विदेश नहीं भेजा। जब बुलाया, बाहर वालों ने ही बुलाया। अमरीका, जापान पहले बुला चुके थे; 2012 में आइकोसल सम्मेलन में रूस ने बुला लिया। 2014 में डैन्मार्क ने और 1917 में चीन ने ब्रिक्स सम्मेलन में। हाँ, व्यवस्था ने विश्व हिन्दी सम्मेलन में 2003 में सूरिनाम और 2007 में न्यू यॉर्क ज़रूर भेजा था। पर वे दोनों मेरे लिए यादगार बने तो दो नायाब औरतों की वजह से। रूस भी तो। तो पहले रूस और ग्युज़ेल की बात कर लूँ। 

मैं जुलाई में मॉस्को गई। तमाम रात सूरज न छिपने से कुछ दिन पहले। कल्पनातीत गर्मी थी। इतने रूसी लेखक चाट गई, किसी ने भूले से जो गर्मी का ज़िक्र किया हो! जहाँ पढ़ो, बर्फ़ और ठण्ड; बर्फ़ की बेपनाह ख़ूबसूरती; उस पर मौज करते या मरते रूसी; साइबेरिया का बर्फ़ीला रेगिस्तान और बर्फ़ से पार न पाने की वजह से, नेपोलियन और हिटलर जैसे दिग्विजजियों की रूस में हार। नेपोलियन से सीख न ले कर, सर्दियों में रूस पर हमला करने के हिटलर के आत्मघाती बौड़मपने का बयान। ठीक है साहब, नुमाईंदे की तरह बर्फ़ वाजिब बिम्ब था। पर कोई अलहदा बात भी कर सकता है न, कोई तो कवि-लेखक! अपन राम तो लेखकों के चक्कर में काम से गये न! जो दो-चार गर्मी के कपड़े इसलिए ले गये थे कि अपने देश से आते-जाते सफ़र में काम आएंगे, उन्हीं से वहाँ काम चलाया। नतीजतन अपने दूतावास के रिसेप्शन में स्कर्ट पहन कर जाना पड़ा। 

विश्वविद्यालय के गेस्ट हाऊस के जिस कमरे में मुझे ठहराया गया था, खिड़कियाँ इतनी उँचाई पर थीं कि देर शाम, जलते सूरज की आग से राहत पाने के लिए, मुझे मेज़ के ऊपर कुर्सी रख, उस पर चढ़ कर, उन्हें खोलना पड़ा। बतौर मेज़बान, मॉस्को में इतिहास के प्रोफ़ेसर और प्रख्यात विद्वान सर्गे सर्ब्रियानी साहब एक दूकान से खाने-पीने का सामान खरीदवा कर, मुझे वहाँ लाये थे। वहाँ रखी लहीम-शहीम बिजली की केतली दिखलाई तो बहुत राहत पहुँची। हमेशा की तरह उम्दा चाय मैं साथ लाई थी। एक छोटी-सी केतली भी। पर उस जीवनदायिनी केतली के सामने वह बेकार थी। इसमें पानी उबाल कर दूध का पाउडर, मीठे तरल दूध में तब्दील कर, कॉर्न फ़्लेक्स में डालने लायक़ बना सकती थी। उसमें से उड़ती भाँप से, अपने मुसे कपड़ों की सलवटें निकाल सकती थी...वग़ैरह वग़ैरह। मैंने सर्ब्रियानी साहब से, जो केतली की तरह लहीम-शहीम थे, गुज़ारिश की कि वे खिड़कियाँ खोल दें। पर उन्होंने कहा, रात में सर्दी हो जाएगी और मैं उन्हें बन्द नहीं कर पाऊँगी, इसलिए बन्द रहने देना बेहतर होगा। इतनी ऊँचाई पर इसलिए थीं कि जब बर्फ़ पड़े तो उनके ऊपर न जाए। वही सर्वोपरि बर्फ़! मौसम विभाग की तरह उनकी भविष्यवाणी ग़लत निकली। देर शाम या रात या सुबह, पता कैसे चले जब सूरज हर वक़्त बेशर्म की तरह दाँत फ़ाड़ता रहे, मुझे खिड़कियाँ खोलने के लिए वही सब करना पड़ा, जो बन्द करने के लिए, मैं नहीं कर पाती। 

सर्गे सर्ब्रियानी, बातचीत को इतिहास का पुट दे कर रोचक बनाने के ख़लीफ़ा थे। जब आइकोसल के सब भागीदार, बस से मॉस्को की सैर कर रहे थे तो हमारे गाईड इतिहास में एम ए पास थे। बेचारे बहुत बारीक़ी से ऐतिहासिक तथ्य बतला कर बस रोकते कि हम ख़ुद जायज़ा ले लें। पर बीच में सर्ब्रियानी साहेब शुरु हो जाते और स्वयं अनुभूत ऐसी कथाएं बयान करते, कि गाईड को कोई तवज्जह नहीं देता। किस गली, किस नुक्कड़ पर इतिहास के कौन से रोमांचक लम्हें गुज़रे थे, सर्ब्रियानी साहब अपने हाथ की लकीरों की तरह जानते-पहचानते थे। उन लेखकों के भी, जिनके बुत जगह-जगह खड़े थे, उन्हें बेतरह दिलचस्प क़िस्से ज़ुबानी याद थे। तंग आकर गाईड ने कहा, "गाईड कौन है, मैं या आप" "दोनो,” सबने एक स्वर में कहा; बस सर्ब्रियानी साहब कुछ लज्जित हो कर बोले, "आप। कहते रहिए।” 

आखिर हम वहाँ पहुँचे, जहाँ लम्बे-चौड़े मैदान के बीच, विजय स्मारक बना हुआ था। "द्वितीय विश्वयुद्ध में विजय के बाद बनाया गया था,” गाईड ने बतलाया। ठीक है। कोई लोमहर्षक बात नहीं थी। पर सर्ब्रियानी साहब के पास थी। वे गहरी खीज और तन्मयता के साथ कुछ टोह रहे थे। वे इतने ज्ञानी-ध्यानी न होते तो कहती, जासूसी कुत्ते की तरह सूंघ रहे थे। मैं पूरी तरह उनकी हरक़तों में लीन थी। बस बिजली चमकने या गिरने की तरह, राज़ से पर्दा उठने को था। आखिर माथे पर दर्जनों शिकन डाल, उन्होंने कहा, यहाँ कहीं वह टीला होना चाहिए, जिस पर खड़े हो कर, अपनी समझ में जीतने के बाद, नेपोलियन ने इंतज़ार किया था कि मॉस्को नगर की चाभियाँ ले कर, मेयर उसके पास आएगा। सारा दिन बीत गया पर कोई नहीं आया। आखिर जब वह बिन बुलाये भीतर घुसा तो सबकुछ ख़ाक़ हुआ मिला।” वे फिर टहलते हुए इधर-उधर सूँघने लगे, बोले, "बेकार के स्मारक बना कर सारे ऐतिहासिक चिह्न मिटा देते हैं, बेवकूफ़!" कि टीला मिल गया! घास से ढका था और उतना ऊँचा नहीं था जितना अपेक्षित था। पर था टीला और उनका देखा-पहचाना। वे उस पर खड़े हो गये। हम सब शागिर्दों की तरह आस-पास जमा हो गये। वे हँस दिये। हम भी हँस दिये। "ज़रा तसव्वुर कीजिए। एक विश्वविजेता खड़ा इंतज़ार कर रहा है कि हारे हुए शहरी, उसके सामने समर्पण करने आते होंगे। और शहरी हैं कि तमाम शहर और खाद्यान्न, जला कर ख़ाक़ कर, पलायन कर चुके हैं। फिर बर्फ़बारी और खाली पेट फ़ौज के बीच, ऐसा फ़ँसा नेपोलियन, कि ज़िन्दा बाहर आ भले गया, पर महत्वाकांक्षा और फ़ौज के अन्ध अनुसरण की मौत हो गई। उसके बिना कैसा सिपहसलार और कैसी जीत!

"कोई सोच सकता है, इतनी बड़ी सीख के बावजूद हिटलर, जो पूरी दुनिया में जीत हासिल कर चुका था, वही ग़लती करेगा! पर तानाशाहों की यही ख़ासियत है, सोचते हैं, वे और इंसानों से अलहदा हैं। उन जैसा न कोई हुआ है, न होगा! इसीलिए मारे जाते हैं।” 

तब तक अधिकृत गाईड की भावात्मक मौत हो चुकी थी। सब सर्ब्रियानी साहब को ही सुन रहे थे। 

मैं भी तो देखिए, ग्युज़ेल को छोड़ उनकी कहने लगी। मैंने पहले भी कहा था कि जब यादें जेल के बन्द फाटक से रिहा होती हैं तो क़तार से नहीं, लस्टम पस्टम बाहर भागती हैं। और यह भी हो सकता है कि में ग्युज़ेल को बाद के लिए बचा कर रखना चाहती हूँ। पहले उन दिलचस्प लोगों की कह लूँ जो राह चलते मिल गये थे। 

 

तो सर्ब्रियानी साहब से कई विषयों पर रोचक बातचीत हुई, आईकोसल में मेरे हिन्दी सम्भाषण में भी तशरीफ़ लाये और काफ़ी तारीफ़ की। दिल्ली आये तो खाने पर मेरे घर तशरीफ़ लाये, आनन्द से प्रेम से मिले। जिनके घर ठहरे थे, उन अति विद्वान दोस्त को साथ लाये, जिनके मुताबिक, हम पहले शिमला के उच्च शिक्षा संस्थान में मिल चुके थे, बल्कि बहस भी कर चुके थे। सही होगा। बहस करने से मुझे कब उज्र रहा है!

सर्ब्रियानी साहब ने एक महत्वपूर्ण बात की तरफ़ मेरा ध्यान खींचा। कि हिन्दी में, लेखक के कहानी संचयनों में, कहानी के प्रथम प्रकाशन या रचनाकाल की तारीख नहीं रहती इसलिए पता नहीं चल पाता कि कौन सी कहानी पहले लिखी गई, कौन सी बाद में। अजीब बात थी कि हिन्दी के प्रकाशकों–लेखकों ने इस पर ध्यान नहीं दिया था। उनके कहने पर ही मेरी आँखें खुलीं और छपने को तैयार हो रही, अपनी सम्पूर्ण कहानियों में मैंने, हर कहानी का प्रथम प्रकाशन वर्ष, नीचे लिख कर प्रकाशक से आग्रह किया कि, पुस्तक में अवश्य शामिल करें। 2003 में छपे, मेरे तब तक की कहानियों के संग्रह में, तमाम कहानियाँ समय के क्रमानुसार रखी तो गई थीं पर नीचे प्रथम प्रकाशन वर्ष दिया नहीं गया था। कुछ घालमेल भी हो गया था। पर प्रतिनिधि कहानियाँ, चयनित कहानियाँ, चर्चित कहानियाँ आदि में तो घालमेल ही घालमेल था। यह सिर्फ़ मुझ पर नहीं, हिन्दी के सब लेखकों पर लागू था। इस ग़लती को सुधारने का मौक़ा देने के लिए मैं उनकी शुक्रगुज़ार हूँ। पर मुझे नहीं लगता, कोई प्रकाशक अब भी तवज्जह देगा। यहाँ तो हाल यह है कि उपन्यास की दूसरी या तीसरी आवृत्ति छापने पर, प्रकाशक. पहले प्रकाशन वर्ष की सूचना नहीं देते। होता यह है कि, जैसा मेरे साथ "वंशज" उपन्यास को ले कर हुआ, 1976 में रचित उपन्यास को 1994 का बतला कर एक आलोचक, ललित कार्तिकेय, ने लिख मारा कि लगता है लेखिका ने, हाल में छपे, श्रीलाल शुक्ल का "बिसरामपुर का सन्त,” पढ़ने के बाद इसे लिखा है। जबकि मेरा उपन्यास, वंशज, उससे मात्र 28 साल पहले छपा था! बेचारों का क्या क़ुसूर! लेखिका पर कटाक्ष करने का सुनहरा मौक़ा हाथ से कैसे जाने देते। क़ुसूर सौ फ़ीसद, प्रकाशक नैशनल पब्लिशिंग हाउस का था। कुछ वैसा ही हास्यास्पद, "आनित्य" के साथ घटा, जब 2007 में, भगत सिंह की जन्म शताब्दी और आज़ादी के साठ साल पूरे होने पर, उसके पुनर्प्रकाशन को पढ़, चमन लाल जी ने, उसे वर्ष 2007 में लिखित घोषित कर दिया। जब पुस्तक पर लिखा न हो तो वे कैसे जानें कि पहलेपहल वह 1980 में छपा था। यह दीगर है कि बतौर भूमिका, उसमें 1983 में लिखा एक आलेख शामिल था। अब इतनी जासूसी कौन करता है! 

सर्गे सर्बरियानी साहेब से ईमेल पर भी हमारा साहित्यिक लेनदेन चलता रहा। 

पर जब ग्युज़ेल ने रूसी अनुवाद के लिए मेरा "चित्तकोबरा" चुना तो उन्हें रास नहीं आया। शायद इसलिए कि उसकी अनुवादिका, सम्पादक और प्रकाशक, सब औरतें थीं और सर्ब्रियानी साहेब अपनी बीवी की शोहरत से ही काफ़ी परेशान थे। मुझे ख़ुद कहीं ज़्यादा ख़ुशी होती अगर योजना के मुताबिक, ग्युज़ेल "मैं और मैं" उपन्यास का अनुवाद करतीं। वे तो करना चाहती थीं पर दो लोग आड़े आ गये। पहले, उनके भारतीय सह-प्राध्यापक, अनिल जैन, जो "चित्तकोबरा" से अन्याय करने के अपने अपराधबोध का प्रायश्चित करने के लिए, उसके रूसी अनुवाद का माध्यम बनना चाहते थे; अजब खब्तुलहवास थे। और दूसरी, उनकी प्रकाशक, जिन्हें "चित्तकोबरा" इतना पसन्द आया, कि उसे बिला आर्थिक मदद, छापने को तैयार थीं। अब प्रकाशक ठहरा/ठहरी, ज़मीं पर अल्लाहताला का नूर तो उनकी बात रखनी ठहरी। 

नतीजतन, सर्ब्रियानी साहब और मेरी बातचीत कम होने लगी। उन्हें मेरी "हरी बिन्दी" कहानी भी पसन्द नहीं थी। नहीं थी तो नहीं थी, मुझे क्या उज्र होता। बल्कि मुझे तो ख़ुद लगता था कि उसकी चर्चा ज़रूरत से ज़्यादा होती है; जबकि जिन कहानियों की होनी चाहिए, जैसे समागम, जूते का जोड़ गोभी का तोड़, वितृष्णा, छत पर दस्तक, वह दूसरी, आदि, उनकी नहीं होती। सादा कहानियाँ जिनका मतलब जल्दी समझ में आये, हमेशा लोकप्रिय रहती हैं, जैसे मेरी "मीरा नाची" या "तीन किलो की छोरी।” पर जानलेवा यह है कि हमारे आलोचक भी उन्हीं को पढ़ते हैं और जब गुनते हैं तो और सपाट बना कर। 

पर सर्ब्रियानी साहब के सवाल मेरी समझ के परे रहे। उन्होंने पूछा, "जिस अजनबी से नायिका मिलती है, वह क्या विदेशी है?"

"विदेशी ही नहीं, ब्रिटिश है। जब औचक बारिश होने पर, वह कहती है "आपका छाता कहाँ है...आप लोग हमेशा छाता साथ रखते हैं न" तो उसका जवाब है, "लंदन में।” 

उन्होंने कहा "एन.आर.आई भी हो सकता है।” 

मैंने कहा, "हो तो कुछ भी सकता है, बस इतना तय है कि इंसान है और लंदन में रहता है।” 

उन्होंने कहा, "बिन्दी तो लाल होती है, हरी कौन लगाता है?"

"हरी ही नहीं, नीली, पीली, जोगिया, बैंजनी, सतरंगी; हमारी और हमसे अगली पीढ़ियों की औरतें, कई रंगों की लगाती थीं और हैं।” 

"पर वह तो सुहाग का चिह्न होती है।” 

"कुआँरी लड़कियाँ भी लगाती हैं।” 

"पर विधवा औरतें नहीं।” 

"पहले नहीं लगाती थीं। अब, बहुत सी लगाती हैं। मेरी माँ लगाती थीं और आजकल तमाम लेखिकाएं लगाती हैं...पर इस सबका कहानी से क्या लेना देना है? कहानी है, महज़ समाजशास्त्रीय आलेख नहीं। हालांकि हर कहानी समाज पर टिप्प्णी और कटाक्ष करती है पर कुछ वैयक्तिक ऊहापोह और द्वन्द्व भी रहता है ।” तब तक मुझे ज़बरदस्त खीज होने लगी थी। 

"वह क्या नारीवादी विमर्श की कहानी है?" धत तेरे की! लौट कर बुद्धू घर को आये। 

"विमर्श से कहानी नहीं बनती; कहानी से विमर्श उपजता है,” मैंने भी क्लीशे बोल दिया और जोड़ा, "आप ख़ुद क़यास लगा लीजिए, मैंने उस पर अभी सोचा नहीं।” 

मैं उठ कर अपना बनाया स्पंज केक ले आई और मुँह मीठा करते, बात बदली गई। हालांकि सर्ब्रियानी साहब डाईबीटिक थे, कौन नहीं है इस भवसागर में, पर उन्होंने खाया और मंजुल की टिप्पणी की ताईद की। बक़ौल मंजुल, जो भयानक रूप से डाईबीटिक थी, मैं स्पंज में शक्कर इतना कम डालती थी कि उसे "स्वीट डिश" कहना, मीठे की तौहीन थी। अब साहेब मुँह में मीठे की तौहीन करता, क़तई अपराध बोध न जगाता, मीठा घुल रहा हो तो कौन बिन्दी की हरितिमा या लालिमा से उलझता फिरे। 

 

सम्मेलन के दौरान ही मैं. पैदल जाने की दूरी पर स्थित क्रेमलिन के बगान देख आई थी। भीतर जा कर, एक-एक कमरा परखने वाली सैलानी प्रवृत्ति थी नहीं। हम खाने की छुट्टी में जाते तो अनगिन जन, अपार धीरज के साथ, क्यू में खड़े दीखते। देखने के लिए कुछ नायाब होना क़तई ज़रूरी नहीं था। पानी का हौज़ देखने के लिए भी लम्बी क़तार में लोग उसी धैर्य के साथ खड़े रहते। एक बार जब मैंने ग्युज़ेल से पूछा, ये क्या देखने के लिए क्यू में इतनी देर से खड़े हैं तो उसका जवाब था, "इन्हें आदत है।” समझ आ गया। जब दो मुट्ठी चावल, एक डबलरोटी या दो गज़ कपड़ा पाने के लिए आप रोज़ दर रोज़ क्यू लगाते रहे हों तो, उसे देखने को, जिस पर बरसों पाबन्दी रही हो, आप उम्र भर खड़े रह सकते हैं। आतुर होने से बारी जल्दी थोड़ी आ जाएगी। ग्युज़ेल और मैं भी क्यू में लग गये। पर हमें क्रेमलिन की इमारत के भीतर नहीं जाना था, सिर्फ़ बगान देखने थे। योजना यह थी कि उसके बाद ग्युज़ेल सम्मेलन में चली जाएंगी, मैं म्यूज़ियम देख कर वापस आ जाऊँगी। क्यू से ऐतराज़ करने का मेरा हक़ नहीं बनता था। हिन्दुस्तान में क्यू बनता है, सिर्फ़ मंदिर में प्रवेश पाने के लिए; उस वक़्त तो हर बेचारा, हरि ओम जपता, चोला छोड़ने को समर्पित होता है, इसलिए जल्दी नहीं मचाता। वरना क्यू होता भी है तो सीधा नहीं, टेढ़ा-मेढ़ा, सर्पीला होता है और कभी, कहीं से भी बिखर जाता है। हफ़्तों या बरसों जो हिन्दुस्तानी, नकेल डले बैलों की तरह, विदेशों में बेहरक़त, घण्टों, पंक्ति में खड़े रह कर लौटते हैं; उन्हें हिन्दुस्तान की सरज़मीं के हवाई अड्डे पर पाँव रखते ही, सड़क के आवारा कुत्तों की तरह, भौंकते-गाँजते, इधर-उधर जल्दी बाहर निकलने की टोह लेते देखना, हास्य नाटक से कम नहीं होता। 

पर ग्युज़ेल इतनी बार हिन्दुस्तान आ चुकी थीं, हमारी महान् संस्कृति कुछ उनके भीतर घुस ही गई थी। उन्होंने हमारे सामने खड़े अमरीकन से कहा कि उनकी जगह सुरक्षित रखे और खिड़की पर जाकर दरख्वास्त की कि उसकी मेहमान हिन्दुस्तान से आईं, कई सम्मानों से सुशोभित, ख्यात लेखिका थीं। कुछ देर में सम्मेलन में पर्चा पढ़ना था, जो वाक़ई पढ़ना था; भीतर जाने का वक़्त नहीं था, सिर्फ़ बगान देख कर लौट जाएंगी। क्या उन्हें पहले जाने दिया जा सकता है? जवाब में ठेंगा ले, मरे मन लौटीं तो अमरीकी सज्जन ने कहा, न मैं लेखक हूँ, न मुझे पर्चा पढ़ना है। आप और आपकी सहेली, मेरी और मेरी बीवी की जगह ले लें तो हमें ख़ुशी होगी। मैं तो न-न करती पीछे हट गई पर कमाल यह हुआ कि अमरीकन दम्पत्ति को बाज़ी मारते देख, ताली बजाते अनेक रूसी, हमें आगे बढ़ने के लिए जगह देने लगे। मुझे काटो तो ख़ून नहीं। पर ग्युज़ेल ने दिलकश मुस्कान के साथ थैंकयू कहा और फुँफकार कर मुझसे कहा, "चलिए अब!" मैं अमरीका ज़िन्दाबाद कहने वाली थी कि समय रहते अल्फ़ाज़ बदल कहा, "रूस ज़िन्दाबाद"और हम दरवाज़े के भीतर थे। ग्युज़ेल ने हिन्दुस्तान से सीखा भी तो क्या, पर यार काम ख़ूब आया। 

वहाँ से मैं अजायबघर देखने चली गई। मज़े की बात यह थी कि हज़ारों हज़ार अमरीकी और युरोपीय सैलानियों की आमद के बावजूद, किसी अधिकृत रूसी गाईड ने अंग्रेज़ी सीखने की ज़हमत नहीं उठाई थी। न कोई ब्रोशर या सूची अंग्रेज़ी में उपलब्ध थी। सब धाराप्रवाह रूसी में बोलते, सैलानी गया भाड़ में। बेचारे पैसे वाले अमरीकन निजी तौर पर या गुट में, अंग्रेज़ी समझने-बूझने वाले गाईड, किराये पर लेते। अपन तो कंगाल थे। ज़्यादातर रूसी गाईड्स कद्दावर स्त्रियाँ थीं, जिनके सामने मैं न पिद्दी, न पिद्दी का शोरबा! पर वे कहतीं, इन्डिया! नेहरु? राजकपूर! कोई गा उठती, आवारा हूँ..ऊँ...ऽ! और रूसी के साथ इशारों से मुझे काफ़ी कुछ समझा देतीं। लिफ़्ट के सही तल पर पहुँच, दरवाज़ा खोल देतीं। मैं खूब मज़े से घूम-घाम कर नीचे पहुँची तो एक अमरीकन, जो ऊपर चढ़ते वक़्त भी मिली थी, बोली, "आप कौन हैं? वे आपसे इतनी अच्छी तरह क्यों पेश आ रही थीं। हमें तो कुछ बतला कर नहीं देती थीं।” मैंने कहा, "तीन बातें हैं, एक, मेरे पास अक़ूत पैसा नहीं है। दूसरी, मैं हिन्दुस्तान से हूँ और तीसरी, आवारा हूँ..ऊँ..ऽ" 

गेट पर पहुँची तो देखा ग्यूज़ेल मौजूद थीं। मुझे देर लगती देख आ गई थीं। हम गर्मजोशी से मिले और हाथ थामे आगे बढ़ गये।” अगेन! (फिर वही) उसी अमरीकन ने कहा। 

ग्युज़ेल की जितनी तारीफ़ करूँ, कम है। मेरी हर ख्वाहिश पूरी करने में जापानियों को मात दे रही थीं। मुझे बैले देखना ही देखना था। बदक़िस्मती से, जुलाई में मॉस्को में बोलशोई बैले नहीं होता था; दौरे पर निकल जाता था। मेरे लिए आघात था। पर ग्युज़ेल ने दूसरी कम्पनी के बैले, सिंड्रेला, के टिकट बुक करवा लिये। वहाँ भी वही हाल। प्रोग्राम, नर्तकों के नाम, ब्रोशर में कहानी, सब बिना तर्जुमे, रूसी में। खैर बैले में सुनना तो कुछ होता नहीं; कहानी यूँ भी मालूम थी। ऊपर से ग्युज़ेल ने, शुरु होने से पहले, तर्जुमा करके जो समझने लायक़ था, समझा दिया था। बैले देख लिया और उसके बाद बढ़िया खाना खाया। हिन्दुस्तान से चली तो सबने बहुत डराया था कि रूस में बिना बीफ़, मटन, पोर्क खाये तो समझो उपवास ही करना होगा। पर वहाँ रेस्त्रा में ही नहीं, सम्मेलन स्थल पर भी स्वादिष्ट शाकाहारी भोजन बराबर मिलता रहा। 

जैसे ब्लिनी नाम के किसिम किसिम के पैनकेक। ठीक है उनके भीतर माँस के टुकड़े भरने का रिवाज़ है पर सब्ज़ियों के साथ क्रीम चीज़ से भरे भी ख़ूब मिल रहे थे। जब-जब मैंने ख़ुद को तैयार किया कि चलो, ख़ासुलख़ास पेशकश का स्वाद लेने के लिए, माँस खा ही लिया जाए, उसका शाकाहारी संस्करण मिल गया। जैसे रूस का पर्याय बना बोर्शच; सूप कहूँ कि ब्रोथ। ग्युज़ेल ने कहा, गर्म खाओ तो मीट वाला होगा, ठन्डा, सब्ज़ियों वाला। मामला फिट। इतनी गर्मी में ठण्डा और भी उम्दा। फिर सब जगह यकसाँ मौजूद नमकीन और मीठा पिरोज़की। वह तो सम्मेलन स्थल पर भी हर वक़्त उपलब्ध रहते थे। और मेरे जैसे स्वीट टुथ वाले या मीठे के दीवाने के लिए परतदार मेडोविक से उम्दा क्या हो सकता था। क़रीब 15 परतों में एक के ऊपर एक खड़ा; अदरक और दालचीनी से सुवासित, शहद का केक; बीच बीच में मिठास ली खट्टी क्रीम और गाढ़े दूध का भराव। ख़ुदा के फ़ज़ल से हम मोटे नहीं हुए कभी, हालांकि 1992 में कुछ क़रीब ज़रूर पहुँच गये थे पर कुछ लेखन की मार, कुछ पेट की, न ज़्यादा खाया, न मुटाये। वैसे मॉस्को में शायद मैंने सबसे ज़्यादा खाया। और मुटाई भी। जिसे बतलाऊँ, अचरज करे, तुम्हें रूस में बढ़िया खाने को मिला, बिला मीट खाये! अगर साहब ग्युज़ेल जैसी सहेली साथ हो तो सबकुछ मुमकिन है। 

बेकार गर्म कपड़ों से अटे बड़े सूटकेस को विश्वविद्यालय के एक कमरे में छोड़, मुख्तसर सामान ले, रेल से पीटर्सबर्ग जाना भी। पर पीटर्सबर्ग की रवानगी से पहले एक बात कहनी ज़रूरी है। मॉस्को के मेट्रो स्टेशन, वास्तु कला के लाजवाब नमूने थे। ऊपर से हर दीवार पर बढ़िया पेटिन्ग्स लगी थीं। पर ऊपर से नीचे इतनी गहराई में जाना होता जैसे पाताल लोक जा रहे हों। साँस घुट जाता। रूसियों का कहना था कि स्टेलिन ने अपने कार्यकाल या ज़िन्दगी में एक ही ढ़ंग का काम किया था; मॉस्को के मेट्रो बनाना। 

रूसी साहित्य की मार्फ़त, सेंट पीटर्सबर्ग मेरे लिए रंगीनी और सपने पूरे होने का नगर था। सत्तर बरस की बुज़ुर्ग होने पर भी, वहाँ इतना घूमी कि पैरों में ख़ून के थक्के जम गये और लौट कर, ज़िन्दगी में पहली बार, हड्डी के डाक्टर के पास जाना पड़ा। कई नई बातें मालूम हुई। हाल-फ़िलहाल तो बस टेन्डन टूटे थे पर पैरों का आर्च कुछ ज़्यादा गहरा था, जिससे ख़ास जूते पहने बिला चलने से, यह बला सामने आती रहती थी। और यह भी कि मुझे ज़बर ऑस्टोपोरोसिस था। बात ठीक होगी, क्योंकि जब भी विदेश जाती और मीलों घूमती या समुद्रतट पर चलती तो पाँव बेहद सूज जाते। इतना बुरा हाल पहले नहीं हुआ था। पर पहले कभी सूजे पैर बमुश्किल चप्पल में घुसा नौ मील चली भी नहीं थी। जूते पहन कर ही चलती थी, देश सर्द जो होते थे। एक सर्द देश के लेखकों की ग़लती से, बिना तैयारी औचक गर्मी कभी नहीं झेलनी पड़ी थी। वह डाक्टर, मेरे बेटे के साथ पढ़ा हुआ था, तंज़ से बोला, "अभी तो आप महज़ इहत्तर बरस की हैं। और दस साल बाद आतीं!" पर इलाज बढ़िया और बहुत सा किया। तो 1914 में डेन्मार्क भी हो आई और 2017 में चीन। हिन्दुस्तान में तो आवारा हूँ...ऊँ ऽ की तर्ज पर घूमती ही रही। 

पर यह सेंट पीट्र्सबर्ग था! मैं वहाँ थी; पहली और शायद आखिरी बार। 

हालांकि उसके नेवस्की प्रॉस्पेक्ट की जग विख्यात हरियाली अब नहीं बची थी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद तमाम पेड़ काट कर ईंधन की तरह इस्तेमाल कर लिये गये थे। भयंकर सर्दी में आधे पेट ही सही, ज़िन्दा तो रहना था न! फिर भी बेइन्तिहा खूबसूरत नगर था; कुछ था, कुछ पढ़े साहित्य की मार्फ़त कल्पना में देख लिया था। वहाँ पैदल न चले तो भाड़ झोंका। 

महारानी कैथरीन के महल से, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, नात्ज़ी जर्मन फ़ौज द्वारा लूटे एम्बर रूम की, 1979 से बन रही प्रतिकृति का, 24 वर्षों के अथक सृजन और 11 मिलियन डॉलर के खर्च के बाद, 2003 में उद्घाटन हुआ था। मूल एम्बर रूम भी दरअसल एम्बर से बना हुआ कमरा नहीं, बल्कि ऐसा कमरा था, जिसमें 55 वर्ग मीटर से ज़्यादा जगह में 6 टन या 13, 000 पाऊंड से ज़्यादा वज़न के एम्बर पैनल्स लगे थे। उसकी प्रतिकृति बनाने में 40 रूसी और जर्मन विशेषज्ञों ने मूल रेखाचित्रों और श्याम-श्वेत छविचित्रों की मदद से मूल, एम्बर रूम की हूबहू प्रतिकृति को अंजाम दिया था। बतौर ख़मियाज़ा या सज़ा, विश्वयुद्ध में हारे हुए जर्मनी ने भी खर्च में हिस्सेदारी की थी। 


एम्बर रूम की कहानी किसी जासूसी उपन्यास से कम नहीं थी। 1716 में मूल एम्बर रूम, प्रशिया के महाराजा फ़्रेड्रिक विलियम ने रूस के ज़ार पीटर द ग्रेट को उपहार में दिया था। और काफ़ी पुनरसृजन और अतिरिक्त गढ़न के बाद, उसे कैथरीन महल में स्थापित किया गया था। 




जब हिटलर ने रूस पर हमला किया तो रूसी एम्बर कला के विशेषज्ञों से कहा गया कि, एम्बर पैनल्स उखाड़ कर, किसी सुरक्षित जगह ले जाकर रखना है, क्योंकि हिटलर पराजित मुल्कों से कलाकृतियाँ चुरा कर जर्मनी ले जाने के लिए बदनाम था। एम्बर रूम को तो वह मूलतः जर्मन मानता था। फिर दुनिया की सबसे नायाब कृतियों में से एक भी थी। तो उस पर उसकी नज़र कबसे गड़ी थी। पर रूसी विशेषज्ञों का कहना था कि पेनल्स उखड़ नहीं पाएंगे; टूट जाएंगे इसलिए वह काम नहीं हो पाया। जो वे नहीं कर पाये, जर्मन लुटेरों ने 36 घण्टों में कर दिखलाया और तमाम पैनल्स उखाड़ कर, जर्मनी ले गये। अन्ततः वहाँ के शहर कोनिग्सबर्ग में उन्हें इकट्ठा करके दुबारा स्थापित कर दिया। एलाइड हमले की बमबारी में कोनिग्सबर्ग शहर भस्मीभूत हो गया। पर एम्बर रूम के जले अवशेष नहीं मिले। 

एक तरह से एम्बर रूम ग़ायब हो गया। बरसोंबरस उसे खोजा जाता रहा, ठीक वैसे जैसे कभी समुद्री डाकू, पुराने-धुराने नक्शे की मार्फ़त खोया खज़ाना ढ़ूँढा करते थे। पर हर सुराग़ बेकार निकला और आख़ीर में 1978 में मूल की प्रतिकृति बनाने का काम शुरु हुआ। फिर भी मूल कृति को लोग भूले नहीं हैं। दिलोदिमाग़ को झिंझोड़ने वाला सवाल है, क्या वह कभी मिल पाएगी? 

उद्घाटन के नौ साल बाद मैं वहाँ थी। सोचिए, देखना बनता था न? 

तो मीलों पैदल चल कर हम वहाँ तक पहुँचे और कुछ ऐसा नायाब देखा कि आँखों और दिमाग के रेशे-रेशे में अपनी चमक के साथ बरकरार रह गया। वही हो सकता था। छविचित्र में उसके पूरे रहस्य को पकड़ना मुश्किल है। एक बार असल देख लो तो कहना पडेगा कि जो है उसका होना नामुमकिन है, फिर भी है। पैदल नहीं चलते तो क्या करते? विदेशों में टैक्सी लेने के पैसे तो होते नहीं। पैसे बचाने की ख़ातिर ही तो हमने उस मशहूर नेवस्की प्रॉस्पेक्ट पर, बिना लिफ़्ट के होटल में, तीसरी मंज़िल पर कमरा लिया था। पर दीवानों की ख़ुदा भी ख़ूब मदद करता है। ख़ुदा के फ़ज़ल से एम्बर रूम जाने का दिन, हमारा वहाँ आख़िरी दिन था, क्योंकि उसके बाद मेरे पैर जवाब दे गये थे। 

पर उससे पहले ग्युज़ेल, मुझे एक कल्पनातीत भव्य इमारत के आलिशान क्लासिक हॉल में मशहूर बैले, "बयादेरा" दिखला लाई थीं। वह भव्य भी था, भारतीय होने के नाते मेरे लिए मनोरंजक भी। पोर्च्युगीज़ में नर्तकी को बयादेरा कहते हैं। अब भारत ठहरा तमाम युरोपीय मुल्कों के औपनिवेशिक मंसूबों का मेज़बान तो उनमें पोर्च्युगल क्यों न होता? छोड़ गये न गोवा में अपनी बिंदास छाप! तो क्या अचरज कि बयादेरा को हिन्दुस्तानी तवायफ़ बना दिया गया। मेरे लिए, अपने मुल्क को दूसरों की नज़रों से, कौतुकपूर्ण बना देखना काफ़ी हास्यास्पद था, फिर भी उस नृत्यनाटक ने मुझे अपनी गिरफ़्त में ले लिया। वजह, ज़ुबानों और संस्कृति की सरहदें पार कर बनी रसना थी। कौतुक से परे, नृत्य व उसका संयोजन इतना अनूठा था कि मैं भूल गई, मैं किस देश की वासी हूँ। 



और वह विराट, अभूतपूर्व हरमिटेज कला संग्रहालय, जिसकी बाबत ग्युज़ेल ने बरसों पहले कहा था, मौक़ा मिले तो ज़रूर देखिएगा। ! 


उसकी अलग ही कहानी है। 

हरमिटेज के भीतर घुसने के लिए, जो टिकट खरीदना था, उसके लिए लम्बा क्यू लगा था। सिर्फ़ मेरे लिए टिकट ख़रीदना था, रूस में 50 साल से ऊपर के नागरिक हर संग्रहालय में मुफ़्त जा सकते थे। ग्युज़ेल मुझे विन्टर पेलेस के आँगन में बिठला, बाहर क्यू में लग गई। वहाँ पास की बेन्च पर एक अधेड़ अमरीकन औरत बैठी थी, जिसका पति टिकट के लिए क्यू में लगा था और टीनएजर बेटा बेचैनी से चहलक़दमी कर रहा था। शायद ग्युज़ेल को मुझसे हिन्दी बोलते सुन चुकी थी या यूँ ही मुझसे कहा, "आप भारत से हैं न, मैं अमरीका से आई हूँ।” हम बातें करने लगे। वह काफ़ी अवसाद में थीं। बोलीं, "मेरे पति घण्टे भर से टिकट खरीदने के लिए क्यू में खड़े हैं और मेरा बेटा भीतर जाने को मना कर रहा है।” वह क़रीब क़रीब रुँआसी हो गई। टीनेजर्स! मेरे भी दो बेटे थे। मुझे उस पर बेतरह गुस्सा और दया, दोनों आये। "मुझे नहीं देखना हेरिटेज!" तभी उसने बदतमीज़ी से कहा। "फिर क्या करोगे?" माँ ने रुँधे गले से कहा। "घूमूँगा।” तुम्हारे पिता..." क्यों ला रहे हैं मेरा टिकट? मैंने कहा था क्या?" मैं उठ कर उसके पास चली गई। करारी अंग्रेज़ी में, इतनी संजीदा आवाज़ में कहा जैसे मातम कर रही हूँ।” अगर आज तुम अन्दर नहीं गये तो सारी उम्र पछताओगे। अभी समझ नहीं आएगा तुमने क्या खोया। पर ज़िन्दगी के हर मोड़ पर तुम अपने को कोसोगे। दुबारा यहाँ आने का मौक़ा मिले, न मिले। सारी ज़िन्दगी पछतावे में गुज़ारने से बेहतर है आज देख लो!" कह कर मैं अपनी बेंच पर लौट आई। माँ और बेटा भौचक मुझे देख रहे थे कि ग्युज़ेल टिकट ले कर लौट आईं। मुझसे हिन्दी में कहा, चलिए। मैंने कहा, "दो मिनट आराम कर लीजिए, फिर चलते हैं।” वे कुछ दूर पड़ी बेंच पर बैठ कर पानी पीने लगी। अमरीकन औरत से मुझसे कहा, "आप उन्हें कितना पेमन्ट कर रही हैं?" "श...श! पागल हैं क्या! वे मॉस्को युनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हैं, मेरी मित्र हैं! आप कह क्या रही हैं!" तभी पसीना-पसीना हुए उनके पति लौट आये।” चलें, "मरियल आवाज़ में बेटे-माँ को समेटते हुए पूछा। माँ उठीं कि बेटा साथ आ खड़ा हुआ। माँ ने मेरा हाथ चूम लिया। 

"चलिए,” मैंने ग्युज़ेल से कहा।” वहाँ दोनों को क्यू में लगना होगा, "उसने उठते हुए कहा। मेरा टिकट और ग्युज़ेल का आई.डी दिखला कर, हम दरवाज़े के भीतर क्यू में लग गये। सहसा ग्युज़ेल अलग हुई और खिड़की पर जा पहुँची। पता नहीं, मेरी उम्र का हवाला दिया या लेखक होने का पर इस बार सफल रही। हमें पहले भीतर जाने दिया गया। 

किस क़दर लम्बा चौड़ा था हरमिटेज का फ़ैलाव। कितना कुछ देखने को था। हफ़्ता चाहिए था। एक दफ़ा में उसका दसवां हिस्सा भी देख पाऊँ तो बहुत समझो। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि पेंटिंग्स देखूँ या मूर्तियाँ? फिर सोचा, पेंटिंग्स से शुरु करूँगी, फिर क़दम जहाँ ले जाएं, चली जाऊँगी। उफ़, मेरे सूजे नामुराद पाँव! उन्हें भूल कर बस दिलोदिमाग़ से काम लिया, फिर भी इतना देखा कि याददाश्त में गड्डमड्ड हो गया। जो याद रहा, एक लुभावने सपने की तरह था; क्या अकेले देखा, क्या ग्युज़ेल के साथ, याद नहीं। दरअसल वहाँ हर दर्शक अकेला था। कलाकृति में डूबता कि ख़ुद में डूब जाता। ख़ुदी से बेख़ुदी में उतरता और ख़ुदा से जा मिलता। 

फिर भी कुछ पेन्टिंग्स और कुछ मूर्ति कला की कृतियाँ मन में बस गईं। 

जिस प्रतिमा ने मुझे सबसे ज़्यादा अपनी गिरफ़्त में लिया, वह थी संगेमर्मर में तराशी एन्टोनियो केनोवा की "क्युपिड एन्ड सायके।” दोनों की मूर्तियाँ यूँ अन्तरगुम्फ़ित थीं जैसे दो आकृतियाँ न हो कर एक हों। श्वेत संगेमर्मर की आभा, लयात्मक नर्तन मुद्रा में स्थिर पर गतिशील मालूम पड़ती उनकी काया और मुख के सौन्दर्य को, और नैसर्गिक बना रही थी। मन्त्रमुग्ध न जाने कितनी देर मैं उसके सामने खड़ी रही। वैसी अनुभुति लूव्र में मोना लिज़ा के चित्र को देख कर हुई थी। 

ज़्यादातर पेंटिंग्स में धार्मिक व्यक्तित्वों का अंकन था जैसे रेम्ब्रां की "रिटर्न ऑफ़ द प्रोडिगल सन; "ल्योनार्डो द विंची की "मेडोना लित्ता,” राफ़ेल की "कॉन्स्टाबिल मेडोना,” टिटिअन की "पेनिटेन्ट मेगडालेन।” उनसे इतर थीं, केरावागियो की "द ल्यूट प्लेयर" और शार्दीन की "लोंड्रेस" या हिन्दी में जिसे कहेंगे धोबिन। लोन्ड्रेस या धोबिन की छवि, अन्य चित्रों के कुलीन और रईसी से ओतप्रोत मॉड्ल्स के बीच एक अजूबा थी, इसलिए भी याद रही। शार्दीन को यूँ ही आम जनों का कवि नहीं कहा जाता था। हालांकि "द ल्यूट प्लेयर" में संगीत को जन्म देने में लीन नवयुवती की मुग्धा नायिका की छवि थी, जिसका कुलीनता या रईसी से ताल्लुक़ नहीं था। और बारम्बार प्रचारित हेरिटेज की उपलब्धि, माइक्लएन्जेलो कृत प्रतिमा, क्राउचिंग बॉय तो देखे बग़ैर छूट ही नहीं सकती थी। सच, अब तो यह भी याद नहीं कि खुद देखने पर अभिभूत हुई थी या गुणगान सुन-पढ़ कर पहले से अभिभूत थी। 

बाक़ी दो नायाब विदेशी सखियों की बाबत बतलाने से पहले ज़रा साँस लेना ज़रूरी लग रहा है। 

यह भी अहसास हो रहा है कि मैंने दुनिया भर की बातें तो कर लीं पर अपने देश की लेखिकाओं पर कुछ नहीं कहा। तो चलिए, पहले इस कमी को पूरा कर लेती हूँ, बाद में विदेशी सखियाँ। 

(कॉपीराइट्स रीज़र्व्ड)

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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