अच्छी फ़िल्मों को देखना बहुत ज़रूरी (और साहित्यिक) होता है। यह तब और अच्छा हो जाता है जब गीताश्री सरीखा संवेदनशील लेखक किसी ऐसी फिल्म को देख, फ़िल्म की परतों को मेरे जैसे सामान्यजन के लिए खोल देता है और फ़िल्म को देखने का एक नज़रिया दे देता है। आभार ~ सं०
द वुमन किंग (२०२२) की एक अमरीकी फ़िल्म है जो कि हाल ही में नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई है।
निर्देशक: जीना प्रिंस-बाइटवुड
पटकथा: दाना स्टीवंस
कहानी: मारिया बेल्लो | दाना स्टीवंस
कलाकार: वायोला डेविस (ऑस्कर, गोल्डन ग्लोब और एमी पुरस्कार विजेता) | थुसो मबेदु | लशाना लिंच | शीला अतिम | हीरो फिएन्स टिफिन | जॉन बॉयेगा
The Woman King movie review in Hindi |
जहां शिकारी बन कर ही जिया जा सकता है...
— गीताश्री
अफ़्रीका का एक दाहोमी समुदाय है जिसका एक युवा राजा है, अनेक महत्वाकांक्षी रानियों से घिरा हुआ। इनका शत्रु हैं—ओयो साम्राज्य जो इन्हें नेस्तनाबूद कर देना चाहते हैं। यूरोपियन और अमेरिकन के साथ मिल कर उन्हें ग़ुलाम बना कर बाज़ार में बेच देना चाहते हैं। दोनों के पास शक्तिशाली फ़ौज है। मरने-मारने पर आमादा। ओवो साम्राज्य ज़्यादा दुष्ट है जो दाहोमी स्त्रियों का दैहिक शोषण करते हैं। उन्हें दारुण दुख देते हैं। दाहोमी राजा का अपना विशालकाय क़िला है जिसके बाहर ख़तरे ही ख़तरे और अंदर सुरक्षा है। अंदर फ़ौज भी है और शरण में आई प्रजा भी। जो प्रजा बाहर बसती है वो सुरक्षित नहीं। न स्त्री न पुरुष न बच्चियाँ। या तो किशोरी लड़कियों को शादी के सौदागर आते हैं सौदा करने, जिन्हें माँ बाप बेचते हैं। या फिर यूरोपियन व्यापारी आते हैं ग़ुलाम ख़रीदने। अपने लिए स्त्रियाँ भी ख़रीदने। जिन्हें सेक्स स्लेव बना सकें। उनकी बोलियाँ लगती हैं, नीलामी होती है।
ग़ुलामों का व्यापार पिछली शताब्दियों का सबसे घिनौना अध्याय है जिसे देखते हुए यक़ीन नहीं होता कि इसके व्यापारियों के पास दिल भी होता होगा या ये मनुष्य भी हैं। उनकी करतूतों से दरिंदे शरमा जाएँ।
दास-प्रथा या ग़ुलामों के व्यापार के क़िस्से किताबों में पढ़ने या फिल्मों में देखने वाले उसका अत्यंत नारकीय रूप इस फ़िल्म में देख सकते हैं।
इतिहास याद करता है, ग़ुलामों के नायक स्पार्टकस को। वह पहली लड़ाई थी ग़ुलामी से मुक्ति की।
इस फ़िल्म में स्त्रियाँ ग़ुलामी प्रथा के विरुद्ध युद्ध करती हैं और उसका ख़ात्मा करती हैं।
वहाँ स्पार्टकस है, यहाँ अगोजी है। योद्धा स्त्रियों को अगोजी कहते हैं। इनका बाज़ार मूल्य तब ज़्यादा होता था। वे गठीले बदन की स्त्रियाँ होती थीं जिनके ख़रीदार बहुत थे।
वे जानते नहीं थे कि अगोजी सिर्फ़ देह से ही बलवान नहीं, दिमाग़ से भी उतनी ही मज़बूत होती हैं। दुश्मनों से घिरने के है बावजूद वे विचलित नहीं होतीं। यही उनकी ताक़त है। यही उन्हें बचा ले जाता है और दुश्मन को धूल चटा देती हैं।
ऐसा नहीं कि वे अमर्त्य हैं। वे आसानी ने न हारती हैं न मरती हैं। अगर मरती भी हैं तो शान से।
मृत्यु जैसे खेल है उनके लिए। गाजर-मूली की तरह दुश्मनों को काटती हुई फ़तह हासिल करती हैं।
उन्होंने हारना नहीं सीखा है।
एक किशोरी बच्ची विवाह का सौदा करने से मना करती है। पिता को लगता है, कोई इससे विवाह नहीं करेगा। उस बेकार लड़की को फ़ौज के हवाले कर देता है। यानी राजा के क़िले में फेंक आता है। जहां उसके जैसी कई लड़कियाँ योद्धा की ट्रेनिंग ले रही हैं।
एक लड़की दूसरी से पूछती है—“ तुम यहाँ क्यों हो? “
जवाब—“यहाँ मैं शिकारी बन कर रहूँगी, शिकार नहीं।”
लड़की को पता है, क़िले से बाहर ग़ुलामी है, अन्याय है, अत्याचार है। वह शिकार बन सकती है। उसे यह मंज़ूर नहीं। उसे पता है—हम लड़ते हैं या मरते हैं। लड़ना कोई जादू नहीं, हुनर होता है और यह हुनर सीख कर ही जादू किया जा सकता है। अपनी क़ौम को बचा कर। अपने साम्राज्य को सुरक्षित कर। ग़ुलामी प्रथा हमेशा के लिए ख़त्म करके।
स्त्रियों की लड़ाका सेना युद्ध के लिए तत्पर है और उनके राजा को यक़ीन है कि वे विजयी होंगी। राजा की सेनापति एक स्त्री है जिसकी देह और आत्मा दोनों पर असंख्य घाव हैं। इतने ज़ख़्म मिले कि वह स्त्री एक हथियार में बदल गई। उसके या अन्य अगोजियों के भी नाखून इतने धारदार हैं कि किसी का गला काटा जा सकता है। वे उसे धार देकर हथियार में बदल देती हैं।
ऐसे हथियार जब शत्रु पर टूटते हैं तो विनाशकारी दृश्य उत्पन्न होते हैं। ये फ़ौज दिमागी तौर पर भी बहुत तेज है। इनकी युद्ध की रणनीति देखने लायक है। वे जानती हैं कि सामरिक युद्ध में शत्रु के किस कमजोर और सबल दोनों पक्ष पर वार करना है।
यहां पर सोवियत संघ के प्रख्यात नेता स्टालिन का कथन याद आता है। वे कहा करते थे—सामरिक युद्ध में हम दुश्मन के सबसे कमजोर पक्ष पर वार करते हैं लेकिन राजनीतिक युद्ध में हम उसके सबसे मजबूत पक्ष पर हमला करते हैं।
राजा की स्त्री सेना दोनों तरह की रणनीति में माहिर है।
इस फ़िल्म को देखते हुए मैं कब इस फ़ौज का हिस्सा बनी, याद नहीं। जब वे बिजली की तरह शत्रु सेना पर छलांग लगाकर कूद रही थीं और एक एक कर उनके सिर काट रही थीं, तब मेरा युद्ध विरोधी, अहिंसक मन उनका हिस्सा बन गया था। मैं रक्तपात न पसंद करती हूँ न देख सकती हूँ। मैं तो एक्शन मूवी भी बहुत मुश्किल से देख पाती हूँ। इस फ़िल्म को देखने का साहस जुटाना मेरे लिए असामान्य बात थी।
इस फ़िल्म के कई निहितार्थ हैं...
एक राजा जिसे स्त्रियों की सेना पर भरोसा है। एक राजा जिसका हुक्म उसका सेनापति नहीं मानती है फिर भी उसे राजगद्दी सौंप देता है, सजा देने के बजाय।
एक राजा जो दुनिया को बताता है कि हम अमेरिकन और यूरोपियन को यह जब तक बताते रहेंगे कि हम ग़ुलाम बनने लायक़ हैं तभी तक वे हमें ग़ुलाम बनाते रहेंगे। सबसे पहले अपने भीतर से ग़ुलाम बनने का, ग़ुलामी स्वीकार करने का भाव समाप्त करना होगा।
इस डार्क फ़िल्म में प्रेम की एक नदी चुपचाप बहती है जिसमें रक्त की परछाईं है।
19 वर्षीय योद्धा लड़की के जीवन में एक अफ़्रीकन-यूरोपियन प्रेमी आता है, जो उसे एक बार पकड़े जाने पर बिकने से बचा लेता है। प्रेमी की माँ दाहोमी समुदाय से थीं, इसलिए उसे इनसे सहानुभूति है। वह इनके बीच यूरोपियन व्यापारियों के साथ आता तो है लेकिन इस कारोबार से उसे नफ़रत है। वह इनकी मदद करना चाहता है। वह भी ग़ुलामी प्रथा का विरोध करता है। वह बार-बार लड़की से टकराता है और उससे प्रेम करने लगता है।
उसे सुरक्षित यहां से कहीं दूर ले जाना चाहता है लेकिन लड़की जानती है कि योद्धा होने की कुछ शर्तें हैं—वे न प्रेम कर सकती हैं न विवाह।
प्रेम पर किसी का वश नहीं चलता। विवाह पर चल सकता है। मन ही मन वह भी उस लड़के की उदारता पर मुग्ध होती है। लेकिन उसके साथ कहीं नहीं जा सकती।
एक बहुत सुंदर दृश्य है—लड़की युद्ध से लौटी है, उसके हाथ रक्त से लथपथ हैं। लड़का उन हाथों को एक बड़े कटोरे में पानी लेकर धोता है, तौलिए से पोंछता है। दोनों शिविर में छुप कर बैठे हैं, बाहर शत्रुओं का कोलाहल है।
लड़की अपने सीनियर योद्धा से बात करती है तो वह कहती है—“प्यार हमेशा कमजोर बनाता है। प्यार और महत्वाकांक्षा एक साथ नहीं चल सकते।”
यह वाक्य ज़ेहन में कहीं धँस जाता है। बहुत बड़ा सत्य है। युद्ध जीत कर जब स्त्रियों की सेना लौट रही है तब वह लड़की अपने प्रेमी को देख कर पहली बार मुस्कुराती है और सिर हिलाकर सिर्फ़ प्रेम ज़ाहिर करती है।
यही तक है उनका प्रेम। बिछोह में भी प्रेमी मुस्कुराते हुए देवदूत सरीखे लगते हैं।
इतना संतोष काफ़ी है कि लड़की भी उससे प्यार करती है, भले वह उसे हासिल नहीं होगी।
एक बहस है यहाँ...
राजा को आर्थिक चिंता होती है। उसके सामने अर्थोपार्जन के उपाय सिर्फ़ ये कि वह अपने लोगों को ग़ुलाम बनाकर उन्हें बेच दे। ग़ुलामों का व्यापार करे।
राजा की स्त्री सेनापति बहुत चतुर, कुशाग्र स्त्री है। वह राजा के सामने प्रस्ताव रखती है कि कैसे हम अपने संसाधनों से पैसा कमा सकते हैं। प्रकृति ने उन्हें प्रचार संसाधन दे रखे है। वे अपने यहाँ ताड़ से तेल बना सकते हैं। हम अपने लोग तैयार करें जो तेल निकालें। अपने लोगों को ग़ुलाम बनाकर व्यापार करने से बेहतर है उन्हें श्रम से जोड़ देना। ग़ुलाम बनाने के बजाय अपनी कृषि पर ध्यान देंगे तो उत्पादन दोगुना होगा। उससे राज्य के आर्थिक हालात सुधर सकते हैं।
यह प्रसंग बहुत सामयिक है। जब दुनिया में हम सबकुछ निजी हाथों में सौंपने के लिए आमादा हैं, ऐसे में यह फ़िल्म एक ज़ोरदार अपील करती है कि कैसे हम अपने संसाधनों का इस्तेमाल अपने हक़ में कर सकते हैं। हम अपने श्रम को निजी कंपनियों का ग़ुलाम बनाने के बजाय अपने उत्पादन में लगाए तो हालात बदल सकते हैं।
यह रास्ता एक स्त्री बताती है। राजा सुनता है और उसे चुनौती देता है। उस पर विश्वास करता है। इससे राज्य की आर्थिक हालत सुधरने लगती है।
संघर्ष तब शुरु होता है जब ओयो समुदाय उसे एक कॉमन पोर्ट से व्यापार करने की अनुमति नहीं देता। बदले में ग़ुलाम माँगता है जिनमें स्त्रियाँ भी होती हैं। वह सामान्य स्त्रियाँ नहीं, योद्धा स्त्रियों की माँग रखता है।
यहीं पर शत्रु भूल कर बैठता है। योद्धा हर हाल में लड़ते हैं चाहे क़ैद हो या बाहर। यही स्त्रियाँ उनके विनाश का कारण बनती हैं।
कहानी के भीतर कहानी चलती है, कुछ राज, कुछ रहस्य पलते हैं।
सेनापति नानिस्का का कभी ओयो समुदाय के मुखिया ने बलात्कार किया था। वह उससे गर्भवती हो गई थी। उसने बच्ची को जन्म दिया और अनाथालय में भेज दिया। उसे पाप की संतान मान कर उससे पीछा छुड़ा लेती है। तब भी उसके ज़ेहन में बच्ची की सुरक्षा की चिंता होती है तो उसकी पीठ में शार्क का दाँत घुसा देती है। अफ्रीकी समुदाय अंधविश्वासी बहुत होते हैं। वे आत्माओं में, लोक देवों में बहुत विश्वास करते हैं। शार्क के दांत को लेकर भी लोक मान्यताएँ हैं। बाद में इसी दांत से वह लड़की पहचानी भी जाती है। वही लड़की जब बड़ी होती है तो फ़ौज में भर्ती होने आती है। यह वही लड़की है, 19 वर्षीय योद्धा लड़की। वह सेनापति की पुत्री है। बाद में दोनों को इस राज का पता चलता है। कुछ समय तक दोनों में तनातनी, खिंचाव रहता है, बाद में दोनों एक दूसरे के क़रीब आते हैं। यहाँ एक स्त्री अपने कोख के साथ खड़ी होती है, उसे अपना लेती है, और शोषण करने वाले उसके बलात्कारी पिता का कत्ल कर देती है।
एक दृश्य में पुत्री अपने पिता को जिन आग्नेय नेत्रों से घूरती है, वह रूह कंपा देने वाला है। इतनी घृणा, इतनी हिंसा उन आँखों में, जैसे भस्म कर देंगी।
ये आंखें कभी नहीं भुलाई जा सकतीं। ये हर उस स्त्री की आंख है जो अपने शोषक को भस्म कर देना चाहती है, चाहे वह उसका पिता ही क्यों न हो।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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