लक्ष्मी शर्मा की कहानी ‘इला न देणी आपणी’ पढ़िए। सुंदर भाषा में सुनायी गई एक बेहद मजबूत कहानी। मुझे नहीं पता कि स्त्री लेखन संसार में कहानी की चर्चा कितनी हुई है लेकिन, इतना कह सकता हूँ कि पढ़ने के बाद आप न सिर्फ नायिका सुरसती से जुड़^ रहे होंगे साथ ही, कहानीकार और उसकी इस कृति की चर्चा कर रहे होंगे।
^ ये पढ़िए — “बताते हैं बाई, जरा धीरज धरो, आप बहुत उतावली हो, इत्ता उतावलापन ठीक नहीं।” सुरसती पहली बार हंसी। मैं उसकी बात पर नाराज होने की जगह वाकहीन बनी उसकी हंसी देख रही हूँ...जैसे कोरे घड़े से छलकती मदिरा। और उस पर हंसी से चमकती काली आँखे... जैसे कांच की प्याली में धरा अफीम। कोई कैसे इससे अछूता रह सकता है। मेरा मन मर्दाना सा होने लगा।
बेहतरीन कहानी का लुत्फ़ लीजिए ~ सं०
Laxmi Sharma Ki Kahani |
इला न देणी आपणी
लक्ष्मी शर्मा
उपन्यासकार, लेखिका। सेवानिवृत्त सह आचार्य हिंदी, राजस्थान महाविद्यालय सेवा। जन्म- 25.6.1964, इंदौर। उपन्यास: 'सिधपुर की भगतणें', 'स्वर्ग का अंतिम उतार' कथा संग्रह: एक हँसी की उम्र', 'रानियाँ रोती नहीं', 'कथा सप्तक' आलोचना: 'मोहन राकेश के साहित्य में पात्र-संरचना', 'राजस्थान की लघु पत्रिकाएं : कथ्य एवं कलेवर' संपादन: 'स्त्री होकर सवाल करती है', 'आधुनिक कविता' पुरस्कार: 'स्वर्ग का अंतिम उतार' उपन्यास वर्ष 2020 के लिए शिवना अंतरराष्ट्रीय कथा-सम्मान से पुरस्कृत। मध्यप्रदेश प्रेस क्लब द्वारा 'मध्यप्रदेश रत्न अलंकार 2022 सम्मान' सम्पर्क: 65, विश्वकर्मा नगर 2nd, महारानी फार्म, जयपुर-302018, मो: 9414322200, ईमेल: drlakshmisharma25@gmail.com
पड़वा की चांदनी सुरसती की नाक के फूल को छूने की कोशिश में उसकी लम्बी, कंटीली बरोंनियों में उलझ गई है और निकलने की कशमकश में उसकी बरोनियों को थरथरा रही है। अकम्प बैठा उसका प्रोढ़ सौन्दर्य लॉन में आसक्ति और विरक्ति का मिलाजुला अजीब सा प्रभाव पैदा कर रहा है।मुझे आज पहली बार अनुभव हुआ कि ऐसा रूप विरक्ति के बिना आसक्ति नहीं दे सकता, और किशोर उम्र की युवतियाँ इस से खौफ खाती थीं तो क्या अनहोनी करती थीं। किसी भी युवती को कमतर दिखना नहीं अच्छा लगता।
मैं एकटक उसे देखे जा रही हूँ, अपलक। जनक के पूर्वज निमि अगर इस कलियुग में भी पलकों पर ही रहते हैं तो वो भी निश्चित ही इसे देखकर अपनी पलकें झपकाना भूल गए होंगे।
सच कह रही हूँ मैंने इस से पहले ऐसा सम्पूर्ण सौन्दर्य शायद ही कहीं देखा हो, दर्पण में भी नहीं।
झुक कर सब्जी का डोंगा उठाती उस प्रौढ़ स्त्री का सौन्दर्य विधाता के खुले हाथों लुटाये रंग-रूप में ही नहीं, उसके सारे व्यक्तित्व में गुंथा हुआ है।
उसकी पतली कलाइयों की लोच में, अकृत्रिम पद-लाघव में, कमर में खुड़सी सस्ती सी सिंथेटिक साड़ी के तोतई हरे पल्लू में, उसकी सुघड़ नाक में पहने बड़े से स्वर्ण फूल, जो शायद उस का एकमात्र शेष बच रहा आभूषण है, में। और उसकी अंतर्मुखी शालीनता में जो मैं लगातार कल से नोट कर रही हूँ।
अंतर्मुखता, जो न सायास है न ओढ़ी हुई। न उसमे दैन्य है न उदासी। स्वयं के लिए आत्मदया और दुनिया के लिए उपेक्षा तो कतई नहीं। वो एक लय में डूबी है जो रोबोटिक भी नहीं और लौकिक भी नहीं।
क्या है इस अजनबी, अधेड़ कामगर स्त्री में, मैं समझ भी नहीं पा रही हूँ और मुक्त भी नहीं हो पा रही हूँ। माँ के जाने के दुःख और गंगभोज की व्यस्तता के बीच वो मुझे लगातार आकर्षित कर रही है, या कह लूँ कि हांट कर रही है।
इसे मैंने एक बार भी मुस्कराते हुए नहीं देखा पर वो कहीं से दुखी भी नहीं लग रही। 'हे भगवान, मैं तो इसका विश्लेषण करने बैठ गई। हर जगह कहानीकार बने रह कर चरित्र खोजते रहना ठीक बात नहीं हाँ मालती।’ मैंने ख़ुद को टोका और विदा में दिए जाने वाले भगोनों और मेहमानों का मीज़ान बिठाने लगी, अभी तो कुछ साड़ियाँ भी और मंगवानी होगी और चार-छः भगोने भी।
“भाभी” मैंने भाभी को आवाज़ दी।
“हओ बाई, बोलो।” पीछे भाभी की जगह कोई नई, अपरिचित आवाज़ आ खड़ी हुई। मुड़ के देखा तो वही किताबी चेहरा जिससे पीछा छुड़ा के मैं यहाँ भंडार में घुसी थी।
“नहीं, मैं भाभी को...”
“आई बाई सा, वो नसियां वाली काकी सा को छोड़ने गई थी। तू जा सुरसती, बाई सा तुझे नहीं, मुझे बुला रही थीं। दरअसल इसे यहाँ सब भाभी ही कहते हैं न तो... कितने भगोने और साड़ी कम पड़ रही है?” मेरी भाभी एक बात में बहुत कुछ निपटा रही है।
सुरसती के जाने के बाद हमें बहुत कुछ करना था सो उस समय मैं सब कुछ भूल-भाल गई पर मैंने दिमाग की टू डू लिस्ट में डाल लिया कि जोधपुर लौटने के पहले एक बार सुरसती से बात जरूर करनी है, अगर ये राजी हो गई तो।
जब गंगभोज की व्यस्तता ओर मेहमानों की गहमागहमी के डेढ़ दिन गुजर गए और बच रहे आधा दिन के लिए हम लोग कुछ फ्री हुए तो वो मुझे फिर हांट करने लगी।
“सुनो भाभी” मैंने उसे पुकारा लेकिन मेरी आवाज़ पर उसने जरा भी तवज्जोह नहीं दी और अपनी आत्मलीनता में डूबी धुले बर्तन पोंछती रही। अब जब उसे मालूम है कि मैं उसे भाभी नहीं बुलाती तो बेकार देखने का भी क्या फायदा।
“सुनो ना सुरसती भाभी, मैं तुम्हे ही बुला रही हूँ।” अब मैंने नाम लेके पुकारा और मैं अचंभित रह गई। सुरसती इस सहजता से पास आ खड़ी हुई जैसे सदियों से मेरे पुकारे जाने के इंतज़ार में ही खड़ी थी।
उसके चेहरे पर सहज चुप्पी के अलावा कुछ नहीं है, न झिझक, न उत्सुकता, न प्रश्न, न उतावली। बस पृथ्वी सी सहजता।
“बैठो भाभी” मैंने कहा तो उसके मुख पर अनिच्छा सी उग आई जो उसने छुपाई भी नहीं।
“बोलो बाई, क्या चाहिए, पानी लाऊं या चाय बना दूँ?” उसने गीले हाथों को सिन्दूरी साड़ी के किनारे से पोंछ लिया।
“नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस तुमसे बात करने का मन कर रहा था।” उसके सादा और स्ट्रेट फारवर्ड मिजाज़ पर न मेरी कोई चतुराई चलती न ही मैंने कोशिश की, बस सीधे से अपनी बात रख दी।
“तो कर लो, पर क्या बात करोगी? मैं तो तुम्हें जानती भी नहीं, और ना तुम मुझे।” सुरसती शार्प है।
“अरे, तो मुझे कौन सा रिश्तेदारी निकालनी है भाभी। बस ऐसे ही तुम अच्छी लगी तो बात करने का मन हो गया, बैठो।”
मेरे नज़दीक चौकी पर बैठी सुरसती को मैंने जरा गौर से देखा। क्या रंग-रूप दिया है विधाता ने इसे, तिलोत्तमा... अपरूपा। भुवनमोहिनी जैसे शब्द इसी रूप को मिले होंगे ना।
“इसी रूप ने आज मुझे तुम्हारे आगे बिठा रखा है बाई।” सुरसती में बुद्धिमानी और स्त्रियोचित अंतर्दृष्टि दोनों है। नज़रों से भाँप लेना उसे शायद इस फुर्तीली देह के साथ ही मिला है तभी तो इस धर्मशाला की सबसे महंगी कर्मचारी है।
”मैं समझी नहीं भाभी, रूप के पुण्य से यहाँ हो या पाप से?”
“अब ये तो मालिक ही बताएगा आगे-आगे, मैं तो बस भोग रही हूँ।”
“कहाँ की हो भाभी।”
सुरसती ने कुछ क्षण चतुर, तोलती हुई नज़रों से मुझे देखा, जरा दूर में सामान सहेजती भाभी को देखा, मेहमानों से सूने हो गए चौक को देखा और हर तरह से आश्वस्त होके जवाब दिया “थी तो होशंगाबाद जिले की, पर अब जहाँ ये पेट ले जाये वहीं की हो जाती हूँ बाई। अब तो ये पेट ही मेरा ठिकाना है और हाथ-पैर मेरे संगी साथी।” सुरसती ने अपनी ओर आते लंगड़े चींटे को तर्जनी के निशाने से बरामदे के नीचे हिट कर दिया।
“पढ़ी-लिखी हो?”
“हाँ, बारह दर्जे तक स्कूल गई थी, फिर सब छूट-छाट गया।”
“भाभी, तुम थोड़ी-बहुत पढ़ी हुई भी हो, रंगरूप से भी अच्छे घर की दिखती हो फिर यहाँ ये काम क्यों...”
“कहा ना बाई, ये रंगरूप मुझे नचा रहा है और मैं इसे।”
क्या...क्या कहा इसने आखिर में! ये रंगरूप को नचा रही है, कैसे! अगर ये बात कोई रूपजीवा कहती तो बात थी। लेकिन इसके, एक रसोई-चौका करने वाली अधेड़ औरत के मुँह से ये बात! मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा पर मैं चुप रही।
कुछ तो है इसमें, ऐसे ही तो नहीं हांट कर रही ये मुझे... इस स्त्री के सहज बर्ताव के पीछे भी क्या एक रहस्यमय अतीत है।
मुझे ख़ुद की ‘सास-बहु सीरियल मार्का बुद्धि’ पर हंसी और चिढ़ दोनों आई। ‘ख़ुद से ख़ुद ही बुनती-उधेड़ती रहोगी या इस से भी कुछ सुनोगी’ मैंने ख़ुद को चुपाया और सुरसती से मुख़ातिब हुई। “कितने साल की हो भाभी ?”
“अबके नवम्बर छियालीस की हो जाउंगी बाई, 28 नवम्बर लिखी थी स्कूल के कागज में।” अरे हां, ये तो पढ़ी-लिखी भी है ना। मुझे याद आ गया।
“स्कूल में क्या विषय पढ़ती थी भाभी तुम?” मैं बात करने को बात कर रही हूँ कि कहीं से तो कोई सूत्र मिलेगा लेकिन जब भाभी ने कहा “अंग्रेजी और भूगोल” तो मैं एक बार फिर चौंक गई। सच में कहानियों का पात्र है ये स्त्री।
'फिर आगे पढ़ाई क्यों छोड़ दी, यहाँ कैसे आ गई, घर में क्या और कोई नहीं?' जैसे कितने ही प्रश्न मेरे मन में थे, सच कहूँ तो पूछने का मन भी था। लेकिन इस तिलोत्तमा सुन्दरी में कुछ तो ऐसा है कि मैं सीधे-सीधे कुछ नहीं पूछ पा रही हूँ और कुछ ऊटपटांग भी पूछ ले रही हूँ, जैसे मैंने अचानक पूछ लिया “भाभी, तुम्हारी शादी तुम्हारी पसंद से हुई थी?”
“नहीं, अब होगी।” भाभी के कोमल रूप पर सुर्खी दौड़ गई, कठोर सी सुर्खी… ये एक और ट्विस्ट है। समझना मुश्किल है कि ये डायलॉग ख़ुशी में आया है या तंज़ में, इसकी अब तक शादी ही नहीं हुई है या मनपसंद की नहीं हुई है?
“क्या ! शादी या मनपसन्द वाली शादी?” मैं बिना आगे-पीछे सोचे धडाक से बोल गई और अपनी इस बदफैली पर भीतर से सहम भी गई। पर घटनी तो घट चुकी थी लेकिन भाभी अब भी सहज थी। उसकी नाक का फूल स्थिर था।
“सादी तो हो गई बाई, अब तो मनपसन्द वाली होनी है।” नाक के फूल की तरह ही उसकी आवाज भी स्थिर और चमकीली है।
हे प्रभु, एक और सिक्सर। क्या स्त्री है। कैसी तो बेबाक और कैसी तो बेलौस। ये तो डराती है यार, कहीं गलत नम्बर तो नहीं डायल हो गया मुझ से।
कौन जाने कोई आवारा ही हो जो अपने बुरे लक्षणों के चलते घर से भाग आई हो, या भगा दी गयी हो।
लेकिन ऐसा होता तो धर्मशाला मेनेजमेंट इसे नौकरी पर रखता, इसे भंडार की चाबी रखने का सम्मान देता? चलो मान लिया मेनेजमेंट तो पुरुष वर्चस्व का है लेकिन इस कस्बेनुमा शहर की खाँटी, पारम्परिक औरतें भी भाभी की तारीफ़ करती हैं जो ऐसी-वैसी औरतों को देखते ही मुँह नोचने पर उतारू हो जाती हैं।
“क्या सोचने लगीं बाई?” सुरसती ने पहली बार अपनी ओर से बात बढ़ाई।
“तुम बहुत अलग हो सबसे, रूप में भी और बुद्धि में भी।” सुरसती मेरी बात का जवाब दिये बगैर चुप बैठी है।
“तुम्हारा पहले वाला पति कैसा था सुरसती भाभी?” लंगड़ा चींटा फिर बरामदे में चढ़ आया है।
“था नहीं बाई, अब भी है।”
बाप रे! मैं सनाका खा गई, ये बेवा या तलाकशुदा नहीं, पति को छोड़ कर आई हुई औरत है। ’चालू’ मेरे मन में पहला रिएक्शन वही उभरा जो मर्दवादी समाज में स्त्रीद्वेष के तंतुओं से बुनी एक स्त्री का होना था।
और सुरसती की नाक का फूल थरथरा गया, पहली बार। “मैं ऐसी वैसी औरत नहीं बाई। होती तो इस पराए देस में चौका-बासन नहीं कर रही होती।” सुरसती की आवाज काँप रही है। जाने कौन सा जेस्चर मेरे विचार की चुगली कर गया जिसने इस मजबूत औरत को रुला दिया। मैं बिना कुछ कहे मुजरिम सी बैठी जाजम पर सरसराते लंगड़े चींटे को देखती रही।
“अभी आप घर जाओ बाई, मैं रात को आऊँगी। मुकुल भैया का घर जानती हूँ मैं।” सुरसती ने एक टूक फैसला सुनाया, घिसटते लंगड़े चींटे को अपनी चप्पल के आघात से देहमुक्त किया और भंडार में घुस गई।
रात 10 बजे के लगभग, जो मैंने सोचा था ठीक उसी समय, सुरसती भाभी लान में आ खड़ी हुई और वहीं बैठने का संकल्प लिए एक कुर्सी पर जम गई। हालाँकि जाती हुई ठंड है पर रात दस बजे लान में बैठना... खैर।
“अब पूछो बाई, का पूछने हैं तुमाए लाने। ऐसे तो हम कोनऊ को नईं बताते हैं पर तुम इत्ती बड़ी मास्टर, लिखवे-पढ़वे वाली दीदी, चार दिन से हमाए चक्कर खा रही हो, हमारे बारे में सोचत हो तो बताने आ गए। तुम हम पे साई एक कहानी लिखई देव बाई।” खुल कर बुन्देलखंडी बोलती सुरसती अपने स्वभाव के फुल फार्म में है, फोकस्ड, टू द पॉइंट। मुझे भी इधर-उधर की बात करने का कोई औचित्य नहीं लगा। “कोई नई बात तो है नहीं भाभी, तुम मुझे सबसे बहुत अलग लगी तो मेरा तुमसे बात करने का मन किया। और बात करने के बाद तो तुम ज्यादा अलग लग रही हो, बताओ न कुछ अपने बारे में।”
“बताऊँगी, बतावे तो आये हैं, तुमाओ भरोसा भी है और जा तसल्ली भी के अगर हम मर गए तो जो हमाओ सच हमाए संग तो ने मरहें न। ऐसे काय देखत हो बाई, हमाई मौत तो हमाए संगे चल रही है। और तुम डरत काय हो, इते अबे कछु ना हुइए।” सुरसती को राम ने कोई भीतरी आंख तो जरूर दी है जो वो सामने वाले की एक-एक साँस को पढ़ लेती है,
“तुम भीतर जाओ लाला।” बड़ा भतीजा आकर पास बैठने लगा था कि सुरसती ने उसे बेहिचक बरज दिया।
“हम होसंगाबाद जिले के एक छोटे से गाँव के ठाकुर की मोड़ी आए। दाल-रोटी खात भये गिरस्थ घर की मोड़ी। सब मोड़ियों के जैसे घर को काम करत, भईया-बहनों से लड़त, मताई से ठुकत-पिटत, स्कूल जाती मोड़ी। सब मोड़ियों में और हम में बस एक ही अंतर हतो कि बिधना ने हमाए लाने ये रंगरूप दियो जो हमाए मताई-बाप के जी की आफत बन गओ। राम कोनऊ को जे रूप ना दे बाई। एइके कारण आज हम दर-दर के हो रहे हैं।”
“क्यों भाभी?” शायद इसका अपहरण हुआ हो या बलात्कार के बाद घर से निकाल दी गई हो। मेरे टेलीविजनी प्रीडिक्शन चालू हैं। शुक्र है सुरसती अपनी यादों में आँखे फेरे हैं, वरना अभी एक तीर आता।
“माँ-बाप हमारे सारे माँ-बापों जैसे थे, वो गरीब के धन की तरह हमें सम्भाल-सम्भाल के रखते, सारे बखत चौकसी की आँख रखते। न अकेले घर से निकलने की छूट न घर पे फालतू आदमी आने की रजा। स्कूल भी जाती तो बहन के साथ। उसकी छुट्टी हो तो मुझे भी घर रहना पड़ता। न खेत पे अकेली जा सकती थी ना हाट-बाज़ार। मेले-ठेले, शादी ब्याह का तो मतलब ही नहीं। जहाँ अम्मा, जिज्जी जाये वहीं जाओ बस। और तो और दिसा-मैदान भी अम्मा के बिना नहीं निकल सकते थे हम।” सुरसती ने यादों की पोटली फैला ली है और ख़ुद भी उसमें उलझ गई है। मैं साफ देख रही हूँ कि अपने रूप का वर्णन करते हुए वो जरा भी खुश नहीं बल्कि कड़वी ही हो रही है।
“अम्मा अकेले में लाड़ लड़ाती पर सबके सामने गालियाँ देने के मौके तलाशती। घर में वैसे भी कोई घी-दूध की धार नहीं बहती थी पर जो भी था मुझे उसमें भी कम से कम दिया जाता कि मेरी देह पहले ही लम्बी-पूरी थी। जिज्जी दो बरस बड़ी हो के भी सूखी पापड़ी सी थी सो वो भाई के साथ घी-दूध खाती, मुझे चिढ़ाती और मैं कक्का के डर से चुप बैठी कुढ़ती रहती।” सुरसती फिर से हिंदी में बोलने लगी है, शायद समझ गई है कि मुझे बुन्देलखंडी कम पल्ले पड़ती है।
“क्या तुम्हारी बहन सुन्दर नहीं थी?”
“थी, अम्मा-कक्का दोनों सरूप थे तो हम तीनों बच्चे ही अच्छे रंग-रूप के थे, पर मेरे साथ खड़ी होके वो भी उन्नीस पड़ती थी। वो ही क्या, आसपास के गाँव की हर लड़की मुझ से उन्नीसी ठहरती थी। इसके कारण मैंने बहुत कुछ झेला सहा भी है बाई, गाँव की लड़कियां न मुझसे दोस्ती करतीं न मुझे अपनी टोली में साथ लेतीं। इसी कारण मैंने स्कूल में भी बहुत नीचा देखा है।”
पड़वा की चांदनी सुरसती की नाक के फूल को छूने की कोशिश में उसकी लम्बी, कंटीली बरोंनियों में उलझ गई है और निकलने की कशमकश में उसकी बरोनियों को थरथरा रही है। अकम्प बैठा उसका प्रोढ़ सौन्दर्य लॉन में आसक्ति और विरक्ति का मिलाजुला अजीब सा प्रभाव पैदा कर रहा है।
मुझे आज पहली बार अनुभव हुआ कि ऐसा रूप विरक्ति के बिना आसक्ति नहीं दे सकता, और किशोर उम्र की युवतियाँ इस से खौफ खाती थीं तो क्या अनहोनी करती थीं। किसी भी युवती को कमतर दिखना नहीं अच्छा लगता।
हवा में खुनकी बढ़ गई है सो सुरसती ने अपनी चटख गुलाबी साड़ी का पल्लू गले में लपेट लिया है और बाउंड्री पर रखे पौधे को गौर से देख रही है।
”ये हरसिंगार है ना बाई? हमारे गाँव में नर्मदा मैया की कृपा है, खूब हरियाली और पेड़-पोधे पनपते हैं वहाँ। मुझे बहुत शौक था धरती और पोधों का। इसलिए मैं ने भूगोल लिया था दसवीं के बाद, पर...” सुरसती के बाकी शब्द गले में अटक गये पर उनका अर्थ मुझ तक फिर भी पहुंच गया।
'तुम भी मेरे देश की उन करोड़ों लड़कियों जैसी हो जिनकी पढ़ने-लिखने की चाह समाज का भय लील जाता है। वो भय जो पिशाच की तरह माँ-बाप के गले में हर समय झूलता रहता है, तब तक जब तक कि ब्याह के मंडप में खड़ा हो कर लड़की के सपनों की बलि ना ले ले'। इस बेचारी के साथ भी यही हुआ होगा। मेरा मन कच्चा कच्चा हो गया।
सुरसती अब जमीन पर लगे छुईमुई के पोधे को छेड़ने में लगी है। “बाई! इसे उखाड़ के फैंक दो। ऐसे कमजोर पोधे को घर में रखना ही क्यों जो छूते ही मुरझाए। पोधे मजबूत हो या फिर गुलाब जैसे कंटीले।” और मुझे लंगड़े चींटे को मसलती चप्पल याद आ गई।
“छोड़ो भाभी, तुम अपनी बात बताओ ना।” मैं उसकी तरह टू द पॉइंट हूँ,
“हओ बाई। तो, ऐसे करते हम दोनों बहने जवान हो गईं। मैं दसवीं में और जिज्जी बारहवीं क्लास में थी जब दीदी को लड़के वाले देखने आये। मुझे पहले ही मौसी के घर, दूसरे गाँव पहुंचा दिया गया कि कहीं लड़के वाले मुझसे मिलने की इच्छा ना जता दें और मेरे कारण दीदी के नसीब से इत्ता अच्छा घर-बर ना छूट जाए। खैर, पास के गाँव के छोटे ठिकानेदार के बड़े बेटे ने हमारी जिज्जी को पसंद भी कर लिया और उन दोनों का ब्याह भी हो गया। जिज्जी शादी के बाद घर लौटी तो देह सोने, संदल और सिल्क से गमक-दमक रही थी और वो खूब खुश थी।
जीजाजी हमसे भी बड़े खुश रहते। कित्ती बार हमे घर भी बुलाया पर न हमे जाना पसंद था न अम्मा-कक्का को भेजना। जीजाजी जब भी घर आते, हम दोनों भाई-बहनों के लिए कपड़ा-मिठाई लाते, हम से खूब बातें करते। बड़ों का मान रखते, अम्मा-कक्का से आंख झुका के बात करते।
साल भर में जिज्जी के पांव भारी हो गये। हम सब खुश थे। मेरी पढ़ाई भी अच्छी चल रही थी। कक्का जीजाजी के साथ मिल कर मेरे लिए लड़का ढूंढ रहे थे।” पुराने दिनों में खोई सुरसती के कुछ साल भी मानों पीछे लौट गये हैं। वो प्रौढ़ा से किशोरी में तब्दील हो गई है। अपने अच्छे दिनों को जीती किशोरी।
भाभी दो बार चक्कर काट गई, वो चाहती हैं कि हम कमरे में नहीं तो कम से कम बरांडे में तो बैठ ही जाएँ पर सुरसती अंगद का पैर और मन दोनों रखती है। “तुम चिंता न करो दुलहिन, हम को कुछ नहीं होगा। अब इत्ती ठंड नहीं रही।” दरअसल सुरसती भाभी से जरा खुली हुई है तभी तो बेहिचक घर आ जाती है। उसने भाभी को दुल्हिन कहने का अधिकार भी ले रखा है और कोई जरूरत पड़ने पर वो भैया-भाभी के पास ही आती है। उसकी जरूरतें होती हैं मनी ट्रांसफर करवाना जैसे बैंक के छोटे-मोटे काम या कभी कोई दवा ला देना।
“कक्का को मेरे दुल्हे के लिए ज्यादा खोज भी नहीं करनी पड़ी, जीजाजी की बुआ के लड़के से मेरी सगाई हो गई और आते जेठ का ब्याह भी तय हो गया।”
“और लड़का तुम्हें पसंद नहीं था,” मेरा उतावला स्वभाव अपने ही निष्कर्ष खोज रहा है। इसी ने तो बताया था कि अभी मनपसन्द की शादी होनी बाकी है।
“उस उम्र में कोई लड़का जल्दी से बुरा नहीं लगता बाई, फिर ये तो माँ-बाप का ढूंढा हुआ लड़का था। बिन बाप का बेटा, घर का गरीब था पर पढ़ने में बहुत तेज था। अच्छा रंगरूप, कॉलेज में बीएससी पढ़ रहा था तो क्या बुरा लगना था। मैं खुश इसलिए नहीं थी क्योंकि मेरी पढ़ाई छूट रही थी।” सुरसती का जवाब राजनैतिक सा है। लड़का पसंद था या नहीं कुछ स्पष्ट नहीं हुआ। चांदनी भी उसकी पलकों से निकल के नीम के पत्तों से आँखमिचोनी में लग गई है, सो साफ़ दीख भी नहीं रहा कि उसके मन में क्या चल रहा होगा।
“शादी के लिए घोड़ी-बाजे, धर्मशाला सब तय हो गए थे, बुलावे के पहले कार्ड के साथ गणेश जी न्योंत दिए गए थे। अम्मा भी पीहर जा कर भात न्योंत आई थी और उसने मौत-उठावने में जाना बंद कर दिया था।
पर भेमाता को तो कुछ और ही मंजूर था बाई। जिस रोज आंगन में पड़ोसनों ने पहली बरनी गाई उसी रात जिज्जी को जोरदार दर्द उठा। उसे घर पर ही छ्मासा बच्चा हुआ और अस्पताल ले जाने तक चटपट में खेल ख़त्म हो गया।”
ओह, वही फेमिली मेलोड्रामा। मुझे आगे की सारी कथा समझ आ गई। अब जीजा से ब्याह और क्या।
“सही सोच रहीं तुम बाई।” सुरसती ने फिर मेरा मन पढ़ लिया।
“मैं हल्दी-मेहंदी लगवाकर पीढ़े चढ़ी, बान-तिलक सब हुआ पर बियाही गई जीजाजी से। मानसिंग, मेरा मंगेतर, जीजाजी का दुःख देख के ख़ुद ही पीछे हट गया तो उसकी माँ ने भी कुछ नहीं कहा। और मेरे माँ-बाप की तो औकात ही क्या थी।” सुरसती का मुख और वाणी दोनों निर्विकार हैं।
“तुम्हारी मर्जी के बिना...”
“हम तो जिज्जी के शोक और अम्मा के दुख से पगला रहे थे, सो बिना कुछ सोचे सब करते गए।” बहुत सामान्य सा चरित्र है ये औरत तो, मैं एवेंई इसे इतना फुटेज दे रही हूँ? मेरे मन ने पाला बदलना शुरू कर दिया। कौन सी नई और अनोखी कहानी है इसकी, ऐसी गाथाएँ तो लगभग हर दुखी आत्मा के साथ संलग्न मिलती हैं।
“फिर तुम यहाँ कैसे... ?”
“बताते हैं बाई, जरा धीरज धरो, आप बहुत उतावली हो, इत्ता उतावलापन ठीक नहीं।” सुरसती पहली बार हंसी। मैं उसकी बात पर नाराज होने की जगह वाकहीन बनी उसकी हंसी देख रही हूँ...जैसे कोरे घड़े से छलकती मदिरा। और उस पर हंसी से चमकती काली आँखे... जैसे कांच की प्याली में धरा अफीम। कोई कैसे इससे अछूता रह सकता है। मेरा मन मर्दाना सा होने लगा।
“सारे दुख-शोक के बीच सादगी से हमारा ब्याह हुआ और ठाकुर सा ने मुझे राजरानी बना दिया। सातों सुख मेरे आँचल में ला धरे थे उन्होंने। मैं खुश न होकर भी खुश रहती। अम्मा-कक्का भी मेरे सुख में जिज्जी का दुख भूलने की कोशिश कर रहे थे। बियाह के लगभग चार बरस बाद मुझे एक बच्ची हुई, ऐन मेरे जैसी। जैसे विधाता ने मेरा ही रूप दुबारा घड़ दिया हो।
ठाकुर सा खुशी के मारे बावले से हो गये थे। राजराजेश्वरी कह के बुलाते थे वो बिटिया को। जिस दिन मैंने कुवाँ पूजा उस दिन सारे गाँव को न्योता दिया गया, खाने-पीने दोनों का। ठाकुर सा भी जम के छके। नाच-गाने का भी खूब रंग जमा।
जब रात आधी ढल गई, आंगन में शांति हो गई तब ठाकुर सा मेरे पास आए। वो बहुत खुश थे। आते ही बच्ची को गले से लगा के उससे खेलने, बातें करने लगे। नशे की झोंक में कभी हंसते, कभी रोते। कभी उसे लडाते तो कभी मुझे दुलारते।
‘मेरी बेटी, मेरी राजराजेश्वरी, मेरी लाडो।, मेरे जीवन की जोत, मेरी ख़ुशी है तू। सरो, मैंने आज पांच बीघा जमीन खरीदी है इसके नाम, और होशंगाबाद में एक प्लाट भी ले लिया है। मैं इसे खूब पढ़ाऊं-लिखाऊंगा, जीवन के सारे सुख दूंगा और बहुत बड़े ठाकुर घराने में ब्याहूँगा,’ कहते हुए ठाकुर सा ने पंचलड़ी मटरमाला जेब से निकाल के मेरे हाथों में धर दी।
बेटी की ख़ुशी और ठाकुर सा की बातों से मैं भी खुश थी और इसी भावुकता में कोमल होकर मैं ख़ुद ठाकुर सा के गले लग गई, चार सालों में पहली बार।
‘मेरी सुरो, आखिर मैंने तुझे पा ही लिया। कितने पापड़ बेले मैंने तुझे पाने को, हत्यारा बना, पाप भी कमाया। पर आज तुझे और लाडो को पाकर मैं धन्य हो गया। अब इसकी और तेरी ख़ुशी में ही मेरा स्वर्ग है, अब मर के नरक में भी जाऊं तो कोई गम नहीं होगा मुझे।’ ठाकुर नशे और ख़ुशी में बक गया कि उसी ने जिज्जी को मारा था, मेरे इस रूपरंग को पाने की खातिर।”
सुरसती की आवाज़ नर्क से आ रही है। नारकीय यादों की बदबू के भभके से सड़ती और कालकूट सी जहरीली, जिसकी लपट मुझ तक भी आ रही है। मेरा आपा झुलसने लगा।
मैंने देखा सुरसती का सर्वांग कस के कठोर हो गया है। उसका गुलाबी आँचल भी उसके गले पर पहले से भी ज्यादा कसा हुआ लग रहा है। नीम के फूलों की कसैली गंध वातावरण में महक रही है, पास के बंगले से किसी बच्चे का रोना और उसकी माँ का बहलाना समवेत स्वर में इधर बह कर आ रहा है।
“बालक की रुलाई में भी भगवान बसते हैं बाई।” सुरसती उन आवाज़ों पर अभिभूत सी कह उठी। “मेरी बच्ची भी रो पड़ी थी उस छन में, और बस मुझे ईश्वर का इशारा समझ आ गया।”
“मार दिया तुमने उसे?” मैंने सबसे नजदीकी कयास लगाया और सुरसती मेरी और देख के दोबारा हँस दी, एक नादान को देखती सयाने की हँसी।
“नहीं बाई, उसे मार देती तो अपना बदला कैसे चुकती। वो राक्षस अब भी जिन्दा है। आज इक्कीस साल होते आए, पागलों की तरह डोलता रहता है, मुझे और अपनी बेटी को खोजता रहता है। वो बेटी जो उसकी जान थी, उसके बिछोह में मारा-मारा फिरता है।”
“तुम उसे छोड़ आई थी?”
“और क्या करती। धोखे से जमीन पे कब्जा करने वाले को फसल नहीं मिलने चाहिए ये मेरा मानना है, और मैंने उसे नहीं ही लेने दी। उसने मेरी बहन छीनी, मैंने उसकी ख़ुशी चुरा ली। सुबह मुँह अँधेरे ही अपनी बेटी को लेके घर से निकल गई तो मुड़ के नहीं देखा। तब से अब तक कितने धक्के खाए, क्या-क्या सहा, पर लौट के नहीं गई।”
“सवा महीने की बच्ची को लेकर निकल गई, कैसे पाला होगा तुमने अकेले, वो भी नई जगह पर?” मैं अवाक रह गई।
“जैसे सब गरीब अकेलियों के बच्चे पलते हैं, मेरी बच्ची भी पल गई। और मैं भावुक जरूर थी बाई, पर मूरख नहीं। बेटी को लेके घर छोड़ा था तो उसकी चिंता भी थी मुझे। मेरे पास घर से लिया कुछ पैसा-टका था और कुछ गहना-गांठा भी। शुरू के कुछ महीने बैठ के खाया, बाद में ये रसोई का हुनर काम आ गया।” सुरसती के हाथ में अन्नपूर्णा बसती है ये सब जानते हैं।
“और उसने तुम्हे ढूँढा नहीं?”
“क्या लगता है तुमको बाई, नहीं ढूंढा होगा? पर मैं तो कोसों दूर गोहाटी में जा छुपी थी, मिलती कैसे। तीन साल मैं वहीं रही, कैसे रही या कैसे रहती हूँ ये ना पूछना, फिर वहाँ से दार्जिलिंग चली गई, फिर काठगोदाम, फिर देहरादून। और इसी तरह भटकते हुए आज यहाँ, तुम्हारे देस नोहर में बैठी हूँ।”
“अपने माँ-बाप से भी नहीं मिली तुम! और तुम्हारी बिटिया राजराजेश्वरी, वो कहाँ है?”
“मेरे पास कोई राजराजेश्वरी नहीं रहती बाई। नर्मदा, मेरी बेटी, को मैंने दार्जिलिंग के एक क्रिस्तान (मिशनरी) स्कूल में डाल दिया था। आज वो कलकत्ता में कम्पुटर की पढ़ाई कर रही है। ख़ुद भी टूशन पढ़ाती है और अपना खर्चा निकाल लेती है। जरूरत हो तो मुकुल भैया से कह के हम पैसा भिजवा देते हैं। उसे मोबाइल भी दिला रखा है, कभी-कभी बात कर लेती हूँ, कभी मिल भी आती हूँ, पर उसे कभी नहीं बुलाती।
अम्मा-कक्का तो अब रहे नहीं पर बेटी की कोसिस से ही पांचेक बरस से भाई-भाभी की खबर है मुझे। वो राक्षस अब भी बेटी के लिए मारा-मारा फिरता है। रातों को रोता-चिल्लाता है, दारू के नशे में सिर फोड़ता है, वो ही लोग तो बताते हैं सब मुझे। और सच्ची कहती हूँ बाई, मेरे कलेजे में हर बार एक नई ठंडक पहुंचती है। सुरसती के गाल चांदनी में भी दहक रहे हैं और खिली चांदनी सी उजली आँखों की चमक में एक आंच सी कौंध रही है।
“उसे भी मालूम पड़ रहा है कि माँ-बाप से उसका बच्चा छीन लेना क्या होता है। उसने मेरे माँ-बाप के बच्चों को छीना मैंने उस की बच्ची। उसने मेरे प्रेम को दरबदर किया, मैंने इस रूप को जिस पर वो मरता था। मेरी ज़िन्दगी उजाड़ के वो भी राज़ी तो नहीं ही रहा।”
“तुम खतरनाक हो भाभी।” मैंने मजाक किया पर भाभी की नाक का फूल अडोल रहा “तुम तो दूसरी शादी भी करने वाली हो न, इस बार अपनी पसंद की। कौन है वो?”
“मानसिंग, मेरा मंगेतर।” सुरसती ने एक और स्केम ओपन किया।
“लेकिन वो तो उसी समय हट गया था न, या वो तुम्हारे साथ ही... ?” ओह, तो ये माज़रा है। मुझे कुछ-कुछ समझ आने लगा है।
“हाँ, हट गया था, कभी नहीं मिला मुझसे। मेरी शादी के बाद ही घर छोड़ के कहीं निकल गया था, तब से किसी को खबर नहीं कि वो कहाँ हैं।” सुरसती ने एक बार फिर मुझे झूठा सिद्ध कर दिया “पर उस से क्या, कभी तो मिलेगा। आज नहीं तो कल, इस दुनिया में नहीं तो भगवान के घर। मेरी आस में कोई कमी नहीं, वो जाने वो कब मिल जाए ये सोच के ही मैं कभी फीका कपड़ा नहीं पहनती कि मिलते ही उस से ब्याह कर लूँगी। जिसकी जमीन है उसे तो सौंपनी ही है, ना बाई?"
धरती, सच में ये स्त्री धरती सी सर्वरूपा, दृढ़ और आत्मसंपन्न है जो देना न चाहे तो कोई माई का लाल इनसे कुछ नहीं ले सकता चाहे मर ही क्यों न जाये।
"चलती हूँ बाई, जिन्दगी रही तो दोबारा मिलूंगी।" सुरसती हाथ जोड़ कर उठ गई “पर कल को मैं अकाल मौत मर जाऊं तो मेरी कहानी जरूर लिखना। और हाँ, दुख नहीं मनाना। बेटी अब बड़ी हो गई है, उसे मैंने खूब पढ़ा-लिखा के मजबूत बना ही दिया है तो क्या दुख-चिंता करनी हुई बाई। चलती हूँ मुकुल भैया।” सुरसती ने बरामदे में खड़े मुकुल भैया को हाथ जोड़े, मेरी और स्नेहसिक्त मुस्कान डाली और फाटक के बाहर निकल गई।
चांदनी के धुंधले उजाले में जाती सुरसतिया किसी शापित, निर्वासित देवदूत की आत्मा सी दीख रही है और पिता जी के कमरे के रेडियो से बजते गीत की पंक्तियाँ मानों उसे सलामी दे रही है...
’इला न देणी आपणी,हालरिया हुलराय,पूत सिखावे पालणै,मरण बड़ाई मांय...’*
*राजस्थानी कवि सूर्यमल्ल मिश्रण की प्रसिद्ध काव्य-पंक्तियाँ जिसमें वीर प्रसूता माँ अपने पुत्र को पालने में झुलाती हुई सीख देती है कि अपनी जमीन किसी को नहीं लेने देनी चाहिए। इस के लिए लड़ते हुए अगर मृत्यु भी मिले तो वह प्रशंसनीय होगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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