अमृता प्रीतम की कहानी 'पाँच बरस लम्बी सड़क' आप कुछ पाठकों ने शायद पढ़ी हो, मैंने हाल में पढ़ी और लगा कि यह अमृता प्रीतम की सबसे अच्छी कहानियों में एक होगी इसलिए, कहानी को यहाँ आप सब के लिए लेकर आया हूँ। अपनी राय दीजिएगा ~ सं०
Amrita Pritam ki hindi kahaniya |
पाँच बरस लम्बी सड़क
अमृता प्रीतम
सेंक मौसम का था, मन का नहीं।
हवाई जहाज़ वक़्त पर आया था, पर नीचे एयरपोर्ट से अभी सिगनल नहीं मिल रहा था। जहाज़ को दिल्ली पहुँचने की ख़बर देकर भी, अभी दस मिनट और गुज़ारने थे, इसलिए शहर के ऊपर उसको कुछ चक्कर लगाने थे।
उसने खिड़की में से बाहर झाँकते हुए शहर के मूंडेरे पहचाने, मुंडेरे, क़िले, खँडहर, खेत...
‘क्या पहचान सिर्फ़ आँखों की होती है? आँखें इस पहचान को अपने से आगे, कहीं नीचे तक, क्यों नहीं उतारतीं?’—उसे ख़याल आया। पर एक धुन जैसी सोच की तरह नहीं, ऐसे ही राह जाता ख़याल।
मुँडेर, किले, खेंडहर, खेत—उसने कई देशों के देखे थे। हर देश में इन चीज़ों के यही नाम होते हैं, चाहे हर देश में इन चीजों का अलग-अलग इतिहास होता है। इन के रंग, इन के क़द, इन की मुंह-मुहार भी अलग-अलग होती है—एक इनसान से अलग दूसरे इनसान की तरह। पर फिर भी इनसान का नाम इनसान ही रहता है। मुँडेरों का नाम भी मुँडेर ही रहता है, किले का नाम भी किला ही...
सिर्फ़ एक हलका-सा फर्क था—हर देश में इन चीज़ों को देखते वक़्त एक ख़याल-सा रहता था कि वह इन्हें पहली बार देख रहा था। पर आज अपने देश में इन्हें देखकर उसे लग रहा था कि वह इन्हें दूसरी बार देख रहा था और उसे ख़याल आया अगर वह फिर कुछ दिनों बाद परदेश गया तो वहाँ जाकर, उन्हें देखकर भी, इसी तरह लगेगा कि वह उनको दूसरी बार देख रहा है। बिलकुल आज की तरह। यह देश और परदेश का फ़र्क़ नहीं था। यह सिर्फ़ पहली बार, और दूसरी बार देखने का फ़र्क़ था।
जहाज़ ने ‘लैण्ड' किया। एयरपोर्ट भी जाना-पहचाना-सा लगा, दूसरी बार देखने की तरह। इस से ज़्यादा उसके मन में कोई सेंक नहीं था।
ओवरकोट उसके हाथ में था। गले का स्वेटर भी उतारकर उसने कन्धे पर रख लिया।
सेंक मौसम का था, मन का नहीं।
कस्टम में से गुज़रते वक़्त उसे एक फ़ार्म भरना था कि पिछले नौ दिन वह कहाँ कहाँ रहा था। पिछले नौ दिन वह सिर्फ़ जरमनी में रहा था। उसने फ़ार्म भर दिया। और उसे ख़याल आया—अच्छा है, कस्टमवाले सिर्फ़ नौ दिनों का लेखा पूछते हैं, बीस-पचीस दिनों का नहीं। नहीं तो उसे सिलसिलेवार याद करना पड़ता कि कौन-सी तारीख़ वह किस देश में रहा था। उसने वापस आते समय कोई एक महीना सिर्फ़ इसी तरह गुजारा था—कभी किसी देश का टिकट ले लेता था, कभी किसी देश का। अगर किसी देश का वीज़ा उसे नहीं मिलता था तो वह दूसरे देश चल पड़ता था...
पासपोर्ट की चेकिंग करते समय, और पासपोर्ट वापस करते हुए, एक अफ़सर ने मुसकरा के कहा था, 'जनाब पाँच बरस बाद देश आ रहे हैं।'
बिलकुल उसी तरह जिस तरह एयर होस्टेस ने राह में कई बार बताया था कि इस वक़्त तक हम इतने हज़ार किलोमीटर तय कर चुके हैं। गिनती अजीब चीज़ होती है, चाहे मीलों की हो या बरसों की। उसे हँसी-सी आयी।
जहाज़ में से उसके साथ उतरे हुए लोगों को लेने आये हुए लोग—हाथ मिलाकर भी मिल रहे थे, गले में बाँहें डालकर भी मिल रहे थे। कइयों के गले में फूलों के हार भी थे। 'पसीने की और फूलों की गन्ध से शायद एक तीसरी गन्ध और भी होती है’ उसे ख़याल आया। पर तीसरी गन्ध की बात उसे एक थीसिस लिखने के बराबर लगी। वह अभी-अभी एक परदेशी जबान सीखकर और उसके लिटरेचर पर थीसिस लिख के, एक डिगरी लेकर आया था। नये थीसिस की कोई बात वह अभी नहीं सोचना चाहता था। इसलिए सिर्फ़ पसीने और फूलों की गन्ध सूंघता हुआ वह एयरपोर्ट से बाहर आ गया।
घर में सिर्फ़ माँ थी।
जाते वक़्त बाप भी था, छोटा भाई भी, और एक लड़की... नहीं, वह लड़की घर में नहीं थी, वह सिर्फ़ उसी दिन उसके जानेवाले दिन आयी थी। माँ को सिर्फ़ ऐसे ही कुछ घण्टों के लिए भ्रम हुआ था कि वह लड़की... छोटा भाई ब्याह करा के अब दूर नौकरी पर रहता था, घर में नहीं था। बाप अब इस दुनिया में कहीं नहीं था। इसलिए घर में सिर्फ़ माँ थी।
कई चीज़ें अन्दर से बदल जाती हैं, पर बाहर से वही रहती हैं। कई चीज़ें बाहर से बदल जाती हैं, पर अन्दर से वही रहती हैं।
उसका कमरा बिलकुल उसी तरह था—उसका पीला ग़लीचा, उसकी खिड़की के टसरी परदे, उसकी मेज़ पर पड़ा हुआ हरी धारियों का फूलदान, और दहलीज़ में पड़ा हुआ गहरा ख़ाकी पायदान। चाँदनी का पौधा भी उसकी खिड़की के आगे उसी तरह खिला हुआ था। पर पहले इस सब कुछ की गन्ध—दीवारों की ठण्डी गन्ध के समेत—उसके साथ लिपट-सी जाती थी। और अब उसे लगा कि वह उसके साथ लिपटने से सकुचाती, सिर्फ़ उसके पास से गुजरती थी और फिर परे हो जाती थी। पता नहीं, उसके अन्दर कहाँ क्या बदल गया था।
माँ कश्मीरी सिल्क की तरह नरम होती थी और तनी-सी भी। पर उम्र ने उसे जैसे घो-सा दिया था। वह सारी-की-सारी सिकुड़ गयी लगती थी। माँ से मिलते वक्त उसका हाथ माँ के मूह पर ऐसे चला गया था जैसे उसे हथेली से मांस की सारी सिकुडनें निकाल देनी हों। माँ की आवाज़ भी बड़ी धीमी और क्षीण-सी हो गयी लगती थी। शायद पहले उसकी आवाज़ का जोर उसके क़द जितना नहीं, उसके मर्द के क़द जितना था; और उसके बिना अब वह नीचा हो गया था, मुश्किल से उसके अपने क़द जितना। जब उसने बेटे का मुंह देखा था, उमर की आँखें उसी तरह सजग हो उठी थीं जैसे हमेशा होती थीं। उसके सीने की साँस उसी तरह उतावली हो गयी थी, जैसे हमेशा होती थी। वह कहीं किसी जगह, बिलकुल वही थी, जो हमेशा होती थी। सिर्फ़ उसके बाहर बहुत कुछ बदल गया था।
“मुझे पता था, तू आज या कल किसी दिन भी अचानक आ जायेगा,” माँ ने कहा।
उसने अपने कमरे में लगे हुए ताज़े फूलों को देखा, और फिर माँ की तरफ़।
माँ की आवाज़ सकुचा-सी गयी—”यह तो मैं रोज़ ही रखती थी।”
“रोज? कितने दिनों से?” वह हँस पड़ा।
“रोज़,” माँ की आवाज उसके जिस्म की तरह और सिकुड़ गयी, “जिस दिन से तू गया था।”
“पाँच बरसों से?” वह चौंक-सा गया।
माँ सकुचाहट से बचने के लिए रसोई में चली गयी थी।
उसने जेब में से सिगरेट का पैकेट निकाला। लाइटर पर उँगली रखी, तो उसका हाथ ठिठक गया। उसने माँ के सामने आज तक सिगरेट नहीं पी थी।
माँ ने शायद उसके हाथ में पकड़ा हुआ सिगरेट का पैकेट देख लिया था। वह धीरे से रसोई में से बाहर आकर, और बैठक में से ऐश-ट्रे लाकर उसकी मेज़ पर रख गयी।
उसे याद आया—छोटे होते हुए माँ ने उसे एक बार चोरी से सिगरेट पीते देख लिया था, और उसके हाथ से सिगरेट छीनकर खिड़की से बाहर फेंक दी थी…
माँ शायद वही थी पर वक्त बदल गया था।
माँ फिर रसोई में चली गयी। वह चुपचाप सिगरेट पीने लगा।
“मुझे पता था, तू आज या कल किसी दिन भी आ जायेगा... ” उसे माँ की अभी कही गयी बात याद आयी। और उसके साथ मिलती-जुलती एक बात भी याद आयी। “मुझे पता लग जायेगा जिस दिन तुम्हें आना होगा, मैं खुद उस दिन तुम्हारे पास आ जाऊँगी।”
बहुत देर हुई, जब वह परदेश जाने लगा था, उसे एक लड़की ने यह बात कही थी।
उस लड़की से उसकी दोस्ती पुरानी नहीं थी, वाक़फ़ियत पुरानी थी, दोस्ती नहीं थी। पर पाँच बरसों के लिए परदेश जाने के वक़्त, जाने की ख़बर सुन- कर, अचानक उस लड़की को उसके साथ मुहब्बत हो गयी थी—जैसे जहाज में बैठे किसी मुसाफ़िर को अगले बन्दरगाह पर उतर जाने वाले मुसाफ़िर से अचानक ऐसी तार जुड़ी-सी लगने लगती है कि पलों में वह उसे बहुत कुछ दे देना और उससे बहुत कुछ ले लेना चाहता है।
और ऐसे वक़्त पर बरसों में गुज़रनेवाला पलों में गुजरता है।
उसने यह 'गुज़रना' देखा था। अपने साथ नहीं, उस लड़की के साथ।
“तुम्हारा क्या ख़याल है, मैं जो कुछ जाते वक़्त हूँ, वही आते वक़्त होऊंगा?” उसने कहा था।
“मैं तुम्हारी बात नहीं कहती, मैं अपनी बात कहती हूँ,” लड़की ने जवाब दिया था।
“तुम यहीं होगी, यह तुम्हें किस तरह पता है?”
“लड़कियों को पता होता है।
“तो लड़कियाँ बावरी होती हैं।
वह हँस पड़ा था। लड़की रो पड़ी थी।
जाने में बहुत थोड़े दिन थे। पाँच दिन और पाँच रातें लगाकर उस लड़की ने एक पूरी बाहों वाला स्वेटर बुना था। उसे पहनाया था और कहा था, “बस एक... इक़रार माँगती हूँ, और कुछ नहीं। जिस दिन तुम वापस लौटो, गले में यही स्वेटर पहनकर आना।”
“तुम्हारा क्या ख़याल है, मैं वहाँ पाँच बरस... ” उसने जो कुछ लड़की को कहना चाहा था, लड़की ने समझ लिया था।
जवाब दिया था, “मैं तुम से अनहोने इक़रार नहीं माँगती। सिर्फ़ यह चाहती हूं कि वहाँ का वहाँ ही छोड़ आना।”
वह कितनी देर तक उस लड़की के मुंह की तरफ़ देखता रहा था।
और फिर उसको यह सब कुछ एक अनादि औरत का अनादि छल लगा था। वह बेवफ़ाई की छूट दे रही थी पर उस पर वफ़ा का भार लादकर।
कह रही थी, “मैं तुम्हें खत लिखने के लिए भी नहीं कहूँगी। सिर्फ़ उस दिन तुम्हारे पास आऊँगी, जिस दिन वापस आओगे।”
“तुम्हें किस तरह पता लगेगा, मैं किस दिन वापस आऊँगा?” लड़की को टीज़् करने के लिए उसने कहा था।
और उसने जवाब दिया था, “मुझे पता लग जायेगा, जिस दिन तुम्हें आना होगा।”
उस दिन वह हँस दिया था।
उसने परदेश देखे थे, बरस देखे थे, लड़कियाँ भी देखी थीं।
पर किसी चीज़ में उसने डूबकर नहीं देखा था, सिर्फ़ किनारों से छूकर।
और वह सोचता रहा था—शायद डूबना उसका स्वभाव नहीं, या वह चलता है, तो एक भार भी उसके साथ चलता है, और उसके पैरों को हर जगह कुछ रोक-सा लेता है।
इन बरसों में उसने कभी उस लड़की को खत नहीं लिखा था। लड़की ने कहा भी इसी तरह था।
हर देश को दोस्ती उसने उसी देश में छोड़ दी थी। यह शायद उसका अपना ही स्वभाव था, या इसलिए कि उस लड़की ने कहा था।
सिर्फ़ वापस आते वक़्त, जब वह अपना सामान पैक कर रहा था, उस स्वेटर को हाथ में पकड़कर वह कितनी देर सोचता रहा था कि वह उसे और चीज़ों के साथ पैक कर दे या उस लड़की की बात रख ले, और उसे पहन ले।
जो स्वेटर पहनकर जाना, पाँच बरसों बाद वही पहनकर आना, उसे एक मूर्खता की सी बात लगी थी। मूर्खता की सी भी और जज़्बाती भी।
और एक हद तक झूठी भी। क्योंकि जिस बदन पर यह स्वेटर पहनना था वह उस तरह नहीं था जिस तरह वह लेकर गया था।
पर उसने स्वेटर को पैक नहीं किया। गले में डाल लिया। ऐसे जब वह स्वेटर पहनकर शीशे के सामने खड़ा हुआ—उसे आर्ट गैलरियों में बैठे वे आर्टिस्ट याद आ गये, जो पुरानी और क्लासिक पेण्टिग्ज़ की हबहू नक़लें तैयार करते हैं। और स्वेटर पहनकर उसे लगा—उसने भी अपनी एक नक़ल तैयार कर ली थी। इस नक़ल से वह शर्मिंदा नहीं था, सिर्फ़ इस नक़ल पर वह हँस रहा था।
माँ को वह सब कुछ याद था, जो कभी उसे अच्छा लगता था। लेकिन वह स्वयं भूल गया था।
“देख तो अच्छा बना है?” माँ ने जब पनीर का पराँठा बनाकर उसके आगे रखा, तो उसको याद आया कि पनीर का पराँठा उसे बहुत अच्छा लगता था। माँ ने जानेवाले दिन भी बनाया था।
उसने एक कौर तोड़कर मक्खन में डुबाया, और फिर माँ के मूँह में डाल- कर हँस पड़ा—”वहाँ लोग पनीर तो बहुत खाते हैं पर पनीर का पराँठा कोई नहीं बनाता।”
यह छुटपन से उसकी आदतें थीं। जब वह बड़ा रौ में होता था, रोटी का पहला कौर तोड़कर माँ के मूंह में डाल देता था।
“तू सात विलायत घूमकर भी वही का वही है”, माँ के मुंह से निकला और उसकी आंखों में पानी भर आया। भरी आँखों से वह कह रही थी, “तू आया है, सब कुछ फिर उसी तरह हो गया है।”
वह 'वह' नहीं था। कुछ भी वह नहीं था, जाते वक़्त जो कुछ था वह सब बदल गया था। उसने बाप की बात नहीं छेड़ी थी, सिर्फ़ उसके खाली पलंग की तरफ़ देखा था, और फिर आँखें परे कर ली थीं। माँ के दिन-ब-दिन मुरझाते मुँह को बात भी नहीं की थी। छोटे भाई की ख़ैर-ख़बर पूछी थी, पर यह नहीं कहा था कि माँ को अकेला छोड़कर उसे इतनी दूर नहीं जाना चाहिए था। पर माँ कह रही थी, “सब कुछ फिर उसी तरह हो गया है... “
“झटपट जो कोई भुलावा पड़ जाये, क्या हरज है”, उसने सोचा भी यही था। मां के मूंह में अपनी रोटी का कौर भी इसी लिए डाला था।
उसने कोई और भी माँ की मरज़ी की बात करती चाही। पूछा, “भाभी कैसी हैं? तुम्हें पसन्द आयी हैं?”
माँ ने जवाब नहीं दिया। सिर्फ़ सवाल-सा किया, “मेरा ख़याल था, तू विलायत से कोई लड़की... ”
वह हँस पड़ा।
“बोलता क्यों नहीं?”
“विलायत की लड़कियाँ विलायत में ही अच्छी लगती हैं, सब वहीं छोड़ आया हूं।”
“मैं ने तो इस महीने पिछले दोनों कमरे खाली करवा लिये थे। सोचा था, तुझे ज़रूरत होगी।”
“ये कमरे किराये पर दिये हुए थे?”
“छोटा भी चला गया था। घर बड़ा खाली था इसलिए पिछले कमरे चढ़ा दिये थे। जरा हाथ भी खुला हो गया था... ”
“तुम्हें पैसों की कमी थी?” उसे परेशानी-सी हुई।
“नहीं, पर हाथ में चार पैसे हों तो अच्छा होता है।”
“छोटे की तनख्वाह थोड़ी नहीं, वह... ”
“पर वह भी अब परिवारवाला है, आजकल में ही उसके घर... ”
“सो मेरी माँ दादी बन जायेगी... ”
उसने माँ को हँसाना चाहा, पर माँ कह रही थी, “मुझे तो कोई उज़्र नहीं था जो तू विलायत से कोई लड़की... ”
वह माँ को हँसाने के यत्न में था। इसलिए कहने लगा, “लाने तो लगा था पर याद आया कि तुम ने जाते समय पक्की की थी कि मैं विलायत से किसी को साथ न लाऊँ।”
उसे याद आया—जानेवाले दिन, वह लड़की जब मिलने आयी थी, वह माँ को अच्छी लगी थी। माँ ने उन दोनों को इकट्ठा देखकर, ताक़ीद दी थी, “देख, कहीं विलायत से न कोई ले आना। कोई भी अपने देश की लड़की की रीस नहीं कर सकती... ”
पर इस वक़्त माँ कह रही थी, “वह तो मैं ने वैसे ही कहा था। तेरी खुशी से मैं ने मुनकिर क्यों होना था। पीछे एक ख़त में मैंने तुझे लिखा भी था कि जो तेरा जी चाहता हो... ”
“यह तो मैंने सोचा, तुमने ऐसे ही लिख दिया होगा,” वह हँस पड़ा और फिर कहने लगा, “अच्छा, जो तुम कहो तो मैं अगली बार ले आऊँगा।”
“तू फिर जायेगा?” माँ घबरा-सी गयी।
“वह भी जो तुम कहो तो, नहीं तो नहीं।”
उसे लगा, उसे आते ही जाने की बात नहीं करनी चाहिए थी। आते वक़्त उसे एक यूनिवर्सिटी से एक नौकरी ऑफ़र हुई थी। पर वह इतने बरसों बाद एक बार वापस आना चाहता था। चाहे महीनों के लिए ही।
“जो तुम कहोगी तो नहीं जाऊंगा”, उसने फिर एक बार कहा।
माँ को कुछ तसल्ली आ गयी। कहने लगी, “तू सामने होगा, चूल्हे में आग जलाने की तो हिम्मत आ जायेगी, वैसे तो कई बार चारपाई पर से नहीं उठा जाता।”
“माँ, तुम इतनी उदास थीं, तो छोटे के साथ, उसके घर... ”
“मैं यहाँ अपने घर अच्छी हूँ। अब तू आ गया है, मुझे और क्या चाहिए !
उसको लगा माँ बहुत उदास थी। और शायद उसकी उदासी का सम्बन्ध सिर्फ़ उसके अकेलेपन से नहीं, किसी और चीज़ से भी था।
खिड़की में से आती धूप की लकीर दीवार पर बड़ी शोख-सी दिख रही थी। उसने खिड़की के परदे को सरकाया। और उसे ग़लीचे का पीला रंग ऐसे लगा जैसे निश्चिन्त-सा होकर कमरे में सो गया हो।
“तू थक गया होगा। कुछ सो ले,” माँ ने कहा, और मेज़ पर से प्लेट उठाकर कमरे से जाने लगी।
“नहीं, मुझे नींद नहीं आ रही,” उसने हलका-सा झूठ बोला, और कहा, “मैं तुम्हारे लिए एक-दो चीजें लाया हूँ, देखूं पूरी आती हैं कि नहीं।”
उसने सूटकेस खोला। एक गरम काली ऊन की शाल थी, पंखों जैसी हलकी। माँ के कन्धों पर डालकर कहने लगा, “यह जाड़े की चीज़ है, पर एक मिनट अपने ऊपर ओड़कर दिखाओ। यह तुम्हें बड़ी अच्छी लगेगी।
फिर उसने फर के स्लीपर निकाले। मां के पैरों में पहनाकर कहने लगा, “देखो, कितने पूरे आये हैं ! मुझे डर था, छोटे न हों।”
“इस उम्र में मुझे अच्छे लगेंगे?” माँ की आँखों में पानी-सा भर आया था।
बड़ माँ का ध्यान बटाने के लिए और चीज़ दिखाने लगा। प्लास्टिक की एक छोटी-सी डब्बी में कुछ सिक्के थे—इटली के लीरा, यूगोस्लाविया के दीनार, बलगारिया के लेता, हंगरी के फारेंटस, रोमानिया के लई, जरमनी के दीनार... उसने सिक्कों को खनकाया और कहने लगा, “माँ, तुमने कहा था न कि छोटे के घर बहुत जल्दी काई बच्चा... ”
“'हाँ-हाँ, कहा था,” माँ कमरे से जाने के लिए उतावली-सी लगी।
“यह अपने भतीजे को दूंगा।
और फिर उसने सूटकेस में से और चीज़ें निकालीं—”छोटे के लिए यह कैमरा, और भाभी के लिए यह... ”
माँ रुआन्सी-सी हो गयी।
उसका हाथ रुक गया।
“माँ, क्या बात है, तुम मुझे बताती क्यों नहीं?”
माँ चुप थी।
उसने माँ के कन्धे पर हाथ रखा।
माँ को काई कहीं कुसूरवार लगता था। पता नहीं, कौन? और सोच-सोच कर उसे अपना मुंह ही कुसूरवार लगने लगा था। उसने एक विवशता से उसकी तरफ़ देखा।
“माँ, तुम कुछ बताना चाहती हो, पर बताती नहीं।
“वह लड़की... ”
“कौन-सी लड़की?”
“जो तुझे उस दिन मिलने आयी थी, जिस ने तेरे लिए एक स्वेटर्... ”
“हाँ, क्या हुआ उस लड़की को?”
“उसने छोटे के साथ ब्याह कर लिया है।”
माँ के कन्धे पर रखा हुआ उसका हाथ कस-सा गया। एक पल के लिए उसे लगा कि हाथ ने कन्धे का सहारा लिया था, पर दूसरे पल लगा कि हाथ ने कन्धे को सहारा दिया था
और वह हँस पड़ा—”सो वह मेरी भाभी है !”
माँ उसके मुंह की तरफ़ देखने लगी।
“मुझे ख़त में क्यों नहीं लिखा था?”
“क्या लिखती... यह उन्होंने लिखनेवाली बात थी?”
“छोटे ने सिर्फ़ ब्याह की ख़बर दी थी और कुछ नहीं लिखा था।”
“दोनों शरमिन्दे तुझे क्या लिखते!”
खुले सूटकेस के पास जो दूसरा बन्द सूटकेस था, उस पर उसका ओवर-कोट और वह स्वेटर पड़ा हुआ था जो उसने सुबह आते वक़्त पहना था।
वह एक मिनट स्वेटर की तरफ़ देखता रहा। स्वेटर गुच्छा-सा होकर अपने- आप को ओवरकोट के नीचे छिपाता-सा लग रहा था।
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